Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेन्द्र कथित विश्व व्यवस्था "जीव अनन्त, पद्गल अनन्तानन्त, धर्म-अधर्म-आकाश एक-एक और काल लोक प्रमाण असंख्यात है। प्रत्येक द्रव्य में अनन्त-अनन्त गुण हैं । प्रत्येक गुण में एक ही समय में एक पर्याय का उत्पाद, एक पर्याय का व्यय और गुण यौव्य रहता है। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य के गुण में हो चुका है, हो रहा है और होता रहेगा।" .. जैनदर्शन का सार] स्व - (१) अमूर्तिक प्रदेशो का पुज (२) प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणो का धारी (३) अनादिनिधन (४) वस्तु आप है। पर-(१) मूर्तिक पुदगल द्रव्यो का पिण्ड (२) प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणो से रहित (३) नवीन जिसका सयोग हुआ है (४) ऐसे शरीरादि पुद्गल पर हैं। [मोक्षमार्गप्रकाशक] Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर सम्पूर्ण दुःखों का अभोक होकर सम्पूर्ण सुख की प्राप्ति का उपाय अनादिनिधन वस्तुएं भिन्न-भिन्न अपनी-अपनी मर्यादा सहित परिणमित होती हैं। कोई किसी के आधीन नहीं हैं । कोई किसी के परिणमित कराने से परिणमित नहीं होती । पर को परिणमित कराने का भाव मिथ्यादर्शन है । [मोक्षमार्गप्रकाशक] अपने-अपने सत्व कूं, सर्व ऐसे चितवै जोव तब, परते वस्तु विलसाय । ममत न थाय ॥ सत् द्रव्य लक्षणम् । उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्त सत् । [मोक्षशास्त्र] "Permanancy with a Change" [ बदलने के साथ स्थायित्व ] NO SUBSTANCE IS EVER DESTROYED IT CHANGES ITS FORM ONLY [ कोई वस्तु नष्ट नहीं होती, प्रत्येक वस्तु अपनी अवस्था बदलती है । ] भारतीय श्रुति-दर्शन केन्द्र जयपुर Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यातम ही महापाप है राजमल पवैया मिथ्यातम ही महा पाप है, सब पापो का बाप है। सब पापो से बड़ा पाप है, घोर जगत सताप है ।।टेक।। हिंसादिक पाचो पापो से, महा भयकर दुखदाता। सप्त व्यसन के पापो से भी, तीव्र पाप जग विख्याता ।। है अनादि से अग्रहीत ही, शाश्वत शिव सुख का घाता। वस्तु स्वरूप इसी के कारण, नही समझ मे आ पाता। जिन वाणी सुनकर भी पागल, करता पर का जाप है। मिथ्यातम ही महापाप है ॥१॥ सज्ञी पचेन्द्रिय होता है, तो ग्रहीत अपनाता है। दो हजार सागर त्रस रहकर, फिर निगोद मे जाता है ।। पर मे आपा मान स्वय को, भूल महा दुख पाता है। किन्तु न इस मिथ्यात्व मोह के, चक्कर से बचपाता है ।। ऐसे महापाप से बचना, यह जिनकुल का माप है । मिथ्यातम ही महापाप है ॥२॥ इससे बढ़कर महा शत्रु तो, नही जीव का कोई भी। इससे बढकर महा दुष्ट भी, नही जगत मे कोई भी ।। इसके नाश किए बिन होता, कभी नही व्रत कोई भी। एकदेश या पूर्ण देशव्रत, कभी न होता कोई भी॥ क्रिया काड उपदेश आदि सब, झूठा वृथा प्रलाप है। मिथ्यातम ही महापाप है ।।३।। यदि सच्चा सुख पाना है तो, तुम इसको सहार करो। तत्क्षण सम्यकदर्शन पाकर, यह भव सागर पार करो ।। वस्तु स्वरूप समझने को अब, तत्वो का अभ्यास करो। देह पृथक है, जीव पृथक है, यह निश्चय विश्वास करो। स्वय अनादिअनत नाथ तू, स्वय सिद्ध प्रभु आप है। मिथ्यातम ही महापाप है ।।४।। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय निवेदन भेद विज्ञान जग्यो जिनके घट, शीतल चित्त भयो जिमि चन्दन । केलि करें शिव मारग मे, जगमाहि जिनेश्वर के लघुनन्दन । सत्यस्वरूप सदा जिनके प्रगट्यो, अवदात मिथ्यात्व निकदन । सान्तदशा तिनको पहिचान, कर कर जोरि बनारसि बंदन ।। जगत के जीवो को गात्म स्वरूप का भान कराने वाले सच्चे देव-गुरू-शास्त्र, तथा जिनेश्वर के लघुनदन श्री गुरुदेव आदि महान आत्माओ के चरणो मे हमारा भक्तिभाव सहित अगणित नमस्कार । हमे तथा इसका मनन करने वालो को सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र की परिपूर्णता हो, ऐसी हमारी भावना है। यह आध्यात्मिक रचनाओ का अनमोल संग्रह है। इस छोटी सी गागर रे भावो का सागर भरा पड़ा है। प्राचीन जैन कवियो की सुन्दर रचनाओ का यह सकलन साहित्य की एक अमूल्य निधि है जिसके अध्ययन से हृदय मे बरबस विराग का निर्झर झरने लगता है। इसमे दर्शनपाठ, पूजा, सामायिक पाठ, तत्त्वचर्चा, भजन, योगसार, समाधि तन्त्र, इष्टोपदेश, मुमुक्षओ के नाम पत्र, आत्मज्ञान की गाथा आदि सर्व उपयोगी विषयों का संग्रह किया है। ताकि पात्र भव्य जीव थोड़े मे अपना आत्म कल्याण करके मोक्ष का पथिक बने। विषय और कषायो मे रचा पचा प्राणी यदि किसी आध्यात्मिक रचना आदि का पाठ करने लगे तो उसका हृदय परिवर्तन हुए बिना नहीं रहता। किन्तु पाठ कोरी वाचक क्रिया नही है । पाठ गत पवित्र भावो का मानस-पटल पर प्रतिफलन होना चाहिए। वह तो अन्तरनिरीक्षण पूर्वक हृदय को पावन करने का सुन्दर साधन है। ग्रामोफोन का रेकार्ड सबको अपना सन्देश सुनाता है किन्तु स्वयं कुछ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नही समझता । इस प्रकार की भाव- शून्य क्रिया का मानस पटल पर कोई प्रतिफल नही होता। पाठ आदि करने का उद्देश्य भार उतारना नही । दीमक की भाँति शनै शनै हमारी आत्मा का हनन करने वाली दूषित वृत्तियो को हृदय से बाहर निकाल फैकना ही उसका एक मात्र उद्देश्य है । शब्द एव अर्थ के बोध पूर्वक किया गया ऐसा नित्यपाठ पतित को पावन बनाने वाला एक महान आध्यात्मिक योग है । हे जीवो, यदि आत्म कल्याण करना चाहते हो तो सम्यग्दर्शन प्रगट करने के लिए सत्समागम से समस्त प्रकार से परिपूर्ण आत्म स्वभाव की रुचि और विश्वास करो, उसी का लक्ष और आश्रय करो । कहा है कि आपा नहि जाना तूने, कैसा ज्ञान धारी रे | देहाश्रित कर किया आपको मानत शिव मग चारी रे ॥ सबसे प्रथम राग रहित ज्ञायक स्वभावी अपनी आत्मा का निर्णय करना चाहिए, यह ही जिन प्रवचन का सार है और जिन वाणी की भक्ति है क्योकि आत्मा का अनुभव हुए बिना पूजादि नही हो सकती है । इसलिए पात्र जीवो को तत्त्व निर्णय करके भगवान का सच्चा भक्त बनना चाहिए | छहढाला मे कहो गया है कि चरित्रा | पवित्रा || मोक्ष महल की परथम सोढी, या बिन ज्ञान सम्यक्ता न लहै सो दर्शन धारो भव्य "दौल" समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवे। यह नरभव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहि होवै ॥ इसलिए पात्र जीवो को प्रथम सम्यग्दर्शन प्रगट करने का पुरुषार्थ करना चाहिए । विनीत श्री दिगम्बर जैन मुमुक्षु देहरादून मंडल Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम पृष्ठ जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला सातवें भाग की विषय सूची विषय १ देव स्तुती ६ से १० २ देव-शास्त्र-गुरु स्तुति १० से १२ ३ देव दर्शन पाठ १२ से १३ ४ आराधना पाठ १३ से १४ ५ विनयपाठ १४ से १६ ६ आत्मज्ञान की कथा १६ से १६ ७ आत्म-स्तवन २० से २२ ८ नित्य पूजा सग्रह २३ से २५ ६ श्री देवशास्त्र गुरु पूजा २५ से २६ १० श्री देवशास्त्र गुरु, विदेहक्षेत्र विद्यमान तीर्थकर तथा ___अनन्तान्त सिद्ध परमेष्ठी पूजा २६ से ३२ ११ श्री पच परमेष्ठी पूजन ३३ से ३६ १२ श्री शान्तिनाथ जिन पूजा ३६ से ३६ १३ सम्पूर्ण अर्घ १४ शान्तिपाठ १५ विसर्जन पाठ १६ आत्म सम्बोधन १७ जिन वाणी माता की स्तुति १८ भव्य जीवो के लिए सच्चा सुख प्राप्त करने योग्य तत्व चर्चा ४३ से। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ से ५४ ५४ से ५५ ५५ मे ५७ ५७ से ५८ ५८ से ६७ ६७ से ७५ ७५ से ७६ ७६ से १२ कम विषय १९. सर्वज्ञ देव कथित छहों द्रव्यो को स्वतन्त्रता दर्शक छह सामान्य गुण २० बारह भावना २१. सामायिक पाठ अमितगति आचार्य २२. अमूल्य तत्व विचार २३. योगसार २४. समधितन्त्र २५. इष्टोपदेश २६ ससार दर्पण २७. चारोपन व्यर्थ खाने वाला सेवक २८. अज्ञानी अपनी मूर्खता से परिभ्रमण करता है २६. भूल भुलया का ससार ३०. गुद्ध आत्मदेव पूजन ३१ मुमुक्षुओ के नाम खुला पत्र ३२. दशलक्षण धर्म ३३ ए. भगवान् महावीर ३३ बी. आत्मस्वरूप को यथार्थ समझ सुलभ है ३४. पाप का वाप ३५ साधु ने दुनिया को झूठा दिखला दिया ३६. भजन संग्रह ३७ कविवर बुधजन कृत छहढाला ८६ से १८ ६८ ८६ से ६२ ६२ से १७ १७ से १०३ १०३ से १०६ १०६ से ११२ ११२ से ११४ ११४ से ११७ ११८ से १४४ १४४ से १७३ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री वीतरागाय नम ।। लघु दर्शन-पूजा आदि का अपूर्व संग्रह सातवाँ भाग दर्शन पाठ संग्रह ॐ जय जय जय, नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु ।। णमो अरिहताण, णमो सिद्धाण, णमो आयरियाण ।। णमो उवज्झायाण, णमो लोए सव्व साहूण ।। (१) देव स्तुति सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानन्द रसलीन । सो जिनेन्द्र जयवत नित, अरि रज रहस विहीन । जय वीतराग विज्ञान पूर, जय मोह तिमिर को हरन सूर । जय ज्ञान अनन्तानत धार, दृग-सुख-वीरज मडित अपार ।। जय परमशात मुद्रा समेत, भविजनको निज अनुभूति हेत। भवि भागन वश जोगेवशाय, तुमधुनिह सुनि विभ्रम नशाय ॥ तुम गुण चितत निज-पर विवेक, प्रगटै विघटै आपद अनेक ।। , तुम जग भूषण दूपण वियुक्त, सव महिमा युक्त विकल्पमुक्त ।। - अविरुद्ध शुद्ध चेतनस्वरूप, परमात्म परम पावन अनूप ।। शुभअशुभ विभाव अभावकोन, स्वाभाविकपरिणतिमय अछीन ।।. अष्टादश दोष विमुक्त धीर, स्वतुष्टयमय राजत गभीर ।' मुनिगणधरादि सेवत महत, नय केवल लव्धिरमा घरत ॥ तुम शासन सेय अमेय जीव, शिवगये जाहिं जै हैं सदीव ।, भव सागर मे दुख छार वारि, तारन को और न आप टारि । यह लखिनिज दुखगद हरणकाज, तुमही निमित्तकारण इलाज । जाने तातै मैं शरण आय, उचरो निज दुख जो चिर लहाय 10» Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) में भ्रम्यो अपनपो विसरि थाप, अपनाये विधिफल पुण्य-पाप । निज को पार को करता पिछान, पर मे अनिष्टता-इष्ट ठान ।। आशुलित भयो अज्ञान धारि, ज्यों मृग मृगतृष्णा जानि वारि। तन परिणति मे आपो चितार, कवहू न अनुभवो स्वपदसार ।। तुमको बिनजाने जो कलेश, पाये सो तुम जानत जिनेन। पशु नारक नर सुरगति मेंभार, भव घर-घर मर्यो अनतवार ।। -अब काललब्धि बलते दयाल, तुम दर्शन पाय भयो खुशाल । 'मन भात भयो मिटि सरल द्वन्द, चाख्योस्वातमरसदुखनिकद ॥ ताते अब ऐसी करहु नाथ, विछर न कभी तुम चरण साथ । तुम गुण गण को नाहि छेव देव, जगतारन को तुम विरद एव ।। आत्म के अहित विपय कपाय, इनमे मेरी परिणति न जाय । मैं रहूं आप मे आपलीन, सो करो हो, ज्यो निजाधीन । मेरे न चाह क्छु और ईश. रत्नत्रयनिधि दीजे मुनीश । मुझ कारज के कारन सु माप, शिव करहुहरहुमम मोह ताप ।। शशि शातिकरन तप हरन हेत, स्वयमेव तथा तुम कुशल देत । 'पीवत पीयूष ज्यों रोग जाय, त्यो तुम अनुभव ते भव नशाय ।। "त्रिभुवन तिहुंकाल मेंझार कोय, नहिं तुम विन निज सुखदाय होय । -मोटर यह निश्चय भयो आज, दुख जलधि उतारन तुम जहाज ।। तुम गुणगणमणि गणपति, गणत न पावहिं पार । 'दौल' स्वल्पमति किम कहैं, नम त्रियोग सभार ।। '(२) देव-शास्त्र-गुरु स्तुति समयसार जिन देव हैं जिन प्रवचन जिनवाणि । नियमसार निम्रन्थ गुरु करे कर्म को हानि ॥ है वीतराग सर्वज्ञ प्रभो, तुमको ना अब तक पहिचाना । अतएव पड़ रहे हैं प्रभुवर,. चौरासी के चक्कर खाना ।। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) करुणानिधि तुमको समझ नाथ, भगवान भरोसे पड़ा रहा। भरपूर सुखी कर दोगे तुम, यह सोचे सन्मुख खडा रहा । तुम वीतराग हो लीन स्वय मे, कभी न मैंने यह जाना। तुम हो निरीह जग से कृत-कृत, इतना ना मैंने पहिचाना ॥ प्रभु वीतराग की वाणी मे, जैसा जो तत्त्व दिखाया है। यह जगत स्वय परिणमनशील, केवलज्ञानी से गाया है। उस पर तो श्रद्धा ला न सका, परिवर्तन का अभिमान किया। बनकर पर का कर्ता अब तक, सतका न प्रभो सम्मान किया । भगवान तम्हारी वाणी मे, जैसा जो तत्त्व दिखाया है। स्याद्वाद् नय अनेकान्तमय, समयसार समझाया है। उस पर तो ध्यान दिया न प्रभो, विकथा मे समय गमाया है। शुद्धात्मरुचि न हुई मन मे, ना मन को उधर लगाया है ॥ मैं समझ न पाया था अब तक, जिनवाणी किसको कहते हैं । प्रभु वीतराग की वाणो मे, कैसे क्या तत्त्व निकलते हैं ।। राग धर्ममय धर्म रागमय, अव तक ऐसा जाना था। शुभ कर्म कमाते सुख होगा, बस अब तक ऐसा माना था। पर आज समझ मे आया है, कि वीतरागता धर्म अहा। राग-भाव मे धर्म मानना, जिनमत मे मिथ्यात्व कहा। वीतरागता की पोषक ही, जिनवाणी कहलाती है। यह है मुक्ति का मार्ग निरन्तर, हमको जो दिखलाती है ।। उस वाणी के अन्तर्तम को, जिन गुरुओ ने पहिचाना है। उन गुरुवर्यों के चरणो मे, मस्तक वस हमे झुकाना है। दिन रात आत्मा का चिंतन, मदु सम्भाषण मे वही कथन । निर्वस्त्र दिगम्बर काया से भी, प्रगट हो रहा अन्तर्मन ।। निर्ग्रन्थ दिगम्बर गदनानी, स्वातम मे सदा विचरते जो। ज्ञानी घ्यानी समरससानी, द्वादश विधि तप नित करते जो॥ चलते फिरते सिद्धो से गुरु, चरणो मे शीश झुकाते हैं। हम चलें आपके कदमो पर, नित यही भावना भाते हैं। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) हो नमस्कार शुद्धतम को, हो नमस्कार जिनवर वाणी । हो नमस्कार उन गुरुओ को, जिनकी चर्या समरससानी || दर्शन दाता देव है, आगम सम्यग्ज्ञान । गुरू चारित्र की खानि हैं, मैं वन्दो धरि ध्यान । (३) देव दर्शन पाठ पाया । अति पुण्य उदय मम आया, प्रभु तुमरा दर्शन अब तक तुमको बिन जाने, दुख पाये निज गुण हाने || पाये अनन्ते दुख अब तक, जगत को निज जानकर । सर्वज्ञ भापित जगत हितकर, धर्म नहि पहिचान कर ॥ भव बन्ध कारक सुख प्रहारक विषय मे सुख मानकर । निजपर पर विवेचक ज्ञानमय, सुख निधि-सुधा नही पानकर ॥ १ ॥ तव पद मम उर मे आये, लखि कुमति विमोह पलाये । निज ज्ञान कला उर जागी, रुचि पूर्ण स्वहित मे लागी ॥ रुचि लगी हित मे आत्म के, सतसंग मे अब मन लगा । मन मे हुई अब भावना, तव भक्ति मे जाउँ रंगा ॥ प्रिय वचन की हो टेव, गुणिगण गान मे ही चित्त पगे | शुभ शास्त्र का नित हो मनन, मन दोष वादनते भगे ॥२॥ कब समता उर मे लाकर, द्वादश अनुप्रेक्षा भाकर । ममतामय भूत भगाकर, मुनिव्रत धारूँ बन घर कर दिगम्बर रूप कब, अठ बीस गुण पालन दो बीस परिषह सह सदा, शुभ धर्म दश धारन तप तपूँ द्वादश विधि सुखद नित, बघ आश्रव अरू रोकि नूतन कर्म सचित कर्म रिपु को निर्ज कब धन्य सुअवसर पाऊ, जब निज मे ही रम भेद मिटाळ रागादिक दूर 1 कर्तादिक जाकर ॥ करूँ । करू ॥ परिहरू । || ३ || जाऊ । भगाऊ || Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L ( १३ ) निरंतर, कर दूर रागादिक आत्म को निर्मल करू । बल ज्ञान दर्शन सुख अतुल, लहि चरित क्षायिक आचारू || आनन्दकन्द जिनेन्द्र वन, उपदेश को नित उच्चरू । आवै 'अमर' कब सुखद दिन, जब दुखद भवसागर तरू ॥४॥ (४) आराधना पाठ भय मैं देव नित अरहत चाहू, सिद्ध का सुमिरन मैं सुर गुरु मुनि तीन पद ये, साधुपद हिरदय धर्म करुणामयी जु चाहूँ, जहाँ हिंसा मैं शास्त्र ज्ञान विराग चाहूँ जासू मैं चौवीस श्री जिनदेव चाहूँ, और देव न मन जिन बीस क्षेत्र विदेह चाहूँ, वदिते पातक गिरनार शिखर सम्मेद चाहूँ, चम्पापुरी कैलास श्री जिन घाम चाहूँ, भजत बाजे भ्रम नव तत्त्व का सरवान चाहूँ, और तत्त्व न मन पट द्रव्य गुण पराजय चाहूँ, ठीक तासो पूजो परम जिनराज चाहूँ, और देव न तिहुकाल की मैं जाप चाहूँ, पाप नही लागे सम्यक्त्व दर्शन ज्ञान चारित्र, सदा चाहूँ भाव दशलक्षणी मैं धर्म चाहूँ महा हर्ष उछाव सो ॥ सोलह जु कारन दुख निवारण, सदा चाहूँ प्रीति सो । मैं नित अठाई पर्व चाहूँ, महा मगल रीति सो ॥४॥ मैं वेद चारो सदा चाहू, आदि अन्त निवाह सो पाये धरम के चार चाहू, अधिक चित्त उछाह सो ॥ मैं दान चारो सदा चाहू, भुवनवशि लाहो लहूँ । आराधना मैं चारि चाहू, अन्त मे येही चाहूँ गहूँ ||५|| करों । धरीं ॥ रचना । परपच ना ॥ १ ॥ बसे । नसै || पावापुरी । जुरी ॥२॥ घरो । हरो ॥ कदा | कदा ||३|| सो । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) सो भावना - बारह जु भाऊँ भाव निरमल मैं व्रत जु बारह सदा चाहू, त्यागभाव प्रतिमा दिगम्बर सदा चाहूँ, ध्यान आसन वसुकर्म ते मैं छुटा चाहू, शिव लहू जहाँ मैं साधुजन को सग चाहूँ, प्रीति तिनही मैं पर्व के उपवास चाहूँ, आरम्भ मै सव इस दुःख पचम काल माही, कुल श्रावक मैं अरु महाव्रत धरि सको नाही, निबल तन मैंने गह्यो ॥७॥ आराधना उत्तम सदा, चाहूँ सुनो जिनराय तुम कृपानाथ अनाथ 'द्यानत' दया करना न्याय वसु कर्म नाश विकास ज्ञान, प्रकाश मुझको दीजिये । करि सुगति गमन समाधि मरन सुभक्ति चरनन दीजिए ||८|| जी । जी ॥ हरता अघ घिरता पद दातार हो, के, धर्मामृत उर तुमरे चरण सरोज म मैं वन्दो जिनदेव कर्म वध के होत हैं । उद्योत है ।। सोहना । (५) विनय पाठ पढ़े जो पाठ । इहि विधि ठाडो होय के, प्रथम धन्य जिनेश्वर देव तुम, नाशे कर्म जु आठ ॥१॥ अनत चतुष्टय के धनी, तुम ही हो हो सिरताज । तुम, तीन भुवन के राज ||२|| पीडा हरन, भवदधि-शोषणहार । मुक्ति वधूके कत तिहुँ जग की ज्ञायक हो तुम विश्व के अधियार 1 शिव सुख के करतार ॥३॥ करता धर्म-प्रकाश । धरता निजगुण रास || ४ || रूप | भूप ||५|| मोहना ॥ ६ ॥ करो । परिहरा | लह्यो । जलधिसो, ज्ञानभानु तुम नावत तिहुँ जग करि अति निरमल को, को, छेदने, और न कछु भाव । उपाव ॥ ६ ॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) भविजनको भव-कूपते, तुम ही काढनहार। दीनदयाल अनाथपति, आतम गुणभडार ||७r चिदानन्द निर्मल कियो, धोय कर्मरज मैल । सरल करी या जगत मे, भविजन को शिवगैल ॥८॥ तुम पदपकज पूजते, विघ्न रोग टर जाय। शत्र मित्रता को धरै, विष निरविषता थाय ॥lth चक्री खगवर इद्रपद, मिले आपतै आप। अनुक्रम करि शिवपद लहै, नेम सकल हनि पाप ॥१०॥ तुम बिन मैं व्याकुल भयो, जैसे जल बिन मीन । जन्म जरा मेरी हरो, करो मोहि स्वाधीन ।।११. पतित बहुत पावन किये, गिनती कौन करेय । अजन से तारे कुधी जय जय जय जिनदेव ॥१२॥ थकी नाव भवदधि विष तुम प्रभु पार करेय । खेवटिया तुम हो प्रभु, जय जय जय जिनदेव ॥१३॥ राग सहित जग मे रुल्यो, मिले सरागी देव । वीतराग भेट्यो अबै, मेटो राग कटेव ॥१४॥ कित निगौद कित नारकी, कित तियंच अज्ञान । आज धन्य मानुष भयो, पायो जिनवर थान ॥१५॥ तुमको पूजै सुरपती, अहिपति नरपति देव । धन्य भाग मेरो भयो, करन लग्यो तुम सेव ॥१६॥ अशरण के तुम शरण हो, निराधार आधार । मैं डूवत भवसिन्धु मे खेओ लगाओ पार ॥१७॥ इन्द्रादिक गणपति थके, कर विनती भगवान । अपनो विरद निहारि के, कोजे आप समान ॥१८॥ तुमरी नेक सुदृष्टित, जग उतरत है पार। हा हा डूव्यो जात हौ, नेक निहार निकार ॥१६॥ जो मैं कह हू और सो, तो न मिटै उरझार। मेरी तो तासो बनी, तातै करी पुकार ॥२०॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बदौं पाचौं परम गुरु, सुर गुरु बदत जास । विघन हरन मगलकरन, पूरन परम प्रकाश ॥२१॥ चौबीसो जिनपद नमो, नमो शारदा माय । शिव मग साधक साधु नाम, रच्यो पाठ सुखदाय ॥२२॥ (६) आत्म ज्ञान की गाथा आवो भाई तुम्हे सुनाएँ, गाथा आतम ज्ञान की, जिससे तडक-तडक गिर पडती कर्मों की सतान भी। वन्दे जिनवरम् वन्दे जिनवरम् ॥टेक ।। लगा गधो के साथ अरे ज्यो सिंह कोई लासानी हो, या निज को अंग्रेज समझता कोई हिन्दुस्तानी हो, रे अनन्त वैभव का स्वामी निपट भिखारी बन फिरता। खाक छानता चौरासी की फिर भी पेट नहीं भरता हुई अरे नादानी मे यह दीन दशा भगवान की ।।१।। षट द्रव्यो का चक्र सुदर्शन जग मे चलता रहता है, वह बेरोक निरन्तर अपने सुन्दर पथ पर बढता है। किसकी हस्ती उसकी गति को रोके जो निज बल से, कोन अभागा सिंह वदन मे बढकर अपनी अंगुलि दे। यह अखण्ड सिद्धान्त बात यह सहज प्रकृति विज्ञान की ॥२॥ अणु-अणु की सत्ता स्वतन्त्र है द्रव्य मात्र स्वाधीन सभी, सब की सीमा स्यारी नहि आदान-प्रदान विधान कभी। सब को अपनी सीमा प्यारी अपना घर ही प्यारा है, अरे विश्व का शान्ति विधायक यह सिद्धान्त निराला है। यही वस्तु की मर्यादा है यही वस्तु की शान भी ॥३॥ जड़ चेतन छह द्रव्य विश्व मे न्यारे-न्यारे रहते है, युद्गल, धर्म, अधर्म, काल, आकाश इन्हे जड कहते है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) चेतन ज्ञान विशिष्ट वस्तु है जड मे ज्ञान नहीं रहता, आदि रहित है अन्त रहित है जड चेतन की यह सत्ता। यही विश्व मे रहे रहेगे रहना इनका काम भी ।।४॥ जो है उसको कौन मिटावे और नही को लावे कौन, भिन्न-भिन्न हो जिसकी सत्ता उसको कहो मिलावे कोन । प्रति पलका निश्चित परिवर्तन कौन करे आगे-पीछे, सत् का अरे विनाश असत का उत्पादन हो तो कैसे । स्वय सिद्ध जो उसको वया आवश्यकता भगवान की ॥५॥ होता नही विनाश कभी पर्याय बदलती रहती है, अरे । तरगित सरिता जैसे अविकल बहती रहती है। उठती हैं कल्लोल उसी मे विलय उसी मे हो जाती, पर सरिता तो अपने पथ पर शाश्वत ही वहती जाती। पल पल अलट पलट करता अणु-अणु सत्ता का त्राण भी ।।६।। यह पर्याय स्वभाव कि वह तो सदा पलटती रहती है, आता नव उत्पाद पुरानी व्यय को पाती रहती है। द्रव्य सदा ध्रुव होकर रहता उसकी अक्षय सत्ता है, ब्रह्मा विष्णु महेश यही उत्पाद ध्रौव्य व्यय मत्ता है। यही वस्तु का अक्षय जीवन यही सहज वरदान भी ॥७॥ है स्वभाव यह सहज वस्तु का सदा अकेला एक है, यह ही उसकी सुन्दरता है वह पर से निरपेक्ष है। सदा अरे अपने गुण पर्यायो मे खुल कर खेलता, किन्तु एक की कृतियो का फल नही दूसरा झेलता। झूठ कहानी अरे परस्पर सुख-दुख-वाधा दान की॥८॥ अणु को भी अवकाश नही है अपने-अपने काम से, सभी सदा सम्राट अकेले अपने-अपने घाम के। अपना काम सदा करने की अणु मे भी बल शक्ति है, नही प्रतिक्षा पर की करता उसके कल की रीति है, स्वय शक्ति मय कौन अपेक्षा पर से बल आदान की ॥६॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) एक सहायक होता पर का यह लौकिक व्यवहार है, बाधा देता एक दूसरे को यह लोकाचार है । वचता जीवन तो पर होता रक्षा आरोप है, का थोप है । त्राण की ॥ १० ॥ काम ले, दे । पर मरता स्वय लोक कर्त्ता पर पर हत्या है स्वतन्त्र जीवन, मिथ्या है गाथा बाघा पूर्ण शक्ति मय अणु-अणु बोलो कोई किससे पूर्ण कुभ को कौन वुद्धिमन् बरबस ही जलदान सलिल भर घट को जल देना श्रम का ही अपमान है, सदा पूर्ण जो उसको रीता कहना घोर अज्ञान है । यही मान्यता मूल रही है ससृति-चक्र-विधान की ॥ ११ ॥ जड का कार्य सदा जडता मे जडता उसका धर्म है, जडता ही उसका स्वभाव और जडता उसका कर्म है । जडता द्रव्य शक्ति भी जड़ता जडता ही पर्याय है, द्रव्य क्षेत्र और काल भाव सब जडता ही व्यवसाय है । अत न जड मे पर्याये होती है ज्ञान की ॥ १२ ॥ ज्ञान शून्य जड नही कभी भी निज पर को पहिचानता, जग मे चेतन तत्त्व एक वस पर को अपना मानता । चेतन का श्रद्धा विकार वस यह भवतरु का प्राण है, सुख सागर की घोर कष्टमयता का यही निदान है नही पराया दुख का कारण नहीं सुख व्यवधान भी ॥ १३ ॥ अपने सुख के हेतु चेतना पर के मुँह को ताकती, अपने दुख के कारण को वह पर मे सदा तपासती । अरे अज्ञ शुक निज को नलिनी स्नेह पाश में बाधता, और अकारण नलनी को वधन का कारण मानता । नही छोड़ता हुआ न तब तक स्वर्णिम मुक्ति विहान भी ॥ १४ ॥ अरे धनादि मयोग पुण्य के उदय जन्य जन्य सामान है, उनके सम्पादन मे चेतन का न तनिक अहसान है | श्रद्धा · Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) एक अथक श्रम करता लेकिन भूखा सोता रात है, और मोतियो के करण्ड मे होता कही प्रभात है। विधि का यही विधान न इसमे श्रम का नाम निशान भी ॥१५॥ यही दृष्टि विपर्यास है यह ही पहलो भूल हैं, भवतरु की सभूति वृद्धि फल मयता का यह मूल है। जब तक पौरुष सोता रहता तबतक यह नादान है। अरे । तभो तक ही तो कहते कर्म महा बलवान है । ज्ञान और चारित्र सभी इसके अभाव मे दीन हैं। विधवा के शृगार तल्य वे सन्दरता श्री हीन है। अरे । अगोचर महिम मक्ति के मगलमय सोपान का ॥१६।। - जिसे आत्मा की जिज्ञासा जाग्रत हो, पिपासा लगे, बहार का सब दुखमय भासित हो, उसे यदि वह अन्तर मे खोज करे तो, आत्मा की महिमा आये। जिसे संसार मे तन्मयता है, उसे आत्मा की महिमा नही आती । जिसे बाह्य मे-धिभाव मे-दुख लगे, वह विचार करता है कि यह तो सब दु.ख रूप है। मैं तो अन्तर मे ऐसा कोई अनुपम तत्त्व है कि जिस मे परिपूर्ण सुख है । जिसे जिज्ञासा जाग्रत हो वह अपने आत्मा का गुण-वैभव देखने का प्रयत्न करता है और तब उसे उसकी महिमा आती है। 'आत्मा का वैभव कैसा है ? उसे कौन बतलाये? यह कैसे प्रगट हो ? ऐसी जिसे जिज्ञासा हो वह खोज करता है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ( २० ) आत्म-स्तवन अनेकान्त मूर्ति भगवान आत्मा की ४७ शक्तियों का सुन्दर वर्णन जीव है अनन्ती शक्ति सम्पन्न राग से वह भिन्न है, उस जीव को लक्षित कराने 'ज्ञानमात्र' वदन्त है || १|| एक ज्ञानमात्र ही भाव मे शक्ति अनन्ती उल्लसे, यह कथन है उन शक्ति का भवि जीव जानो प्रेम से || २ || 'जीवत्व'' से जीवे सदा जीव चेतता चिति शक्ति से, 'दृगि '' शक्ति से देखे सभी अरु जानता वह ज्ञान'' से ॥३॥ आकुल नहि 'सुख" शक्ति से निज को रचे निज 'वीर्य' स, 'प्रभुत्व" से वह शोभता व्यापक है विभु'" शक्ति से ॥४॥ सामान्य देखे विश्व को यह सर्वदशि " शक्ति है, जाने विशेषे विश्व को 'सर्वज्ञता " की शक्ति है ॥५॥ जह दीसता है विश्व सारा शक्ति यह 'स्वच्छत्व" की, है स्पष्ट स्वानुभव मयी यह शक्ति जान 'प्रकाश " की ॥६॥ 'विकास मे सकोच नही' " यह शक्ति तेरवी जानना, B नहि कार्य-कारण' 1" कोई का है भाव ऐसा आत्म का ||७|| जो ज्ञ ेय का ज्ञाता बने अरु ज्ञेय होता ज्ञान मे, उस शक्ति को 'परिणम्य- परिणामक" कहा है शास्त्र मे ॥ ८ ॥ "नही त्याग नही ग्रहण" बस । निज स्वरूप मे जो स्थित है, स्वरूपे प्रतिष्ठित जीव की शक्ति ' अगुरुलघुत्व" है || ६ || 'उत्पाद-व्यय-ध्रुव'" शक्ति से जीव क्रम - अक्रम वृत्ति घरे, है सत्पना 'परिणाम शक्ति" नही फिरे तीन काल मे ॥ १० ॥ नही स्पर्श जाणो जीव मे आत्म प्रदेश 'अमूर्त 20 है, कर्ता नही पर भाव का ऐसी 'अकर्तृत्व' शक्ति है ॥। ११॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) भोक्ता नही पर भाव का ऐसी 'अभोक्तृत्व'" शक्ति है, 'निष्क्रियता रूप शक्ति से आत्म प्रदेश निस्पद है ॥१२॥ असख्य निज अवयव धरें 'नियत' प्रदेशी" आत्म है, जीव देह मे नही व्यापता 'स्वधर्म-व्यापक'" शक्ति है ।।१३।। 'स्व-पर मे जो सम अरू विषम तथा जो मिश्र है's; __ त्रयविध ऐसे धर्म को निज शक्ति से आत्मा धरे ।।१४।। जीव अनन्त भावो धारता 'अनन्त धर्म की शक्ति से, तत्-अतत् दोनो भाव वरते 'विरुद्ध धर्म की शक्ति से ॥१५॥ जो ज्ञान का तद्र प-भवन सो तत्त्व' नामक शक्ति है, जीव मे अतदप परिणमन जानो 'अतत्त्व' की शक्ति से ॥१६॥ बहु पर्ययो मे व्यापता एक द्रव्यता को नहिं तजे, निज स्वरूप की 'एकत्व'" शक्ति जान जीव शान्ति लहे ॥१७॥ जीव द्रव्य से है एक फिर भी 'अनेक' पर्यय रूप बने, स्व पर्ययो मे व्याप कर जीव सुखी ज्ञानी सिद्ध बनें ॥१८॥ है 'भावशक्ति' जीव की सतरूप अवस्था वर्तती, फिर असत् रूप है पर्ययो 'अभाव शक्ति'" जीव की ॥१९॥ 'भाव का होता अभाव' अभाव का फिर भाव' रे, ये शक्ति दोनो साथ रहती, ज्ञान मे तू जानले ॥