________________ 168 : डॉ. सुरेश सिसोदिया उडुवाटिकगण की चार शाखाओं के अतिरिक्त तीन कुल हुए-(१) भद्रयशस्क, (2) भद्रगुप्तिक और (3) यशोभद्रिक / आर्य सहस्ति के अन्य शिष्य स्थविर कामद्धिं से वेशवाटिकगण निकला, उसकी भी चार शाखाएँ हुईं-(१) श्रावस्तिका, (2) राज्यपालिका, (3) अन्तरिजिका और (4) क्षेमलिज्जिका / वेशवाटिकगण के कुल भी चार हुए-(१) गणिक, (2) मेधिक, (3) कामर्द्धिक और (4) इन्द्रपुरक / आर्य सुहस्ति के ही एक अन्य शिष्य स्थविर तिष्यगुप्त से मानवगण निकला, उसकी चार शाखाएँ हुईं-(१) काश्यपीयका, (2) गौतमीयका, (3) वशिष्टिका और (4) सौराष्ट्रिका / मानवगण के तीन कुल भी हुए -(1) ऋषिगप्तिय, (2) ऋषिदत्तिक और (3) अभिजयंत / आर्य सुहस्ति के ही दो अन्य शिष्यों सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध से कोटिकगण निकला, उसकी भी चार शाखाएँ हुई-(१) उच्चै गरी, (2) विद्याधरी, (3) वज़ी और (4) माध्यमिका। इस कोटिकगण के चार कुल धे-(१) ब्रह्मलीय, (2) वस्त्रलीय, (3) वाणिज्य तथा (4) प्रश्नवाहन / स्थविर सुस्थित एवं सुप्रतिबुद्ध के पाँच शिष्य हुए, उनमें से स्थविर प्रियग्रन्थ से कोटिकगण की मध्यमाशाखा निकली / स्थविर विद्याधर गोपाल से विद्याधरी शाखा निकली। स्थविर आर्य शान्ति श्रेणिक से उच्चै गरी शाखा निकली / स्थविर आर्य शान्तिश्रेणिक के चार शिष्य हुए-(१) स्थविर आर्य श्रेणिक, (2) स्थविर आर्यतापस, (3) स्थविर आर्य कबेर और (4) स्थविर आर्य ऋषिपालित / इन चारों शिष्यों से क्रमशः चार शाखाएँ निकलीं-(१) आर्य श्रेणिका, (2) आर्य तापसी, (3) आर्य कुबेरी और (4) आर्य ऋषिपालिता। स्थविर आर्य सिंहगिरि के चार शिष्य हुए-(१) स्थविर आर्य धनगिरि, (2) स्थविर आर्य वज्र, (3) स्थविर आर्य सुमित और (4) स्थविर आर्य अर्हद्दत / स्थविर आर्य सुमितसूरि से ब्रह्मदीपिका तथा स्थविर आर्य वज्रस्वामी से वज़ीशाखा निकली / आर्य वज्र स्वामी के तीन शिष्य हुए-(१) स्थविर आर्य वज्रसेन, (2) स्थविर आर्य पद्म और (3) स्थविर आर्य रथ / इन तीनों से क्रमशः तीन शाखाएँ निकलीं-(१) आर्य नागिला, (2) आर्य पद्मा और (3) आर्य जयन्ती। इसप्रकार कल्पसूत्र स्थविरावली में मुनिसंघों के विविध गणों, कलों और शाखाओं के उल्लेख तो उपलब्ध होते हैं, किन्तु उसमें कहीं भी 'गच्छ' शब्द का उल्लेख नहीं हुआ है / अर्द्धमागधी आगम साहित्य के अंग-उपांग ग्रन्थों में हमें कहीं भी 'गच्छ' शब्द का प्रयोग मुनियों के समूह के अर्थ में नहीं मिला है, अपितु उनमें सर्वत्र 'गच्छ' शब्द का प्रयोग 'गमन' अर्थ में ही हुआ है। ईसा की पहली शताब्दी से लेकर पाँचवीं-छठीं शताब्दी तक के मथुरा आदि स्थानों के जो अभिलेख उपलब्ध होते हैं उनमें भी कहीं भी 'गच्छ' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। वहाँ सर्वत्र गण, कुल, शाखा और अन्वय के ही उल्लेख पाये जाते हैं / दिगम्बर एवं यापनीय