२०॥ जो 'भाव रहता भाव'' ही 'अभाव नित्य अभाव' है, स्वभाव ऐसा जीव का निजगुण से भरपूर है ॥२१॥ नहिं कारको को अनु सरे ऐसा ही 'भवता भाव' है; जो कारको को अनुसरे सो 'क्रिया0 नामक शक्ति है ।।२२।। है 'कर्म शक्ति' आत्म मे वह धारता सिद्ध भाव को, फिर 'कर्तृत्व' शक्ति से स्वय बन जाते भावकरूप जो ॥२३॥ है ज्ञानरूप जो शुद्धभावो उनका जो भवन है, आत्मा स्वय उन भावो का उत्कृष्ट साधन होत है ॥२४॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) निज करण-शक्ति' जानरे तू बाह्य साधन शोध ना, आत्मा ही तेरा करण है फिर. बात दूसरी पूछना ॥२५॥ निज आतमा निज आत्म को ही ज्ञान भाव जो देत है, उसका ग्रहण है आत्म को यह 'सप्रदान" स्वभाव है ॥२६॥ उत्पाद-व्यय से क्षणिक है पर ध्र व की हानि नही, सेवो सदा मामर्थ्य ऐसे 'अपादान' का आत्म मे ॥२७॥ भाव्यरूप जो ज्ञान भावो परिणमे है आत्म मे, 'अधिकरण' उनका आत्म है सुन लो अहो निज वचन मे ॥२८॥ है 'स्व अरू स्वामित्व'7 मेरा मात्र निज स्वभाव मे, नही स्वत्व मेरा है कभी निज भात्र से को अन्य मे ॥२६॥ अनेकान्त है जयवन्त अहो । निज शक्ति को प्रकाशता, गक्ति अनन्ती मेरी वह मुझ ज्ञान मे ही दिखावता ॥३०॥ यह ज्ञान लक्षण भाव सह भावो अनन्ते उल्लसे, ___अनुभव करूँ उनका अहो । विभाव कोई नहीं दिखे ॥३१॥ जिन मार्ग पाया मैं अहो । श्री गुरु वचन प्रसाद से, देखा अहा निजरूप चेतन पार जो पर भाव से ॥३२॥ निज विभव को देखा अहो | श्री समयसार प्रसाद से, निज शक्ति का वैभव अहो ! यह पार है पर भाव से ॥३३॥ ज्ञान मात्र ही एक ज्ञायक पिण्ड हू मैं आतमा, अनन्त गम्भीरता भरी मुझ आत्म ही परमात्मा ॥३४॥ आश्चर्य अद्भूत होता है निज विभव की पहचान से, आनन्दमय आह लाद अछले मुहूर् मुहूर ध्यान से ।।३।। अदभुत अहो | अद्भूत अहो । है विजयवन्त स्वभाव यह, "जयवन्त है मुझ गुरु देवने निज निधान बता दिया ॥३६।। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) नित्य पूजा संग्रह ॐ जय जय जय, नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु । णमो अरिहन्ताण, णमो सिद्धाण, णमो आइरियाण, णमो उवज्झायण, णमो लोए सन्न-साहूण । ॐ ह्री अनादि मूल महेभ्यो नम (पुष्पांजलि)। चत्तारि मगल, अरिहता मगल, सिद्धा मगल, साहू मगल, केवलि पण्णत्तो, धम्मो मगल । चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा । चत्तारि सरण पव्वज्जामि, अरिहते सरण पवज्जामि, सिद्ध सरण पव्वज्जामि, साहू सरण पव्वज्जामि,केवलि पण्णत्त धम्म सरण पव्वज्जामि । ॐ ह्री नमो अर्हते स्वाहा । (पुष्पाजलि)। अपवित्र हो या पवित्र, जो णमोकार को ध्याता है। चाहे सुस्थित हो या दुस्थित, पाप मुक्त हो जाता है ।।१।। हो पवित्र अपवित्र दगा, कैसी भी क्यो नहिं हो जनकी। परमातम का ध्यान किये, हो अन्तर वाहर शुचि उनकी ॥२॥ है अजेय विघ्नो का हर्ता, णमोकार यह मत्र महा। सव मगल मे प्रथम सुमगल, श्री जिनवर ने एम कहा ॥३॥ सब पापो का है क्षय कारक, मगल मे सबसे पहला। नमस्कार या णमोकार यह, मत्र जिनागम मे पहला ॥४॥ अर्ह ऐसे परम ब्रह्म-वाचक, अक्षर का ध्यान धरूँ। सिद्ध चक्र का सद्बीजाक्षर, मन वचकाय प्रणाम करूं ||५|| अष्ट कर्म से रहित मुक्ति-लक्ष्मी, के घर श्री सिद्ध नौ । सम्यक्त्वादि गुणो से सयुत, तिन्हे ध्यान घर कर्म वमं ॥६॥ जिनवर की भक्ति से होते, विघ्न समूह अन्त जानो। भूत गाकिनी सर्प शान्त हो, विप निविष होता मानो ॥७॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) उदक चदन तदुल पुष्पर्क, चस्सुदीप मुधूपफलायक । प्रचल मगल गान रवाकुले, जिनगृहे जिन नाम मह यजे ॥ ॐ ह्री श्री भगजिनेन्द्र महननामम्यो अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। स्वस्ति-मंगलम श्री वपमोः स्वस्ति, म्वस्ति श्री अजित । श्री सभव स्वस्ति, स्वस्ति श्री अभिनन्दन । श्री सुमति स्वस्ति, स्वस्ति श्री पदम प्रभ । श्री सुपाश्व स्वस्ति, स्वस्ति श्री चन्द्रप्रभ । श्री पुष्पदन्न स्वरित म्वस्ति श्री गीतल । श्री श्रेयान स्वस्ति, स्वस्ति श्री वासुपूज्य । श्री विमल स्वस्ति, ग्वस्ति श्री अनत । श्री धर्म स्वस्ति, स्वस्ति श्री शान्ति । श्रीकुन्युः स्वस्ति, स्वस्ति श्री मरनाथ । श्री मल्लि स्वस्ति, स्वन्ति श्री मुनिसुव्रत । श्री नमि स्वस्ति, स्वस्ति श्री नेमिनाथ । श्री पार्श्व स्वस्ति, स्वस्ति श्री वर्धमान । विनय पाठ हे नाथ । मैं मिथ्यात्व वश, ससार मे फिरता रहा। इक बोधि लाभ विना अनन्तो, व्यर्थ भव घरता रहा ।।१।। देव पूजा ना करी, नहिं पात्रदान कभी दिया। जिन वैन भी न सुने कभी, चारित्र भी नही रख सका ।।२।। है निर्विकल्प स्वभाव सिद्ध, अरु एक केवल मातमा । भूलकर उसको सदा, मैं टक्करें खाता रहा ॥३॥ अस्थि मज्जा चाम से, निर्मित अथिर ससार मे। रमता रहा भ्रमता रहा, नहिं शरण कोई पा सका ॥४॥ आज मेरा पुण्य जागा, आपके दर्शन हुए। पाई शरण, आलोक सा सहसा हृदय पर छा गया ।।५।। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) नाचने गाने लगा, यह नाद सा, आने लगा।' कुछ अन्य मुझको, नहिं शरण, है शरण या परमात्मा ॥६॥ काल लब्धि आज जागी, गान्ति पथ मुझको मिला। आज निश्चय हो गया, पाउगा जीवन की कला ॥७॥ आज जग के कीट को भो, जिनेन्द्र पद मिल जायेगा। आज इस विक्षिप्त सर मे, भी कमल खिल जायेगा ||et ॐ पड़ी श्री विगति तीर्यगय नम (पुष्पांजनि) (६) श्री देव शास्त्र गुरु पूजा (श्री युगलजी) केवल रविकिरणो मे जिसका सम्पूर्ण प्रकाशित है अतर । उमश्री जिनवाणी मे होता, तत्वो का सुन्दरतम दर्शन ।। सद्दर्शन बोध वरण पथ पर, अविरल जो बढते हैं मुनिगण। उन देवचरम आगम गुरु को, शनशत् वदन शतगत् वदन 12 ॐ ह्री श्री देवशास्त्रगुमनमूह | अन्न अवतर यवतर मवौषट् आह्वानन् ।। ॐ ह्री श्री देवशास्त्रगुरुममूह । अत्र तिष्ठ-तिप्ठ ठ ठ स्थापनम् । ॐ ह्री ती देवशास्त्रगुरुममूह | अवमम गन्निहितो भवभय वपट् । इन्द्रिय के भोग मधुर विपसम, लावण्यमयी कचन काया। यह सब कुछ जड की क्रीडा है, मैं अब तक जान नहीं पाया ।।। मैं भून स्वय के वैभव को, पर ममता मे अटकाया है। अव निर्मल सम्यक् नीर लिये, मिथ्या मल धोने आया हूँ ।' ॐ ह्री देवगाम्बगुरुभ्य जन्म जरा मृत्यु विनाशाय जल निपामीति माहा ॥१॥ जड चेतन की सब परिणति प्रभु | अपने-अपने मे होती है। अनुकूल कहे, प्रतिकूल फहे, यह झूठी मन को वृत्ती है ।। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिकूल सयोगो मे क्रोधित होकर ससार बढाया है। सन्तप्त हृदय प्रभु | चन्दनसम, शीतलता पाने आया है । ॐ ह्री देवशास्त्र गुरुभ्य ससार ताप विनाशनाय चदन निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ उज्ज्वल हू कुन्दधवल ह प्रभु । परसे न लगा हूँ किचित् भी। 'फिर भी अनुकूल लगें उन पर, करता अभिमान निरतर ही। जड पर झक-झुक जाता चेतन, की मार्दव की खडित काया। निजशाश्वत अक्षयनिधि पाने, अब दास चरण रज मे आया।। ॐ ह्री देवशास्तगुरुभ्य अक्षयपद प्राप्तये अक्षत निर्वपामीति स्वाहा ॥॥ यह पुष्प सुकोमल कितना है, तन में माया कुछ शेष नहीं। निज अन्तर का प्रभु । भेद कहू, उसमे ऋजुता का लेश नही ।। चिंतन कुछ फिर सभापण कुछ, किरिया कुछकी कुछ होती है। स्थिरता निज मे प्रभु पाऊँजो, अन्तर कालुप धोती है । ॐ ह्री देवणास्त्रगुरुभ्य कामवाण विध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥ अबतक अगणित जडद्रव्यो से प्रभु । भूख न मेरी शान्त हुई। तृष्णा की खाई खूब भरी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही। युग-युग से इच्छा सागर मे, प्रभु | गोते खाता आया हूँ। पचेन्द्रिय मन के षटस तज अनुपम रस पीने आया हूँ। ॐ ह्री देवशास्त्रगुरुभ्य क्षुधारोग विनाशनाय नैवैद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥ जग के जड दीपक को अबतक, समझा था मैंने उजियारा । झझा के एक झकोरे मे, जो बनता घोर तिमिर कारा।। अतएव प्रभो । यह नश्वर दीप, समर्पण करने आया हूँ। तेरी अतर लौ से निज अतर, दीप जलाने आया हूँ। ॐ ही देवशास्त्रगुरुभ्य मोहाधकार विनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ जड कर्म घुमाता है मुझको, यह मिथ्या भ्रान्ति रही मेरी । मै राग द्वेप किया करता, जब परिणति होती जडकेरी ।। यो भावकरम या भावमरण सदियो से करता आया है। निज अनुपम गध अनल से प्रभु | पर गध जलाने आया हू॥ "ॐ ह्री देवशास्त्रगुरुभ्य अप्टकर्म दहनाय धूप निर्वपामीति रवाहा ॥७॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ( २७ ) जग मे जिसको निज कहता मैं, वह छोड मुझे चल देता है । मैं आकुल व्याकुल हो लेता, व्याकुल का फल व्याकुलता है ॥ मैं शान्त निराकुल चेतन हू, है मुक्तिरमा सहचर मेरी । यह मोह तडक कर टूट पडे, प्रभु सार्थक फल पूजा तेरी ॥ ॐ ह्री देवशास्त्रगुरुभ्य मोक्षफल प्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा ||८|| क्षणभर निजरस को पी चेतन, मिथ्यामल को धो देता है । काषायिक भाव विनष्ट किये, निज आनद अमृत पीता है || । अनुपम सुखतब विलसित होता, केवल रवि जगमग करता है । दशन वल पूर्ण प्रगट होता, यह ही अर्हन्त अवस्था है || यह अर्घ समर्पण करके प्रभु, निज गुण का अर्ध बनाऊँगा । और निश्चित तेरे सदृश प्रभु, अर्हन्त अवस्था पाऊँगा || ॐ ह्री देवशास्त्रगुरुभ्यो ऽनर्घ्यपदप्राप्तये महार्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ स्वतन - बारह - भववन मे जीभर घूम चुका, कण-कण को जीभर-भर देखा । भावनाये मृग- सम मृगतृष्णा के पीछे, मुझको न मिली सुख की रेखा ॥ अनित्य – झूठे जग के सपने सारे, झूठी मन की सब आशाये । तन जीवन योवन अस्थिर है, क्षणभंगुर पल मे मुरझाये ॥ अशरण - सम्राट महाबल सेनानी, उस क्षण को टाल सकेगा क्या । अशरण मृतकाया मे हर्षित, निज जीवन डाल सकेगा क्या ।। 1 ससार – ससार महादुख सागर के, प्रभु दुखमय सुख आभासो मे । मुझको न मिला सुख क्षणभर भी, कचन कामिनि प्रासादो मे । एकत्व- मैं एकाकी एकत्व लिये, एकत्व लिये सब ही आते 1 तन धन को साथी समझा था, पर ये भी छोड चले जाते । अन्यत्व - मेरे न हुये मैं इन से अति भिन्न अखण्ड निराला 1 निज मे पर से अन्यत्व लिये, निज समरस पीने ल Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) अशुचि-जिमके शृङ्गागे में मेरा यह, महगा जीवन घुल जाता। अत्यन्त अशुचि जद काया से, इस चेतन का वौसा नाता। आरव-दिनरात गुभाशुभ भावो से, मेरा व्यापार चला करता। मानस वाणी और काया से, आत्रव का द्वार खुला रहता।। सवर-शुभ और अशुभ की ज्वाला से, पुलसा है मेरा अन्तस्तल । शीतल समकित किरणे फूटे, सवर मे जागे अन्तर्वल ।। निर्जरा-फिर तप की शोधक वह्निजगे, कर्मों की कडिया टूट पड़े। मर्वाग निजात्म प्रदेशो से, अमृत के झरने फूट पड़ें। लोक-हम छोड चले यह लाक तभी, लोकान्त विराजे क्षण मे जा। निजलोक हमारा वामा हो, शोकान्त बने फिर हमको क्या ।। वोधिदुर्लभ-जागे मम दुर्लभ बोधि प्रभु, दुनयतम सत्वर टन जावे। वम ज्ञाता दृष्टा रह जाऊं, मद मत्सर मोहि विना जावे ॥ धर्म-चिर रक्षक धर्म हमारा हो, हो धर्म हमारा चिर साथी। जग मे न हमारा कोई था, हम भी न रहे जग के साथो । चरणों में आया हू प्रभुवर, शीतलता मुझको मिल जावे । मुरझाई ज्ञान-लता मेरी, निज अन्तर्वल से खिल जाने॥ सोचा करता हू भोगो से, वुझ जावेगी इच्छा-ज्वाला । परिणाम निकलता है लेकिन, मानो पावक मे घी डाला। तेरे चरणो की पूजा मे, इन्द्रिय सुख की ही अभिलाषा । अब तक ना समझ ही पाया प्रभुवर | सच्चे सुखकी में परिभापा। तुम तो अविकारी हो प्रभुवर ! जग मे रहते जग से न्यारे। अतएव झको तव चरणो मे, जग के माणिक-मोती सारे ।। स्याद्वादमयी तेरी वाणी, शुभनय के झरने झरते हैं। उस पावन नीका पर लाखो, प्राणी भव वारिधि तिरते हैं । हे गुरुवर शाश्वत सुखदर्शक, यह नग्नस्वरूप तुम्हारा है। जग की नश्वरता का सच्चा, दिग्दर्शन करने वाला है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (RE) जब जग विषयो मे रचपच कर, गाफिल निद्रा मे सोता हो । अथवा वह शिव के निष्कटक, पथ मे विष कटक बोता हो ॥ हो अर्द्ध निशा का सन्नाटा, वन मे वनचारी चरते हो । तब शात निराकुल मानस तुम, तत्वो का चिंतन करते हो । करते तप शैल नदी तट पर, तरुतल वर्षा की झडियो मे । समता रसपान किया करते सुखदुख दोनो की घडियो मे ॥ अन्तर ज्वाला हरतो वाणी मानो झडती हो फुलझडियाँ । भवबन्धन तडतड टूट पडे, खिल जावें अंतर की कलिया || तुमसा दानी क्या कोई हो, जग को दे दी जग की निधियाँ । दिनरात लुटाया करते हो, शम-राम की अविनश्वर मणियाँ || हे निर्मल देव | तुम्हे प्रणाम, हे ज्ञानदीप आगम ! प्रणाम । हे शान्ति त्याग के मूर्तिमान, शिव-पथ पथी गुरुवर प्रणाम || ॐ ह्री देवशास्त्रगुरुभ्यो अनर्घ्य पदप्राप्यये महार्घं निर्वपामीति स्वाहा | 1 (१०) श्रीदेव शास्त्र गुरु, विदेह क्षेत्र विद्यमान तीर्थकर तथा अनन्तान्त सिद्ध परमेष्ठी पूजा दोहा - देवशास्त्र गुरु नमनकरि, बीस तीर्थंकर ध्याय । सिद्ध शुद्ध राजत सदा, नमू चित्त हुलसाय ॥ ॐ ह्री श्री देव शास्त्र गुरु समूह | श्री विद्यमान विशति तीर्थकर समूह श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठी समूह । अत्नावतरावतर सवोष्ट | अत तिष्ठ तिष्ठ ठ 이 स्थापनम् । अत्र ममसन्निहितो मन्निधीकरणम् । भव-भव वपटू Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) अष्टकम् अनादिकाल से जग मे स्वामिन् जल से शुचिता को माना । शुद्ध निजातम सम्यक्, रत्नत्रयनिधि को नहि पहिचाना || अव निर्मल रत्नत्रय जलले, श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ । विद्यमान श्री वीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥ ॐ ह्री श्री देवशास्त्रगुरुभ्य श्री विद्यमान विशति तीर्थङ्करेभ्य, श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्यो, जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा । भव आताप मिटावन की निज मे ही क्षमता समता है । अनजाने अब तक मैंने पर मे की झूठी ममता है ॥ चन्दन सम शीतलता पाने श्री देव शास्त्र गुरु को व्याऊँ । विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥ ॐ ह्री श्री देवशास्त्र गुरभ्य, श्री विद्यमान विशति तीर्थवरेभ्य श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्य, ससार ताप विनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा । अक्षयपद के बिना फिरा, जगत की लख चौरासी योनि मे । अष्ट कर्म के नाश करन को, अक्षत तुम टिंग लाया मैं | अक्षय निधि निज की पाने अब, देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ । विद्यमान श्री बीस तीर्थकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥ ॐ ह्री देवशास्त्रगुरुभ्य, श्री विद्यमान विशति तीर्थङ्करेभ्य, श्री अनन्तानन्त मिद्ध परमेष्ठिभ्य अक्षयपद प्राप्तये अक्षत निर्वपामीति स्वाहा । पुष्प सुगन्धी से आतम ने शील स्वभाव नशाया है । मन्मथ वाणो से विध करके, चहुगति दुख उपजाया है । स्थिरता निज में पाने को श्री देवशास्त्र गुरु को ध्याऊँ । विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु गुण गाऊँ ॥ ॐ ह्री श्री देवशास्त्रगुरुभ्य, श्री विद्यमान विशति तीर्थंकरेभ्य श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्य कामवाण विध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षटस मिश्रित भोजन से ये भूख न मेरी शान्त हुई। आतम रस अनुपम चखने से, इन्द्रिय मन इच्छा शमन हुई । सर्वथा भूख के मेटन को, श्री देवशास्त्र गुरु को ध्याऊँ। विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर, सिद्ध-प्रभु के गुण गाऊँ। ॐ ह्री देवशास्त्रगुरुभ्य श्री विद्यमान विंशति तीर्थकरेभ्य , श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्य क्षुधारोग विनाशाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा । जड दीप विनश्वर को, अब तक समझा था मैंने उजियारा। निज गुण दरशायक ज्ञान दीप से, मिटा मोह का अधियारा॥ ये दीप समर्पित करके मैं श्रीदेव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ। विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ।। ॐ ह्री श्री देवशास्त्रगुरुभ्य' , श्री विद्यमान' विंशति तीर्थकरेभ्यः, श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्य मोहान्धकार विनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा । ये धूप अनल मे खेने से, कर्मों को नही जलायेगी। निज मे निज की शक्ति ज्वाला, जो राग द्वेश नशायेगी।' उस शक्ति दहन प्रगटाने को, श्री देवशास्त्र गुरु को ध्याऊँ। विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर, सिद्ध-प्रभु के गुण गाऊँ। ॐ ह्री श्री देवशास्त्रगुरुभ्य , श्री विद्यमान विंशति तीर्थकरेभ्य श्री अनन्तानन्त' सिद्ध परमेष्ठिभ्य अष्टकर्म दहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा । पिस्ता, बदाम, श्रीफल, लवग चरणन तुम ढिंग मैं ले आया। आतम रस भीने निज गुण फल, मम मन अव उनमे ललचाया। अब मोक्ष महाफल पाने को, श्री देवशास्त्र गुरु को ध्याऊँ। विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥ ॐ ह्री श्री देवशास्त्रगुरुभ्य , श्री विद्यमान विशति तीर्थकरेभ्य, श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्यो, मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा। अष्टम् वसुधा पाने को, कर मे ये आठो द्रव्य लिये । सहज शुद्ध स्वाभाविकता से, निज मे निज गुण प्रकट किये। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) गुरु ये अर्ध्य समर्पण करके में श्री देवशास्त्र को ध्याऊँ । विद्यमान श्री वीस तीर्थङ्कर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥ ॐ ह्री श्री देवशास्त्र गुरुभ्य, श्री विद्यमान विशति तीर्थकरेभ्य श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्योऽनर्थ पदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । जयमाला नसे घातिया कर्म अर्हन्त देवा, करे सुर असुर नर मुनि नित्य सेवा | दरश ज्ञान सुख बल अनन्त के स्वामी, छियालिस गुण युक्त महा ईश नामी ॥ तेरी दिव्य वाणी सदा भव्य मानी, महा मोह विध्वसिनी मोक्ष दानी | अनेकान्तमय द्वादशागी वखानी, नमो लोक माता श्री जैन वाणी ॥ विरागी अचारज उवज्झाय साधू, दरश ज्ञान भण्डार समता अराधू । नगन पधारी सु एका विहारी निजानन्द मडित मुकति पथ प्रचारी ॥ विदेह क्षेत्र मे तीथङ्कर बीस राजे, विरहमान वन्दु सभी पाप भाजे । नमू सिद्ध निर्भय निरामय सुधामी, अनाकुल समाधान सहजाभिरामी ॥ छन्द देव शास्त्र गुरु वीस तीर्थङ्कर सिद्ध हृदय विच धरले रे । पूजन ध्यान गान गुण करके भवसागर जिय तरले रे || ॐ ह्री श्री देवशास्त्रगुरभ्य, श्री विद्यमान विशति तीर्थंकरेभ्य, श्रीअनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिस्य अनर्घपदप्राप्तये अर्ध्य निर्वपामीति स्वाहा । 1 भूत भविष्यत् वर्तमान को तीस चोबीसी मैं ध्याऊँ । चैत्य चैत्यालये कृत्रिमाकृत्रिम, तीन लोक के मन लाऊँ ॥ ॐ ह्री त्रिकाल सम्बन्धी तीन चौवीसी त्रिलोक सम्वन्धी कृत्रिमाकृत्रिम - चैत्यालयेभ्य अर्घ निर्वपामीति स्वाहा । चत्य भक्ति आलोचना चाहू, कायोत्सर्ग बघू नाशन हेत । कृत्रिमाकृत्रिम तीन लोक मे गजत है जिन बिम्ब अनेक || चतुर निकाय के देव जने ले, अष्ट द्रव्य निज भक्ति समेत । निज शक्ति अनुसार जजूं मैं, कर समाधि पाऊँ खेत ॥ (पुष्पाजलि क्षिपेत् ) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) (११) श्री पंच परमेष्ठी पूजन (राजमल पवैया) अर्हत सिद्ध आचार्य नमन, हे उपाध्याय हे साधु नमन । जय पच परम परमेष्ठी जय, भव सागर तारण हरि नमन ।। मन वच काया पूर्वक करता, हू शुद्ध हृदय से आह्वान । मम हृदय विराजो तिष्ठ तिष्ठ, सन्निकट होहु मेरे भगवान ।। निज आत्म तत्त्व की प्राप्ति हेतु, ले अष्ट द्रव्य करता पूजन । तुम चरणो की पूजन से प्रभु, निज सिद्ध रूप का हो दर्शन ।। ॐ ह्री श्री अरहत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु पच परमेष्टिन् । अन्न अवतर अवतर सवौपट आह्वानन । अत्र तिष्ठ ठ ठ स्थापनम् । अन्न मम सन्निहितो भव-भव वषट् सन्निधीकरण । मै तो अनादि से रोगी हू, उपचार कराने आया है। तुम सम उज्ज्वलता पाने को, उज्ज्वल जल भर कर लाया हू।। मैं जन्म जरा मृत नाश करूं, ऐसी दो शक्ति हृदय स्वामी । हे पच परम परमेष्ठी प्रभु, भव दु ख मेटो अन्तर्यामी ।। ॐ ह्री श्री पच परमेष्ठिभ्यो जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जल निर्वामिति स्वाहा। ससार ताप मे जल-जल कर, मैंने अगणित दुख पाए है। निज शान्त स्वभाव नहीं भाया, पर के ही गीत सुहाए है ।। शीतल चन्दन है भेंट तुम्हे, ससार ताप नाशो स्वामी। हे पच परम परमेष्ठी प्रभु, भव दुख मेटो अन्तर्यामी ।। ॐ ह्री पच परमेष्ठिभ्यो मनारताप विनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा। दुखमय अथाह भव सागर मे, मेरी यह नौका भटक रही। शुभ-अशुभ भाव की भवरो मे, चैतन्य शक्ति निज अटक रही ।। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) तन्दुल हैं धवल तुम्हे अर्पित, अक्षयपद प्राप्त करूं स्वामी । हे पच परम परमेष्ठी प्रभु, भव दुख मेटो अन्तर्यामी || ॐ ह्री श्री पच परमेष्ठिभ्यो अक्षय पद प्राप्तये अक्षत निर्वपामिति स्वाहा । मैं काम व्यथा से घायल हूँ, सुख की न मिली किञ्चित् छाया । चरणो मे पुष्प चढाता हूँ, तुम को पाकर मन हर्षाया ॥ में काम भाव विध्वस करू, ऐसा दो शील हृदय स्वामी । है पच परम परमेष्ठी प्रभु, भव दुख मेटो अन्तर्यामी ॥ ॐ ह्री श्री पचपरमेष्ठिभ्यो काम वाण विध्वसनाय पुष्प निर्वपामिति स्वाहा । मैं क्षुधा रोग से व्याकुल हूँ, चारो गति मे भरमाया हूँ । जग के सारे पदार्थ पाकर भी तृप्त नही हो पाया हूँ ॥ नैवेद्य समर्पित करता है, यह क्षुधा रोग मेटो स्वामी । हे पच परम परमेष्ठी प्रभु, भव दुख मेटो अन्तर्यामी ॥ ॐ ह्री श्री पचपरमेष्ठिभ्यो क्षुधारोग विनाशानाय नैवेद्य मोहान्ध महाअज्ञानी मे, निज को पर का मिथ्यातम के कारण मैंने, निज आत्म स्वरूप मैं दीप समर्पण करता हूँ, हे पच परम परमेष्ठी प्रभु, निर्वपामीति स्वाहा । मोहाधकार क्षय भव दुख मेटो भव दुख मेटो ॐ ह्री श्री पचपरमेष्ठिभ्यो मोहाधकार विनाशनाय दीप नि 'पामीति स्वाहा । मैं कर्मों की ज्वाला धधक रही, ससार वढ रहा प्रतिपल । सवर से आश्रव को रोकूं, निर्जरा सुरभि महके पल पल || धूप चढाकर अब आठो, कर्मों का हनन करू स्वामी । हे पच परम परमेष्ठी प्रभु, भव दुख मेटो अन्तर्यामी ॥ ॐ ह्री श्री पचपरमेष्ठिश्यो अष्ट कर्म दहनाय धूप निज आत्म तत्व का ममन करू, चितवन करूँ दो श्रद्धा ज्ञान चरित्र श्रेष्ठ, सच्चा पथ मोक्ष निकेतन का ॥ निर्वपामीति स्वाहा । निज चेतन का । कर्त्ता माना । न पहचाना ॥ हो स्वामी । अन्तर्यामी ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तम फल चरण चढता हूँ, निर्वाण महाफल हो स्वामी। हे पच परम परमेष्ठी प्रभु, भव दुख मेटो अन्तर्यामी ।। ॐ ह्री श्री पचपरमेष्ठिभ्यो मोक्षफल प्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा । जल चन्दन अक्षत पुष्प दीप, नैवेद्य धूप फल लाया हूँ। अव तक के सचित कर्मों का, मैं पुञ्ज जलाने आया हूँ। यह अर्घ समर्पित करता हूँ, अविचल अनर्घ्यपद दो स्वामी। हे पत्र परम परमेष्ठी प्रभु, भाव दुख मेटो अन्तर्यामी । ॐ ह्नी श्री पच परमेष्ठिभ्यो अनध्य पद प्राप्तये अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । जयमाला जय वीतरागसर्वज्ञ प्रभो, निज ध्यान लीन गुणमय अपार । अष्टादस दोष रहित जिनवर, अर्हत देव को नमस्कार ।। अविकल अविकारी अविनाशी, निजरूप निरजन निराकार। जय अजर अमर हे मुक्तिकत, भगवत सिद्ध। को नमस्कार ॥ छतीस सुगुण से तुम मण्डित, निश्चय रत्नत्रय हृदय धार । हे मुक्ति वधू के अनुरागी, आचार्य सुगुरु को नमस्कार ।। एकादश अग पूर्व चौदह के, पाठी गुण पच्चीस धार । बाह्यान्तर मुनि मुद्रा महान्, श्री उपाध्याय को नमस्कार ।। व्रत समिति गुप्ति चारित्र धर्म, वराग्य भावना हृदय धार । हे द्रव्य भाव सयम मय मुनि, सर्व साधु को नमस्कार ।। बहु पुण्य सयोग मिला नरतन, जिनश्रुत जिन देव चरणदर्शन । हो सम्यग्दर्शन प्राप्त मुझे, तो सफल बने मानव जीवन ॥ निज पर का भेद जानकर मैं, निज को हो निज मे लीन करूं। अब भेद ज्ञान के द्वारा मैं, निज आत्म स्वय स्वाधीन करूं ।। निज मे रत्नत्रय धारण कर, निज परणिति को ही पहचान । पर परणति से हो विमुख सदा, निज ज्ञान तत्व को ही जानू ।। जब ज्ञान ज्ञेय ज्ञाता विकल्प तज, शुक्ल ध्यान में ध्याऊँगा। तब चार घातिया क्षय करके, अहंत महापद पाऊंगा ।। । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है निश्चित सिद्ध स्वपद मेरा, हे प्रभु कब इसको पाऊँगा। सम्यक् पूजा फल पाने को, अव निज स्वभाव मे आऊँगा । अपने स्वरूप की प्राप्ति हेतु, हे प्रभु मैंने की है पूजन । तब तक चरणो मे ध्यान रहे, जब तक न प्राप्त हो मुक्ति सदन । ॐ ह्री श्री अर्हन्त-सिद्ध-आचार्य-उपाध्यायसर्वसाधु पच परमेष्ठिभ्यो अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा। श्री शान्तिनाथ जिन पजा मत्तगयन्द छन्द (यमकालकार) या भवकाननमे चतुरानन, पापपनानन घेरि हमेरी । आतमजान न मान न ठान न, बान न होइ दई सट गरी । तामद भानन आपहि हो, यह छान न आन न आननटेरी । आन गही शरनागतको, अब श्रीपतजी पत राखह मेरी ॥१॥ ॐ ह्री श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्र | अन्नावतर अवतर, सवोपट् । ॐ ह्री श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्र । अत्र तिष्ठ तिष्ठ, ठ ठ । ॐ ह्री श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्र | अन्न मम सन्निहितो भव भव वपट् । [अष्टक] छन्द विभगी। अनुप्रासक । (माना ३२ जगनवजित ।) हिमगिरिगतगगा, धार अभगा, प्रासुक सगा, भरि भृगा। जरजन्म मृतगा, नाशि अघगा, पूजि पदगा मुहिगा। श्रीशान्तिजिनेश, नुतनाकेश, वृषचक्रेश चक्रेश। हनि अरिचक्रेश, हे गुनधेश, दयामृतेश मक्रेश ।१।। ॐ ह्री श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल नि स्वा वर बावनचदन, कदलीनदन धनआनदन सहित घसो। भवतापनिकन्दन, ऐरानदन, वदि अमदन, चरन वसो । श्री ।। ॐ ह्री श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चदन नि० स्वाहा । हिमकरकरि लज्जत, मलयसुसज्जत, अच्छत जज्जत भरिथारी। दुखदारिद गज्जत, सदपदसज्जत, भवभय भज्जत अतिभारी ।श्री। ॐ ह्री श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्व स्वाहा । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) मदार सरोज कदली जोज, पुज भरोज, मलयभर । भरि कचनथारी, तुढिग धारी, मदनविदारी धीरधर श्री।।४। ॐ ह्री श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय कामवाणविध्वसनाय पुष्प नि० स्वाहा । पकवान नवीने, पावन कीने, षटरसभीने सुखदाई। मनमोदनहारे, क्षुधा विदारे, आगै धारै, गुनगाई ॥श्री।। ।५। ॐ ह्री श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि० स्वाहा । तुम ज्ञानप्रकाशे, भ्रमतमनाशे, शेयविकाशे सुखराशे। दीपक उजियारा, यातै धारा, मोह निवारा, निजभासे ।श्री।।६। ॐ ह्री श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय मोहाधकारविनाशनाय दीप नि० स्वाहा चन्दन करपूर करिवर चूर, पावक भूर, माहिजुर । तसु धूम उडावे, नाचत गावै, अलि गुजावै, मधुरसुर ।श्री।।७। ॐ ह्री श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय गष्टकर्मदहनाय धूप निर्व० स्वाहा । बादाम खजूर, दाडिम पूर, निबुक भूर, लै आयो। तासो पद जज्जो, शिवफल सज्जो, निजरसरज्जो, उमगायो।श्री। ॐ ह्री श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फल नि० स्वाहा । वसु द्रव्य नवारी, तुमढिग धारी, आनन्दकारी दुगप्यारी। तुम हो भवतारी, करुनाधारी, यात थारी, शरनारी ।श्री।।६। ॐ ह्री श्रीशान्निाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि० स्वाहा । [पच कल्याणक अर्घ] [सुन्दरी तथा द्रुत विल बित छन्द] असित सातय भादव जानिये। गरभमगल तादिन मानिये। शचि कियो जननी पद चर्चन । हम कर इत ये पद अर्चनन ॥१॥ ॐ ह्रीभाद्रपकृष्णासप्तम्या गर्भमगलमडिताय श्रीशातिनाथायाय॑ । जनम जेठ चदुदशि श्याम है । सकलइन्द्र सू आगत घाम है। गजपुरै गज साजि सवै तवै। गिरि जजै इत मैं जजि हो अबैं॥ ॐ ह्री ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्या जन्ममगलप्राप्ताय श्रीशातिनाथायाध्य । भव शरीर सुभोग असार है। इमि विचार तबै तप धार हैं। भ्रमर चौदशि जेठ सुहावनी। धरमहेत जजो गुन पावनी ।। ॐ ह्री ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्या तपमगलमडिताय श्रीशातिनाथायार्थ्य० । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) शुकलपौष दशै सुखराश है । परम- केवल ज्ञान प्रकाश है ॥ भवसमुद्रउधारन देवकी । हम करें नित मंगल सेवकी ॥ ४ ॥ ॐ ह्री परशुक्लादशम्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीशांतिनायायध्यं ० । असित चोदशि जेठ हन अरी। गिरि समेदथकी शिव-तिय-वरी । सकलइन्द्र जजै तित आयकै । हम जजै इत मस्तक नायक ||५|| ॐ ह्री ज्येष्ठकृष्णा चतुर्दश्यां मोक्षमगलप्राप्ताय श्रीशा तिनाथायार्घ्य ० । [ जयमाला] ठद ग्योता, चद्रवत्म तथा चद्रवत्स, वर्ण ११ लाटानुप्रास । शाति शातिगुनमडिते सदा । जाहि ध्यावत सु पडिते सदा ॥ मैं तिन्हे भक्तिडिते सदा । पूजिहो कलुपहडिते सदा ॥१॥ मोक्षहेत तुम ही दयाल हो । हे जिनेश गुनरत्नमाल हो । मैं अव सुगुनदाम ही धरो । व्यावते तुरित मुक्ति ती वरो ॥ २ ॥ छन्द पद्धरि (१६ मात्रा) जय शांतिनाथ चिद्र पराज । भवसागर मे अद्भुत जहाज ॥ तुम तजि सरवारधसिद्धथान । सरवारथजुत गजपुर महान | १ | तित जनम लियौ आनन्द धार । हरि ततछिन आयो राजद्वार | इन्द्रानी जाय प्रसूतथान । तुमको करमे लै हरष मान ॥२॥ हरि गोद देय सो मोदधार । सिर चमर अमर ढारत अपार ॥ गिरिराज जाय तित शिला पाड । तापै थाप्यो अभिषेक माड | ३ | तित पचमउदधि तनो सु वार । सुरकर करकरि ल्याये उदार । तब इन्द्र सहसकर करि अनद तुम सिर धारा ढारयौ सुनद अघ घ घ घुनि होत घोर भभभभभभ धधधध कलशशोर दृमदृमदृमदम बाजत मृदग । झन नननननननन नू पुरंग |५| तननननननननन तनन तान । घननननन घटा करत ध्वनि || ता थेईथे इथे इथे इथेइ सुचाल । जुत नाचत नावत तुमहिं भाल | ६ | चटचटचट अटपट नटत नाट । झटभटझट हट नट शट विराट । इमि नाचत राचत भगत रग । सुर लेत जहा आनन्द सग |७| इत्यादि अतुलमगल सुठाट । तित बन्यो जहा सुरगिरि विराट । पुनि करिनियोग पितुसदन आया। हरि सौंप्यो तुम तितवृद्धथाय 15 | । । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) पुनि राजमाहि लहि चक्ररत्न | भोग्यो छखण्ड करि धरम जत्न पुनि तप धरि केवलरिद्धिपाय । भवि जीवनको शिवमग बताय । शिवपुर पहुचे तुम हे जिनेश । गुनमडित अतुल अनन्त भेष | मैं ध्यावतु हो नित शीश नाय । हमरी भवबाधा हरि जिनाय १० सेवक अपनो निज जान जान । करुणा करि भौभय भान-भान । यह विधन मूलतरु खण्डखण्ड | चितचिंतित आनद मड मड | ११ | धत्ता - श्रीशांति महना, शिवतियकता, सुगुन अनता, भगवता || भवभ्रमन हनता सौख्यअनता, दातार तारनवता | १२| ॐ ह्री श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । छन्द रूपक सवैया ( मात्र ३१ ) शातिनाथजिनके पदपकज जो भवि पूजै मनवचकाय । जनम जनम के पातक ताके, ततछिन तजिकै जाय पलाय ॥ मनवाछित सुख पावै सौ नर, बाचे भगतिभाव अति लाय तातै 'वृन्दावन नित बर्द, जाते शिवपुरराज कराय ॥ इत्याशीर्वाद । परिपुष्पाजिलि क्षिपेत् । । (१३) सम्पूर्ण अर्ज मैं देव श्री अरहन्त पूजूं सिद्ध पूजूं चाव सो, आचार्य श्री उवज्झाय पूजूं साधु पूजूं भाव सो । अरहन्त-भासित वन पूजूं द्वादशांग रचे गनी, पूजूं दिगम्बर गुरुचरन, शिव हेतु सब आशा हनी । सर्वज्ञ - भाषित धर्म दश विधि, दया मय पूजूं सदा, जजी भावना षोडा रत्नत्रय जा बिना त्रैलोक्य के कृत्रिम अकृत्रिम, चंत्य पच मेरू नन्दीश्वर जिनालय, खचर कैलाश श्री सम्मेद श्री गिरनार चम्पापुरी पावापुरी पुनि शिव नही कदा | चैत्यालय जजूं, सुर पूजित भजूं । गिरि पूजूं सदी, तीरथ सर्वदा । और Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ४० ) चौबीस श्री जिनराज पूजूं बीस क्षेत्र विदेह के, नामावली इक सहस वसु जय होय पति शिव गेह के । जल गवाक्षत पुष्प चरू, दीप धूप फल लाय । सर्व पूज्य पद पूजहू बहु विधि भक्ति बढाय ।। ॐ ह्रीं श्री अर्हन्त-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्व साधु, देव-शास्त्र-गुरु, उत्तम क्षमादि दशधम , दर्शनविशुद्धि आदि पोडश भावना, वलोक्य सबधि कृत्रिम अकृत्रिम समस्त चैत्य-चैत्यालय, पचमेरु अवधि चैत्यचन्यालय, नदीवर मवधि जिन-जिनालय, निर्वाण क्षेत्र श्री कैलाशसम्मेदगिरि-गिरनारगिरि-चपापुरी-पावापुरी आदि तीर्थक्षेत्र , श्रीऋषभादिनविशति जिनेन्द्रदेव, श्रीमीमधरादि विशति जिनेन्द्रदेव , आदि समस्तपूज्यपदेभ्यो अनर्थ पद प्राप्तये महाध निर्वपामीति स्वाहा । (१४) शान्ति पाठ शास्त्रोक्त विधि पूजा महोत्सव सुरपति चक्री करे, हम सारीखे लघु पुरुप कैसे यथाविधि पूजा करै । धन क्रिया ज्ञान रहित न जाने रीत पूजन नाथ जी, हम भक्ति वश तुम चरण आगे जोड लीने हाथ जी। दुख हरन मगल करण आशा भरण जिन पूजा सही, यो चित्त मे श्रद्धान मेरे शक्ति है स्वयमेव ही। तुम सारीखे दातार पाए काज लघु जाचूं कहा, मुझ आप सम कर लेऊ स्वामी यही इक बाँछा महा । ससार भीषण विपिन मे वसुकर्म मिल आतापिओ, तिस दाहते आकूलित चिरतै शान्तिथल कह ना लियो । तुम मिले शान्तिस्वरूप शान्तिकरन समरथ जगपति, वसुम मेरे शान्ति करदो शान्तिमय पचम गति । जबलों नही शिवलहू तबलो देह ये धन पावना, सत्सग शुद्धाचरण श्रुत अभ्यास आतम भावना ।। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) तुम बिन अनन्तानन्त काल गयो रूलत जग जाल मे, अव शरण आयो नाथ दुहु कर जोड नावत भाल में । दोहा - कर प्रमाण के मानते, गगननाएँ किहि भत, त्यो तुम गुण वर्णन करत, कवि पावे नहि अत । (पुष्जलि क्षिपेत् ) (१५) विसर्जन पाठ सम्पूर्ण विधिकर वीनऊँ इस परम पूजन ठाठ मे. अज्ञानवश शास्त्रोक्त विधि ते चूक कोनो पाठ मे । सो होऊ पूर्ण समस्त विधिवत् तुम चरण को शरणते, बन्दो तुम्हे कर जोरि के उद्धार जामन मरण | आह्वानन स्थापनन् तथा सन्निधिकरण विधान जी, पूजन विर्सजन यथाविधि जान नही गुणखान जी । जो दोप लोगो सो नसों सब तुम चरण की शरणते, वन्दो तुम्हे कर जोरि कर उद्धार जामन मरणतै । तुम रहित आवागमन आह्वानन कियो निज भाव मे, विधि यथाक्रम निजशक्ति सम पूजन कियो अति चाव मे । करहू क्षमा मोय भाव ही मे तुम चरण को शरणते, बन्दो तुम्हे कर जोरिकै उद्धार जामन मरणते । दोहा - तीनभुवन तिहुकाल मे तुमसा देव न और, सुख कारन सकटहरन, नमहु युगल कर जोर । १६) आत्म सम्बोधन " समझ उर धर कहत गुरुवर, आत्मचिन्तन की घडी है । भव उदधि तन अथिर नौका, वीच मँझधारा पडी है ॥ टेक ॥ मिस है पृथक् तन-धन, सोचरे मन कर रहा क्या लखि अवस्था कर्मजड की, बोल उनसे डर रहा क्या ? ज्ञान-दर्शन चेतना सम और जग मे कौन है रे ? Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) करी है । घडी है ॥ १ ॥ चेत चेतन प्राप्त समय हो जिस कांपते हैं । हैं | ॥ ले | ले || घडी है । दे सके दुख जो तुझे वह, शक्ति ऐसी कौन है रे ? कर्म सुख-दुख दे रहे हैं, मान्यता ऐसी अवसर, आत्मचिन्तन की आत्मदृष्टि, कर्म थर थर भाव की एकाग्रता लखि, छोड खुद ही ले समझ से काम या फिर चतुर्गति ही मे -मोक्ष अरू ससार क्या है, फैसला खुद ही दूर कर दुविधा हृदय से, फिर कहाँ धोखा समझ उर घर कहत गुरुवर, आत्म चिन्तन की घडी है ॥२॥ कुन्दकुन्दाचार्य गुरुवर, गुरुवर, यह सदा ही कहि रहे हैं । समभना खुद ही पडेगा, भाव तेरे वहि रहे है ॥ शुभ क्रिया को धर्म माना, भव इसी से घर रहा है । है न पर से भाव तेरा भाव खुद ही कर है निमित्त पर दृष्टि तेरी, बान ही ऐसी चेत - चेतन प्राप्त अवसर, आत्म चितन की घडी है ॥ ३ ॥ भाव की एकाग्रता रुचि, लीनता पुरुषार्थ करले । मुक्ति बन्धन रूप क्या है, बस इसी का अर्थ कर ले | भिन्न हू पर से सदा में, इस मान्यता मे लीन हो जा । द्रव्य-गुण- पर्याय ध्रुवता, आत्म सुख चिर नीद सो जा ॥ आत्म गुण धर लाल अनुपम, शुद्ध रत्नत्रय जडी है | -समझ उर घर कहत गुरुवर, आत्म चितन की घडी है ॥४॥ रहा है ॥ पडी है । भागते (१७) जिनवाणी माता की स्तुति मिथ्यातम नाशवे को, आपा-पर भासवे को, भानुसी बध बघ विधि छहो द्रव्य जानवे को, स्व-पर पिछानवे को, परम विचर समझ ज्ञान के प्रकाशवे को, बखानी है । भानवे को, प्रमाणी है । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) अनुभव बतायवे को, जीव के जतायवे को, काहू न सतायवे को, भव्य उर आनी है। जहां तहाँ तारवे को, पार के उतारवे को, सुख विस्तारवे को, ये ही जिनवाणी है। है जिनवाणी भारती, तोहि जपो दिन रैन, जो तेरा शरना गहे, सो पावै सुख चैन । जा वानी के ज्ञानते, सूझ लोकालोक, सो वानी मस्तक नवो, सदा देत हो धोक ।। (१८) भव्य जीवों के लिए सच्चा सुख प्राप्त करने योग्य तत्वचर्चा प्रश्न १-आत्मा क्या कर सकता है ? उत्तर-आत्मा चैतन्य स्वरूप है। वह ज्ञाता-दृष्टा के अतिरिक्त अन्य कोई भी कार्य नही कर सकता। प्रश्न २-आत्मा ज्ञाता-दृष्टा के सिवाय और कुछ नहीं कर सकता, तो फिर ससार और मोक्ष की व्यवस्था का क्या मतलब है ? उत्तर-आत्मा ज्ञाता दृष्टा ही है । आत्मा ज्ञाता-दृष्टा के उपयोग को जव पर पदार्थ की ओर लक्ष्य रखकर पर भाव मे यह 'मैं' ऐसा दृढ कर लेता है तव यही ससार कहलाता है और जब स्व की ओर लक्ष्य करके उपयोग को स्व मे यह 'मैं' ऐसा दृढ कर लेता है तब यही मोक्ष कहलाता है। 'स्व'की तरफ लक्ष्य रखकर स्व मे दृढता और पर की तरफ लक्ष्य रखकर पर मैं दृढता। इसके सिवाय अनादिकाल से और कुछ कोई भी जीव कर ही नही सका है और ना अनन्तकाल तक और कुछ कर ही सकेगा। प्रश्न ३-आत्मा ज्ञाता-दृष्टा के सिवाय और कुछ नहीं कर सकता तो फिर समस्त शास्त्रो से क्या लाभ है ? Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) उत्तर - वारह अग के सब शास्त्रो का उपदेश मात्र एक ही है कि चैतन्य का उपयोग जो पर की तरफ ढला हुआ है उसे स्व की तरफ मोडकर स्व मे दृढ करना । चारो अनुयोगो मे मात्र उपयोग को मोड करने की बात है । इसी बात को शास्त्रो मे अनेक युक्तियो से समझाया है । प्रश्न ४ - ससारी और मुक्त जीवो की क्रिया मे क्या भेद हैं ? उत्तर - चैतन्य का ज्ञान उपयोग यही आत्मा की क्रिया है । निगोद से लगाकर सिद्ध भगवान तक के सभी जीव मात्र उपयोग ही कर सकते हैं । ज्ञाता-दृष्टा के सिवाय अन्य कुछ भी नही कर सकते हैं । भेद मात्र इतना ही है कि मिथ्यादृष्टि जीव अपने उपयोग को पर की तरफ लगा कर पर भावो एकाग्र रहते हैं और ज्ञानी अपने उपयोग को अपने शुद्ध स्वभाव में ढालकर स्वभाव मे एकाग्र रहते है । परन्तु कोई भी जीव ज्ञानोपयोग के सिवाय पर पदार्थों मे कोई भी परिवर्तन असर-मदद नही कर सकते है । अज्ञान दशा मे शुभअशुभ रूप अशुद्धोपयोग कर सकता है। याद रखना - शुभ-अशुभ दोनो मे पर का लक्ष्य होने से अशुद्धोपयोग कहलाता है और स्व को ओर का ज्ञानोपयोग शुद्धोपयोग कहलाता है । प्रश्न ५ - बंध-मुक्ति के सम्बन्ध मे क्या सिद्धान्त है ? उत्तर - पर लक्ष्य से वचन और स्वलक्ष्य से मुक्ति होती है । पर लक्ष्य होने पर शुभभाव हो वह भी अशुद्ध उपयोग ही है ससार का कारण है । जहाँ स्व लक्ष्य है वहां शुद्धोपयोग है मुक्ति का कारण है । प्रश्न ६ - विश्व किसे कहते हैं ? उत्तर - जीब अनन्त, पुद्गल अनन्तानन्त, धर्म-अधर्म आकाश एक-एक और लोक प्रमाण अशख्यात काल द्रव्य हैं, इन सबके समूह को विश्व कहते है ? प्रश्न ७ - विश्व की व्यवस्था किस प्रकार है ? उत्तर- प्रत्येक द्रव्य कायम रहता हुआ, अपनी-अपनी प्रयोजनभूत क्रिया करता हुआ, निरन्तर बदलते रहना । यह विश्व की Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५ ) व्यवस्था है । प्रश्न ८ - प्रत्येक द्रव्य कायम रहता हुआ, अपनी-अपनी प्रयोजनभूत किया करता हुआ, निरन्तर बदलता रहता है; इसे स्पष्ट समझाइये ? उत्तर - जीव अनन्त, पुदूगल अनन्तानन्त, धर्म-अधर्म आकाश एक - एक और लोक प्रमाण असख्यात काल द्रव्य हैं । प्रत्येक द्रव्य मे अनन्त - अनन्त गुण हैं। एक-एक गुण मे एक समय मे एक पर्याय का उत्पाद, एक पर्याय का व्यय और गुण कायम रहता है । इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य के गुण मे हो चुका है, हो रहा है और होता रहेगा । इस व्यवस्था को रोकने के लिए या हेर-फेर करने को कोई देव - जिनेन्द्र समर्थ नही है, क्योकि यह जिनेन्द्र से कथित पारमेश्वरी व्यवस्था है । प्रश्न - सुख क्या है ? उत्तर - आकुलता ( चिन्ता, क्लेश, झझट) का उत्पन्न ना होना अर्थात्वस्तुस्वरूप की सच्ची समझ सुख है । प्रश्न १० – आकुलता कैसे मिटे तो सुखी हो ? उत्तर - अपने रागादिक दूर हो या आप चाहे उसी प्रकार सर्व द्रव्य परिणमित हो तो आकुलता मिटे । परन्तु सर्व द्रव्य जैसे यह चाहे वैसे ही हो अन्यथा न हो, तब यह निराकुल रहे परन्तु यह तो हो ही नही सकता, क्योकि किसी द्रव्य का परिणमन किसी द्रव्य के आधीन नही है, इसलिए अपने रागादिक दूर होने पर निराकुलता हो, सो यह कार्य बन सकता है, क्योंकि रागादिक भाव आत्मा के स्वभाव भाव तो हैं नही, उपाधिक भाव है । इसलिए यदि पात्र जीव अपने भूतार्थ स्वभाव का आश्रय ले तो आकुलता का अभाव होकर सुखी हो । [ मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३०७ ] प्रश्न ११ – विश्व मे उत्तम कौन-कौन हैं ? उत्तर - निमित्तरूप पचरमेष्टी और उपादानरूप त्रिकाली अपना भगवान आत्मा, यह दो विश्व मे उत्तम है । अशरण भावना मे कहा Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मात्तर-पचपरमानने से क्याचपरमेष्टी माया" ( ४६ ) है कि "शुद्धातम अरु पचगुरु, जग मे सरनो दोय । मोह उदय जिव के वृथा, आनकल्पना होय ।" प्रश्न १२-निमित्तिरूप पंचपरमेष्टी और उपादानरूप अपने भगवान को उत्तम मानने से क्या होता है ? उत्तर-पचपरमेष्टी की आज्ञानुसार अपने उपादानरूप त्रिकाली आत्मा का आश्रय लेवे तो सम्यग्दर्शनादिक की प्राप्ति होकर क्रम से सिद्ध दशा की प्राप्ति होती है। प्रश्न १३-मोक्षमार्ग किसे कहते हैं ? । उत्तर-सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीनो की एकता ही मोक्षमार्ग है और परवस्तुओं मे, शभभावो मे मोक्षमार्ग नही है। प्रश्न १४-मोक्षमार्ग कितने प्रकार का है ? उत्तर-मोक्षमार्ग तो एक ही प्रकार का है दो प्रकार का नहीं है। परन्तु मोक्षमार्ग का निरूपण दो प्रकार से है। जहाँ वीतरागरूप सच्चे मोक्षमार्ग को मोक्षमार्ग बतलाया है वह तो निश्चय मोक्षमार्ग है। तथा भूमिकानुसार हेयबुद्धि से अस्थिरता सम्बन्धी राग जो मोक्षमार्ग तो नही है परन्तु सच्चे मोक्षमार्ग का निमित्त है व सहचारी है। उसे उपचार से मोक्षमार्ग कहा जाता है, क्योकि निश्चयव्यवहार का चारो अनुयोगो मे ऐसा ही लक्षण है। सच्चा निरूपण निश्चय और उपचार निरूपण व्यवहार है। अत निरूपण की अपेक्षा से दो प्रकार का मोक्षमागं कहना चाहिए। एक निश्चय मोक्षमार्ग है दूसरा व्यवहार मोक्षमार्ग है, इस प्रकार दो प्रकार का मोक्षमागे मानना मिथ्यात्व है। ' [मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ • ५१] प्रश्न १५-निश्चय सम्यग्दर्शन-शान-चारित्र किसे कहते हैं ? . उत्तर-पर से भिन्न स्व का यथार्थ श्रद्धान निश्चय सम्यग्दर्शन है। पर से भिन्न स्व का यथार्थ ज्ञान निश्चय सम्यग्ज्ञान है और पर · से भिन्न स्व का यथार्थ आचरण निश्चय सम्यक्चारित्र है। प्रश्न १६-स्व और पर क्या है ? Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) उत्तर- (१) अमूर्तिक प्रदेशो का पुज, (२) प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणो का धारी, (३) अनादिनिधन, (४) वस्तु स्व है और ( १ ) मूर्तिक पुदूगल द्रव्यो का पिण्ड, (२) प्रसिद्ध ज्ञानादिको से रहित, ( ३ ) जिनका नवीन सयोग हुआ ऐसे शरीरादिक, (४) पुद्गल पर है । प्रश्न १७ - सबसे बड़ा पाप क्या है ? उत्तर - मिथ्यात्व है क्योकि मिथ्यात्व को सात व्यसनो से भी भयकर बडा पाप कहा है । भगवान अमृतचन्द्राचार्य ने गाया १४ मे कहा है कि "आत्मा रागादि और शरीरादिक से असयुक्त होने पर भी सयुक्तजैसा प्रतिभास ही ससार का वीज है अर्थात् महान मिथ्यात्व है ।" 、 प्रश्न १८ - मिथ्यात्व कितने प्रकार का है ? 1 उत्तर - अगृहीत मिथ्यात्व और गृहीत मिथ्यात्व के भेद से दो प्रकार का है । जो अनादिकाल से एक-एक समय करके बिना सिखाये ही चला आ रहा है वह अगृहीत मिथ्यात्व है और मुख्य रूप से मनुष्य जन्म पाने पर कुगुरु- कुदेव कुधर्म के निमित्त से नया-नया ग्रहणकरता है वह गृहीत मिथ्यात्व है । प्रश्न १६ -- अग्रहीत मिथ्यादर्शन क्या है ? उत्तर--"जीवादि प्रयोजनभूत तत्व सरधै तिनमाहिं विपर्ययत्व" जीव, अजीव, आस्रब-बघ सवर - निर्जरा और मोक्ष यह सव प्रयोजनभूत तत्व हैं इनका उल्टा श्रद्धान करना अगृहीत मिथ्यादर्शन है । प्रश्न २० - जीवादि सात तत्व प्रयोजनभूत तत्त्व किस प्रकार हैं ? उत्तर - अपना त्रिकाली ज्ञायक जीवतत्व आश्रय करने योग्य प्रयोजनभूत तत्त्व है। अजीवतत्त्व जानने योग्य प्रयोजनभूत तत्त्व है । आस्रव वध तत्त्व छोडने योग्य प्रयोजनभूत तत्त्व हैं । सवरनिर्जरा तत्त्व एकदेश प्रगट करने योग्य प्रयोजनभूत तत्त्व है और मोक्षतत्त्व पूर्ण प्रगट करने योग्य प्रयोजनभूत तत्व है । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) प्रश्न २१--जीव स्वरूप क्या है और क्या नहीं है ? उत्तर-"चेतन को है उपयोगरूप, विनमूरत चिन्मूरत अनूप । यूद्गल नभ धर्म-अधर्म काल, इनते न्यारी है जीव चाल" (१) मैं ज्ञान दर्शन उपयोगीमयी जीवतत्व हूँ; (२) मेरा कार्य ज्ञाता-दृष्टा है, (३)आँख-नाक-कान औदारिक आदि शरीरो रूप मेरी मूर्ति नहीं है, (४) चैतन्य अरूपी असल्यात प्रदेशी मेरा एक आकार है, (५) सर्वज्ञ स्वभावी ज्ञानपदार्थ होने से मेरी आत्मा अनुपम है। (६) मुझ निज आत्मा के अलावा अनन्तजीव, अन्नतानन्त पुद्गल, धर्म-अधर्म-आकाश एक-एक और लोक प्रमाण असत्यात काल द्रव्यो से मेरे जीवतत्व का स्वरूप पृथक् है क्योकि मेरा द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव पृथक् है और इन सबका द्रव्य क्षेत्र-काल-भाव पृथक है। प्रश्न २२-अग्रहीत मिथ्यावर्शन के कारण अज्ञानी जीव जीवतत्व के विषय में क्या मानता है ? उत्तर-"मैं सुखी दुखी मैं रक राव, मेरे धन ग्रह गोधन प्रभाव, मेरे सुत तिय मैं सवल दीन, वेरूप सुभग मूरख प्रवीण" || शरीर है सो मैं ही हूँ, शरीर का कार्य में कर सकता हू, शरीर का हलन चलन मुझ से होता है। शरीर निरोग हो मुझे लाभ हो, वाद्य 'अनुकूल सयोगो से मैं सुखी और वाह्य प्रतिकूल सयोगो से मैं दुखी, मैं निर्धन, मै धनवान, मैं बलवान, मैं निर्बल, मैं मनुष्य, मैं कुरूप, मै सन्दर, शरीर आश्रित क्रियामो मे अपनापना मानना-यह अगृहीत मिथ्यादर्शन के कारण जीवतत्व का उलटा श्रद्धान है। प्रश्न २३-अजीव तत्त्व क्या है ? उत्तर-जिसमे मेरा ज्ञान-दशन नही है वह अजीव तत्व है। प्रश्न २४- अगहीत मिथ्यादर्शन के कारण अज्ञानी जीव अजीवतत्व के विषय मे क्या मानता है ? उत्तर-"तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान" । शरीर उत्पन्न होने से मेरा जन्म हआ, शरीर का नाश होने से मैं मर जाऊँगा, धन शरीर इत्यादि जड पदार्थों में परिवर्तन होने से Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) अपने मे इष्ट-अनिष्टपना मानना, शरीर की उष्ण या ठडी अवस्था होने पर मुझे बुखार आया, शरीर मे भूख प्यास काली-गोरी आदि अवस्थायें होने पर अपनी आत्मा की अवस्था मानना यह अगृहीत मिथ्यादर्शन के कारण अजीवतत्व सम्बन्धी जीवत्व का उल्टा श्रद्धान है। प्रश्न २५--भाव आश्रव क्या है ? उत्तर-शुभाशुभ विकारी भावो का उत्पन्न होना यह भावआस्रव है। प्रश्न २६-अगृहीत मिथ्यादर्शन के कारण अज्ञानी जीव आत्रव तत्व के विषय मे क्या मानता है ? उत्तर-"रागादि प्रगट के दुःख दैन, तिन ही सेवत गिनत चैन"। मिथ्यात्व, राग-द्ध ष रूप शुभाशुभ भाव आस्रव हैं। ये भाव आत्मा को प्रगट रूप से दु ख के देने बाले है। परन्तु अगृहीत मिथ्यादर्शन के कारण इन शुभाशुभ भावो को हितरूप जानकर निरन्तर उनका सेवन करना-यह मानवतत्व सम्बन्धी जीव तत्व का उल्टा श्रद्धान है। प्रश्न २७-भाव वन्ध क्या है ? उत्तर-आत्मा का अज्ञान, राग-द्वप, पुण्य-पाप रूप विभावो मे रुक जाना—यह भाववध है। प्रश्न २८-अगृहीत मिथ्यावर्शन के कारण अज्ञानी जीव बंधतत्व के विषय मे क्या मानता है ? उत्तर- "शुभु अशुभ बध के फल मझार, रति अरति कर निज पद विसार" । जैसे सोने की बेडी वैसे ही लोहे की वेडी दोनो वधन करता है। परन्तु अगृहीत मिथ्यादर्शन के कारण अपने आप का पता ना होने से पुण्य के फल मे राग और पाप के फल मे द्वष करता है। तत्वदृटि से पुण्य-पाप दोनो अहिन कर ही है । परन्तु पुण्य को अच्छा और पाप को बुरा मानना--यहाँबध तत्व सम्बन्धी जीवतत्व का उल्टा “श्रद्धान है। प्रश्न २६-नास्ति और अस्ति से भाव संवर क्या है ? Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर-पुण्य-पाप रुप अशुद्ध भाव का उत्पन्न ना होना नास्ति से भाव सवर है और शुद्धि की उत्पति होना अस्ति से भाव सवर है ।, प्रश्न ३०-अगृहीत मिथ्यादर्शन के कारण अज्ञानी जीव संवर तत्व के विषय मे क्या मानता है ? उत्तर-"आतमहित हेतु विराग ज्ञान, तै लखै आपको कष्ट दान" । निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र जीव को हितकारी है ! परन्तु अगृहीत मिथ्यादर्शन के कारण उनको कष्टदायक माननासवरतत्व सम्बन्धी जीव तत्व का उल्टा श्रद्धान है। प्रश्न ३१-नास्ति और अस्ति भाव निर्जरा क्या है ? उत्तर-अशुद्धि की हानि नास्ति से भाव निर्जरा है और शुद्धि की वृद्धि अस्ति से भाव निर्जरा है। प्रश्न ३२-~अगृहीत मिथ्यादर्शन के कारण अज्ञानी जीव निर्जरा तत्व के विषय से क्या मानता है ? उत्तर-"रोके न चाह निज शक्ति खोय" । आत्मा मे एकाग्र होकर शभाशभ कर्मों की इच्छा उत्पन्न ना होने से निज आत्मा की शुद्धि का बढना वह तप है। उस तप से निर्जरा होती है, वह त सुखदायक है। परन्तु अगृहीत मिथ्यादर्शन के कारण उसे कष्टदायक मानना और आत्मा की ज्ञानादि अनन्त पाक्तियो को भूलकर पाँच इन्द्रियो के विषय मे सुख मानकर प्रीति करना-यह निर्जरा तत्व सम्बन्धी जीव तत्व का उल्टा श्रद्धान है। प्रश्न ३३-नास्ति से और अस्ति से भावमोक्ष क्या है ? उत्तर-सम्पूर्ण अशुद्धि का सर्वथा अभाव होना नास्ति से भावमोक्ष है और सम्पूर्ण शुद्धि का प्रगट होना अस्ति से भावमोक्ष है। प्रश्न ३४-अगृहीत मिथ्यादर्शन के कारण अज्ञानी जीव मोक्षतत्व के विषय मे क्या मानता है ? । उत्तर-"शिवरूप निराकुलतान जोय" । सम्पूर्ण शुद्धि प्रगट. होने से सम्पूर्ण आकुलता का अभाव है, पूर्ण निराकुल स्वाधीन सुख है। परन्तु अगृहीतमिथ्यादर्शन के कारण शरीर के मौज-शौक में ही Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) सुख मानना, मोक्ष मे शरीर, इन्द्रिय, खाना-पीना, मित्रादि कुछ भी । नही होते हैं इसलिए मोक्ष मे अतीन्द्रिय स्वाधीन सुख न मानना यह । मोक्षतत्व सम्बन्धी जीवतत्व का उल्टा श्रद्धान है। प्रश्न ३५-जिनमत मे जो मोक्ष का उपाय कहा है इससे मोक्ष होता ही है ऐसा किस प्रकार है ? __ उत्तर-मोक्ष के उपाय मे पांच कारण एक ही साथ होते हैं जब पात्रजीव (१) अपने ज्ञायक स्वभाव के सन्मुख होकर (२) पुरुषार्थ करता है, (३) काललब्धि, (४) भवितव्य और (५) कर्म के उपशमादि धर्म करने वाले को एक ही साथ होते है। इसलिए जो पात्र जीव पुरुषार्थ से जिनेश्वरदेव के उपदेशानुसार मोक्ष का उपाय करता है, उसको सर्व कारण मिलते है और उसे नियम से मोक्ष की प्राप्ति होती ही है। प्रश्न ३६-निमित्त और उपादान दोनो इकट्ठे होकर कार्य करते हैं ऐसा मानने वाले के ज्ञान में क्या-क्या दोष आते हैं ? उत्तर-(१) कार्य का सच्चा कारण उपादान कारण है उसे नही पहिचाना अन्यथा कारण मानने से कारण-विपरीतता हुई। (२) जब उपादान अपना कार्य करता है तब उचित निमित्त स्वयमेव होता ही है। निमित्त को उपचार मात्र कारण कहने मे आता है। ऐसा वस्तुस्वरूप ना जानने से स्वरूप-विपरीतता हुई। (३) प्रत्येक द्रव्य सदैव अपना ही कार्य करता है पर का कुछ भी नही कर सकता है ऐसी भिन्नता ना जानने से भेदाभेद-विपरीतता हुई। प्रश्न ३७-जिनके जानने से मोक्षमार्ग मे प्रवृत्ति हो वह क्या क्या है ? उत्तर-हेय-उमादेय तत्वो की परीक्षा करना, जीवादि छह द्रव्यो को,सात तत्वो को,छह सामान्य गुणो को चार अभावो को, छह कारको को देव-गुरु-धर्म को पहिचानना, त्यागने योग्य मिथ्यादर्शनादिक का और ग्रहण करने योग्य सम्यग्दर्शनादिक का स्वरूप: पहिचानना, निमित्त-नैमित्तिक, निश्चय-व्यवहार, उपादान-उपार Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) - तथा समयसार मे सौवी गाथा के चार वोल जिस प्रकार हैं उसी प्रकार समझने से मोक्षमार्ग मे प्रवृत्ति होती है । " [ मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २५६ ] प्रश्न ३८ - समय थोड़ा है हम पढे लिखे कम हैं, हमे तो ऐसा उपाय बताओ ताकि हमारा कल्याण तुरन्त हो जाये ? उत्तर - सज्ञी पचेन्द्रिय को इतना ज्ञान का उघाड है कि वह अपना कल्याण तुरन्त कर लेवे । मात्र जो स्वय अनादि अनन्त हैं 'उसकी ओर दृष्टि करते ही चारो गतियो का अभाव हो जाता है । अरे भाई मात्र दृष्टि बदलनी है । दृष्टि बदलते ही तू स्वय भगवान पर्याय में बन जावेगा किसी से पूछना नही पडेगा । प्रश्न ३६- फिर भी हम किन शास्त्रो का अभ्यास करें ताकि हमारी दृष्टि बदलकर अपने को अनुभव करे ? उत्तर - मोक्षमार्ग प्रकाशक, लघु जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, छहढाला की दूसरी ढाल, योगसार के दोहों का निरन्तर स्मरण तथा मुख्य रूप से जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला के सात भागो का अभ्यास करके उसके अनुसार अपनी आत्मा का आश्रय ले, तो अपना अनुभवज्ञान तुरन्त होवे और क्रम से मोक्ष रूपी सुन्दरी का नाथ बने । प्रश्न ४० - निरन्तर स्मरण रखने योग्य पाँच बोल क्याक्या हैं ? उत्तर- ( १ ) अनादिकाल से आज तक किसी भी परद्रव्य ने मेरा भला-बुरा किया ही नही । ( २ ) अनादिकाल से आज तक मैंने भी किसी भी परद्रव्य का भला बुरा किया ही नही, (३) अनादिकाल से आज तक नुक्सानी का ही धधा किया है, यदि नुक्सानी का धवा ना किया होता तो ससार परिभ्रमण मिट गया होता, सो हुआ नही, (४) वह नुक्सानी मात्र एक समय की पर्याय में हैं द्रव्य - गुण मे नही है, (५) यदि पर्याय की नुक्सानी मिटानी हो और पर्याय मे शान्ति लानी हो तो एकमात्र अपने अनन्त गुणो के अभेद पिण्ड की ओर दृष्टिकर | Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , B ( ५३ ) (१९) सर्वज्ञ देव कथित छहों द्रव्यों की स्वतन्त्रता दर्शक छह सामान्यगुण कर्त्ता जगत का मानता, जो कर्म या भगवान को । वह भूलता है लोक मे, अस्तित्व गुण के ज्ञान को ॥ उत्पाद - व्यययुत वस्तु है, फिर भी सदा ध्रुवता धरे । अस्तित्वगुण के योग से, कोई नही जग में मरे ॥१॥ वस्तुत्वगुण के योग से, हो द्रव्य में स्व-स्व क्रिया । स्वाधीन गुण- पर्याय का ही, पान द्रव्यो ने किया || सामान्य और विशेषता से, कर रहे निज काम को । यो मानकर वस्तुत्वको, पाओ विमल शिवधाम को || २ || द्रव्यत्वगुण इस वस्तु को जग मे पलटता है सदा । लेकिन कभी भी द्रव्य तो, तजता न लक्षण सम्पदा ॥ स्वद्रव्य मे मोक्षाथि हो, स्वाधीन सुख लो सर्वदा । हो नाश जिससे आज तक की, दुखदाई भव कथा || ३ || सब द्रव्य-गुण प्रमेय से, बनते विषय हैं ज्ञान के रुकता न सम्यग्ज्ञान पर से, जानियो यो ध्यान से || आत्मा अरूपी ज्ञेय निज, यह ज्ञान उसको जानता । है स्व पर सत्ता विश्व मे, सुदृष्टि उनको जानता ॥४॥ 1 1 यह गुण अगुरुलघु भी सदा, रखता महत्ता है महा । गुण-द्रव्य को पर रूप यह होने न देता है अहा || निजगुण - पर्यय सर्व ही रहते सतत निज भाव मे । कर्ता न हर्ता अन्य कोई, यो लखो स्व-स्वभाव मे ||५|| प्रदेशत्व गुण की शक्ति से, आकार द्रव्य धरा करे । निज क्षेत्र मे व्यापक रहे, आकार भी पलटा करे ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) आकार हैं सबके अलग, हो लीन अपने ज्ञान मे। जानो इन्हे सामान्यगुण, रक्खो सदा श्रद्धान मे ॥६॥ (२०) बारह भावना (जयचन्द्रजी) अनित्य-द्रव्यरूप करि सर्व थिर, परजय थिर है कौन । द्रव्यदृष्टि आपा लखो, परजय नय करि गौन ॥१॥ अशरण-शुद्धातम अरु पचगुरु जग मे सरनो दोय । मोह उदय जिय के वृथा, आन कल्पना होय ॥२॥ ससार-पर द्रव्यन ते प्रीति जो, है ससार अवोध । ताको फल गति चार मे, भ्रमण कह्योश्रुतशोध ॥३॥ एकत्व-परमारथ ते आतमा, एक रूप ही जोय । कर्म निमित्त विकलप घने, तिन नाशे शिव होय ॥४॥ अन्यत्व-अपने-अपने सत्व कं सर्व वस्तु विलसाय । ऐसें चितवं जीव जब, परते ममत न थाय ॥५॥ अशुचि-निर्मल अपनी आत्मा, देह अपावन गेह । जानि भव्य निज भाव को, चासो तजो सनेह ॥६॥ आलव-आतम केवल ज्ञान मय, निश्चय दृष्टि निहार । सब विभाव परिणाम मय बासव भाव विडार ॥७॥ संवर-निज स्वरूप में लोनता, निश्चय संवर जानि । तमिति गुप्ति सजम धरम धरै पाप की हानि ॥८॥ निर्जरा-संवर मप है सातना. पूर्द कर्म झड़ जाय । निलस्वरूप को पापकर, लोक शिखर जब थाय ॥६॥ लोक-लोक स्वरूप विचार, भातम रूप निहार। परमारप बदहार पुषि, मिसालाद तिवारि ॥६॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५ ) बोधिदुर्लभ - वोधि आपका भाव है, निश्चय दुर्लभ नाहिं || भव मे प्रापति कठिन है, यह व्यवहार कहाहि ॥ ११॥ धर्म-दर्श ज्ञानमय चेतना, आतम धर्म बखानि । दया क्षमादिक रतनत्रय, यामे गर्भित जानि ॥ १२ ॥ (२१) सामायिक पाठ अमितगति आचार्य ( अनुवादक - श्री युगलजी) प्रम भाव हो सब जीवो से, गुणी जनो मे हर्ष प्रभो । करुणा श्रोत बहे दुखियो पर दुर्जन में मध्यस्थ विभो । १ । यह अनन्त बल-शील आतमा, हो शरीर से भिन्न प्रभो । ज्यो होती तलवार म्यान से, वह अनन्त बल दो मुझको |२| सुख-दुख वैरी वन्धु वर्ग मे, काँच कनक मे समता हो । वन उपवन, प्रासादकुटी मे नही खेद, नहिं ममता हो |३| जिस सुन्दरतम पथ पर चलकर जीत मोह मान मन्मथ । वह सुन्दर पथ ही प्रभु । मेरा बना रहे अनुशीलन पथ | ४ | एकेन्द्रिय आदिक प्राणी को, यदि मैंने हिंसा की हो । शुद्ध हृदय से कहता हू वह, निष्फल हो दुष्कृत्य प्रभो |५| मोक्ष मार्ग प्रतिकूल प्रवर्तन, जो कुछ किया कषायो से । विपथ-गमन सब कालुष मेरे, मिट जावें सद्भावो से | ६ | चतुर वैद्य विष विक्षत करता, त्यो प्रभु | मैं भी आदि उपात । अपनी निन्दा आलोचन से, करता हू पापो को शान्त |७| सत्य अहिंसादिक वृत मे भी, मैंने हृदय मलीन किया । व्रत-विपरीत-प्रवर्त्तन न करके, शोलाचरण विलीन किया |८| कभी वासना की सरिता का, गहन सलिल मुझ पर छाया । पी पीकर विषयो की मदिरा, मुझमे पागलपन आया || 1 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) मैंने छली और मायावी हो असत्य आचरण किया । पर निन्दागाली, चुगली जो मुँह पर आया वमन किया |१०| निरभिमान उज्ज्वल मानस हो, सदा सत्य का ध्यान रहे । निर्मल जल की सरिता सदृश, हिय मे निर्मल ज्ञान वहे |११| मे मुनि, चकी शक्री के हिय मे, जिस अनन्त का ध्यान रहे । गाते वेद पुराण जिसे वह परम देव मम हृदय रहे |१२| दर्शन ज्ञान स्वभावी जिसने सब विकार हो वमन किये। परम ध्यान गोचर परमातम, परमदेव मम हृदय रहे | १३ | जो भव दुख का विध्वसक है, विश्व-विलोकी जिसका ज्ञान । योगी-जन के ध्यान गम्य वह बसे हृदय देव महान | १४ | मुक्ति-मार्ग का दिग्दर्शक है, जन्म मरण से परम अतीत । निष्कलक त्रैलोक्य-दर्शि वह, देव रहे मम हृदय समीप |१५| निखिल विश्व के वशीकरण वे, राग रहे ना द्वेष रहे । शुद्ध अतीन्द्रिय ज्ञान स्वरूपी परम देव मम हृदय रहे । १६ । देख रहा जो निखिल विश्व को, कर्म कलक विहीन विचित्र । स्वच्छ विनिर्मल निर्विकार वह, देव करे मम हृदय पवित्र |१७| कर्म फलक अछूत न जिसको, कभी छू सके दिव्य प्रकाश । मोह तिमिर को भेद चलाजो, परमशरण मुझको वह आप्त | १८ | जिसकी दिव्य ज्योति के आगे फीका पडता सूर्य प्रकाश । स्वयं ज्ञान मयस्वपर प्रकाशी, परमशरण मुझको वह आप्त ।१९। जिसके ज्ञान रूप दर्पण मे, स्पष्ट झलकते सभी पदार्थ | आदिअतसे रहित, शान्त, शिव, परमशरण मुझकोवह आप्त | २० | जैसे अग्नि जलाती तरु को, तैसे नष्ट हुए स्वयमेव । भय-विषाद चिन्ता सब जिसके परमशरणमुझको वह देव | २१ | तृण, चौकी, शिल शैलशिखरनाह, आत्म समाधी के आसन । सस्तर, पूजा सघ सम्मिलन, नही समाधि के साधन | २२ | T Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) इष्ट-वियोग अनिष्ट-योग मे, विश्व मनाता है मातम । हेय सभी है विश्व वासना, उपादेय निर्मल आतम ।२३। वाह्य जगत कुछ भी नहि मेरा और न वाह्य जगत का मैं । यह निश्चय कर छोड वाह्यको, मुक्ति हेतु'नित स्वस्थर मैं ।२४। अपनी निधि तो अपने मे है, वाह्य वस्तु मे व्यर्थ प्रयास । जग का सुख तो मृग तृष्णा है झूठे हैं उसके पुरुषार्थ ।२५। अक्षय है शास्वत है आत्मा, निर्मल ज्ञान स्वभावी है। जो कुछ बाहर है सब पर है, कर्माधीन विनाशी है ।२६। तन से जिसका ऐक्य नही हो सुत, तिय मित्रो से कैसे ? । चर्म दूर होने पर तन से, रोम-समूह रहे कैसे ? ।२७। महा कष्ट पाता जो करता पर पदार्थ जड-देह सयोग । मोक्ष महल का पथ है सीधा, जड चेतन का पूर्ण वियोग ।२८। जो ससार पतन के कारण, उन विकल्प जालो को छोड। निर्विकल्प, निर्द्वन्द आत्मा, फिर फिर लीन उसीमे हो।२६। स्वय किये जो कर्म शुभाशुभ, फल निश्चय ही वे देते। करे आप फल देय अन्य तो, स्वय किये निष्फल होते ॥३०॥ अपने कर्म सिवाय जीव को, कोई न फल देता कुछ भी। 'पर देता है' यह विचार तज, स्थिर हो छोड प्रमादी बुद्धि ।३१। निर्मल, सत्य, शिव सुन्दर है 'अमित गति' वह देव महान । शाश्वत निजमे अनुभव करते, पाते निर्मल पद निर्वाण १३२। (२२) अमूल्य तत्त्व विचार (मैं कौन हू) बहु पुण्य-पुज-प्रसग से शुभ देह मानव का मिला, तो भी अरे | भवचक्र का फेरा न एक कभी टला। सुख-प्राप्ति हेतु प्रयत्न करते सुक्ख जाता दूर है। तू क्यो भयकर-भावमरण-प्रवाह मे चकचूर है ॥१॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) लक्ष्मी बढी अधिकार भी, पर बढ गया बोलिये । परिवार और कुटुम्ब है क्या वृद्धि ? कुछ नहि मानिये । ससार का वढना अरे । नर देह की यह हार है । नही एकक्षण तुमको अरे । इसका विवेक विचार है ॥२॥ निर्दोष सुख निर्दोष आनन्द लो जहाँ भी प्राप्त हो । यह दिव्य अन्त तत्त्व जिससे वन्वनो से मुक्त हो । परवस्तु मे मूर्च्छित न हो इसकी रहे मुझको दया । वह सुख सदा ही त्याज्य रे । पश्चात् जिसके दुःख भरा ॥३॥ मैं कौन हू, आया कहाँ से, और मेरा रूप क्या । सम्बन्ध दुखमय कौन है ? स्वीकृत करूं परिहार क्या ? इसका विचार विवेक पूर्वक शान्त होकर कीजिये । तो सर्व आत्मिक ज्ञान के सिद्धान्त का रस पीजिये ॥ ४ ॥ किसका वचन उस तत्त्व की उपलब्धि मे शिवभूत है । निर्दोष नर का वचन रे । वह स्वानुभूति प्रसूत है । तारो अहो तारो निजात्मा शीघ्र अनुभव कीजिये । 'सर्वात्ममे समदृष्टिद्यो' यह वच हृदय लिख लीजिये ॥५॥ योगसार (२३) श्रीमद् योगीन्दुदेव विरचित् निर्मल ध्यानरूढ हो, कर्म कलक नशाय । हुये सिद्ध परमात्मा, वन्दत हू जिनराय ॥ १ ॥ चार घातिया क्षय करि, लहा अनन्त चतुष्ट । वन्दन कर जिनचरणको, कहू - काव्य सुदृढ ॥ २ ॥ इच्छक जो निज मुक्ति का भवभय से डर चित्त । उन्ही भव्य सम्बोध हित, रचा काव्य इकचित्त ॥३॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) जीव, काल, ससार यह, कहे अनादि अनन्त । मिथ्यामति मोह से दुखी, नहि सुख कभी लहन्त ।।४।। चार गति दुख से डरे, तो तज परभाव । शुद्ध आत्म चिन्तन करि, लो शिव सुख का भाव ॥५॥ त्रिविध आतमा जानके, तब बहिरातम रूप । अन्तर आतम होय के, भज परमात्म स्वरूप ॥६॥ मिथ्यामति से मोहिजल, जाने नहि परमात्म । भ्रमते जो ससार मे, कहा उन्हे बहिरात्म ॥७॥ परमात्मा को जानके, त्याग करे परभाव । -सत् पडित भव सिन्धु को, पार करे जिमि नाव ॥८॥ 'निर्मल, निकल, जिनेन्द्र, शिव, सिद्ध, विष्णु, बुद्ध, शात । सो परमातम जिन कहे, जानो हो निन्ति ॥६॥ देहादिक जो पर कहे, सो मानत निज रूप । बहिरात्म वे जिन कहे, भ्रमते बहु भव कूप ।।१०।। देहादिक जो पर कहे, सो निजरूप न मान । ऐसा जान के जीव तू, निजरूप को निज जान ॥११॥ निज को निज का रूप जौ, जाने सो शिव होय । पर रूप माने आत्म का, तो भव भ्रमण न खोय ॥१२॥ बिन इच्छा शुचि तप करे, जाने निज रूप आप । सत्वर पावे परमपद, लहे न पुनि भव ताप ॥१३॥ "बध-मोक्ष परिणाम से" कर निज वचन प्रमाण । अटल नियम यह जानके, सत्य भाव पहिचान ॥१४॥ निज रूप के जो अज्ञजन, करे पुण्य बस पुण्य । तदपि भ्रमत ससार मे, शिव सुख से हो शून्य ।।१५।। निज दर्शन ही श्रेष्ठ है, अन्य न किंचित मान । हे योगी । शिव हेतु अव, निश्चय तू यह जान ॥१६।। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानक अरु मार्गणा, कहे दृष्टि व्यवहार ।। निश्चय मातम ज्ञान तो, परमेष्टी पदकार ॥१७॥ गृह कार्य करते हुए, हेयाहेय का ज्ञान । ध्यावे सदा जिनेश पद, शीघ्र लहे निर्वाण ।।१८।। जिन सुमरो जिन चिन्तवो, जिन ध्यावो मन शुद्ध । जो ध्यावत क्षण एक मे, लहत परमपद शुद्ध ॥१६॥ जिनवर अरु शुद्धात्म मे, भेद न किचित जान । मोक्षाथ हे योगिजन । निश्चय तू यह मान ॥२०॥ जिनवर सो आतम लखो, यह सिद्धान्तिक सार । जानि इह विधि योगिजन | तज दो मायाचार ॥२१॥ जो परमात्मा सो हि मैं, जो मैं सो परमात्म । ऐसा जानके योगिजन | तज विकल्प वहिरात्म ॥२२॥ शुद्ध प्रदेशी पूर्ण है, लोकाकाश प्रमाण । सो आतम जानो सदा, लहो शीघ्र निर्वाण ॥२३॥ निश्चय लोक प्रमाण है, तनु-प्रमाण व्यवहार । ऐसा आतम अनुभवो, शीघ्र लहो भवपार ॥२४॥ लक्ष चौरासी योनि मे, भटका काल अनन्त । पर सम्यक्त तू नहि लहा, सो जानो निन्ति ॥२५॥ शुद्ध सचेतन, बुद्ध, जिन, केवल-ज्ञान स्वभाव । सो आतम जानो सदा, यदि चाहो शिव भाव ॥२६॥ जब तक शुद्ध स्वरूप का, अनुभव करे न जीव । तब तक प्राप्ति न मोक्ष की, रुचि, तहँ जावे जीव ॥२७॥ ध्यान योग्य त्रिलोक मे, जिन, सो आतम जान । निश्चय से यह जो कहा, तामे भ्रान्ति न मान ॥२८॥ जब तक एक न जानता, परम पुनीत सुभाव । व्रत-तप सब अज्ञानी के, शिव के हेतु न कहाय ॥२६॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) जो शुद्धातम अनुभवे, व्रत-सयम सयुक्त । जिनवर भाषे जीव वह, शीघ्र होय शिवयुक्त ॥३०॥ जब तक एक न जानता, परम पुनीत सुभाव । व्रत-तप-सयम-शील सब, निष्फल जानो दाव ॥३१॥ स्वर्ग प्राप्ति हो पुण्य से, पापे नरक निवास । दोऊ तजि जाने आत्म को, पावे सो शिव वास ॥३२॥ व्रत-तप-सयम-शील सव, ये केवल व्यवहार । जीव एक शिव हेतु है, तीन लोक का सार ॥३३॥ आत्म भाव से आत्म को, जाने-तज परभाव । जिनवर भाषे जीव वह, अविचल शिवपुर जाव ॥३४॥ जिन भाषित षट् द्रव्य जो, पदार्थ नव अरु तत्त्व । कहा इसे व्यवहार से, जानो करि प्रयत्न ॥३५॥ शेष अचेतन सर्व हैं, जीव सचेतन सार । मुनिवर जिनको जानके, शीघ्र हुवे भवपार ॥३६॥ शुद्धातम यदि अनुभवो, तजकर सब व्यवहार । जिन परमातम यह कहे, शीघ्र होय भवपार ॥३७॥ जीव-अजीव के भेद का, ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान । हे योगी । योगी कहे, मोक्ष हेतु यह जान ॥३८॥ योगी कहे रे जीव तू, जो चाहे शिव लाभ । केवलज्ञान स्वरूपी यह, आत्म तत्त्व को जान ॥३६॥ को समता किसकी करे, सेवे पूजे कौन ? किसकी स्पर्शास्पर्शता ठगे कोई को कौन ? को मैत्री किसकी करे, किसके साथ ही क्लेश । जहँ देखू सब जीव तह, शुद्ध बुद्ध ज्ञानेश ।।४०॥ सद्गुरु वचन प्रसाद से, जाने न आतमदेव । भ्रमे कुतीर्थ तब तलक, करे कपट के खेल ॥४१॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) तीर्थ-मन्दिरे देव नहिं, यह श्रुत केवलि वान । तन-मन्दिर मे देव जिन, निश्चिय करके जान ॥४२॥ तन-मन्दिर मे देव जिन, जन, मन्दिर देखन्त । हँसी आय यह देख कर, प्रभु भिक्षार्थ भ्रमन्त ॥४३॥ नही देव मन्दिर बसत, देव न मूत्रि-चित्र । तन मन्दिर मे देव जिन, समझ होय समचित ॥४४॥ तीर्थ मन्दिर मे सभी, लोग कहे है देव । विरले ज्ञानी जानते, तन मन्दिर मे देव ।।४।। जरा मरण भय हरण हित, करो धर्म गुणवान । अजरामर पद प्राप्ति हित, कर धोषधि पान ।।४६।। शास्त्र पढे, मठ मे रहे, शिर के लुंचे केश । घरे वेश मुनिजनन का, धर्म न पाये लेश ॥४७।। राग-द्वेष दोऊ त्याग के, निज मे करे निवास । जिनवर भाषित धर्म यह पचम गति मे वास ।।४८।। मन न घटे आयु घटे, घटे न इच्छा-भार । नहि आतम हित कामना, यो भ्रमता ससार ॥४६॥ ज्यो रमता मन विषय मे, त्यो जो आतम लीन । मिले शीघ्र निर्वाण-पद, धरे न देह नवीन ॥५०॥ नर्कवास सम जर्जरित, जानो मलिन शरीर । करि शुद्धात्म भावना, शीघ्र लहो भवतीर ॥५१॥ जग के धधे मे फंसे करे न आतम ज्ञान । जिसके कारण जीव वे, पात नही निर्वाण ॥५२॥ शास्त्र पाठि भी मूढ सम, जो निज तत्त्व अजान । इस कारण इस जीव को, मिलें नही निर्वाण ॥५३॥ मन इन्द्रिय से दूर हट, क्यो पूछत बहु बात ।। राग प्रसार निवार कर, सहज स्वरूप उत्पाद ॥५४॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) जीव-पुद्गल दोऊ भिन्न है, भिन्न सकल व्यवहार । तज पुद्गल, ग्रह जीव तो, शीघ्र लहे भवपार ॥५५॥ स्पष्ट न माने जीव को, अरु नहिं जानत जीव । छूटे नही ससार से, भाषे जिन जी अतीव ॥५६।। रत्न-हेम-रवि-दूध-दधि, घी-पत्थर अरु दीप। स्फटिक-रजत और अग्नि नव, त्यो जानो यह जीव ।।५।। देहादिक को पर गिने, ज्यो शून्य आकाश । लहे शीघ्र परब्रह्म को केवल करे प्रकाश ॥५८।। जैसे शुद्ध आकाश है, वैसे ही शुद्ध जीव । जड रूप जानो व्योम को, चेतन लक्षण जीव ॥५६॥ ध्यान धरे अभ्यन्तरे, देखत जो अशरीर । मिटे जन्म लज्जा जनक, पिये न जननी क्षीर ॥६०॥ तन विरहित चैतन्य तन, पुद्गल तन जड जान । मिथ्या-मोह विनाश के, तन भी निज मत मान ।।६१।। निजको निज से जानकर, क्या फल प्राप्ति न पाय ? प्रकटत केवल ज्ञान औ, शाश्वत सौख्य लहाय ॥६॥ यदि परभाव तजि मुनि, जाने आपसे आप। केकल ज्ञान स्वरूप लहि, नाश करे भवताप ॥६३॥ धन्य अहो । भगवन्त बुध, जो त्यागे परभाव । लोकालोक प्रकाश कर, जाने विमल स्वभाव ॥६४॥ मुनिजन या कोई गृही, जो रहे आतम लीन । शीघ्र सिद्धि सुख को लहे, कहते यह प्रभु जिन ॥६५॥ बिरला जाने तत्त्व को, श्रवण करे अरु कोई। बिरला ध्यावे तत्त्व को, बिरला धारे कोई ॥६६॥ गृह-परिवार मम हैं नही, हैं सुख दुख की खान । यो ज्ञानी चिन्तन करि, शीघ्र करें भव हानि ॥६७॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) EEEEEEEE इन्द्र फणीन्द्र-नरेन्द्र भी नही शरण दातार । मुनिवर 'अशरण' जानके, निज रूप वेदत सार ॥६॥ जन्म मरण एकहि करें, सुख दुख वेदत एक । नर्क गमन भी एक ही, मोक्ष जाय जीव एक ॥६६॥ यदि जीव तू है एकला. तो तज सब परभाव । ध्यावो आत्मा ज्ञानमय, शीघ्र मोक्ष सुख पाव ॥७०॥ पाप तत्त्व को पाप तो, जाने जग सव कोई। पुण्य तत्त्व भी पाप है, कहे अनुभवी कोई ॥७१॥ लोह वेडी बन्धन करे, यही स्वर्ण का धर्म । जानि शुभाशुभ दूर कर, यह ज्ञानी का मर्म ॥७२॥ यदि तुझ मन निर्ग्रन्थ है, तो तू है निम्रन्थ । जब पावे निर्गन्यता तब पावे शिव पन्थ ॥७३॥ ज्यो बीज मे है बड प्रकट, बड मे वीज लखात । त्यो ही देह मे देव वह, जो त्रिलोक का नाथ ॥७४॥ जो जिन है सो मैं हिह, कर अनुभव निन्ति । हे योगी । शिव हेतु तज, मन्त्र-तन्त्र विभ्रान्त ॥७॥ द्वि-त्रि-चार औ पाच-छ , सात पाच और चार । नव गुणयुत परमात्मा, कर तू यह निरधार ॥७॥ दो तजकर दो गुण गहे, रहे आत्म-रस लीन । शीघ्र लहे निर्वाण-पद, यह कहते प्रभु-जिन ॥७७॥ त्रय तजकर त्रयगुण गहे, निज मे करे निवास । शाश्वत सुख के पात्र वे, जिनवर करे प्रकाश ॥७८॥ कषाय सज्ञा चार तज, जो गहते गुण चार । हे जीव । निजरूप ज्ञान तू, होय पुनीत अपार ॥६॥ दस विरहित, दस के सहित- दस गुण से सयुक्त । निश्चय से जीव जान यह, कहते श्रीजिन मुक्त ॥१०॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) आत्मा दर्शन-ज्ञान है, आत्मा चरित्र जान । आत्मा सयम-शील-तप, आत्मा प्रत्याख्यान ॥१॥ जो जाने निज आत्म को, पर त्यागे निन्ति । यही सत्य सन्यास है, भाषे श्री जिननाथ ॥२॥ रत्न त्रय युत जीव ही उत्तम तीर्थ पवित्र । हे योगी । शिव हेतु हित, तन्त्र-मन्त्र नहिं मित्र ।।३।। दर्शन सो निज देखना, ज्ञान सो विमल महान । पुनि पुनि आतम भावना, सो चारित्र प्रमाण ॥८४॥ जहँ चेतन तहँ सकल गुण, यह सर्वज्ञ वदन्त । इस कारण सब योगिजन, शुद्ध आत्म जानन्त ॥८॥ 'एकाकी, इन्द्रिय रहित, करि योग त्रय शुद्ध । निज आत्मा को जानकर शीघ्र लहो शिवसुख ॥८६॥ बन्ध-मोक्ष के पक्ष से निश्चय तू बन्ध जाय । रमे सहज निजरूप मे, तो शिवसुख को पाय ॥७॥ सम्यग्दृष्टि जीव का, दुर्गति गमन न होय । यद्यपि जाय तो दोष नहि, पूर्व कर्म क्षय होय ।।८।। रमे जो आत्म स्वरुप मे, तज कर सब व्यवहार । सम्यग्दृष्टि जीव वह, शीघ्र होय भव पार ।।६।। जो सम्यक्त प्रधान बुध, वही त्रिलोकप्रधान । पावे केवलज्ञान झट, शाश्वत सौख्य निधान ॥१०॥ अजरामर बहु गुणनिधि, निजमे स्थित होय । कर्म बन्ध नव नहिं करे, पूर्व बद्ध क्षय होय ॥११॥ पकज रह जलमध्य मे, जल से लिप्त न होय । रहत लीन निजरूप मे, कर्म लिप्त नहिं सोय ॥१२॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शम सुख मे लवलीन जो, करते निज अभ्यास। करके निश्चय कर्म क्षय, लहे शीघ्र शिववास ॥३॥ पुरुपाकार पवित्र अति, देखो आतम राम । निर्मल तेजोमय अरु, अनन्त गुणो का धाम ।।६४॥ जाने जो शुद्धात्म को, अशुचि देहसे भिन्न । ज्ञाता सो सब शास्त्र का, शाश्वत सुख मे लीन ॥६५॥ निज-पर रूप के अज्ञ जन, जो न तजे पर भाव । ज्ञाता भी सव शास्त्र का, होय न शिवपुर राव ॥६६॥ तजि कल्पना जाल सब, परम समाधि लीन । वेदे जिस आनन्द को, शिव सुख कहते जिन ॥९७।। जो पिण्डस्थ, पदस्थ अरु रूपस्थ रूपातीत । जानो ध्यान जिनोक्त ये, होवो शीघ्र पवित्र १९८॥ सर्व जीव हैं ज्ञानमय ऐसा जो समभाव । सो सामायिक जानिये, भाषे जिनवर राव ॥६६॥ राग दोष दोऊ त्याग के, धारे समता भाव। सो सामायिक जानिये भाषे जिनवर राव ॥१०० ।। हिंसादिक परिहार से, आत्म स्थिति को पाय । यह दूजा चारित्र लख पचम गति ले जाय ॥१०१॥ मिथ्यात्वादिक परिहरण, सम्यकदर्शन शुद्धि । सो परिहार विशुद्धि है, करे शीघ्र शिव सिद्धि ॥१०२।। सूक्ष्म लोभ के नाश से, सूक्ष्म जो परिणाम । जानो सूक्ष्म चारित्र वह जो शाश्वत सुख धाम ॥१०३।। आत्मा ही अरहन्त है, निश्चय से सिद्ध जान । आचार्य उपाध्याय औ निश्चय साधु समान ॥१०४॥ वह शिव शकर विष्णु औ रुद्र वही है बुद्ध । ब्रह्मा ईश्वर जिन यही सिद्ध अनन्त औ शुद्ध ॥१०॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) इन लक्षण से युक्त जो, परम विदेही देव । देहवासी इस जीव मे, अरु उसमे नहिं भेद ॥१०६॥ सिद्ध हुवे अरु होयगे हैं अब भी भगवन्त । मातम दर्शन से हि यह, जानो होय निःशक ||१०७॥ • भव भीति जिनके हृदय, "योगीन्दु" मुनिराज । एक चित्त हो पद रचें, निज सम्बोधन काज ।।१०८।। (२४) समाधि-तन्त्र नमू सिद्ध परमात्म को अक्षय वोध स्वरूप । जिनने आत्मा आत्म मय, परजाना पररूप ॥ १॥ अक्षर इच्छा बिन बचन, सुगत सुखद जग व्याप्त । तारक, नाशक कर्ममल, जयतु नमू वह आप्त ॥२॥ चहे अतीन्द्रिय सुख. उन्हे, आत्मा शुद्ध स्वरूप । श्रुत, अनुभव, अनुमान से, कहू शक्ति अनुरूप ॥३॥ त्रिविध रूप सब आतमा, अन्तरात्म हो- वेद । पद परमातम प्राप्त कर, बहिरातम पद छेद ॥४॥ बहिरातम भ्रम वश गिने, आत्मा तन इक रूप । अतरात्म मल शोधता, परमात्मा मल मुक्त ॥५॥ शुद्ध, स्पर्श-मल विन प्रभु अव्यय । मज परमात्म । ईश्वर, निज, उत्कृष्ट वह, परमेष्ठी परमात्म ॥६॥ आत्म ज्ञान से हो विमुख, इन्द्रिय से वहिरात्म । आत्मा को तनमय समझ, तन ही गिने निजात्म ॥७॥ तिर्यक मे तिर्यच गिन, नर तन मे नर मान । देव देह को देव लख, करे मूढ पहिचान ||८|| Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) नारक तन मे नारकी, पर नहि यह चैतन्य | है अनन्त घी शक्ति युत, अचल स्वानुभव गम्य ॥ ॥ चेतन सहित अचेत के, लख निजतन समकाम । परका आत्मा मानकर, मूढ करे पहचान ॥१०॥ कहै देह को आत्मा, नही स्व-पर पहचान । विभ्रम वश तन मे करे, सुत तियादि का ज्ञान ॥११॥ इस भ्रम मे अज्ञानमय, जमते दृढ सस्कार | यो मोही भवभव करे, तन मे निज निर्धार ॥१२॥ इससे तन्मय आत्म ही, तन से करे सम्बन्ध | आत्म बुद्धि नर स्वात्म का, तन से तजे सम्वन्ध || १३|| मम सुततिय यह उपज जब, जब तन मे निज बुद्धि । आत्म- सम्पदा मानता, हता जगत हा | व्यर्थ ॥ १४ ॥ जग मे दुख का मूल है, तन मे निज का भान । यह तज विषय विरक्त हो, लो निजात्म मे स्थान ||१५|| इन्द्रिय विषय विमुग्ध हो, उनको हितकर जान । मैं आत्मा हू नहिं लखा, भूल गया निजभान ॥ १६॥ वाहिर बचन विलास तज, तज अन्तर मन भोग । है परमात्म का, थोडे मे यह योग ॥१७॥ रूप मुझे जो दीखता, वह तो जड जो जाने गोचर नही, बोलूं किससे में पर से प्रतिबुद्ध, या पर मुझ से प्रतिबुद्ध | यह मम चेष्टा मत्त-सम, मैं विकल्प बिन शुद्ध ||१६|| कहूँ सुनूं में अन्य से है उन्मत वत् कार्य । बचन विकल्प विमुक्त मैं हूँ नहि इन्द्रिय-ग्राहा ॥२०॥ प्रकाश अनजान । बान ॥१८॥ करे स्तभ मे पुरुष की, भ्रान्ति यथा अनजान । - त्यो भ्रम वस बन आदि मे, कर लेता निजभान ॥२१॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) भ्रम तज नर उस स्तम्भ का, नहि होता हैरान । त्यो तनादि मे भ्रम हटे, नहिं पर मे निजभान ॥२२॥ आत्म को अपनी गिर्ने, नहि नारी, नर षढ । नही एक या दो बहुत, मैं हूँ शुद्ध अखड ।।२३।। बोघि बिना निद्रित रहा, जगा लखा चैतन्य । इन्द्रिय बिन अवयक्त हूँ हूँ मैं अपने गम्य ॥२४॥ जब अनुभव अपना करूँ, हो अभाव रागादि । मैं ज्ञाता मेरे नही, कोई अरि-मित्रादि ।२५॥ जो मुझको जाने नही, नही मेरा अरि मित्र। जो जाने मम आत्म को नही शत्रु नहिं 'मित्र ॥२६॥ यो बहिरातम दृष्टि तज, हो अन्तर-मुख आत्म । सर्व विकल्प विमुक्त हो, ध्यावे निज परमात्म ॥२७॥ 'मैं ही वह परमात्मा हूँ' हो जब दृढ सस्कार । इन दृढ भावो से बने, निश्चय उस आकार ॥२८॥ मोही की आशा जहा, नहिं वैसा-भय स्थान । जिसमे डर उस सम नही, निर्भय आत्म-स्थान ॥२६॥ इन्द्रिय विषय विरक्त हो, स्थिर हो निजमे आत्म। उस क्षण जो अनुभव वही, है निश्चय परमात्म ॥३०॥ मैं ही वह परमात्म हूँ, हूँ निज अनुभव गम्य । मैं उपास्य अपना स्वय, है निश्चय नहिं अन्य ॥३१॥ निजमे स्थित निज आत्म कर, कर मन विषायातीत । पाता निजबल आत्म वह परमानन्द पुनीत ॥३२॥ तन से भिन्न-गिने नही, अव्यय रूप निजात्म। करे उग्र तप मोक्ष नहिं, जब तक लखे न आत्म ॥३३।। भेद ज्ञान बल है जहाँ, प्रकट आत्म आल्हाद । हो तप दुष्कर घोर पर, होता नही विषाद ॥३४॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) चचल चित्त करे न जब, राग द्वष हिलोर । आत्म तन्व वह ही लखे, नही क्ष व्ध नर ओर ॥३५।। निश्चल मन ही तत्व हैं, चचलता निज भ्राति । स्थिर मे स्थिरता राखि तज, अस्थिर-मूल अशान्ति ॥३६।। हो सस्कार अज्ञान मय, निश्चय हो मन भ्रान्त । ज्ञान संस्कृत मन करे, स्वय तत्व विश्रान्ति ॥३७।। चचल मन गिनता सदा, मान और अपमान । निश्चल मन देता नही, तिरस्कार पर ध्यान ॥३८॥ मोह दृष्टि से जव जगे, मुनि को रागद्वेष । स्वस्थ भावना आत्म की, करे मिटे उद्वेग ॥३९॥ जिस तन मे हो प्रीति, गिन उससे निज को ओर। हो स्थिर उत्तम काय मे, मिटे मोह की दौर ॥४०॥ आत्म भ्रान्ति गत दुख हो, आत्म ज्ञान से शान्त । इस विन शान्ति न हो, भले करले तप दुर्दान्त ॥४१॥ तन तन्मय ही चाहता, सुन्दर तन सुर भोग । ज्ञानी चाहे छूटना, तन विषयो से योग ॥४२॥ स्वसे च्युत पर मुग्ध नर, बंधता पर सग आप । । स्वस्थित पर से मुक्त हो, हरे कर्म सताप ॥४३॥ दिखते त्रय तन चिन्ह को, मूढ कहे निजरूप । ज्ञानी माने आपको, बचन विना चिद्र प ।।४४॥ आत्मविज्ञ यद्यपि गिने, जाने तन जिय भिन्न । पर-विभ्रम-सस्कार वश पडे भ्रांति मे खिन्न ॥४५॥ जो दिखते चेतन नही, चेतन गो-चर नाहिं। रोष-तोष किससे करू हू तटस्थ निज माहि ।।४६।। बाहर से मोही करे, अन्दर अन्तर आत्म । दृढ अनुभव वाला नही, करे ग्रहण और त्याग ॥४७॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) मन आत्मा से जोड कर, बच तन से मन भिन्न । बचन काय व्यापार मे, जोडे बहिं चैतन्य ॥४८॥ 'गिर्ने रम्य जग से रहे, बहिर्द ष्टि को आश । स्वात्म दृष्टि कैसे करे, जग मे रति विश्वास ॥४६॥ नहिं चिर रखिये बुद्धि मे, कार्य ज्ञान विपरीत। बचन काय आसक्ति बिन, करिये तो यह रीति ॥५०॥ इन्द्रिय गम्य जगत प्रगट, मम स्वरूप है नाहिं। मैं हू आनन्द ज्योति जो भासे अदर माँहिं ॥५१॥ बाहर सुख दुख आत्म मे, आरभी की दृष्टि । बाहर सुख, दुख आत्म से, देखे योग प्रविष्ट ॥५२।। कथन, पृच्छना, कामना, निज स्वरूप की होय । बहिर्दृष्टि क्षय, हो गमन, परमात्मा की ओर ॥५३।। तन-वच-तन्मय भूल चित् जुड़े बचन तन सग। भ्रांति रहित तन बचन से चित को गिने असग ॥५४॥ इन्द्रिय विषयो मे न कुछ, आत्म लाभ की बात । तो भी मूढ अज्ञान वश रमता इनके साथ ॥५५।। मोही मुग्ध कुयोनि मे है अनादि से सुप्त । जागे तो परको गिने आत्मा होकर मुग्ध ॥५६।। हो सुव्यवस्थित आत्म मे निज काया जड जान । पर-काया मे भी करे जड की ही पहिचान ॥५७॥ कहू ना कहू मूढ जन, नहिं जाने ममरुप। 'विज्ञापन का श्रम वृथा, खोना समय अनूप ॥५८॥ समझाना चाहू जिसे वह नहिं मेरा रूप । नही अन्य से ग्राह्य मे, किम समझाऊँ रुप ॥५६॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) आवृत्त अन्तर-ज्योति हो, वाह्य विपय मे तुष्ट । जागृत जग-कौतुक तजे, अन्दर से सतुष्ट ॥६०॥ काया को होती नही, सुख दुख की अनुभूति । पोपण शोषन यत्न पर, करते व्यर्थ कुबुद्धि ॥६॥ है मेरे तन वचन मन, यही बुद्धि सस र । इसके भेद अभ्यास से, होते भव-जल पार ॥६२॥ मोटा कपडा पहन कर, माने नहिं तन स्थूल । त्यो वुध तन की पुष्टि से, गिने न आत्मा स्थूल ॥६३।। वस्त्र जीर्ण से जीर्ण तन, माने नहि बुधिवान । त्यो न जीर्ण तन से गिर्ने, जीर्ण आत्म मतिमान ।।६४॥ रक्त वस्त्र से नहि गिने, बुध जन तनको लाल । त्यो वुध तन हो रक्त रग, गिनेन चेतन लाल ॥६॥ वस्त्र फटे माने नही, ज्ञानी तन का नाश । त्यो काया के नाश से, बुध नहि गिने विनाश ॥६६॥ स्पदित जब लगता जिसे, विन चेष्टा बिनभोग । ज्ञान-रहित निष्क्रिय सदा, उसे शान्ति का योग ।।६७।। तन-कचुकि-आवृत है, चेतन ज्ञान-शरीर । यह रहस्य जाने बिना, चिर पाता भवपीर ॥६॥ अणु के योग-वियोग मे, देह समानाकार। दिखती अज्ञ गिने अत , आत्मा देहाकार ॥६६॥ श्वेत स्थूल कृश जानिये पुदगल तन के रुप । आत्मा निश्चय नित्य है, केवल ज्ञान स्वरूप ॥७०॥ निज निश्चल-धृति चित्त मे, उसे मुक्ति का योग। जिसे न निश्चय धारण, शाश्वत मुक्ति-वियोग ॥७१॥ लोक सग से बच-प्रवृति, बच से चचल चित्त । फिर विकल्प फिर क्षुब्ध मन, मुनि जन करे निवृत्ति ॥७२॥ जन अनात्म- दी करे, ग्राम अरण्य निवास । आत्म दृष्टि करते सदा, निज का निज मे वास ॥७३॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३ ) आत्म बुद्धि ही देह मे, देहान्तर का मूल । आत्म बुद्धि जब आत्म मे, हो तन ही निर्मूल ॥७४॥ आत्मा ही भव हेतु है, आत्मा ही निर्वाण । यो निश्चय से आत्मका, आत्मा ही गुरु जान ||७५॥ आत्म बुद्धि है देह में, जिसकी प्रवल दुरत । वह तन परिजन मरण से, होता अति भयवत ॥७६॥ आत्म बुद्धि हो आत्म मे, निर्भय तजता देह | वस्त्र पलटने सम गिनें, तन गति नहि सदेह ॥७७॥ जागृत - अतर को नही, रुचे वाह्य व्यवहार । जो जागे व्यवहार मे, रुचे न आत्म विचार ॥ ७८ ॥ अन्तर देखे आतमा, बाहर देखे देह | यह अन्तर अभ्यास जव, दृढ हो बने विदेह ॥७६॥ आत्म दर्शि को जग प्रथम, लगता मत्त समान । फिर विशेष अभ्यास हो, गिने काष्ठ पाषाण ॥८०॥ सुने स्वरुप कथा वहुल, मुह से कहता आप । किन्तु भिन्न अनुभूति बिन, नही मुक्ति का लाभ ॥ ८१ ॥ आत्मा तनसे भिन्न गिन, करे सतत अभ्यास । 'जिससे तन का स्वप्न में भी नहि हो अभ्यास ॥ ८२ ॥ , } पाप बध अव्रत करे, व्रत मे पुण्य विधान | मोक्षार्थी दोनो बजे, व्रत अव्रत परिणाम ॥ ८३ ॥ हिंसादिक को छोडकर, वने अहिसा निष्ठ । छोड व्रतो को भी तत हो चैतन्य प्रविष्ठ ॥ ८४ ॥ अतर्जल्प क्रिया लिये, विविध कल्पना जाल । हो समूल निर्मूल तो, शिष्ट इष्ट तत्काल ॥८५॥ करे अव्रती व्रत ग्रहण, व्रती ज्ञान मे बीन । हो कैवल्य पुन स्वय, वने सिद्ध स्वाधीन ॥ ८६ ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४ ) वेष देह आश्रित दिखे, आत्मा का भव देह। जिनको आग्रह वेष का, कभी न वने विदेह ।।८७ जाति देह आश्रित कहो, आत्मा का भव देह । जिनको आग्रह जाति का, सदा मुक्ति मदेह ॥१८॥ वेप जाति से मुक्ति का, आगम आग्रह-वान। नहिं पावे वह आत्म का, परम सुपद निर्माण ॥८६' बुध तन-त्याग-विराग-हित, होते भोग निवृत। मोही उन से द्वेष कर, रहते भोग प्रवृत्त ।।१०॥ दृष्टि पंगु की का करे, अन्धे मे आरोप। तथा भेद विज्ञान विन, तन मे आत्मारोप ॥१॥ पगु अध की दृष्टि का, ज्ञानी जाने भेद । त्यों तन आत्मा मे करे, ज्ञानी अन्तर छेद ॥१२॥ निद्रा अरु उन्माद को, भ्रम माने बहिरात्म। अन्तर दृष्टि को दिखे, सब जग मोहाक्रान्त ॥६॥ हो बहिरातम शास्त्र पटु, हो जाग्रत नहिं मुक्त । निद्रित हो उन्माद हो, ज्ञाता कर्म विमुक्त ।।६४॥ जिसमे बुद्धि जुड़े वही, हो श्रद्धा निष्पन्न । हो श्रद्धा जिसमे वही, होता तन्मय मन ।।६।। बुद्धि-नियोजन नहिं जहां, श्रद्धा का भी लोप । श्रद्धा विन कसे वने, चित-स्थिरता का योग ॥६६॥ जैसे । दीप-संयोग से, वाती बनती दीप । त्यो परमात्म सयोग से, हो परमात्मा जीव ॥९७il. चिदानन्द आराध्य हो, स्वय बने प्रभु आप। " बाँस रगड से बाँस मे, स्वयं प्रकट हो आग ॥९॥ भेदाभेद स्वरूप का, सतत चले अभ्यास । मिले अवाची पद स्वय, प्रत्यावर्तन नाश६६ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५ ) भूतज हो यदि चेतना, यत्न साध्य नहि मोक्ष । योगी को अतएव नहि, कही कष्ट उपभोग ।१००।। देह नाश के स्वप्न मे, यथा न निज का नाश । त्यो ही देह वियोग मे, सदा आत्म अविनाश ॥१०१॥ दुख सन्निधि मे नहिं टिके, अदुख भेद-विज्ञान । दृढतर भेद-विज्ञान का, अत नही अवसान ॥१०२॥ राग-द्वेष के यत्न से, हो वायू सचार । वायू है तनयत्र की, सचालन आधार ॥१०३॥ मूढ अक्षमय आत्म गिन, भोगे दुख सताप । सुधी तर्जे यह मान्यता, पावें शिवपद आप ॥१०४॥ फरे समाधी तत्र का, आत्मनिष्ठ हो ध्यान । हो परात्म बुद्धि-प्रलय, जगे शान्ति, सुख ज्ञान ॥१०५॥ (२५) इष्टोपदेश प्रगटा सहज स्वभाव निज, किये कर्म अरिनाश । ज्ञान रूप परमात्मा को, प्रण मिले प्रकाश ॥१॥ उपादान के योग से, उपल कनक बन जाय । निज द्रव्यादि चतुष्क वश, शुद्ध आत्म पद पाय ॥२॥ आतप छाया स्थित पुरुप, के दुख-सुख की भाँति । व्रत से पाता स्वर्ग अरु, अव्रत से नर्कादि ॥३॥ जिन भावो से मुक्ति पद, कौन कठिन है स्वर्ग। वहन करे जो कोश दो, कठिन कोश क्या अर्घ ॥४॥ भोगें सुरगण स्वर्ग मे, अनुपमेय सुख भोग । निरातक चिर-काल तक, हो अनन्य उपभोग ।।५।। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) सुख दुख केवल देह की, मात्र वासना जान । करे भोग भी विपत्ति मे व्याकुल रोग-समान ॥६॥ ज्ञान मोह-सवृत्त को, नहिं स्वरूप पहिचान । ज्यो कोदो से मत्तनर, खो देता सव भान ॥७॥ तन, घर, धन, तिय, मित्र, अरि, पुत्र आदि सब अन्य । पर स्वभाव से मूढ नर, माने उन्हे अनन्य || चहुदिशि से आकर विहग, रैन बसे तस्-डाल । उड प्रात निज कार्य वश, यही जगत-जन-चाल | त्रास दिया तव त्रस्त अव, क्यो हता पर क्रोध ? अगुल गिरा स्वय गिरे, हो जब दण्ड प्रयोग ।।१०।। रागद्वेष रस्सी बघा, भव-सर घूमे आप। आत्म-भ्रान्ति वश आपही, सहे महा सताप ॥११॥ विपदा एक टले नही, वाट बहुत सी जोय । रहँट बँधा घट रुपमे, कभी न खाली होय ॥१२॥ अर्जन रक्षण है कठिन, फिर भी सत्वर नाश । रे । धनादि का सुख यया, घृत से ज्वर ना नाश ॥१३॥ कष्ट अन्य के देखता, पर अपनी सुध नाहिं । तरु पर बैठा नर कहे, हिरण जले वन माँहि ॥१४॥ आयु-क्षय,धन-वृद्धि का, कारण जानो काल । धन प्राणों से प्रिय लगे, अत• धनिक बेहाल ॥१॥ निर्धन धन चाहे कहे, करूँ पुण्य दं दान । कीच लिपे पर मानता, मृढ किया मैं स्नान ।।१६।। सतापज मारम्भ मे, प्राप्ति समय अतृप्ति । भोग-त्याग अन्तिम कठिन, सुधि छोड आसक्ति ॥१७॥ हो जाते शुचि भी अशुचि, जिसको छकर अर्थ । काया है अति विघ्न मय, उस हित भोग अनर्थ ॥१८॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) करे आत्म उपकार जो, उनसे तन अपकार । जो उपकारक देह के, उनसे आत्म-विकार ॥१९॥ चिन्तामणि सा दिव्यमणि, और काच के ट्रक । सम्भव है सब ध्यान से, किसे मान दे वुद्ध ? ॥२०॥ नित्य अतुल सुख पुज जिय, जाने लोक-अलोक । तन प्रमाण अनुभव करे, निज वल से मुनिलोग ॥२१॥ कर मन की एकाग्रता, अक्ष-प्रसार निवार। रुके दृत्ति स्वच्छन्दता, निज मे आत्म निहार ।।२२।। जड से जडता ही मिले, ज्ञानी से निज ज्ञान । जो कुछ जिसके पास वह, करे उसी का दान ||२३॥ निज मे निजको चिन्तवे, टले परीषह लक्ष । हो आश्रत्र अवरोध अरु, जागे निर्जर कक्ष ॥२४॥ 'मैं क का कर्ता' यही, करे द्वत को सिद्ध । घ्यान ध्येय एकत्व मे, द्वत सर्वदा अस्त ॥२५॥ ममता बधन-मूल है ममता-हीन विमुक्त । प्रतिपल जागृत ही रहे, निममता का लक्ष ॥२६॥ निर्मम एक विशुद्ध मे, केवल ज्ञानी गम्य । गो, तन, वच, गो विषय अरु, है विभाव सब अन्य ॥२७॥ देहादिक सयोग से, होते दुख सदोह । मन, वच, तन, सबन्ध को, मन, वच, तन से छोड॥२८॥ किसका भय जब अमर मे, व्याधि विना क्या पीड। बाल वृद्ध यौवन नही, यह पुद्गल की भीड ॥२६॥ पुन पुनः भोगे सभी पुद्गल मोहाधीन । क्या चाहूँ उच्छिष्ट को, मैं ज्ञानी अक्षीण ॥३०॥ जीव जीव का हित करे, कर्म कर्म की वृद्धि । निज बल सत्ता सब चहे, कौन चहे नहिं रिद्धि ॥३१॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) परहित अज्ञ रहे वृथा, पर उपवृति छोड । लोक तुल्य निज हित करो, निजका निजमे जोड़ ॥३२॥ गुरु उपदेशाभ्यास से, निज-पर भेद-विज्ञान । स्वसवेदन-बल करे अनुभव मुक्ति महान ॥३३॥ निजहित अभिलापी स्वय, निज हित ज्ञायक आप। निजहित प्रेरक है स्वय, भात्मा का गुरु आत्म ॥३४॥ अज्ञ न पावे विज्ञता, नही विज्ञता अज्ञ। पर तो मात्र निमित्त है, ज्यो गति मे धर्मास्ति ॥३॥ हो विक्षेप विहीन तज, भालस और प्रमाद । निर्जन मे स्वस्थित करे, योगी तत्वाभ्यास ॥३६॥ ज्यो ज्यो अनुभव मे निकट, आता उत्तम तत्व । नहिं सुलभ्य भी विषय फिर, लगे योगि को भव्य ॥३७॥ जब सुलभ्य भी विषय नहिं लगे योगि को भव्य । आता अनुभव मे निकट, त्यो त्यो उत्तम तत्व ॥३॥ इन्द्रजाल सम जग दिखे, करे आत्म-अभिलाष । अन्य विकल्पो मे करे, योगी पश्चाताप ॥३९॥ योगी निर्जन बन बसे, चहे सदा एकान्त । यदि प्रसग-वश कुछ कहे, विस्मृत हो उपरान्त ॥४०॥ भाषण अवलोकन गमन, करते दिखें मुनेश । किन्तु अकर्ता ही रहे, लक्ष्य स्वरूप विशेष ।।४१॥ कैसा? किसका ?क्यो ? कहाँ ? प्रभृति विकल्प विहीन । तन को भी नहिं जानते, योगी अतीन ॥४२॥ जहाँ वास करने लगे, रमे उसी मे चित्त । जहाँ चित्त रमने लगे, हटे नही फिर प्रीत ।। ४३॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) आत्मा से अन्यत्र नहिं, कायादिक मे वृत्ति । रमे न पर-पर्याय मे, वधे न किन्तु विमुक्त ॥४४॥ पर तो पर है दुखद है, आत्मा सुख मय आप । योगी करते हैं अत. निज-उपलब्धि प्रयास ॥४५॥ करता पुदगल द्रव्य का, अज्ञ समादर आप। सजे न चतुर्गति मे अत., पुद्गल. चेतन-साथ ॥४६॥ -ग्रहण-त्याग व्यवहार विन, जो निजमे लवलीन । होता योगी को कोई, परमानन्द नवीन ॥४७॥ साधु बहिर्दु ख मे रहे, दुख सवेदन हीन । करते परमानन्द से, कम धन प्रक्षीण ॥४८॥ करे अविद्या-ताश वह, ज्ञान ज्योति उत्कृष्ट ।। तत्पृच्छा इच्छानुभव, है मुमुक्षु को इष्ट ।।४।। चेतन पुद्गल भिन्न है, यही तत्व सक्षेप। अन्य कथन सब हैं इसी, के विस्तार विशेष ।।५०।। विधिवत नगर विपिन बसे, तज हठ मानामान । भव्य इष्ट उपदेश पढ, ले अनुपम निर्वाण ॥५॥ - 0 (२६) संसार दर्पण (पं० मक्खन लाल) एक समय एक पथिक विपिन मे राह भूलिकर -फिरता था, सघन वृक्ष फाटकाकीर्ण, निर्जन बन लखिकर डरता था। सिंह भेडिये चीते गज रीछादि जानवर फिरते थे, बन मानुष बाराह जगली शब्द भयानक करते थे ॥१॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (50) हो भयभीत पथिक बेचारा इधर उधर को बहुत समय हो गया किन्तु सीधा मारग नही इतने में उन्मत्त एक गज़ पीछे दौड़ा उसे देखकर पथिक विचारा मन ही मन बड हे भगवन् ये काल सदृश गज भी जानि वचाने हेतु पथिक भी खूब दोडि भागि करि अध कप मे उसकी डाल पकडि पथी लटका ढरे हुये ने ऊपर को काटि रहे उस डाली की घबरा करि नीचे को चारि सर्प फुकार रहे बैठा जब दृष्टि दो श्याम जाता था, पाता था । आता है, घबराता है ॥२॥ लागा है, क्या पीछे जोर से का वृक्ष भागा है। निहारा है, विपदा का मारा है ॥३॥ उठा श्वेत देखा बड़ को, चूहे जड को । कूए की ओर निहार है, अजगर मुह फार है ||४|| टूटी डाल गिरा कूये मे ये पाँचो खा जा जायेंगे, पडा मौत के मुह में अब ये प्राण नही बचि पायेंगे । ये विचार करता ही था एक ओर उपद्रव आया है, पकड़ सूडि से टहने को हाथी ने खूब हिलाया है ||५|| तरु के ऊपर मधु मक्खी का एक बड़ा छत्ता भारी, टहनी हिलने से उड़ि मक्खी लिपट गई इसके सारी । काटि रही मधु मक्खी तन मे दुखित हो चिल्लाता है, दे दे मारे पाव पेड से हाहाकार मचाता है ॥६॥ इतने मे मधु छत्ते से इक बूंद शहद की टपकी है, ऊपर से आती लखि इसने फाडि मुँह लपकी है। शीघ्र मधु की बूंद चाटकर मूरख अत्यानन्द मनाता है, एक बूंद गिरि जाय और इस आशा से मुँह वाता है ॥७॥ इतने मे क्रोधित हो गज ने टहना फेरि हलाया है, मिन-भिन करि उडि लिपटी मक्खी पथिक खूब चिल्लाया है। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८१ ) बढी वेदना अधिक अग मे हाहाकार मचाता है, उसी समय पत्नी युत नभ मे विद्याधर इक आता है ॥८॥ वोलीनारि अहो पति देखो ये नर क्या दुख पाता है, मारि मारि करि पाँव वृक्ष से भारी रुदन मचाता है । कृपा करो हे नाथ इसे इस दुख से शीघ्र छुडा दीजे, बैठाकर विमान मे इसको इसके घर पहुँचा दीजे ॥६॥ हे प्यारी ये नही चलेगा इसी कष्ट मे राजी है, चाटि शहद की बूद सभी दुख भूलि जाय ये पाजी है । नही नही हे नाथ भला को दुख मे रहना चाहेगा, देहु इसे आवाज अभी ये साथ तुम्हारे जायेगा ||१०|| इस सकट से इसे छुडावो ये ही धर्म तुम्हारा है, भला होय इस दुखिया का कुछ बिगडे नही हमारा है । प्रिये तुम्हारे कहने से मैं इसको अभी बुलाता हू, किन्तु नही चलने का ये मैं तुम्हे ठीक बतलाता हू ॥११॥ बोला विद्याधर रे दुखिया तेरा कष्ट मिटा देंगे, बैठि चलौ जल्दी विमान मे तेरे घर पहुचा देगे । कहा दुखित ने नाथ बड़ा मजा आता चखि लेने दो, ठहरने दो ||१२|| अभी इक बूंद और है इसमे थोडी देर थोडी देर बाद विद्याधर बोला अब आजा भाई, आई । अभी मुह मे धुनि सिर रोता है, जरा और धमि जाओ शहद की बूंद पुन मक्षिकाओ ने काटा तव धुनि फिर टपकी इक बूंद शहदकी उसे चाटि खुश होता है ॥ १३॥ यह कौतुक लखि विद्याधर विद्याधरनी तो जाते है, ये तो है दृष्टान्त सुनो तुमको द्राष्टान्त सुनाते है । भव बन अन्धे कूये मे ससार वृक्ष चौरासी लाख योनि बड़ी शाखायें न्यारी अति भारी है, न्यारी है ॥ १४ ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२ ) चहुंगति चारि सर्प बैठे अजगर निगोद मुंह फारे है, काल बलि गज खड़ा शीश पर चीख चीख हुकारे है। आयु कर्म डाली को पकडे लटक रहा ससारी नर, उसी डालको काट रहे है रात दिना दो चूहे जर ॥१५॥ टूट जायगी क्षणभर मे अब टहनी ये गिर जायेगा, अजगर या इन चारो सो मे से कोई खायेगा। विषय भोग मधु छत्ता मधु की बूंद विषय की आशा है, मधु मक्खी परिवार कुटुम्बी देते निशदिन त्रासा है ।।१६।। श्री गुरुदेव विद्याधर सच्चे विद्याधरनी जिनवानी है, बार बार कहने पर भी विपयी नर एक न मानी है। वर्तमान मे गुरुदेव समझा समझा कर हारे हैं, पर हमने मानी न एक भैय्या दुर्भाग्य हमारे हैं ॥१७॥ (२७) बाल-यौवन-मध्यावस्था और बुढ़ापा चारों पन व्यर्थ खोने वाला सेवक (पं० मक्खनलाल) एक भक्त राजा का सेवक सेवा निश दिन करता था, कष्ट न होने देता नृप को दुख शोक सब हरता था । हे नप मिले पारितोषिक कुछ हमको यो नित कहता था, किन्तु महालोभी नृप इसको शुष्क टलाना चहता था ॥१॥ ढूंढि निकाला एक बहाना नृप ने शुष्क टलाने का, सेवक लो मैं देता हू अवसर अटूट धन पाने का। खोलि देऊ रत्नो का कोठा सुबह छ बजे आजाना, ढले तीन घटे मे तुमसे ले जामो धन मन माना ॥२॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ ) श्रवण सुखद सुनि बात नृपति की सेवक घरको भागा है, खुशी खुशी मे नीद न आई सारी निशिभर जागा है । होत प्रभात छ बजे सेवक राजा के घर आया है, राजा ने भी रत्नराशि वाला कोठा खुलवाया है ||३|| हुक्म दिया चपरासी को चाहे जितना ले जाने दो, किन्तु नौ बजे बाद इसे इक पाई भी न उठाने दो । करि प्रवेश रत्नालय मे सेवक ने क्या क्या देखा है, -हीरा मोती लाल जवाहर पड़े असख्य न लेखा है ॥४॥ ओर गौर करि इधर उधर देखा तो अजब तमाशा है, भांति भांति के खेल खिलौने चिडिया घर ये खासा है । उलट पलट करि लगा देखने यह घटिया ये आला है, नौ बज गये टना टन चपरासी ने आनि निकाला है ||५|| बोला चपरासी से में कुछ भी नहीं लेने पाया हूँ, * एक पुटलिया बाँध लैन दो आशा करके आया हू । चपरासी कैसे मान जब हुक्म दिया राजा जी ने, "खेल तमासो मे खोये घटा तीनों इस पाजी ने ॥ ६ ॥ रोता गया नृपति पै हे प्रभु में ने कुछ नहि पाया है, खेल खिलौनो मे शुभ अवसर सारा व्यर्थ गमाया है । बोला नृप कुछ बात नही चपरासी को बुलवाता हूँ, दूजा कोठा सौने का ततकाल तुम्हे खुलवाता हूं ॥७॥ एक पहर मे जितना ढो सकते हो ढो ले जाओगे, बारे बजे बाद रत्ती भर भी नहि लेने पाओगे | -सुनकर हुआ प्रसन्न कोठरा सोने का खुल जाता है, -सेवक भीतर धसा स्वर्ण के ढेर देखि हर्षाता है ||८|| आगे देखा महिलायें स्वागत करने कुछ आती हैं, शची अप्सरा रति रम्भा सी हँसि हँसि चित लुभाती हैं । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४ ) भोग विलासो की वातो मे सारा समय व्यतीता है, ट ट नार बजे निकाला चपरासी ने रीता है | हाय हाय क्या हुआ यहाँ से भी मैं खाली जाता हूँ, फूटि गई तकदीर कही से भी कुछ नहि ले पाता हूँ। रोता धुनता है शीस दौडि करि पास नृपति के आया है। अपनी मूरखता का राजा को सव हाल सुनाया है ॥१०॥ फिर तीजा कोठा भूपति ने चांदी का खुलवाया है, तीन बजे तक ढो ले जाओ चाहे जितनी माया है। हर्पित होकर चाँदी के कोठे मे भीतर जाता है, वहाँ सामने एक भपूरव गोरख धघा पाता है ।।११।। जरा देखलं ये क्या जिसमे उलझी सुलझी कड़ियाँ हैं। हाथ लगाते गोरख घवे की खिसकी सब लडियाँ हैं । बोला चपरासी जैसा था वैसा इसे करा लूंगा, तब चाँदी लेने को कोठे के भीतर जाने दूंगा ॥१२॥ ज्यो ज्यो करता ठीक इसे त्यो त्यो ही और उलझता है, हुये तीन घण्टे पर गोरख धन्धा नही सुलझता है। ट ट तीन बजे चपरासी कहाँ मानने वाला है, कान पकडि रीते हाथो कोठे से तुरन्त निकाला है ॥१३॥ गिड गिडाय करि बोला चपरासी कुछ तो ले लेने दो, राजी खुशी चला जा नातर जड़ कमरि में लाते दो। करता पश्चाताप पास राजा के जाकर रोया है, मुझ शठ ने ये अवसर भी गोरख धधे मे खोया है ।।१४॥ बोला नृप हसि करि तू मूरख कुछ नहिं लेने पायेगा, अब ताँबा पीतल वाला चौथा कोठा खुलि जायेगा। ये आखीर समय तांबे पीतल का भी मत खो देना, जितना ढोया जाय तीन घटे मे उतना ढो लेना ॥१५॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८५ ) अच्छा कहकर जाय घसा तांबे पीतल के कोठे मे, धरा सामने भरा हुआ देखा बडा जल लोटे मे । हलवा पूडी कचोडी लड्डू पेड़े बालूसाई के, भरे घरे थे थाल कटोरे रबडी दूध मलाई के ॥ १६ ॥ सोचा दिन भर का भूखा हू पहले तो खाना खाऊँ, -पीछे जो कुछ माल मिले वोरे भरि भरि ढो ले जाऊँ । - भोजन किया पिया ठडा जल बिछा हुआ पलिका पाया, जरा लेटि तो लूं दिनभर का थका हुआ हूँ घबराया ॥ १७॥ 1 पडा पलग पर लगी हवा सो गया न अब जगने वाला, बजे ठीक छै चपरासी ने पाँव पकडि बाहर डाला । रत्न सुवर्ण रजत तांबा पीतल खेल विषय गोरख धधा भोजन में कुछ ले नहि पाया है, समय बिताया है ॥ १८ ॥ इसी तरह से हम भी नर भव के चारो पन खोते हैं, "लिया नही कुछ साथ हाथ मलिमलिकरि पोछे रोते हैं। सम्यग्दर्शन के हित शैशव खेल कूद में खोया है, श्रावकपन के हित था यौवन तरुणी के सगमे सोया है ॥ १६ ॥ मध्य अवस्था मुनिबनने को खोई गोरख धन्धे मे, वृद्धपना अरहत दशा हित पडि गया काल के फदे मैं, नर भव सुकुल सुथल जिनवाणी बार बार नहि पायेगा, जो ये अवसर खोया तो भैय्या पीछे पछतायेगा ||२०|| Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) (२८) जैसे शेर अपनी शक्ति को गधा बन गया उसी प्रकार अज्ञानी अपनी भूलकर मूर्खता से परिभ्रमण करता है ( पं० मक्खनलाल ) सावन भादो की अंधियारी आती आती आती है, सुनिकरि जन्तु डरे वन के भय से छाती थरथराती है । आपस मे सब मिलिकरि बोले यार अन्धेरी आवैगी, शीघ्र उपाय करौ छिपने का नातर वो खा जावैगी ॥१॥ सब से पहले कहरि वोला में खो मे छिप जाऊँगा, भागि जायगी जब अन्धेरी तव बाहर आ जाऊँगा । सुनकर यह प्रस्ताव शेर का बैठि गया सबके दिलमे, निर्भय होकर जाय छिपे सब ही अपने अपने बिल मे ||२|| इतने में घनघोर घटा उठि कारी कारी आती है, कडकडाट कर गजि गर्जि रिम झिम पानी बरसाती है । उसी समय उस ही जगल मे कुम्भकार इक आता है, निर्भय होकर के गधहो पर बोझ लादकर लाता है ॥३॥ उनमे से इक चचल गधहा बोझ डारि करिकै भागा, उसे पकड़ने अन्धकार मे कुम्भकार पीछे लागा । किन्तु गधा ऐसा भागा जो हाथ नही इसके आया, ढूंडत ढूंडत कुम्भकार अतिक्रोषित होकर शुभलाया ॥४॥ कहाँ गया कम्बख्त खूब हैरान किया तूने मुझको, मारि मारि ढडो से मैं भी मजा चखा दूंगा तुझको । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८७ ) यो कहता कहता कुम्हार जगल मे दौडा जाता है, जहाँ खोह मे छिपा हुआ था शेर वहाँ पर आता है ।।५३७ उधर शेर भी सोच रहा था गई अन्धेरी तो होगी, बहुत देर हो गई मुझे क्या अब तक भी बैठि होगी । यो विचार करि शेर खोह से बाहर निकला जब ही, गधा समभिकरि कुम्भकार ने घेर लिया उसको तब ही ||६|| डडे चारि जडे टाँगो पर मारि कमरि मे लातें दो, पूँछि मरोड कान को खैचा चलि बच्चे अब आगे को । काँपि गया सब अग शेर का बैठि गया दिल मे ये गम, हाय अधेरी आय गई अब मारि मारि करि दे बेदम ॥७॥ डर के मारे कुम्भकार के शेर चला आगे आगे, डन्डे मुक्के लात खात इतरात नही इत उत भागे । जागो मे लादि कमर पर बोझ चला गधहो के सग, भूलि गया सब चालि ढाल और कूद फाँद रंग ढंग उमग ||८|| जो था जगल का राजा थी धाक विपिन भर में जिसकी, भूलि गया निज रूप इसीसे बोझ लदा कटि पै इसकी । जो स्वाधीन विचरता था वह आज बधा पर बघन मे, देखि जिसे सब रोते थे वो रोता है मन ही मन मे ॥६॥ - वोझ लाद कर शेर गधो सग दोडा दौडा जाता है, आगे चल कर एक अपूरव दृश्य सामने आता है । देख रहा था एक दूसरा शेर पहाडी ऊपर से, शेर लदा चलता गधहो मे थरथर काँपि रहा डर से ॥१०॥ भूलि गया निज शक्ति शेरकी बल पौरष निर्भयता को, इसीलिये सहनी पडती हैं दुसह वेदनायें याको । जो जाकर निज रूप दिखायें तो आवे इसको निज याद, जाय जाति उद्धार करूँ पर बन्धन से करहूँ आजाद ॥ ११ ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८८ ) मारि नाग पहाडी शेर को पर ने बागे आनि बहाना है, बाटा रहा नही कोई ठावा है । ही भयभीत गधे भागे भागा कुम्हार निज जान बचाय छूटि गया पर वन से वह शेर मिला मेरो मे जाय ॥१२॥ इसी भांति यह नाम निज पद भूलि मूसंता के चयन में, बँधा अनादि काल सेना भ्रमत चतुरगति जीवन में । जो निज चैन सुन सतगुरु के तो परिचान निज शुद्ध सप पारि परिवर पोट छुटे विधि बन्धन से ही शिव भूप ॥ १३॥ | (२९) भूल भुलैयों का संसार ( पं० मक्खनलाल ) मूल भुलैयो वाले उपवन में चौतरफा घेरा था, - सघन वृक्ष वल्ली मडप से रहता सदा अंधेरा था । कही तिसटी टेडी मेही कही गोल चीलूंटी है, पता न पाता गली हजागे कहाँ मिली कहाँ छूटी है ॥ १ ॥ होश्यार विद्वान पुरुष भी चक्कर में पड़ जाता है, साधारण अनभिज्ञ पुरुष को रस्ता ही नही पाता है । उसमे एक पुरुष अन्धा सिर का गजा धँस जाता है, विपदा का मारा शत्र भूल भुलैयो में फँस जाता है ||२|| कैसे निकलूं, ओर चलें । हाय-हाय करता फिरता अब बाहर में बहुत काल हो गया मुझे टेढा तिरछा किम बोला एक दयालु गगन से विद्याधर में आता हू, सूरदास घबराओ मत में तुमको यत्न बताता हू ॥३॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (58) सुनलो भूल भुलैयो के चौतर्फ गोल परकोटा है, चौरासी जिसमे दरवाजे कोई बडा कोई छोटा है । रहे तिरासी बन्द सदा इक चौरासीवाँ खुलता है, ज्ञानी पुरुष निकल जाता पापी उसमे ही रुलता है ॥४॥ रख रख हाथ द्वार पर गिनते जाना एक किनारे से, बन्द तिरासी छोड निकलना चौरासीवें द्वारे से । घर-घर हाथ चला अन्धा दरवाजे गिनता जाता है, छोड तिरासी बन्द द्वार चौरासीवें पर याता है ||५|| तव अन्धे के गजे सिर मे खाज जोर की आई है, दरवाजो से उठा हाथ दोनो से खाज खुजाई है । भूल गया दरवाजे गिनना आगे को बढ जाता है, जाय फँसा फिर भूल भुलैयो मे मूरख पछताता है ॥६॥ खुले द्वार को छोड गया जो बडी कठिनाई से पाया था, दया भाव करके विद्याधर ने जो इसे बताया था, इसी तरह मे फँसे हुए लाख चौरासी मे ससारी, जन्म-मरण की भूल भुलैयो मे दुख भोग रहे है भारी ||७|| अज्ञानी अन्धा विषयो की खाज खुजाकर राजी है, मानुष जन्म खुला दरवाजा त्याग भ्रमै यह पाजी है । जिनवाणी अरु गुरुदेव ने अवसर हमे बताया है, भैय्या विषय भोग मे फँसि यह हमने वृथा गमाया है ||८|| (३०) शुद्ध, आत्मदेव पूजन (राजमल पवैया ) जय जय जय भगवान आत्मा, शाश्वत निकट भव्य आसन्न । स्वय बुद्ध है स्वयं सिद्ध है स्वय पूर्ण प्रभुता सम्पन्न ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) मनावान। पाना मी मांग पता नगवान ।। अदा ल तमा निमंत भव्य । mms - Tantries निनदयाल का जानना -मिव मुगमय । परमा भगवान मान गुग मानगयी। नि- निरनि निज जनायो । निजानन्द गजाम द्रा पा पांगमय नन्दन गुनिमय ! भन गा गटाने में सगतानमय परमoll र , नामबार नमन कि. चिदानन शुसान्म दर in भाद पूर्ण अक्षत गुणमर ! भर नमुद्रपान उनाने में लाता मनय परमः॥ 2 मत मापन्न दे. कालन् नि। चिदानन्द शुभाता द्रन्च अंक प्रवन परम निगमय । पर परणति के दूर भगाने मे लगा है कि समय परमo! ___ हो मनमा पनि सम्पन्न शुभ मा.मदेगय पुपम् नि० चिदानन्द शुद्धात्म द्रव्य का पूर्ण तप्त नैवेद्य बजय ! चिर अतृप्ति का रोग मिटाने में लगता है एक ममय ।।परम! ___ *ह्री अनन्त प्ररित गम्पन्न शुद्र वान्मदेवाय नवेदन नि० चिदानन्द शुद्धात्म द्रव्य का ज्ञान प्रकाश पूर्ण निजमय । पर परणति के दूर भागने में लगता है एक समय ।। ही अनन्त सक्ति सम्पन्न शुद्ध नात्मदेवाय दीपम् नि० Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) चिदानन्द शुद्धात्म द्रव्य की शुद्ध धूप निज अन्तरमय । पर विभाव का ताप मिटाने मे लगता है एक समय ॥परम०॥ ___ॐ ही अनन्त शक्ति सम्पन्न शुद्ध आत्मदेवाय धूपम् नि० चिदानन्द शुद्धात्म द्रव्य का परमानन्दी फल शिवमय । दृष्टि बदल जाय तो सृष्टि बदलने मे भी एक समय ।।परम०॥ ॐ ह्री अनन्त शक्ति सम्पन्न शुद्ध आत्मदेवाय फलम् नि० चिदानन्द शुद्धात्म द्रव्य का ज्ञान स्वभावी अर्घ अभय । राग द्वेष की व्यथा मिटाने मे लगता है एक समय ।। परम ब्रह्म भगवान आत्मा ध्रुव अनन्त गुण ज्ञानमयी। नित्य निरञ्जन चिन्मय चेतन शुद्ध बुद्ध निज ध्यानमयी ।। ॐ ही अनन्त शक्ति सम्पन्न शुद्ध आत्मदेवाय अर्घम् नि० जयमाला आत्मदेव ही देव हैं महादेव बलवान । निज अन्तर मे जो नसा शाश्वत सुख की खान ।। मैं आत्मदेव चैतन्य पुज, ध्र व दर्श भूत अतीन्द्रिय हैं। मैं तो ज्ञानात्मक निरालम्ब, परमात्म स्वरूप अतीन्द्रिय हूँ। मैं तो नारफ अथवा मनुष्य तिर्यञ्च देव पर्याय नहीं। में उनका करता कारयिता फर्ता का अनुमन्ता न कहीं। मैं नहीं मार्गणा गुणस्थान अथवा मै जीवस्थान नहीं । मैं उनका कर्ता कारयिता कर्ता का अनुमन्ता न कहीं ॥ में एक अपूर्व महा पदार्थ मैं पर द्रव्यो में अक्रिय हैं। मैं आत्मदेव चैतन्य पुञ्ज घ्र व दर्शन भूत अतीन्द्रिय हूँ ॥ मैं बाल नहीं मैं तरुण नहीं मैं रोगी अथवा वृद्ध नहीं। मैं उनका कर्ता फारयिता कर्ता का अनुमन्ता न कहीं। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) मगग नहीं मैं प नहीं में मोह नहीं में सोम नहीं । मेनका धारपिता पर्ता का अनुमन्ता न पाहीं। ममहज शुक्ष चैतन्य विमाती पर भावों में निप्रिय हैं। में जात्मदेव चन्य पुजधर दर्शन दूत अतीन्द्रिय है। में लोप नहीं में मान नहीं मनारा बचदा लोग नहीं । मैं उनमा पार्ता पारपिता पर्ता का अनुमन्तान पही।। पतत्व माल पार अनाय मुमो तो बच नहीं। रगगध रपशं स्पादित से मेरा मुछ भी सम्प नहो।। में प्रतिभूत सुगमा स्यामी जपान में किया। में मानदेव चतन्य पुष्प वन सून मीन्द्रिय ।। मे प्रकृति प्रदेश स्थिति बध अनुभाग बघ के पास नहीं । औदारिफ आहारफ तेरस पार्माण पन्धित बान ही। ये सब पहगत द्रव्यात्मक इनरी तो आत्म प्रकान नहीं। ऐसा दृढ निश्चय दिये मिना सन्तान दमा का नाम नही ।। मैं जान गिन्धु परिपूर्ण शुरु निर्माण मुन्दरीको नियन मैं जानदेव चैतन्य पुजा ध्रुव शंन मन अतीन्द्रिय ।। * भा7 निपन्न देवा हम निक आत्मदेव का आश्रय हो जग मे तार । पूर्ण शुद्ध चैतन्य घन मगलमय शिवकार ।। इत्याशीर्वाद जाप्प- ही भी गुहाग ने पाय नम • (३१) समक्षुओं के लिए खुला पत्र तीन लोक तिहु काल मांहि नहि दर्शन नो नुनकारो, सफल धर्म को मूल यही, इस विन करनी दुखकारी ।। मोक्षमहलकी परथम सीढी या विन ज्ञान चरित्रा, सम्यक्ता न लहै सो दर्शन, धारो भव्य पवित्रा । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) 'दौल' समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवै, यह नरभव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहि हो । आत्मार्थी बन्धु - सविनय जय जिनेन्द्र देव की। (१) ससार मे प्रत्येक जीव सुख चाहता है। सुख पाने के लिए अनादि से पर वस्तुओ को अपनेरूप परिणामाने का उपाय कर रहा है, लेकिन पर वस्तुएँ अपनेरूप नहीं परिणमती, इससे यह दुःखी बना रहता है । यह स्वय अनादिअनन्त जीव है, इसका एक बार आश्रय ले लें तो पर वस्तुओ के परिणमाने की जो कर्ता भोक्तावुद्धि है और पराश्रय व्यवहार की रुचि है वह छूट जावे, धर्म की प्राप्ति होकर क्रम से पूर्णता को प्राप्त करे। (२) सोना, उठना, वैठना, हाथ धोना, नहाना, हाथ जोडना, नमस्कार करना, मन्त्र जपना, मुह से पूजा आदि की क्रिया होना, किताव उठाना धरना, रोटी खाना, कपडे पहिनना, उतरना, पाँचो इन्द्रियो के भोग भोगना, पाँचो इन्द्रियां, शब्द बोलना, मन-वचन-तन तथा कर्म का उदय, उपशम, क्षयोपशम, क्षयादि आठकर्म तथा आठ कर्म के १४८ प्रकृतियां इन सब का कर्ता-कर्म, भोक्ता-भोग्य एक मात्र पुद्गल द्रव्य ही है। जीव से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नही है। ऐसी भगवान की आज्ञा है । तब मैंने रुपया कमाया, बाल-बच्चो का पालन-पोषण किया, उपदेश दिया, वाहरी अनशन अवमौदर्यादि किया इस वात के लिये अवकाश ही नही है। मैं तो अनादिअनन्त, नित्य, ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मा हू । ऐसा जानकर अपने त्रिकाली कारणपरमात्मा का आश्रय ले तो अपने मे अपूर्व शान्ति आवे, जन्म-मरण का अभाव हो। (३) ससार मे अपनी आत्मा को छोडकर जो पर पदार्थ है, वह इष्ट अनिष्ट नही है परन्तु अज्ञानी को अपनी आत्मा का अनुभव नही होने से जिसको चाहता है उसमे राग करता है और इष्ट मानता है । जिसको नही चाहता है उसमे द्वेष करता है, और अनिष्ट मानता Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) है । व्यर्थ मे अनादि से पर पदार्थों को इष्ट अनिष्ट मानने के कारण चारो गति का पात्र बनकर निगोद मे चला जाता है । इसलिए इष्ट अनिष्ट रहित अपना ज्ञायक एकरूप भगवान आत्मा है उसका आश्रय लेवे तो मोक्ष का पथिक बन जाता है और अनादि की इष्ट अनिष्ट की खोटी मान्यता का नाश हो जाता है । (४) अज्ञानी अनादिकाल से हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि अशुभ भाव हेय मानता है । अणुव्रत महाव्रत, दया दान पूजा, प्रतिष्ठा यात्रा आदि के शुभ भावो को उपादेय मानता है यह महान अनर्थ मिथ्यात्व का महान पान है। क्योकि भगवान ने शुभभावो को बघ का कारण, दुख का कारण, आत्मा का नाश करने वाला, अपवित्र, जड-स्वभावी बताया है और भगवान आत्मा को अबन्धरूप, सुखरूप, आत्मा को प्रगट करने वाला, पवित्र, चेतन स्वभावी उपादेय ही बताया है। ऐसा जानकर शुभाशुभ भाव रहित अपने भगवान आत्मा का आश्रय लेवे तो पर्याय मे सुख और ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है । उसकी गिनती पचपरमेष्टियों मे होने लगती है। मिय्यात्वादि पाँच कारणो का तथा पच परावर्तनरूप ससार का अभाव हो जाता है, ओर अनादिअनन्त परम पारिणामिक भाव का महत्व आ जाता है । (५) धर्म का सम्बन्ध बाहरी क्रियाओ से तथा शुभाशुभ भावो से सर्वथा नही है । मात्र आत्मा के धर्म का सम्बन्ध अपने अनन्त गुणो के अभेद पिण्ड से ही है । पात्र जीव उस अभेद पिण्ड भगवान का आश्रय लेकर शुद्धोपयोग दशा मे प्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति चौथे गुणस्थान मे करता है तब उसे भगवान की दिव्यध्वनि का रहस्य समझ मे आता है। चौथे गुणस्थान मे उसे सिद्ध अरहत, श्रेणी, मुनि श्रावकपना क्या है, उसका पता चलता है । तथा मिथ्यादृष्टि एक मात्र मिथ्यात्व के कारण ही दुखो है । ससार के प्रत्येक द्रव्य की अवस्था जैसी केवली के ज्ञान में आती है वैसा ही साधक ज्ञानी चौथे गुणस्थान मे जानता है, मात्र प्रत्यक्ष-परोक्ष का Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) भेद है | भगवान की वाणी का रहस्य सम्यग्दर्शन प्राप्त किये बिना तीन काल, तीन लोक मे ११ अग पूर्व के पाठी को भी नही हो सकता है । इसलिए द्रव्यलिंगी को शुक्ललेश्या तथा ज्ञान का उवाङ होने पर भी मिथ्यादृष्टि असयमी, ससार का नेता कहा है । फिर भी धर्म मे विघ्न करने वाले कुछ महानुभावो को कुछ परलक्षी ज्ञान का उघाड़ होने से शास्त्रो का अर्थ, निश्चय व्यवहार की संधि का रहस्य न जानने के कारण अणुव्रत महाव्रत, दया, दान, यात्रादि करो, बाहरी क्रिया करो, पाठ करो, इससे धीरे-धीरे धर्म होगा और जीव को कर्म चक्कर कटाता है, कर्म हटे तो जीव का भला हो, जितनी तुम शुभ भाव की क्रिया करोगे उतनी जल्दी कर्म दूर हो जायेंगे । कोई शुद्धोपयोग आठवें गुणस्थान में, कोई १२ में गुणस्थान मे बतलाते हैं । इसलिए हे भाई, जो तुम्हे ऐसा उपदेश देता है और तुम उसे मानते हो, तो अनादि से अगृहीतमिथ्यात्व तो चला ही आ रहा था और उसमे गृहीतमिथ्यात्व की पुष्टि हो गई। वर्तमान मे ऐसे धर्म में विघ्न करने वाले महानुभावो की विशेषता है, इसलिए इनसे बचना चाहिये । यदि आप बाहरी क्रियाओ तथा शुभभावो से भला होता है ऐसी बातो मे पडे रहोगे तब तो वर्तमान मे त्रस की स्थिति पूरी होने को आई है और निगोद मुह बाए खड़ा है । सावधान | सावधान | (६) अनादि से तीर्थंकरादि कहते आये हैं कि तुम्हारा कल्याण एकमात्र अपनी आत्मा के आश्रय से ही होता है । मोक्षमार्ग एक ही है और वह है वीतरागरुप | परन्तु उसका कथन दो प्रकार का शुभभाव पुण्यबध का कारण है तथा प्रवचनसार मे जो पुण्य-पाप में अन्तर डालता है वह घोर ससार मे घूमता है, ऐसा कहा है । तो आज वर्तमान युग मे इन बात के ( जिनेन्द्र भगवान की बात के ) परम सत्य वक्ता श्री कानजीस्वामी है, जिन्होने वर्तमान मे पात्र जीवो को तीर्थकर भगवान का विरह भुला दिया है ओर पंचमकाल को चौथे काल के समान बना दिया है। यदि आपको अपना कल्याण करना हो तो सब बातो की मूर्खता छोड़कर हर साल अगस्त में क्लास " Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) लगती है और लगेगी, उसमें आवे । ताकि सत्य बात क्या है ? उसको जानकर अपनी आत्मा का आश्रय लेकर धर्म की प्राप्ति हो। मेरे विचार मे यदि किसी का कल्याण होना है तो उसमे पूज्य श्री कानजी स्वामी मे ही निमित्तपने की योग्यता है। आपमे पवित्रता के साथ पुण्य का मेल भी उत्कृष्ट है । याद रहे, होगा अपने से हो, श्री कानजी स्वामी से नहीं। जिनेन्द्र भगवान के घर का रहस्य बतलाने वाला वर्तमान मे मेरे विचार से और कोई दृष्टिगोचर नही होता। इसलिए भाई इस कार्य को तुरन्त करो। (७) जिसने अपना कल्याण करना हो, उसे श्री उमास्वामी भगवान ने जो तत्वार्थसूत्र मे 'सद्न्य लक्षणम् और उत्पादव्यय घ्रोव्ययुक्त सत्" वताया है उसका रहस्य जानना चाहिये । उसको जानने के लिये ६ द्रव्य, सात तत्व, ४ अभाव, ६ कारक, द्रव्य-गुण पर्याय की स्वतन्त्रता उपादान-उपादेय, निश्चय-व्यवहार, निमित्त नैमित्तिक, त्यागने योग्य मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चरित्र और ग्रहण करने योग्य सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र आदि बातों का सूक्ष्म रीति से अभ्यास करना चाहिये । ताकि प्रत्येक द्रव्य-गुण-पर्याय की स्वतन्त्रता जानकर, अपने त्रिकाली स्वभाव का आश्रय लेकर सुखी होवे। इसके अलावा और उपाय नही है। (८) अपने कल्याण के लिये पुण्यभाव, पुण्यकर्म पुण्य की सामग्री तथा परलक्षी ज्ञान की किंछित्-मात्र आवश्यकता नही है । एक मात्र तू भगवान आत्मा अनादिअनन्त है ऐसा जाने, उसकी ओर दृष्टि करे । जो भगवान अनादि से शक्तिरूप था, वह पर्याय मे प्रगट हो जाता है। इसलिये सम्यकदर्शनादि प्राप्ति के लिये, पर पदार्थों से शुभाशुभ भावो से बिल्कुल दृष्टिं उठाओ। यदि पर का, शुभाशुभ भावो का जरा भी आश्रय रहेगा तो कभी भी धर्म की प्राप्ति नही होगी । वास्तव मे अपूर्ण-पूर्ण शुद्ध पर्याय भी आश्रय करने योग्य नही हैं । इसलिये एक मात्र आश्रय करने योग्य अपना भगवान ही है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) और प्रगट करने योग्य सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र है। ऐसा जानकर स्वभाव का आश्रय ले तो अनादि का सकट मिट जावे और अपने आप का पता चले, तब अपने मे स्थिरता, वृद्धि, पूर्णता करके, मोक्ष का पथिक बने। (९) वालपन खेलकूद मे बीता, जवानी विषयभोगो मे खोई, वृद्धपना तकरूप है इसलिए समय रहते चेतो । चेतो ।। अमर मानकर निज जीवन को परमव हाय भुलाया। चान्दी सोने के टुकडो मे, फूला नहीं समाया। देख मूढता यह मानव की, उधर काल मुस्काया । अगले भव मे ले चला यहाँ नाम निशान न पाया ।। लाख बात की बात यही, निश्चय उर लाओ। तोरि सकल जग द्वन्द फन्द, नित आतम ध्याओ।। त्रिविध आतम जानके, तज बहिरातम भाव । होयकर अन्तर आत्मा परमातम को ध्याव ॥ ज्यो मन विपयो मे रमे, त्यो हो आतम लीन । शीघ्र मिले निर्वाण पद, धरे न देह नवीन । भवदीय -कैलाशचन्द्र जैन (यह पत्र ५०जी ने अपने हितैषियो को सोनगढ से ११-७-१९६६ को भेजा था तो हमारे मडल ने इसे अब छठवी बार छापा है ताकि पात्र जीव थोडे मैं समझकर अपना कल्याण कर लेवे ।) (३२) दशलक्षण धर्म दशलक्षणी-पर्युषणपर्व वर्ष मे तीन बार (माघ, चैत्र व भाद्र मास' मे) आता है। दसलक्षणी पर्युपणपर्व यह आराधना का महान पर्व है। चैतन्य की भावना पूर्वक सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र की Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) भाराधना या उत्तमक्षमादि धर्मरूप वीतराग भाव की उत्कृष्टरूप से उपासना, इसका नाम पर्युषण है। जैसे रत्नत्रय के व दशधर्मों के उत्कृष्ट आराधक मुनिवरो है वैसे गृहस्थ श्रावको को भी अपनी भूमि का के अनुसार आशिकस्प से उन सब धर्मों की बाराधना होती है। ऐसी आराधना की भावना करना, आराधना के प्रति उत्साह वढाना, याराधन जीवो के प्रति वहमान से वर्तना-इत्यादि सब तरह के उद्यम से आत्मा को आराधना मे लगाना, यह मुनि व श्रावक सभी का कर्तव्य है। इस लेख के द्वारा हम सबको ऐसी आराधना की प्रेरणा मिलती रहे-यही भावना है। १. उत्तमक्षमा धर्म की आराधना उत्तम छिमा जहाँ मन होई, अन्तर वाहिर शत्रुन कोई॥ श्रेणिक राजा ने घोर उपसर्ग करने पर भी श्री यशोधर मुनिराज स्वरूप जी आराधना से डिगे नहि, क्षमाभाव धारण करके श्रेणिक को भी धर्मप्राप्ति का आर्शीवाद दिया। दूसरी और श्रेणिक जा ने भी धर्म की विराधना का अनन्त क्रोध परिणाम छोडकर सम्यग्र्शन में धर्म की आराधना प्रगट की; यह भी उत्तमक्षमा की आराधना का एक प्रकार है। क्रोध के वाह्य प्रसग उपस्थित होने पर भी, रत्नत्रय को दृढ आराधना के बल पर क्रोध की उत्पत्ति नही होने देना और वीतरागभाव रहना, असह्य प्रतिकूलता आने पर भी आराधना मे भग नहीं होने देना-वह उत्तम क्षमा की आराधना है। ऐसी क्षमा के आराधक सन्तो को नमस्कार हो। २. उत्तम मार्दन धर्मकी आराधना उत्तम मार्दव विनय प्रकाश, नाना भेद ज्ञान सब भासे ।। ध्यानस्थ बाहुवली के चरणो मे आकर भरत चक्रवर्ती ने पूजन Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) किया तो भी वाहुवली ने गर्व न करके निजध्यान मे तत्पर होकर तत्क्षण ही केवल ज्ञान उपजाया। निर्मल भेदज्ञान से जिसने सारे जगत को अपने से भिन्न स्वप्नवत् देख लिया है,और जो यात्मभावना मे तत्पर है उस को जगत के किसी भी पदार्थ मे गर्व का अवकाश ही कहा है ? रत्नत्रयकी आराधना मे ही जिसका चित्त तत्पर है ऐसे मुनि भगवतो को चक्रवर्ती नमस्कार करे तो भी मान नहीं होता, और कोई तिरस्कार करे तो दीनता भी नही होती; ऐसे निर्मान मुनि भगवतो को नमस्कार हो। पचपरमेष्टी आदि धर्तात्मा गुणीजनो के प्रति बहुमान पूर्वक विनयप्रवर्तन यह भी मार्दव धर्म का एक प्रकार है। ३. उत्तम आर्जव धर्म की आराधना उत्तम मार्जव कपट मिटावे, दुरगति त्याग सुगति उपजाये । जो भवभ्रमण से भयभीत है और रत्नत्रय की आराधना मे तत्पर हैं ऐसे मुनिराज को अपनी रत्नत्रय की आराधना मे लगे हुए छोटे या बडे दोष को छिपाने की वति नही होती, किन्तु जैसे माता के पास मे बालक सरलता मे सब कह दें वैसे गुरु के पास जाकर अत्यन्त सरलता से अपना सर्बदोप प्रगट करते है, और इस प्रकार अति सरल परिणाम से आलोचना करके रत्नत्रय मे लगे हुए दोपो को नष्ट करते है। एव गुरु वगैरह के उपकार को भी सरलता से प्रसिद्ध करते हैं। ऐसे मुनिवरो को उत्तम आर्जवधर्म की आराधना होती है। ऐसे आर्जवधर्म के आराधक सन्तो को नमस्कार हो । ४. उत्तम शौचधर्म की आराधना उत्तम शौच लोभ परिहारी, सतोषी गुन रतन भडारी॥ उत्कृष्टतया लोभ के त्यागरूप जो निर्मल परिणाम वही उत्तम शौचधर्म है । भेद ज्ञान के द्वारा जगत के समस्त पदार्थों से जिसने Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) अपने आत्मा को भिन्न जान लिया है, देह को भी अत्यत जुदा जानकर उसका भी ममत्व छोड दिया है, और पवित्र चैतन्यतत्त्व की आराधना मे जो तत्पर है ऐसे मुनिवरो को किसी भी परद्रव्य के ग्रहण की लोभवृत्ति नही होती, भेदज्ञानरूप पवित्र जल से मिथ्यात्वादि चीको धो डाली हैं, वह शोचधर्म के आराधक है । अहा, जगत के समस्त पदार्थो संवधी लोभ को छोड करके, मात्र चैतन्य को साधने मे ही तत्पर ऐसे यह शौचधर्मवत मुनिवरो को नमस्कार हो । ५. उत्तम सत्यधर्म की आराधना उत्तम सत्य बचन मुख बोले, सो प्राणी ससार न डोलें । मुनिराज वचनविकल्प को छोड़करके सत्स्वभाव को साधने मे तत्पर है, और यदि वचन बोले भी तो वस्तुस्वभाव के अनुसार स्वपर हितकारी सत्यवचन ही बोलते है; उसको सत्यधर्म की आराधना होती है । मुनिराज सन्धग्ज्ञान से वस्तुस्वभाव जान करके उसी का उपदेश देते है, श्रोताजन आत्मज्योति के सन्मुख हो और उनका अज्ञान दूर हो वैसा उपदेश देते हैं। और आप स्वयं भी आत्मज्योति मे परिणत होने के लिये उद्यत रहते है । ऐसे उत्तम सत्यधर्मं के आरा धक सन्तो को नमस्कार हो । ६. उत्तम संयम धर्म की आराधना उत्तम संजम पाले ज्ञाता, तर भव सफल करै ले साता । भगवान रामचन्द्र जी मुनि होकर के जव निज स्वरूप को साथ रहे थे तब, प्रतीन्द्र हुए सीता के जीवने उन्हें डिगाने की अनेक चेष्टाए की, लेकिन रामचन्द्र जी अपने उत्तम सयम की आराधना मे दृढ रहे और केवलज्ञान प्रगट किया । वैसे ही श्रावकोत्तम श्री सुदर्शन शेठ को प्राणान्त जैसा प्रसग Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) उपस्थित होने पर भी वह अपने सयम मे दृढ रहे, और आगे बढकर सुति होकर केवलज्ञान पाया । अतर्मुख होकर निज स्वरूप मे जिसका उपयोग गुप्त हो गया है ऐसे मुनिवरो को स्वप्न मे भी किसी जीव को हनने की वृत्ति या इन्द्रियविपयो की वृत्ति नही होती, उन उत्तम सयम के आराधक मुनिवरो को नमस्कार हो । ७. उत्तम तप धर्म की आराधना उत्तम तप निरवांछित पालै, सो नर करम शत्रु को टाले । शत्रु जयगिरि के ऊपर ध्यानरत पांडव भगवन्तो को धग धगते अग्नि के उपद्रव होने पर भी वे अपने ध्यानरूप तप से डिगे नही । वैसे ही चैतन्य ध्यान मे रत बाहुबली भगवान ने एक वर्ष तक अडिगता से शीत - घाम व वर्षा के उपसर्ग सहे, चैतन्य के ध्यान द्वारा विषयकषाय को नष्ट किया, और चैतन्य के उग्र प्रतपन से केवलज्ञान प्रगट किया । घोर उपसर्ग होने पर भी पार्श्वनाथ तीर्थकर निज स्वरूप के ध्यानरूप तप से नही डिगे, न तो उन्होने धरणेन्द्र के ऊपर राग किया ओर न कमठ के प्रति द्वेष, वीतराग होकर केवलज्ञान प्रगट किया । इस प्रकार स्वसन्मुख उपयोग के उग्र प्रतपन से कर्मों को भस्म करने वाले उत्तम तपधर्म के आराधक सन्तो को नमस्कार हो । ८. उत्तम त्याग धर्म की आराधना उत्तम त्याग करें जो कोई, भोग भूमि- सुर-शिव सुख होई । 'मैं शुद्ध चैतन्यमय आत्मा हूँ, देहादि कुछ भी मेरा नही' इस प्रकार सर्वत्र ममत्व के त्यागरूप परिणाम से चैतन्य मे लीन होकर मुनिराज उत्तम त्याग धर्म की आराधना करते हैं । श्रुत का व्याख्यान करना, साधर्मीओ को पुस्तक, स्थान या सयम के साधन आदि देना वह भी उत्तम त्याग का प्रकार है, कोई मुनिराज Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) उत्तम नवीन शास्त्र पढ रहा हो, और दूसरे मुनिराज मे वह शास्त्र की उत्कंठा देखे तो तुरन्त ही बहुमान के साथ वह शास्त्र उनको समर्पण करते हैं, यह भी उत्तम त्याग का एक प्रकार है । सर्वत्र ममत्व को त्याग कर, सर्व परभाव के त्याग स्वरूप ज्ञान स्वभाव की आराधना मे तत्पय उत्तम त्यागी मुनिवरी को नमस्कार हो । Bringing ८. उत्तम आकिंचन्य धर्म की आराधना उत्तम आकिंचन व्रत धारे, परम समाधि दशा विस्तारै । भेदज्ञान के बल से सर्वत्र ममत्व छोडकर चैतन्य भावना मे रत होने वाले मुनिराज, शास्त्रो के गहरे रहस्य का ज्ञान दूसरे मुनिओ को भी बिना संकोच देते हैं; सिंह आकर के शरीर को खा जाय तो भी देह का ममत्व नही करते । चक्रवर्ती भरत जैसे क्षणभर मे षट्खड का वैभव छोड़कर के ज्ञाता स्वभाव के सिवाय कुछ भी मेरा नहीं'ऐसी अकिंचन भावनारूप परिणत हुए । 'शुद्ध ज्ञान दर्शनमय एक आत्मा ही मेरा है, इसके सिवाय अन्य कुछ भी मेरा नही' - ऐसे भेद ज्ञान के बल से देहादि समस्त परद्रव्यो मे, रागादि समस्त परभावो मे ममत्व का परित्याग करके जो अकिचन भावना मे तत्पर है ऐसे उत्तम आकिंचन्य धर्म के आराधक मुनिवरो को नमस्कार हो । १०. उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म की आराधना उत्तम ब्रह्मचर्य मन लावे, नर सुर सहितमुकति पद पावै । जिस सीता जी के विरह मे पागल जैसे ही गये थे वही सीता द्वारा ललचाये जाने पर भी भगवान रामचन्द्र जी विषय भोगों में ललचाये नही व उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म की आराधना मे लीन होकर के सर्वज्ञ परमात्मा हुए । धर्मात्मा जयकुमार देवीयो के द्वारा भी ब्रह्मचर्य से डिगे नहीं, Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) धर्मात्मा शेठ सुदर्शन प्राणान्त जैसे प्रसग आने पर भी अपने ब्रह्मचर्य व्रत से डिगे नही । रावण के द्वारा अनेक तरह से ललचायी जाने पर भी भगवती सीता अपने ब्रह्मचर्य से नही डिगी । जगत के सर्व विपयो से उदासीन होकर ब्रह्मस्वरूप निजात्मा मे जिसने चर्या प्रगट की ऐसे उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म के आराधक सन्ता धर्मात्माओ को नमस्कार ही । (३३) भगवान महावीर दीपावली मंगल दीपावली कार्तिक वदी अमावस्या का सुप्रभात सारा भारत आज अनोखे आनन्द से यह दीपोत्सव मना रहा है । किसका है यह मंगल - दीपोत्सव ? पावापुरी का पवित्रधाम हजारो दीपको की जगमगाहट से आज दिव्य शोभा को धारण कर रहा है । वीरप्रभु के चरण समीप बैठ करके भारत के हजारो भक्तजनो वीरप्रभु के मोक्ष गमन का स्मरण कर रहे है और उस पवित्र पद की भावना भा रहे हैं । अहा 1 भगवान महावीर ने आज ससार बन्धन से छूटकर अभूतपूर्व सिद्धपद प्राप्त किया। अभी वे सिद्धालय मे विराज रहे हैं। पावापुरी के जल - मन्दिर के ऊपर लोकशिखर पर अपने सिद्धे पद मे प्रभू विराज -- मान हैं । 1 1 कैसा है यह सिद्धपद ? सन्तो के हृदयपट मे उत्कीर्ण यह सिद्धपद का वर्णन करते हुए श्री कुन्दकुन्दास्वामी नियमसार मे कहते हैं किकमष्टिवजित परम जन्म- जरा - मरणहीन शुद्ध है । ज्ञानादि चार स्वभाव है अक्षय अनाश मछेद्य है || अनुपम अतीन्द्रिय पुण्यपापविमुक्त अव्यावाध है | पुनरागमनविरहित निरालबन सुनिश्चल नित्य है ॥ मात्र सिद्धदशा में ही नही परन्तु इसके पहले ससार अवस्था के Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) -समय मे भी जीवो मे ऐसा ही स्वभाव है, यह दर्शाते हुए नियमसार मे कहते है कि जैसे जीवो है सिद्धिगत वैसे ही सब ससारी है। वे भी जनम-मरणादिहीन अरु अष्टगुण सयुक्त है । अगरीर अरु अविनाश है निर्मल अतीन्द्रिय शुद्ध है। सिद्धलोके सिद्ध जैसे वैसे सब ससारी है ।। प्रभू महावीर ने आज के दिन ऐसा महिमावत सिद्धपद प्राप्त 'किया । कैसा था वह महावीर...... ...और किस प्रकार से उन्होने ऐसा सुन्दर सिद्धपद प्राप्त किया ?--कि जिसके आनन्द का उत्सव हजारो दीपको से आज भी सारा भारत मना रहा है ? हम सबकी तरह वे महावीर भगवान भी एक आत्मा है । हमारी तरह पहले वह भी ससार मे थे। अरे | वह होनहार तीर्थकर जैसा आत्मा भी जब तक आत्मज्ञान नहिं करता तब तक अनेक भव मे ससार भ्रमण करता है । इस प्रकार भव चक्र मे रुलते रुलते वह जीव 'एक बार विदेहक्षेत्र मे पुडरीकिणी नगरी के मधुवन मे पुरुरवा नामक भील राजा हुआ, उस बख्त सागरसेन नामक मुनिराज को देख के पहले तो वह उन्हे मारने को तैयार हुआ, किन्तु वाद मे उसको वनदेवता समझकर नमस्कार किया व उनके शात वचनो से प्रभावित होकर के मासादिक त्याग का व्रत ग्रहण किया। व्रत के प्रभाव से पहले स्वर्ग का देव हुआ, फिर वहाँ से अयोध्यापुरी मे भरतचक्रवर्ती का पुत्र मरीची हुआ; २४वे अन्तिम तीर्थंकर का जीव प्रथम तीर्थंकर का पौत्र हुआ। वहाँ अपने पितामह के साथ-साथ उसने भी दिगम्बरी दीक्षा ती ले ली, परन्तु वह वीतराग-मुनिमार्ग का पालन नहीं कर सका, उनसे भ्रष्ट होकर के उसने मिथ्यामार्ग का प्रवर्तन किया । मान के उदय से उसको ऐसा विचार हुआ कि जैन भगवान ऋपभदादा ने तीर्थकर होकर के तीन लोक मे आश्चर्यकारी मामर्थ्य प्राप्त "किया है वैसे मैं भी अपना स्वतन्त्र मत चलाकर उसका नेता होकर Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०५ ) उनकी तरह इन्द्र द्वारा पूजा की प्रतीक्षा करूँगा, मैं भी अपने दादा की तरह तीर्थंकर होऊँगा। (भावी तीर्थकर होने वाले द्रव्य मे तीर्थकरत्व की लहरें जगी |) एक बार भगवान ऋषभदेव की सभा मे भरत ने पूछा : प्रभो । क्या इस सभा मे से भी कोई आपके जैसा तीर्थंकर होगा ? तब भगवान ने कहा-हाँ, यह तेरा पुत्र मरीचीकुमार इस भरतक्षेत्र मे अन्तिम तीर्थंकर (महावीर) होगा। प्रभु की ध्वनि मे अपने तीर्थकरत्व की बात सुनते ही मरीची को अतीव आत्मगौरव हुआ। फिर भी अब तक उसने धर्म की प्राप्ति नही की थी। अरे । तीर्थंकर देव का दिव्यध्वनि सुन करके भी उसने सम्यक् धर्म को ग्रहण नही किया। मात्मभान के बिना वह जीव ससार के अनेक भवो मे रुला। महावीर का यह जीव, मरीची का अवतार पूर्ण करके ब्रह्म-स्वर्ग का देव हुआ। इसके बाद मनुष्य व देव के अनेक भव मे भी मिथ्यामार्ग का सेवन करता रहा; अन्त मे मिथ्यामार्ग के सेवन के कुफल से समस्त अधोगति मे जन्म धार-धार के बस स्थावर पर्यायो मे असख्यात वो तक तीव्र दुख भोगा। ऐसे परिभ्रमण करते-करते वह आत्मा अतीव कथित व खेदखिन्न हुआ।। अन्त मे असख्यात भवो मे घूम घूम के वह जीव राजगही मे एक ब्राह्मण का पुत्र हुआ। वह वेद वेदान्त मे पारगत होने पर भी सम्यरदर्शन से रहित था इसलिये उसका ज्ञान व तप सब व्यर्थ था। मिथ्यात्व के सेवनपूर्वक वहा से मर करके देव हुआ, वहाँ से फिर राजगही मे विश्वनन्दी नामक राजपुत्र हुआ । और वहा एक छोटे से उपवन के लिये ससार की मायाजाल देख के वह विरक्त हुआ और सभूतस्वामी के पास जैन दीक्षा ले ली। वहाँ से निदान के साथ आयु पूर्ण करके स्वर्ग मे गया, और वहां से भरतक्षेत्र के पोदनपुर नगरी मे वाहुबलोस्वामी को वश परपरा मे त्रिपृष्ठ नाम का अर्धचक्री (वासुदेव) हुआ; और तीन आरभ परिग्रह के परिणाम से अतृप्तपन Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) र्थकर है से नीचे के पहले नि अनेक से ही मरकर वहां से सातवी नरक गया। अरे । उस नरक के घोर दुखो की क्या बात ? ससार भ्रमण मे रुलते हुए जीव ने अज्ञान से कौन-कौन से दुख नही भोगे होगे ! । महान कष्ट से असख्यात वर्षों की यह घोर नरक यातना की वेदना पूर्ण करके वह जीव गगा किनारे सिंहगिरि के उपर सिह हुआ, फिर वहा से दधती अग्नि के समान प्रथम नरक मे गया और वहाँ से निकलकर जम्बुद्वीप के हिमवन पर्वत पर देदीप्यमान सिंह हुआ महावीर के जीवने इस सिह पर्याय मे आत्म लाभ प्राप्त किया। किस तरह वह आत्म लाभ पाया-यह प्रसग पढिये एकबार वह सिह क रता से हिरन को फाडकर खाता था। उसी समय आकाश माग से जाते हुए दो मुनियो ने उसको देखा और 'यह जीव होनहार अन्तिम तीर्थकर है' ऐसे विदेह के तीर्थकर के वचन का स्मरण करके, दयावश आकाशमार्ग से नीचे उतर के, सिह को धर्म सम्बोधन करने लगे. अहो, भव्य मृगराज | इसके पहले त्रिपृष्ठबासु देव के भव मे तूने बहुत से वाछित विषय भोगे, एव नरक के अनेक विध घोर दुख भी अशरण रूप से आक्रन्द कर करके तूने भोगे, उस वस्त चहू आर शरण के लिए तूने पुकार की किन्तु तुझ कही भी शरण न मिला। अरे ! अब भी तूं क रतापूर्वक पाप का उपार्जन क्यो कर रहा है ? घोर अज्ञान के कारण अब तक तूने तत्वो को नही जाना और वहुत दुख पाया । इसलिये अब तू शान्त हो और इस दुष्ट परिणाम को छोड । मुनिराज के मधुर वचन सुनते ही सिह को अपने पूर्व भवो का ज्ञान हुआ, नेत्रो से अश्रुधारा बहने लगी परिणाम विशुद्ध हुए। तब मुनिराज ने देखा कि अब इस सिंह के परिणाम शान्त हुआ है और वह मेरी ओर आतूरता से देख रहा है इसलिये अभी अवश्य वह सम्यक्त्व का ग्रहण करेगा। ऐसा सोचकर मुनिराज ने पुरुरवा भील से लेकर के अनेक भद दिखा करके कहा कि रे शार्दूलराज । अवदशवे भव मे तूं भरतक्षेत्र Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७ ) का तीर्थकर होगा-ऐसा हमने श्रीधर तीर्थंकर के मुख से सुना है। इसलिये हे भव्य । तू मिथ्यामार्ग निवृत हो और आत्महितकारी ऐसे. सम्यकमाग मे प्रवृत हो। ___ महावीर का जीव सिंह मुनिराज के वचन से तुरन्त ही प्रतिबोधित हुआ। उसने अत्यन्त भक्ति से वारवार मुनियो की प्रदक्षिणा की और उनके चरणो मे नम्रीभूत हुआ। रौद्ररस के स्थान मे तुरन्त ही शान्त रस प्रगटकिया। और उसने तत्क्षण ही सम्यक्त्व प्राप्त किया इतना ही नहीं, उसने निराहारव्रत भी धारण किया । अहा । सिहका शूर वीरपना सफल हुमा । शास्रकार कहते है कि उस समय उसने ऐसा धार पराक्रम प्रकट किया कि यदि तिर्यच पर्याय मे मोक्ष होता तो अवश्य ही वह मोक्ष पा जाता | सिहपर्याय मे समाधिमरण करके वह सिंहकेतु नाम का देव हुआ। वहाँ से घातकी खण्ड के विदेह क्षेत्र मे कनकोज्वल नाम का राजपुत्र हुआ, अव धर्म के द्वारा वह जीव मोक्ष की नजदीक मे पहुच रह था। वहा वैराग्य से सयम धारण करके सातवे स्वर्ग मे गया। वहा से साकेतपुरी (अयोध्या) मे हरिपेण राजा हुआ और सयमी होकर के स्वर्ग मे गया। फिर धातको खण्ड मे पूर्व विदेह को पुडरीकिणी नगरी मे प्रियमित्र नाम का चक्रवर्ती राजा हुआ क्षेमकर तीर्थंकर के सान्निध्य मे दीक्षा ली और सहन्नार स्वर्ग में सूर्य प्रभदेव हुआ। वहाँ से जवुद्वीप के छत्तरपुर नगर मे नन्दराजा हुआ और दिक्षा लेकर उत्तम सयम का पालन कर, ११ मग का ज्ञान प्रगट करके, दर्शनविशुद्धि प्रधान सोलह भावनाओ के द्वारा तीर्थकर नाम कर्म बाधा और ससार का छेद किया, उत्तम आराधना सहित अच्युपस्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान मे इन्द्र हुआ। - वहाँ से चयकर महावीर का वह महान आत्मा, भरत क्षेत्र मे वैशाली के कुण्डलपुर के महाराजा सिद्धार्थ के यहाँ अन्तिम तीर्थकर के रूप में अवतरित हुआ-प्रियकारिणी माता के यह वर्द्धमान पुत्र ने चैत्र शुक्ल १३ के दिन इस भरतभूमि को पावन की। इस वीर वर्द्ध Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८ ) मान बाल तीर्थकर को देखते हो सजय व विजय नाम के दो मुनियो का सन्देह दूर हुआ, इससे प्रसन्न होकर उन्होने 'सन्मतिनाथ' नाम दिया । मगम नाम के देव ने भयकर सर्प का रूप धारण करके उस बालक की निर्भयता व वीरता की परीक्षा करके भक्ति से 'महावीर' नाम दिया। तीस वर्ष की कुमार वय मे तो उनको जाति स्मरण ज्ञान हुआ और ससार से विरक्त होकर के अगहन कृष्णा दशमी को वे स्वय दीक्षित हुए । उसको मुनिदशा मे उत्तम खीर से सबसे प्रथम आहार दान कुलपाक नगरी के कुल राजा ने दिया । उज्जैन नगरी के वन में रुद्र ने उनके ऊपर घोर उपद्रव किया, परन्तु ये वीर मुनिराज निज ध्यान से किंचित भी न डिगे सो नही डिगे । इससे नम्रीभूत हो रुद्र ने स्तुति की व अतिवीर (महाति महावीर) ऐसा नाम रक्खा । । __कौसाम्बी नगरी मे बन्धनग्रस्त सती चन्दन वाला को ये पाँच मगल नामधारक प्रभू के दर्शन होते ही उनकी वेडी के बन्धन तुर्त टूट गये और उसने परम भक्ति से प्रभू को आहारदान दिया। साढे वारह वर्ष मुनि दशा मे रह करके, वैशाख शुक्ला दशमी के दिन सम्मेदशिखर जी तीर्थ से करीब १० मील पास मे जृम्भिक गांव की ऋजुकूला सरिता के तौर पर क्षपक श्रेणी चढकर प्रभू ने केवलज्ञान प्रगट किया । वे अरहत भगवान राजगृही के विपुलाचल पर पधारे । ६६ दिन के बाद, श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से दिव्यध्वनि द्वारा धर्मामत की वर्षा प्रारम्भ की; उसे झेलकर इन्द्र भूति गौतम आदि अनेक जीवो ने प्रतिवोध पाया। वीर नाथ की धर्म सभा मे ७०० तो केवली भगवत थे, सब मिलके १४०००मुनिगण व ३६०००अजिकार्य थी। एक लाख श्रावक व तीन लाख श्राविकाये थी असख्य देव व सख्यात तिथंच थे। तीस वर्ष तक लाखो करोडो जीवो को प्रतिवोध के वोर प्रभू पावापुरी नगरी मे पधारे। वहा के उद्यान मे योग निरोध करके विराजमान हुए, व कार्तिक वदी अमावस्या के सुप्रभात मे परम सिद्धपद को प्रगट करके सिद्धालय मे जा विराजे, उस सिद्ध प्रभु को नमस्कार हो। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) अर्हन्त सव ही कर्म के कर नाश इस हो रीति सो, उपदेश भी उसका ही दे, सिद्धि गये नमू उनको ॥२॥ श्रमणो जिनो तीर्थंकरो सब सेय एक ही मार्ग को, सिद्धि गये, नमू उनको, निर्वाण के उस मार्ग को ॥१६६।। (प्रवचनसार) भगवान महावीर ने जब मोक्षगमन किया उस वक्त अमावस्या की अन्धेरी रात होने पर भी सर्वत्र एक चमत्कारिक दिव्य प्रकाश फैल गया था और तीनो लोक के जीवो को भगवान के मोक्ष का आनन्दकारी समाचार पहुच गया था। देवेन्द्रो व नरेन्द्रो ने भगवान की मुक्ति का बड़ा भारी उत्सव किया,अमावस की अन्धकारमय रात्रि करोडो दोपको से जगमगा उठी। करोडो दीपो की आवली से मनाया गया वह निर्वाणमहोत्सव दीपावलो पर्व के रूप मे भारत भर मे प्रसिद्ध हुआ। ईस्वी सन् से भी पूर्व ५२७ वर्ष पहले बना हुआ यह प्रसग आज भी हम सब आनन्द के साथ दीपावली पर्व के रूप मे आनन्द से मानते हैं । दीपावली यह भारतवर्ष का सर्व मान्य आनन्दकारी धार्मिक पर्व है। ऐसे इस दीपावली पर्व के मगल प्रसग पर वीर प्रभु की आत्म साधना को याद करके हम भी उस वीरपथ पर चले एव आत्मा मे रत्नत्रय दोप जगाकर अपूर्व दीपावली पर्व मनावे यही भावना है। जय महावीर-जय महावीर -o(३३) आत्मस्वरूप को यथार्थ समझ सुलभ है अपना आत्मस्वरूप समझना सुगम है, किन्तु अनादि से स्वरूप के अनाभ्यास के कारण कठिन मालम होता है। यदि कोई यथार्थ रूचिपूर्वक समझना चाहे तो वह सरल है। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) चाहे कितना चतुर कारीगर हो तथापि वह दो घडी मे मकान तैयार नही कर सकता, किन्तु यदि आत्मस्वरूप की पहचान करना चाहे तो वह दो घडी मे भी हो सकती है। आठ वर्ष का वालक एका मन का वोझ नही उठा सकता, किन्तु यथार्थ समझ के द्वारा आत्मा की प्रतीति करके केवल ज्ञान को प्राप्त कर सकता है । आत्मा पर द्रव्य मे कोई परिवर्तन नही कर सकता, किन्तु स्व-द्रव्य ने पुरुपार्थ के द्वारा समस्त अज्ञान का नाश करके, सम्यकज्ञान को प्रगट करके केवलज्ञान प्राप्त कर सकता है। स्व परिणमन मे आत्मा सम्पूर्ण स्वतन्त्र है, किन्तु पर मे कुछ भी करने के लिए आत्मा मे किंचितमात्र सामर्थ्य नहीं है । आत्मा मे इतना अपार स्वाधीन पुरुषार्थ विद्यमान है कि यदि वह उल्टा चले तो दो घडी मे सातवे नरक जा सकता है और यदि सीधा चले तो दो घडी मे केवलज्ञान प्राप्त करके सिद्ध हो सकता है । परमागम श्री समयसार जी मे कहा कि-'यदि यह आत्मा अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को पुदगलद्रव्य से भिन्न दो घडी के लिये अनुभव करे (उनमे लीन हो जाय। परिपहो के आने पर भी न डिगे तो घातिया कर्मों का नाश करके केवलज्ञान को प्राप्त करके माक्ष को प्राप्त हो जाय । आत्मानुभव की ऐसी महिमा है. तो मिथ्यात्व का नाश करके सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का होना सुलभ ही है, इसलिए श्री परमगुरुओ ने इसी का उपदेश प्रधानता से दिया है।' श्री समय-ार-प्रवचनो मे आत्मा की पहिचान करने के लिये बारम्बार प्रेरणा की गई है, यथा (2} चैतन्य के विलासरूप आनन्द को भीतर मे देव । अन्दर के उस आनन्द को देखते ही तू गरीरादि के मोह को तकल छोड सकेगा। "झगिति' अर्थात झट से छोड़ सकेगा। यह बात सरल है, क्योकि यह तेरे स्वभाव की बात है। (२) सातवें नरक की अनन्त वेदना ने पड़े हुए जीवो ने नी आत्मानुभव प्राप्त किया है, यहाँ पर सातव नरक जैसी तो पीटा नही Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११ ) , है न ? रे जीव ! मनुष्यभव प्राप्त करके रोना क्यो रोया करता है ? अब सत्समागम से आत्मा की पहिचान करके आत्मानुभव कर । इस प्रकार समयसार प्रवचनो मे बारम्बार - हजारो वार आत्मानुभव करने की प्रेरणा की है । जैनशास्त्रो का ध्येय बिन्दु ही आत्मस्वरूप फी पहिचान कराना है । 'अनुभवप्रकाश' ग्रन्थ मे आत्मानुभव की प्रेरणा करते हुए कहा है कि कोई यह जाने कि आज के समय मे स्वरूप की प्राप्ति कठिन है, तो समझना चाहिये कि वह स्वरूप की चाह को मिटाने वाला बहिरात्मा है | जब फुरसत होती है तब विकथा करने लगता है । उस समय यदि वह स्वरूप की चर्चा - अनुभव करे तो उसे कौन रोकता है ? यह कितने आश्चर्य की बात है कि वह पर परिणाम को तो सुगम और निज परिणाम को विषम समझता है । स्वयं देखता है, जानता है तथापि यह कहते हुए लज्जा भी नही आनी कि आत्मा देखा नही जाता || जिसका जयगान भव्य जीव गाते हैं, जिसकी अपार महिमा को जानने से महा भव-भ्रमण दूर हो जाता है और परम आनन्द होता है ऐसा यह समयसार अधिकार को (शुद्ध आत्मस्वरूप) जान लेना चाहिये । - यह जीव अनादिकाल से अज्ञान के कारण परद्रव्य को अपना करने के लिए प्रयत्न कर रहा है और शरीरादि को अपना वनाकर रखना चाहता है, किन्तु पर द्रव्य का परिणमन जीव के अधीन नहीं हैं । इसलिये अनादि से जीव के ( अज्ञानभाव) के फल मे एक परमाणु भी जीव का नही हुआ । अनादिकाल से देहदृष्टि पूर्वक शरीर को अपना मान रखा है किन्तु अभी तक एक भी रजकण न तो जीव का हुआ है और न होने वाला है, दोनो द्रव्य त्रिकाल भिन्न हैं । जीव यदि अपने स्वरूप को यथार्थ समझना चाहे तो वह पुरुषार्थ के द्वारा अल्पकाल मे समझ सकता है । जीव अपने स्वरूप को जब समझना चाहे तब समझ सकता है । स्वरूप के समझने मे अनन्तकाल नहीं Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) लगता और न दूसरो की आवश्यकता रहती, इसलिये यथार्थ समझ सुलभ है। __ यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने की रुचि के अभाव मे ही जीव अनादिकाल से अपने स्वरूप को नहीं समझ पाया, इसलिये आत्म स्वरूप समझने की रुचि करो और ज्ञान करो, ऐसा वीतरागी सन्तो का उपदेश है। [वस्तु विज्ञानसार से] (३४) पाप का बाप कौन है। (अनुवादक-पं० मक्खन लाल) लोभ पाप का बाप बखाना ये सब सुनते आते हैं, उसका एक अनूपम हम तुमको दृष्टान्त सुनाते है। एक विप्र का पुत्र बनारस से पढि करि आया था, चारो वेद पुराण अठारै काठ याद कर लाया था ॥१॥ तर्क छन्द व्याकरण कोष का पूरा पडित ज्ञानी था, वैदिक ज्योतिष सामुद्रिक मे औरन जिसकी शानी था। एक दिना नारी यो बोली प्राणनाथ यहा आऔ तो, क्या-क्या पढिआये काशी से मुझको जरा सुनाऔ तो॥२॥ बोला तर्क छन्द व्याकरणादिक सब ही पढि आया हूँ, हुआ परीक्षोत्तीर्ण सभी मे अब्बल नम्बर लाया हू। कहा नारि ने ऐसे कहने से तो मैं नही मानू गी, कौन पाप का बाप बताओ तब मैं पडित जानूंगी ॥३॥ लगे सिटपिटाने पडितजी ये तो पढा नही मैंने, नही किसी ने मुझे सिखाया बात नई पूछी तैने । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३ ) बोली नारि इसे पढि आमौ तव पीछे घर मे आना, पढा पाप का बाप न जिसने वो पडित किसने माना ||४itसुनि नारी की बात चला ब्राह्मण पढने विद्यालय मे, किन्तु मिला न पढाने वाला विद्यप्रदेश हिमालय मे। शहर शहर और ग्राम ग्राम मे फिरता फिरता हारा है, एक दिना एक बडी चतुर वेश्या ने इसे निहारा है ॥५॥करि प्रणाम बोलो वेश्या तुम कौन कहाँ से आये हो, नौजवान सुन्दर खुबसूरत क्यो इतने घबराये हो। सुनि वेश्या की बात विप्र ने सारा किस्सा बतलाया, सब कुछ पढा न पढा पाप का बाप उसे पढने आया ॥६॥ बोली वेश्या ये पुस्तक है मेरे पास पढा दूंगी, आओ मेरे चौबारे पर अभी तुम्हे समझा दूंगी। तू वेश्या मैं ब्राह्मण होकर तेरे घर नही आऊँगा, चाहै पढ़ न पढ़ किन्तु तुझसे शिक्षा नही पाऊँगा ॥७॥ नही नहीं आऔ भगवन् सौ रुपये भेट चढाऊँगी, तुम्हे पढाने से मैं पापिनि भी पवित्र हो जाऊँगी। सुनत नाम सौ रुपये का ब्राह्मण को लालच आता है, खट खट खट खट वेश्या के चीबारे 4 चढि जाता है। ले अब मुझे पढा दे जल्दी वहुत समय न लगाऊँगा, लेकरि सौ रुपये की थैली मैं अपने घर जाऊँगा। अजी जरा कुछ खा तो लो पीछे मै पाठ पढाऊँगी, सौ रुपये क्या देहु तुम्हे ढाई सौ भेटि चढाऊँगी ।।६।। हाय हाय रडी के घर क्या मैं खाने को खाऊँगा, धर्म कर्म सब बिगडि जाय दुनियाँ मे भ्रष्ट कहाऊँगा। बोली वेश्या डरौ नही सूखा सामान मगा दूंगी, आप बनाकर पहले खालो तब मैं पीछे खाऊँगी ॥१०॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) ढाई सौ का नाम सुनत लालच की झोली खोली है, विप्र बनाने लगा रसोई तव वेश्या यो बोली है। क्यो करते हो कण्ट हाय करि मैं हि रसोई वनादूंगी, "मैं हो जाउँ पवित्र आज रुपये पांच सौ चढादूंगी ॥११॥ ज्ञान नैन फूटे उर के तृष्णा अधियारी छाई है, करि लीनी स्वीकार रसोई वेश्या ने बनवाई है। खाने को बैठा ब्राह्मण वेश्या ने परसी थाली है, भरि करि एक हजार रुपये की थैली आगे डाली है ॥१२॥ बोली वेश्या हाथ जोडिकरि एक वचन दे देना जी, मेरे कर से एक ग्रास अपने मुंह मे ले लेना जी। कौन पाप का बाप आपको जब ये सबक पढाऊँगी, तव हजार की थैली में चरणो में भेटि चढाउँगो ।।१३॥ देखि थैलिया ब्राह्मण की हो गई भ्रष्ट मति मैली है, कौन देखता है मुझको ले जाऊँ घर को थैली है। ग्रास उठाया वैश्या ने तब पडित जी मुंह वाया है, दे टुकडा वेश्या ने मुंह पे चाटा एक जमाया है ।।१४॥ बोला विप्र अरो बैगा मेरे थप्पड क्यो मारा है, लोभ पाप का बाप पढी ये ही तो सबक तुम्हारा है । धन के लालच में फैसिकरि खाया ते रडी का टुकडा, यही पाप का बाप 'लोभ' जो देता दुनियाँ को दुखडा ॥१५॥ भैय्या लज्जित होय विप्र निज आपे को धिक्कारे है, हाय हाय यह लोभ पाप का बाप नक मे डारे है ॥ (३५) साधु ने दुनिया को झूठा दिखला दिया (पं० मक्खनलाल) एक पुरुप के सात पुत्र थे छ कुछ नहीं कमाते थे, एक पुत्र धन लाता था तो सब घर वाले खाते थे। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) डाके जनी चोरियां बेईमानी से धन ठगता था, इसीलिये ये सारे घर वालो को प्यारा लगता था ॥ १ ॥ जेबें कतरि सैकडो रुपये लाकर घर मे धरता था, मात पिता भाई भावज सारा घर आदर करता था । पुण्योदय से लडके के इक शब्द कान मे आता है, श्रवण सुखद उपदेश भरा सुनने को बाहर जाता है ॥२॥ गली गली गाता फिरता था साधू एक महा गुनिया, झूठी है दुनिया रे बाबा झूठी है सारी दुनिया | झूठे मात पिता सुत भाई झूठी है नातेदारी, झूठा है सब कुटम कबीला झूठी है प्यारी नारी ॥३॥ हो प्रसन्न लडके ने पूछा बाबा जी क्या गाते हो, झूठी है दुनिया झूठी ये क्या उपदेश सुनाते हो । मेरे सुख मे सुखी सभी जन दुख मे दुखिया मेरे हँसने पर सब हँसते रोने पर रो मुझे खिलाकर खाते है सब मुझे सुलाकर सोते हैं, मै स्नान करू ँ तो भाई पांव आनकर घोते है भावी भोजन लाती है तो नारी नीर पिलाती है,, देते पिता अगीस मात करि करि के हवा सुलाती है ॥५॥ तुम कहते हो दुनिया झूठी मैं कैसे ये मानूंगा, झूठी मुझे दिखादो तो मैं तुमको सच्चा जानूँगा । होते हैं, देते हैं ॥४॥ बोले साधू रे बच्चे तू जाकर के घर सो जाना, खाना पीना छोड़ खाट पर पड मुर्दा सा हो जाना ॥ ६ ॥ आँख मोचकर बोल बन्द कर सॉम घोटकर पड जाना' कोई कितना उलटे पलटे पर तू खूब अकड जाना । ' भरना तू ये साग रात भर प्रात होत में आऊँगा, तब तुझको दुनिया है झूठी ये करके दिखलाऊँगा ॥७॥ T · " Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) सुन साबू की बात युवक घर वालो के अजमाने को, बनकर के बीमार खाट पर पडा न खाया खाने को । अरे मरा रे मरा पेट मे दर्द वडा सर फटता है, हाथ पाव टूटे छाती मे धड़कन सास भटकता है ||८| यो कह सास घोट चुपका हो पडा मृतक सावन करके, मरा जानि सारे घर वाले रोते हैं सर धुनि मुनि के । माता पिता रोते तेरे बिन हमको कौन खवावेगा, भावी रोती देवर तुम बिन कौन साडियां लावेगा ||६|| भैया रोते हैं भैया तुम ही तो एक कमाऊ थे, हम सब तो घर वाले तेरे पीछे खाऊ थे । रोती नारी नाथ तुम विन अब जेवर कौन घढावेगा, बिना तुम्हारे मुझ दुखिया को घर मे को अपनावेगा ॥ १०॥ अरे मरे हम हाय मरे हम यो कह रुदन मचाते है, उसी समय वे साधु वहाँ पर वैद्यराज वनि आते हैं । कोई इलाज करा लो हम से फीस नही हम लेते हैं, एक खुराक दवा से मुर्दों को जिन्दा कर देते हैं ॥। ११॥ पडा शब्द कानो मे इनके तुरन्त दोडकर आते हैं, ast विनय से वैद्यराज को अपने घर ले जाते हैं । मुद को शीघ्र जिला दीजे, हलाहल जहर पिला दीजे ॥ १२ ॥ क्या तरकीब निकाली है, राख जरा सी डाली है । पीले वो तो मर जावेगा, मुर्दा जिन्दा हो जावेगा ||१३|| वैद्यराज की वानी को, कोई न पीवे पानी का । है हकीम जी या तो इस वरना हम मर जाय सभी अच्छा कहकर वैद्यराज ने लोटा एक मगाकर पानी जो इस लौटे का पानी किन्तु अभी सब के आगे छक्के छूट गये सबके सुन हुये सभी चित्राम सरीखे Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) चाहे छही भ्रात से कहा वैद्य ने जो पानी पो जायेगा, वो तुरन्त मरजाय किन्तु भ्राता जिन्दा हो जायेगा ॥ १४ ॥ सूख गए सुन प्राण छहो के हमसे हम न पियेंगे हरगिज पानी इसी प्रकार भावजे भी नट गई हम क्यो खोवे प्राण फायदा क्या अब बारी नारी की आई आई तू मरजा जल पीकर के, पति बिना तू राड अकेली कहा करेगी जी करके । वोली नारि राड रहकर के ही मै समय बिताऊँगी, पति मरैया जिये मुझे क्या जब मै ही मर जाऊँगी ॥१६॥ तुमको सुत जीवे पुत्र अति प्यारा है, तुम्हारा है । हमे कुछ गम, राजी कर लेगे हम | मर जाये तो राजी हो अच्छे बाबा जी हो ॥ १८ ॥ तुम माता पिता से कहा वैद्य ने तुम्ही मरो अब पीकर पानी बहुत जमाना देख लिया अब कहा करोगे जी करके, किन्तु साफ नट गये वैद्य जी हम न मरे जल पीकर के ॥ १७ ॥ एक पुत्र मरता है तो मर जाने दो न वेटो को देख-देखकर जी बोले वैद्य हमी जल पीकर हाँ हाँ हाँ हाँ कहा सभी ने मुस्कराय कर बाबा जी ने हाथ उठकर देख अरे लडके अब उठ कर बैठ गया लडका घर वालो को धिक्कारा है, सभी मतलबी हो घर वाले झूठा प्यार तुम्हारा है ॥ १६ ॥ झूठी दुनियाँ दिखलाकर के साधु तो जाते हैं, लडका भी हो लिया साथ तव घर वाले पछताते है । ये दृष्टान्त सभी ससारी जन को ये सिखलाता है, भैय्या सब सुख के साथी दुख मे कोई काम न आता है ॥२०॥ को मरा नही जाता, मरो जियो भ्राता । छहो जल पीने से, देवर के जीने से ॥ १५ ॥ पुत्र पर फेरा है, दुनिया मे तेरा है । न Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) सजन संग्रह १. ज्ञान दर्पण चेतन क्यो पर अपनाता है, आनन्दघन तू खुद ज्ञाता है ॥टेका ज्ञाता क्यो करता बनता है, खुद क्रमवद्ध सहज पटलता है। सब अपनी धुन मे धुनता है, तब कौन जगत मे सुनता है ॥१॥ उठ चेत जरा क्यो सोता है, फिर देख ज्ञान क्या होता है। क्यो पर का बोझा ढोता है, क्यो जीवन अपना खोता है ॥२॥ पर का तू करता बनता है, कर तो कुछ भी नहीं सकता है। यह विश्व नियम से चलता है, इसमे नही किसी का चलता है ।। जो परका असर मानता है, वह धोखा निश्चय खाता है । जब जबरन का विष जाता है, तब सहज समझ मे आता है ॥४॥ जो द्रव्य द्वारे आता है, वह जीवन ज्योति जगाता है। सुखधाम चिन्तामणिज्ञाता है, आनन्द अनुभव नित पाता है ।।५।। २. चेतावनी स्वत' परिणमति वस्तु के, क्यो करता बनते जाते हो। कुछ समझ नहीं आती तुमको, नि सत्व बने ही जाते हो ॥१॥ अरे कौन निकम्मा जग मे है, जो पर का करने जाता हो। सब अपने अन्दर रमते है, तब किस विध करण रचाते हो ॥२॥ वस्तु की मालिक वस्तु है, जो मालिक है वही कर्ता है। फिर मालिक के मालिक बनकर, क्यो नीति न्याय गमाते हो ॥३॥ सत् सब स्वय परिणमता है, वह नही किसी की सुनता है। यह माने बिन कल्याण नहीं, कोई कैसे ही कुछ कहता हो ॥४॥ ३. धानतराय हम ना किसी के कोई ना हमारा, झूठा है जग का व्यवहारा। तन सबध सकल परिवारा, सो तन हमने जाना न्यारा ॥१॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) पुण्य उदय सुख की बढ़वारा, पाप उदय दुख होत अपारा। पुण्य-पाप दोऊ ससारा, मैं सब देखन जाननहारा |राह मेतिहुँ जग तिहुँ काल अकेला, पर सजोग भया भव मेला । थितिपूरी कर खिरखिर जाहि, मेरे हर्ष शोक कछु नाहि ॥ ३॥ रागभावतें सज्जन जाने, द्वेप भावतें दुर्जन मानें। राग-द्वेष द्वोऊ मम नाहि, द्यानत मे चेतन पद माहि ॥४॥ ४. कीर्तन हू स्वतंत्र निश्चल निष्काम, ज्ञाता दृष्टा आतम राम । मैं वह हू जो है भगवान, जो मैं हू वह है भगवान । अन्तर यही ऊपरी जान, वे विराग यहाँ राग वितान ॥१॥ मम स्वरूप है सिद्ध समान, अमित शक्ति सुख ज्ञान निधान । किन्तु आश वश खोया ज्ञान, बना भिकारी निपट अजान ||२|| सुख दुख दाता कोई न आन, मोह राग रूष दुख की खान । निजको निज पर को पर जान, फिर दुख का नहीं लेश निदान | ३| जिन शिव ईश्वर ब्रह्मा राम, विष्णु बुद्ध हरि जिसके नाम । राग त्याग पहुँचूँ निजधाम, आकुलता का फिर क्या काम ||४|| होता स्वय जगत परिणाम, मैं जगका करता क्या काम । दूर हटो परकृत परिणाम, जायकभाव लखूं अभिराम ॥५॥ ५. बुधजन हमको कछु भय ना रे, जान लियो ससार ॥टेक॥ जो निगोद मे सो ही मुझमे, सो ही मोक्ष मकार । निश्चयभेद कछू भी नाही, भेद गिने ससार ॥१॥ परवश आपा विसारि के, राग दोष को घार । जीवत मरत अनादि काल ते, यों ही है उरझार ॥२॥ जाकरि जैसे जाहि समय में, जे होता जा द्वार । सो वनि है टरि है कछु नाहि, करि लीनी निरधार ॥३॥ अगनि जरा पानी बोबे, विछुरत मिलत अपार, सो पुद्गल रूपी में बुधजन सबको जानन हार ॥४॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) ६. भैया जो जो देखी वीतराग ने, सो सो होसी वीरा रे, विन देख्यो होसो नही क्यो ही काहे होत अघीरा रे ॥१॥ समयो अक बढे नहि घटसी, जो सुख दुख की पीरा रे, तू क्यो सोच कर मन कूडो, होय बज्र ज्यो हीरा रे ॥२॥ लग न तीर कमान बान कहू, मार सके नहिं मीरा रे, तूं सम्हारि पौरुष-बल अपनौ, सुख अनन्त तो तीरा रे ॥३॥ निश्चय ध्यान धरहु वा प्रभु, को जो टारे भव की भीरा रे, "भैया" चेत धरम निज अपनो, जो तारे भवनीरा रे ॥४॥ ७ दौलतराम अरे जिया | जग घोखे की टाटी ॥टेक।। 'झूठा उद्यम लोग करत है, जिनमे निशदिन पाटी ॥१॥ जान बूझ कर अन्ध बने है, आखिन बांधी पाटी ॥२॥ 'निकल जायगे प्राण छिनक मे, पडी रहेगी माटी ॥३॥ 'दौलतराम' समझ मन अपने दिल की खोल कपाटी ॥४॥ ८. धानतराय 'अव हम आतम को पहचाना जी ॥टेक। जैसा सिद्ध क्षेत्र मे राजत, तैसा घट मे जाना जी ॥१॥ देहादिक पर द्रव्य न मेरे, मेरा चेतन वाना जी ॥२॥ "द्यानत' जो जाने सो स्याना, नहिं जाने सो दिवाना जी ॥३॥ ६ दौलतराम हम तो कबहु न निज घर आये। पर घर फिरत वहुत दिन बीते, नाम अनेक धराये ।।टेक।। पर पद निजपद मान मगन , पर परिणति लिपटाये । शुद्ध बुद्ध सुखकन्द मनोहर, चेतनभाव न भाये ॥१॥ नर पशु देव नरक निज जान्यो, परजय बुद्धि लहाये । अमल अखड अतुल अविनाशी, आतम गुण नहिं गाये ॥२॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१) यह बहु भूल भई हमरी, फिर कहा काज पछिताये। 'दौल' तजी अजहू विषयन को, सत् गुरु वचन सुहाये ॥३॥ १०. भागचन्द्र जीवन के परिनामनिकी यह, अति विचित्रता देखहुज्ञानी ।।टेका। नित्य निगोदमाहितै कढिकर, नर परजाय पाय सुखदानी । समकित लहि अतर्मुहूर्तमे, केवल पाय वर शिवरानी ॥१॥ मुनि एकादश गुणथानक चढि, गिरत तहातें चित भ्रमठानी। भ्रमत अर्धपुदूगल परिवर्तन, किचित् ऊन काल परमानी ॥२॥ निज परिनामनिकी सभाल मे, तातै गाफिल हवै मत प्रानी।। बंध मोक्ष परिनामनिहीसो, कहत सदा श्रीजिनवरवानी ॥३॥ सकल उपाधिनिमित भावनिसो, भिन्नसुनिज परनतिको छानी। ताहि जानि रुचि ठानहोहु थिर, 'भागचद' यह सीख सयानी ॥४॥ ११. दौलतराम आतम रूप अनुपम अद्भुत, याहि लखै भवसिंधु तरोटेक। अल्पकाल मे भरत चक्रघर, निज आतम को ध्याय खरो । केवलज्ञान पाय भवि वोधे, ततछिन पायो लोक शिरो॥१॥ 'या विन समझे द्रव्य लिंग मुनि, उग्न तपन कर भार भरो। नवग्रीवक पर्यन्त जाय चिर, फेर भवार्णव माहिं परो॥२॥ सम्यग्दर्शन ज्ञान चरन तप, येहि जगत मे सार नरो। पूरव शिवको गये जाहिं अब, फिर जै है यह नियत करो ॥३॥ कोटि ग्रन्थ को सार यही है, ये ही जिनवानी उचरो। 'दौल' ध्याय अपने आतम को, मुक्तरमा तव वेग वरो ॥४॥ १२. भागचन्द आतम अनुभव आवै जब निज, आतम अनुभव आवै । और कछू न सुहावै, जब निज आतम अनुभव आवै ॥टेक॥ रस नीरस हो जात ततच्छिन, अक्ष विषय नहिं भाव ॥१॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोष्टी कथा कुतूहल विघट, पुद्गल प्रीति नसावै। राग दोष जुग चपल पक्षजुत, मन पक्षी मर जा* ॥२॥ ज्ञानानन्द सुधारस - उमगे, घट अन्तर न समावै । 'भागचन्द' ऐसे अनुभव के, हाथ जोरि सिर नावै ॥३॥ १३. भागचन्द धन्य धन्य है घडी आजकी, जिनधुनि श्रवन परी। तत्व प्रतीति भई अव मेरे, मिथ्यादष्टि टरी ॥टेक।। जडतै भिन्न लखी चिन्मूरत, चेतन स्वरस भरी। अहकार ममकार बुद्धि पुनि, परमे सब परिहरी ॥१॥ पाप पुन्य विधि बघ अवस्था, भासी अति दुख भरी। वीतराग विज्ञानभावमय, परिनति अति विस्तरी ॥२॥ चाह-दाह विनसी बरसी पुनि, समता मेघझरी। बाढी प्रीति निराकुल पदसो, भागचन्द' हमरी ॥३॥ १४. दौलतराम आपा नहि जाना तूने, कैसा ज्ञानधारी रे ।।टेक।। देहाश्रित करि क्रिया आपको, मानत शिवमगचारी रे ॥१॥ निज-निवेद विन गोर परीपह, विफल कही जिनसारी रे ॥२॥ शिव चाहे तो द्विविधिकर्म ते, कर निजपरनति न्यारी रे ॥३॥ 'दौलत'जिननिजभावपिछान्यो, तिन भवविपत विढारी रे ॥४॥ १५. दौलतराम चिन्मूरत दृग्यारीकी मोहि, रीति लगत है अटापटी ॥टेक।। बाहिर नारकिकृत दुख भोगे, अन्तर सुख रस गटागटी। रमत अनेक सुरनि सग पै तिस, परनतित नित हटाहटी ॥१॥ ज्ञानविराग शक्तितै विधिफल, भोगत पै विधि घटाघटी। सदननिवासी तदपि उदासी, तातै आस्रव छटाछटी ॥२॥ जे भवहेतु अबुधके ते तस, करत बन्धकी झटाझटी। नारक पशू तिय षढ विकलत्रय, प्रकृतिनकी ह्व फटाकटी॥३॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) सयम घर न सकै पै सयम, धारन की उर चटाचटी । तासु सुयश गुनकी 'दौलत' के, लगी रहे नित रटारटी ॥४॥ १६. न्यामत आप मे जब तक कि कोई आपको पाता नही । मोक्षके मन्दिर तलक हरगिज कदम जाता नही | टेक। वेद या पुराण या कुरान सब पढ लीजिये । आपके जाने बिना मुक्ति कभी पाता नही || १ || हरिण खुशबू के लिये दौडा फिरे जंगल के बीच । अपनी नाभी मे बसे उसको नजर आता नही ||२|| भाव - करुणा कीजिये ये ही घरम का मूल है । जो सतावे और को वह सुख कभी पाता नही ||३|| ज्ञानपं 'न्यामत' तेरे है मोह का परदा पडा । इसलिये निज आत्मा तुझको नजर आता नही ||४|| / १७. न्यामत समकित - बिन फल नही पावोगे, नही पावोगे पछितावोगे ॥ टेक ॥ चाहे निर्जन तप करिए, बिन समता दुख दाहोगे ॥ १ ॥ मिथ्या मारग निश दिन सेवो, केसे मुक्ती पावागे ॥२॥ पत्थर नाव समन्दर गहरा, कैसे पार लघावोगे ||३|| झूठे देव गुरु तज दीजे, नहीं आखिर पछतावोगे ||४|| न्यामत' स्यादवाद मन लावो, यासे मुक्ती पावोगे ||५|| १५. शिवराम समझ मन वावरे, सब स्वारथ का ससार ॥ टेक ॥ हरे वृक्ष पर तोता बैठा, करता मोज वहारी । सूखा तरुवर उड गया तोता, छिन मे प्रीति विसारी ॥१॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) ताल पाल पर किया वसेरा, निर्मल नीर निहारा । लखा सरोवर सूखा जब ही, पखी पख पसारा ॥ २ ॥ पिता पुत्र सब लागे प्यारे, जब लो करे कमाई । जो नहीं द्रव्य कमाकर लावे, दुश्मन देत दिखाई ॥३॥ जव लग स्वारथ सधत है जासे, तब लग तासो प्रीति । स्वारथ भये वात न वूझे, यही जगत की रीति ॥४॥ अपने अपने सुख को रोवे, मात पिता सुत नारी । घरे ढके की वूझन लागे, अन्त समय की वारी ||५|| सभी सगे शिवराम गरज के, तुम भी स्वारथ साधो । नर तन मित्र मिला है तुमको, आतम हित आराधो ॥६॥ १६. भागचन्द वरनी । परिनति सव जीवनकी तीन भाँति एक पुण्य एक पाप, एक राग हरनी ॥ टेक ॥ तामे शुभ अशुभ अघ, दोय करें कर्म वध | वीतराग परिनति ही, भवसमुद्र तरनी ॥१॥ जावत शुद्धोपयोग, पावत नाही मनोग | तावत ही करन जोग, कही पुण्य करनी ॥ २ ॥ त्याग शुभ क्रिया कलाप, करो मत कदाच पाप । शुभ मेन मगन होय, शुद्धता न विसरनी ॥३॥ ऊँच ऊँच दशा धारि, चित प्रमादको विडारि । ऊँचली दशा मति, गिरो अधो घरनी ॥ ४ ॥ 'भागचन्द' या प्रकार, जीव लहै सुख अपार । याके निरधार स्याद् - वाद को उचरनी ॥ ५ ॥ २०. भागचन्द जीव तू ! भ्रमत सदीव अकेला, सग साथी कोई नहि तेरा । टेक | अपना सुख दुख आपहिं भुगते, होय कुटुम्ब न भेला । स्वार्थ भयें सब विछुर जात हैं, विघट जात ज्यो मेला ॥१॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) रक्षक कोई न पूरन व जब, आयु अन्त की वेला। फुटत पारि बधत नहि जैस, दुद्धर जल को ठेला ॥२॥ तन धन जोवन विनशि जात ज्यो, इन्द्रजाल का खेला। 'भागचन्द' इमि लखि कर भाई, हो सतगुरु का चेला ॥ ३ ॥ २१. वीर भगवान सब मिलके आज जय कहो, श्री वीर प्रभु की। मस्तक झुका के जय कहो, श्री वीर प्रभु की ॥१॥ विघ्नो का नाश होता है, लेने के नाम से। माला सदा जपते रहो, श्री वीर प्रभु की ॥२॥ ज्ञानी वनो दानी बनो, बलवान भी वनो। अकलक सम बन जय कहो, श्री वीर प्रभु की॥३॥ होकर स्वतत्र धर्म की, रक्षा सदा करो । निर्भय बनो अरु जय कहो, श्री वीर प्रभु की ॥४॥ तुमको भी अगर मोक्ष की, इच्छा हुई है दास । उस वाणी पर श्रद्धा करो,श्री वीर प्रभु की ॥५॥ २२ वस्तु स्वभाव वस्तु स्वभाव समझ नही पाता, कर्ता धरता वन जाता। स्व को भुलकर पर अपनाता, मिथ्यापन का यह नाता ॥१॥ सहज स्वभाव समझ मे आता, करना धरना मिट जाता। स्व सो स्व और पर सो पर है,सम्यक्पन का यह नाता ।।२।। रोके रुकता लाये आता, धक्के से जाता है कौन । अपनी अपनी सहज गुफा मे, सभी द्रव्य है पर से मौन ॥३॥ २३. भागचन्द सत निरन्तर चिन्तन ऐसे, आतम रूप अबाधित ज्ञानी ॥ठेक।। रागादिक तो देहाश्रित हैं। इनतें होत न मेरी हानि । दहन दहत जिमि सदन न तद्गत, गगन दहन ताकी विधिठानी ॥१॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) वरणादिक विकार पुद्गल के, इनमे नहि चैतन्य - निशानी | यद्यपि एक क्षेत्र अवगाही, तद्यपि लक्षण भिन्न पिछानी || २ || मैं सर्वाग पूर्ण ज्ञायक रस, लवण खिल्लवन लीला ठानी । मिलो निराकुलस्वाद न यावत, तावत परपरणतिहितमानी ॥३॥ भागचन्द निरद्वन्द निरामय, मूरति निश्चय सिद्ध समानी । नित अकलक अवकसक बिन, निर्मल पक विना जिमि पानी ||४|| २४. फोन में ज्ञानानन्द स्वभावी हूँ, मैं ज्ञानानन्द स्वभावी हूँ ॥ टेक ॥ मैं हूँ अपने मे स्वय पूर्ण, परकी मुझमे कुछ गन्ध नही । में अरस अरुनी अस्पर्शी, परसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं ॥१॥ मैं राग-रग से भिन्न भेद से, भी मैं भिन्न निराला हू । मैं हूँ अखन्ड चैतन्य पिण्ड, निज रस में रमने वाला हू ||२|| मैं ही मेरा कर्त्ता धर्ता, मुझ मे पर का कुछ काम नही । में मुझ ने रमने वाला हू, पर मैं मेरा विश्राम नही || ३ || मैं शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध एक, पर परणति से अप्रभावी हू । आत्मानुभूति से प्राप्त तत्व, मैं ज्ञानानन्द स्वभावी हूँ ||४|| २५. नाथ तुम्हारी पूजा मे सब स्वाहा करने आया । तुम जैसा बनने के कारण, शरण तुम्हारी आया ॥ टेक ॥ पच इन्द्रिय का लक्ष्य करू, मैं इस अग्नि मे स्वाहा । इन्द्र नरेन्द्रो के वैभव की, चाह करू मै स्वाहा । तेरी साक्षी से अनुपम, मैं यज्ञ रचाने आया ॥ १ ॥ जग की मान प्रतिष्ठा को भी, करना मुझको स्वाहा । नही मूल्य इस मन्द भाव का, व्रत तप आदि स्वाहा । वीतराग के पथ पर चलने, प्रण लेकर मैं आया ॥ २ ॥ करे जग के अपशब्दो को, करना मुझको स्वाहा । परलक्षी सब ही वृत्ती को, करना मुझको स्वाहा । अक्षय निरकुश पद पाने, और पुण्य लुटाने आया || ३ || ש Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७.) तुमतो पूज्य पुजारी मैं, यह भेद करूंगा स्वाहा । बस अभेद मैं तन्मय होना, और सभी कुछ स्वाहा । अब पामर भगवान बने, ये भीख मागने आया ॥४॥ नाथ तुम्हारी पूजा मे सब, स्वाहा करने आया । तुम जैसा बनने के कारण, शरण तुम्हारी आया ॥५॥ २६. केवलचन्द धर्म बिना बावरे तूने मानव रतन गँवाया ।।टेक॥ कभी न कीना आत्म निरीक्षण कभी न निज गुण गया। पर परणति से प्रीती बढाकर काल अनन्त बढाया ॥१॥ यह ससार पुण्य-पापो का पुण्य देख ललचाया। दो हजार सागर के पीछे काम नही यह आया ॥२॥ यह ससार भव समुद्र है बन विषयो हरषाया। ज्ञानी जन तो पार उतर गये मूरख रुदन मचाया ॥३॥ यह ससार ज्ञय द्रव्य है आत्म ज्ञायक गाया। कर्ता बुद्धि छोड दे चेतन नही तो फिर पछताया ॥४॥ यह ससार दृष्टि की माया अपना कर अपनाया। ''केवल" दृष्टि सम्यक् करले कहान गुरु समझाया ॥५॥ २७. चानतराय धिक । धिक | जीवन सम्यक्त्व बिना ॥टेक।। दान-शील-तप-व्रत-श्रुतपूजा, आतम हेतु न एक गिना ॥१॥ ज्यो बिन, कन्त कामिनी शोभा, अवुजविनसरवरज्यो सूना। जैसे विना एकडे बिन्दी, त्यो समकित विन सरव गुना ॥२॥ जैसे भूप बिना सब सेना, नीव बिना मदिर चुनना । जैसे चन्द विहूनी रजनी, इन्हे आदि जानो निपुना ॥३॥ देव जिनेन्द्र, साधु गुरु करुना, धर्मराग व्योहार भना। निहर्च देवधरम गुरु आतम, 'द्यानत' गहिमन'वचनतन ॥४॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) २८ मेरे मन मन्दिर मे आन पधारो सीमधर भगवान || टेका। भगवन तुम आनन्द समोवर, रूप तुम्हारा महा मनोहर । निशदिन रहे तुम्हारा ध्यान, पधारो सीमन्वर भगवान ॥१॥ सुर किन्नर गणधर गुण गाते, योगी तेरा ध्यान लगाते । गाते प्रभु तेरा यश गान, पधारो सीमन्धर भगवान ॥२॥ जो तेरी शरणागत आया, तूने उसको पार लगाया । तुम हो दयानिधि भगवान, पधारो सीमघर भगवान ॥३॥ भक्तजनो के कष्ट निवारे, आप तिरे हमको भी तारे । कीजे हमको आप समान, पधारो सीमवर भगवान ||४|| आये हैं अव शरण तिहारी, पूजा हो स्वीकार हमारी । तुम हो करुणा दया निधान, पधारो सीमंधर भगवान ||५|| रोम-रोम पर तेज तुम्हारा, भू-मण्डल तुमसे उजियारा । रवि-शि तुम से ज्योतिमान, पधारो सीमन्धर भगवान ॥ ६ ॥ २६. तर्जन्तुम से लागी लगन.. मेरे चैतन्य घन, नित्य निज मे मगन, प्यारे आतम भूल तुम क्यों भटकते निजातम ॥ टेक ॥ ज्ञान दर्शन है लक्षण तुम्हारा, जानना देखना काम प्यारा । शुद्ध ज्ञाता प्रभो, शुद्ध दृष्टा विभो, प्यारे आतम, भूल तुम क्यों भटकते निजातम ||१|| सर्व गतियो को पाउन सेन्यारे, सब विभावो को कर करके टारे । ज्ञान से सर्वगत, पर मे किचित न रत, प्यारे आतम भूल तुम क्यों भटकते निजातम ||२|| अज्ञानी, पर न रहते सदा ही कुज्ञानी । जड न होगे कदा, प्यारे आतम भूल तुम क्यो भटकते निजातम ||३|| पक्ष - व्यवहार से तुम सिद्ध सम हो सदा, Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) ज्ञान हो ज्ञान मे नित्य रहते, शद्ध ज्ञायक हो निज मे विचरते । पर से मिलते नही, पर को छूते नही, प्यारे आतम भूल तुम क्यो भटकते निजातम ॥४॥ जग मे जीवात्मा तुम कहाते, होके परमात्मा भी सुहाते । सोचो समझो सुधी, हो रहे क्यो कुधी, प्यारे आतम भूल तुम क्यो भटकते निजातम ॥५॥ मोक्ष जिस-जिसने शीतल है पाया, हेतु शाश्वत शरण तू कहाया। मेरे आनन्दघन, हे निराकुल सदन, प्यारे आतम भूल तुम क्यो भटकते निजातम ॥६॥ आशाओ का हुआ खातमा, दिली तमन्ना धरी रही। धस परदेशी हुआ रवाना, प्यारी काया पडी रही ।।टेका। करना-करना आठो पहर ही, मूरख कूक लगाता है मरना-मरना मुझे कभी नही, लफ्ज जबाँ पर लाता है । पर सब ही मरने वाले है, झडी न किसी की खडी रही ॥१॥ एक पडित जी पत्रिका लेकर, गणित हिसाब लगाते थे। समय काल तेजी मदी की, होनहार बतलाते थे। आया काल चले पडितजी, पत्री कर मे घरी रही ॥२॥ एक वकील आफिस मे बैठे, सोच रहे यो अपने दिल । फला दफा पर बहस करूंगा, पाइट मेरा बडा प्रबल ।। इधर कटा वारट मौत का, कल की पेशी पडी रही ॥३॥ एक साहब वैठे दुकान पर, जमा खर्च खद जोड रहे। इतना लेना इतना देना, 'बड़े गौर से खोज रहे ।। काल बली की लगी चोट, जब कलम कान मे टकी रही ॥४॥ इलाज करने को इक राजा का, डाक्टर जी तैयार हुए। विविध दवा औजार साथ ले, मोटर कार सवार हुए। आया वक्त उलट गई मोटर, दवा बोक्स मे भरी रही ॥५॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३०) जैटिलमैन घूमने को एक, वक्त शाम को जाता था। पाच चार थे दोस्त साथ मे, वातें बडी बनाता था ।। लगी जो ठोकर गिरे बाबूजी, लगी हाथ मे घडी रही ॥५॥ हाँ-हाँ कितना क्या करूँ मैं, इस दुनिया की अजव गति । भैया आना और जाना है, फर्क नहीं है एक रति ॥ सम्यक्त्व प्राप्त किया है जिसने, बस उसकी ही खरी रही ॥६॥ ३१ तर्ज-दिल लूटने वाले.. आत्म नगर मे ज्ञान ही गगा, जिसमे अमृत वासा है। सम्यकदृष्टि भर भर पीवे, मिथ्यादृष्टि प्यासा है ॥टेक।। सम्यकदृष्टि समता जल मे नित ही गोते खाता है। मिथ्यादृष्टि राग द्वष की, आग में झुलसा जाता है । समता जल का सिचन कर ले, जो सुख शान्ति प्रदाता है ॥१॥ पुण्य भाव को धर्म मानकर, के ससार वढाता है । राग बन्ध की गुत्थी को यह, कभी न सुलझा पाता है। जो शुभ फल मे तन्मय होता, वह निगोद को जाता है ॥२॥ पर मे अहकार तू करता, पर का स्वामी बनता है। इसीलिये ससार बढाकर, भव सागर मे रूलता है। एक बार निज आतमरस का, पान करना हे ज्ञाता है ।।३।। क्रोध मान माया छलनी, नित प्रति ही तुझको ठगती हैं। 'मिथ्या रूपी चोर लुटेरो ने, आतमनिधि लूटी है ।। जगा रही अध्यातम वाणी, अरू जिनवाणी माता है ॥४॥ मानुष अब दुर्लभ ये पाकर, आतम ज्योति जगानी है। ज्ञान उजेले में आ करके, अपनी निधि उठानी है ।। है तू शुद्ध निरजन चेतन, शिव रमणी का वासा है ॥५॥ 'जिसने अपने को नही जाना, पर को अपना माना है। मैं मैं करता चला आ रहा, दुख पर दुख ही पाना है। दया आतम पर करो सहज ही, अजर अमर तू ज्ञाता है।६।। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३१ ) ३२. उठ मूरख रूदन मचाया, सपने मे राजपद पाया ॥ टेक ॥ एक ईंट सिरहाने रख कर, सोय गया पृथ्वी पर पडकर । मुदे चैन से नैन स्वपन मे देखी अद्भुत माया, सपने मे ॥१॥ देखा एक शहर अति भारी, कोट किला और महल अटारी । प्रजा वहाँ की मिलकर सारी, इसको नृपत बनाया, सपने मे ॥२॥ बैठ तख्त पर हुक्म करे अब, आज्ञा माने सारे भूपत । छत्र चँवर सिर दुरे देख, तब नृप हर्पाया, सपने मे ॥३॥ वरी नार सुन्दर सुखदायी, चक्रत्रत सब सम्पत्ति पाई । भोगत भोग अनेक चैन मे, लाखो वर्ष गँवाया सपने मे ॥४॥ एक दिन राजसभा मे बैठे दे मुख ताव मूंछ को ऐठे । इतने मे कोई राहगीर ने, उसको आन जगाया, सपने मे ॥५॥ आँख खुली जब देखा जंगल, कहाँ गये वो सारे मगल । -राजपाट सब ठाट वाट पल भर मे कहा समाया, सपने मे 'हाय-हाय कर रोवन लागा, ले खुरपा मारन को भागा । -मूरख पथी तेने मेरी खोय, दई सबरी माया, सपने मे ॥७॥ ऐसे ही जानो जग सपना, पर द्रव्य को न मानो अपना । मक्खन क्यो भरमाया, सपने मे ॥६॥ राजपद पाया ||८|| • ३३. तर्ज-दिल लूटने वाले ... स्वास स्वास में सुमिरन करले, करले आतम ज्ञान रे । न जाने किस स्वास मे बाबा, मिल जाये भगवान रे ॥ टेक ॥। अनादिकाल से भूला चेतन, निज स्वरूप का ज्ञान रे । जीव देह को एक गिने बस, इससे तू हैरान रे ॥ शुभ को शुद्ध मानकर प्राणी, भ्रमत चतु गति माहि रे ॥१॥ कभी नरक मे हुआ नारकी, कभी स्वर्ग मे देव रे । - कभी गया तिर्यंच गति में, कभी मनुज पर्याय रे ॥ चौरासी मे स्वांग घरे पर, किया न भेद विज्ञान रे || २ || Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३२ ) भारी भूल भई अव सोचो, सतगुरु रहे जगाय रे ।' यह अवसर यदि चूक गया तो, वार-वार पछतात रे ।। सत को समझो समकित धरलो, होगा जग से पार रे ॥३॥ समकित नीव नही डाली चेतन, चारित्र महल बनेगा कैसे । ज्ञान ध्यान का नहीं है गारा, मन स्थिर चित्त होगा कैसे ।।टेका स्वानुभूतिनारी नही व्याही, कुलवन्तिगुणखान शिरोमणि । सहज स्वभावी पुत्र चतुष्टय, गुण अमलान मिलेगा कैसे ॥१॥ एक भाव से कभी न देखा, अनन्त गुण परिवार अनोखा । खड-खड मे उलझ रहे हो, अखडता तो मिलेगी सैसे ॥२॥ राग की आगलगी निजघर मे, तुम देखो अपने अन्तर मे । समता जल मचित नही कीना, राग की आग बुझेगी कसे ॥३॥ मिथ्या मत का चढा जहर तो, अमृतरस छलकेगा कैसे। दुख को सुखकर मान रहे हो, हलाहल विष को पीय रहे हो ॥४॥ अनुभव रस को कभी न चाखा, एक बार अतर नही झाँका। इस कारण से मिला न अबतक, ज्ञान सुधा को पाओगे कैसे ॥५॥ करुणा निज की कभी न आई, पर की नित ही दया कराई। श्रद्धा के अकुर नही आये, चारित्र फल तो पकेगा कसे ॥६॥ ३५. ज्ञानी जीव निवार भरम तम, वस्तु स्वरूप विचारत ऐसे ॥टेक!! सुत तिय बन्धु धनादि प्रकट पर, ये मुझते है भिन्न प्रदेशे। इनकी परिणति है इन आश्रित, जो इन भाव परिनवे वैसे ॥१॥ देह अचेतन चेतन मे इन, परिनति होय एक सी कैसे। पूरन गलन स्वभाव धरे तन, मैं अज अचल अमल नभजैसे ॥२॥ पर परिणमन न इष्ट अनिष्ट न, वृथा रोगरूष द्वन्द भये से। नसे ज्ञान निजफसे बन्ध मे, मुक्ति होय समभाव लये से ॥३॥ विषय चाह दवदाह नशे नहि, विन निज सुधा सिन्धु मे पैसे। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३३ ) अब निज बैन सुने श्रवजन ते, मिटे विभाय फग्य विधि तसे ॥४॥ ऐसा अवसर कठिन पाय अव, निज हित हेत विलम्चन करे से। पछतावो बहु होय सयाने, चेतन 'दौलत' जुटो भव भय मे || ३६. शिवराम जाना नहिं निज आत्मा, ज्ञानी हुए तो क्या हुये । च्याया नही शुद्ध मात्मा, च्यानी हुए तो क्या हुये ।।टेक॥ अन्य सिद्धान्त पढ लिये, शाल्ली महान बन गये। मात्मा रहा वहिरात्मा, पडित हुए तो क्या हुए ॥१॥ 'पच महानत आदरे, घोर तपस्या भी करी । मन की कपायें ना मरी, साधु हुए तो क्या हए ॥२॥ माला के दाने हाध मे। मनुआ फिरे बाजार में। मन की न माला फिरे, जपिया हुये तो क्या हए ॥३॥ गाकर बजाकर नाचकर, पूजा भजन सदा किये । निज ध्येय को सुमिरो नहीं, भक्ति हुए तो क्या हुए ॥४॥ मान बहाई कारने, दाम हजारो सरचते । भाई तो भूखों मरे, दानी हुये तो क्या हुए ॥५॥ करें न जिनवर दर्श को, सेवन करें अभक्ष को। 'दिल मे जरा दया नही, जैनी हुये तो क्या हुए।।६।। दृष्टि न अन्तर फेरते, औगुन पराये हेरते । 'शिवराम' एक ही नाम के, सामर हुए तो क्या हुए ॥७॥ ३७. गजल तन नही छता कोई चेतन निकल जाने के बाद। फैक देते फूल ज्यो खुशबु निकल जाने के बाद ॥टेका। आज जो करते फिलोलें खेलते हैं साथ मे। कल डरेगे देख तन निरजीव हो जाने के बाद ॥१॥ बात भी करते नही जो आज धन की ऐंठ में वे मांगते आये नजर तकदीर फिर जाने के बाद ॥२॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) पांव भी धरती पे जिसने है कभी रखे नही। वन मे भटकते वो फिरे आपत्ति आ जाने के बाद ।।३।। बोलते जव लौं सगे हैं चार पैसा पास मे । नाम भी पूछे नही पैसा निकल जाने के बाद ॥४॥ स्वार्थ प्यारा रह गया, असली मुहब्बत उठ गई। भूल जाता माँ को बछडा पय निकल जाने के वाद ॥५॥ भाग जाता हस भी निरजल सरोवर देखकर । छोड देते वृक्ष पक्षी पत्र झड जाने के बाद ॥६॥ लोग ऐसे मतलबी फिर क्यो करे विश्वास हम। बाल डरता आग से इक बार जल जाने के बाद ॥७॥ इस अथिर ससार मे क्यो मग्न कुन्दन हो रहा । देख फिर पछतायेगा असमर्थ हो जाने के बाद ।।।। ३८. तर्ज-एक परदेसी मेरा' . कुन्द-कुन्द आचार्य कह गये जो निज आत्म को ध्यायेगा। पर से ममता छोडेगा, निश्चय भव से तिर जावेगा ॥टेका क्रिया काड मे धर्म नही है, पर से धर्म नही होगा नही होगा। निज स्वभाव के रमे बिना नही, किंचित धर्म कभी होगा कभी होगा । शुद्ध चेतना रूप जीव का धर्म वस्तु मे पायेगा, पर से ॥१॥ निज स्वभाव के साधन से ही,सिद्ध प्रभु बन जावेगा,बन जावेगा। बाह्य भाव शुभ-अशुभ सभी से, जग मे गोते खावेगा, गोते खावेगा। मुक्ति चाहने वाला तो निज से निज गुण प्रगटावेगा,पर से" · ॥२॥ जीव मात्र ऐसा चाहते है, दुख मिट जावे सुख आवे, सुख आवे । करते रहते है उपाय जो, अपने अपने मन भावे, अपने मन भावे ।। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५ ) राग द्वेष परभाव तजेगा, वो निश्चय सुख पायेगा,पर से.......॥३॥ पर पदार्थ नही खोटा चोखा, नही सुख दुख देने वाला, देने वाला। इष्ट-अनिष्ट की मान्यता से ही, मूर्ख भटकते मतवाला, मतवाला ।। सभी जीव निज पर विवेक से शुद्ध चिदानन्द पायेगा,पर से... ॥४॥ ३६. भैया फसे मत विपयो मे मन कहना मेरा मान ॥ टेक ।। मैथुन इन्द्री के वश हस्ती, झूठी हथिनी लखि होय मस्ती। पडे गडे में आन, फसै मत विषयो मे मन कहना मेरा मान ॥१॥ रसना के वश मछली आवे, काँटे से निज पाठ छिदावे । खोवै अपनी जान,फस मत विपयो में मन कहना मेरा मान ।।२।। भौंरा सू धन हेत सुगन्धी, बैठि कमल मे होता बन्दी। मूढ गंवावै प्राण,फस मत विषयो मे मन कहना मेरा मान ॥३॥ नयन विषय वश होय पतगा, दीपक माहि जलावे अगा। तजै प्राण अज्ञान, फस मत विषयो मे मन कहना मेरा मान।।४|| कर्ण विषय वश सर्प विपिन मे बीन सुनत हरणे निज मन मे। गहे शिकारी आन,फस मत विपयो मे मन कहना मेरा मान ॥५॥ एक-एक वश हम दुख पावै, तो पॉचो की कौन चलावे । समझि अरे नादान, फसे मत विषयो मे मन कहना मेरा मान ॥६॥ 'भैया' पाँचो को जो त्यागे,विपय भोग मे कभी ना लागे । बो ही पुरुष महान,फसे मत विपयो मे मन कहना मेरा मान ॥७ समय उठ चेत रे चेन, भरोसा है नही पल का। खडी मुख फाडकर मृत्यु, भरोसा है नही पल का । ॥टेक। वालपन खेल मे खोया, जवानी नीद भर सोया। बुढापे मे बढी तृष्णा हुआ, नही बोझ भी हलका ॥१॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) प्रभु का नाम नही लीना, उमर सारी वितादी यूं । बुलावा मौत का आया, चखो सब स्वाद निज फलका ॥ २॥ -सिफारिश भी नही चलती, किसी की मौत के आगे । राम रावण बली हारे, पता जिनका न था बल का ॥३॥ विजय गर मृत्यु पर चाहो, करो निज आत्म का चिन्तन । ज्ञान का दीप जागेगा, दिखेगा मार्ग शिवपुर का ||४|| ४१. भैया परदेशी प्यारे ! कौन है देश तुम्हारा ॥ टेक ॥ कौन असल मे ग्राम तुम्हारा, कौन जगह घर द्वारा । -कीन तुम्हारे मात पिता हैं, करो रूप विस्तारा ॥१॥ असख्य प्रदेशी गाँव हमारा, सम्यग्दर्शन द्वारा । ज्ञाता दृष्टा मात-पिता मम, अनन्त गुण परिवारा ॥२॥ अवगुण अपने आप सुधारो, गुरू का लेय सहारा । और न कोई मित्र जगत मे, पार लगावन हारा ||३|| देख दोप निज दूर करो सव, रहो कपट से न्यारा । अहँकार आने नही पावे, समझो तभी किनारा ॥४॥ विपय- कषाय है दुश्मन सारे, करो न प्रेम पसारा । भोग भोगना मुख स्वरूप का, सुखाभास पर धारा।।५।। धन्य भाग सब नर नारी का, पाया नर भव प्यारा । आतम का उपदेश सुनाते, 'भया' करो सुधारा ||६|| ४२ घानतराय आतम अनुभव करना रे भाई, आतम अनुभव करना रे । जब लौं भेदभाव नही उपजे, जन्म मरण दुख भरना रे ॥ टेक ॥ आतम पढ नव तत्व वखाने, व्रत तप सयम आतम ज्ञान बिना नहि कारज, योनी सकट धरना रे । मिथ्यातम को जिन्हें उपजना सकल ग्रन्थ दीपक हैं भाई, कहा कहे ते अन्ध पुरूष को, परना रे ॥१॥ हरना रे । मरना रे || २ || Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) 'घानत' जे भव सुख चाहत हैं, तिनको यह अनुसरना रे । सोऽह ये दो अक्षर जप के, भवोदधि पार उतरना रे ॥३॥ ४३. न्यामत सदा सन्तोष कर प्राणी, अगर सुख से रहया चाहे । घटा दे मन की तृष्णा को, अगर अपना मला जाहे ॥टेक।। आग मे जिस कदर ईधन, पडेगा ज्योति ऊँची हो। बढा मत लोभ को तृष्णा, अगर दुख मे बचा चाहे ॥१॥ वही धनवान है जग मे, लोभ जिसके नही मन मे । वह निर्धन रक होता है, जो पर धन को हरा चाहे ॥२॥ दुखी रहते हैं वे निशदिन, जो आरत ध्यान करते हैं । न कर लालच अगर, आजाद रहने का मजा चाहे ॥३॥ बिना मांगे मिले मोती, 'न्यामत' देख दुनिया मे। भीख मांगे नही मिलती, अगर कोई गहा चाहे ॥४॥ ४४ मेरा आज तलक प्रभु करुणापति थारे चरणो मे जियरा गया ही नही । मैं तो मोह की नीद मे सोता रहा मुझे तत्वो का दरस भया नही ।।टेका। मैंने आतम बुद्धि बिसार दई, और ज्ञान की ज्योति विगाड लई । मुझे कर्मो ने ज्यो त्यो फसा ही लिया, थारे चरणो मे आन दिया ही नहीं ॥शा प्रभु नरको मे दु.ख मैंने सहे, नही जायें प्रभु अव मुझसे कहे । मुझे छेदन भेदन सहना पडा, और खाने को अन्न मिला ही नही ॥२॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) मैं तो पशुओ मे जाकर के पैदा हुआ, मेरा और भी दु ख वहां ज्यादा हुआ । 'किसी मांस के भक्षी ने आन हता, मुझ दीन को जाने दिया ही नही ॥३॥ मै तो स्वर्गों मे जाकर देव हुआ, मेरे दुःख का वहाँ भी न छेद हुआ, मैं तो आयु को यूं ही बिताता रहा, "मैंने सयम भार लिया ही नही ।।४।। प्रभु उत्तम नरभव मैंने लहा, और निशदिन विषयो मे लिप्त रहा। माता पिता प्रियजन ने मुझे, चैन तो लेने दिया ही नही ।।५।। मैंने नाहक जीवो का घात किया, और पर धन छलकर खोश लिया। मेरी औरो की नारी पे चाह रही, मैंने सत तो भाषण दिया ही नही ॥६॥ मैं तो मोह की नीद मे सोता रहा, मैंने आतम दरस किया नही । 'मैं तो क्रोध की ज्वाला मे भस्म रहा, मैंने शान्ति सुधा रस पिया ही नहीं ॥७॥ जिनवर प्रभु अब सुनिये तो जरा, 'मेरा पापो से डरता है जियरा । खडा थारे चरणो मे ये दास चमन, मैंने और ठिकाना लिया ही नही ॥८॥ ४५ जीव स्वतंत्र है कोई बधन नही, इसका पुद्गल में आना गजब हो गया ॥टेक। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) आपको बैठा जरा लोभ मे, पर मे दृष्टि लगाना गजब हो गया । राज वैभव मिला इन्द्री सुख भी मिला भूल तुझको तत्व समझना गजब हो गया ॥ १ ॥ दुर्लभ मानुष जन्म पाके हे आत्मन, तुझको ज्ञानी कहाना गजब हो गया । आत्म शक्ति बराबर है हर जीव में, सच्चे ज्ञान का होना गजब हो गया || २ || मिथ्याभाव को लेकर स्वर्ग गया, वहाँ माला मुरझाना गजब हो गया । चारो गति मे गया सुख कही न मिला, सम्यग्दर्शन का पाना गजब हो गया ॥ ३॥ अपने मंडल मे भक्ति का भाव जगा, सच्चे देव गुरु का समागम मिला । मेरे आतम मे आनन्द की लहरें उठी, सच्चे दर्शन का पाना सुगम हो गया ॥४॥ ४६. (तर्ज तुम्हीं मेरे मन्दिर) न समझो अभी मित्र कितना अधेरा, जभी जाग जाओ तभी है सवेरा ॥ टेक ॥ गई सो गई मत गई को बुलाओ, नया दिन हुआ है नया डग बढाओ । न सोचो न लाओ बदन पर मलिनता, तुम्हारे करो मे है कल की सफलता ॥ जली ज्योति बन कर ढकेला अधेरा, जभी जाग जाओ तभी है सवेरा ॥१॥ पियो मित्र शोले समझ करके पानी, दुखो ने लिखी है सुखो की कहानी । नही पढ सका कोई किस्मत का कासा, नही जानत कब पलट जाये पासा ॥ चल जो मिला मजिलो का बसेरा, जभी जाग जाओ तभी है सवेरा ॥२॥ J Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४० ) व्याथायें मिलें तो उन्हे तुम दुलारो प्रगति प्रेम मे मिले तो पुकारो। दुखो की सदा उम्र छोटी रही है, सदा श्रम सुखों को ही वीती रही है ॥ सदा पतझरो में बहारो को टेरा, जभी जाग जाओ तभी है सवेरा ॥ ३ ॥ गुरुदेव के द्वारा नया दिन मिला है, जो निविय विखरती वो लूटो निकला, तुम जौहरी वन करके उजाला ॥ अनेक ग्रन्थ मधन से हीरा जरा भूल की तो नरक में वसेरा, जभी जाग जाओ तभी है सवेरा ||४|| न समझो मिन कितना अधेरा, अभी जाग जाओ अभी है सवेरा । ४७. ( राजमल पवैया ) जब तक मिथ्यात्व हृदय मे है, ससार न पल भर कम होगा ! जब तक परद्रव्यो से प्रतीति भवभार न तिल भर कम होगा ॥ टेक ॥ जब तक शुभ अशुभ को हित समझा, तब तक सवर का भान नही । निर्जरा कर्म ही कैसे हो, जब तक स्वभाव का भान नही ||१|| जब तक कर्मों का नाश नहीं, तब तक निर्वाण नही होगा । जब तक निर्वाण नही होगा, भव दुख से त्राण नही होगा ||२| जब तक तत्वो का ज्ञान नही, तब तक समकित कैसे होगा । जब तक सम्यक्त्व नही होगा, तब तक निज हित कैसे होगा ||३|| इसलिये मुख्य पुरुषार्थ प्रथम, सम्यक्त्व प्राप्त करना होगा । निज आत्म तत्व के आश्रय से, वसु कर्मजाल हरना होगा ॥४॥ दिन समकित व्रत पूजन अर्चन, जप तप सब तेरे निष्फल है । ससार बघ के हैं प्रतीक, भवसागर के ही दलदल हैं ||५|| ( ४८ राजमल पवैया ) गाडी खडी रे खड़ी रे तैयार, चलो रे भाई मोक्षपुरी ॥ टेक ॥ सम्यग्दर्शन टिकट कटाओ, सम्यग्ज्ञान सवारो । सम्यक् चारित्र की महिमा से, भाटो कर्म निवारो ॥ १॥ हमेशा । कर दो Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४१ ) अगर बीच मे अटके तो, सर्वार्थ सिद्धि जाओगे। तैतीस सागर एक कोटि, पूरब वियोग पाओगे ॥२॥ फिर नर भव से ही यह गाडी, तुमको ले जायेगी। मुक्ति वधु से मिलन तुम्हारा, निश्चित करवायेगी ॥३॥ भव सागर का सेतु लांघकर, यह गाडी जाती है। जिसने अपना ध्यान लगाया, उसको पहुचाती है ॥४॥ यदि चूके तो फिर अमन्त भव, घर घर पछताओगे। मोक्षपुरी के दर्शन से तुम, वन्चित रह जाओगे ॥५॥ ४६. (राजमल पवैया) देखो खडा है विमान महान, चलो रे भाई सिद्धपुरी ॥टेक।। वायुयान आया है सीट, सुरक्षित अभी करालो। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र, तीनो के पास मगालो॥१॥ नर भव से ही यह विमान, सीधा शिवपुर जाता है। जो चूका वह फिर अनन्त, कालो तक पछताता है ॥२॥ रत्नत्रय की बर्थ सभालो, शुद्ध भाव मे जीलो। निज स्वभाव का भोजन लेकर, ज्ञानामृत जल पीलो ॥३॥ निज स्वभाव मे जागरुक जो, उनको पहुचायेगा। सिद्ध शिला सिंहासन तक जा, तुमको बिठलायेगा ॥४॥ मुक्ति भवन मे मोक्ष वधु, वर माला पहनायेगी। सादि अनन्त समाधि मिलेगी, जगती गुण गायेगी ||५|| ५०. (राजमल पवैया) करलो जिनवर की पूजन, आई पवन घडी। आई पावन घडी, मन भावन घडी ।।टेक।। दुर्लभ यह मानव तन पाकर, करलो जिन गुणगान । गुण अनन्त सिद्धो का सुमिरण, करके बनो महान ॥११॥ ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय, मोहनीय अन्तराय । आयु नाम अरू गोत्र वेदनीय, आठो कर्म नशाय ॥२॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२ ) घन्य धन्य सिद्धो की महिमा, नाश किया ससार । निज स्वभाव से सिद्ध पद पाया, अनुपम आगम अपार ||३|| जह से भिन्न सदा तुम चेतन, करो भेद विज्ञान । सम्यग्दर्शन अगीकृत कर, निज को लो पहचान ॥४॥ रत्नत्रय की तरणी चढकर, चलो मोक्ष के द्वार । शुद्धातम का ध्यान लगाओ, हो जाओ भव पार ||५| ५१. राजमल पर्वया हमको भी बुलवालो स्वामी, सिद्धो के दरबार मे ॥टेका। जीवादिक सातों तत्वो की, सच्ची श्रद्धा हो जाये। भेद शान से हमको भी प्रभु, सम्यकदर्शन हो जाये ॥ मिथ्यातम के कारण स्वामी, हम डूबे ससार मे ॥१॥ आत्म द्रव्य फा ज्ञान करें हम, निज स्वभाव मे आ जायें। रत्नयय की नाव बैठकर, मोक्षभवन को पा जाये ॥ पर्यायो को चकाचौन्ध से, वहते हैं मझवार मे ॥२॥ ५२. (तर्ज तुम्हीं मेरे मन्दिर .) स्वयं अपना स्वामी, स्वय अपना गुरु, स्वय उपादेय है, स्वय उपादेय है।।टेक।। बहुत जीव देखे कोई सुखी ना, परम सुख अनुभव कोई करे ना। स्वानुभव करले अन्तर की चीज है, भेदज्ञान करले भव चला जाय रे ॥१॥ वाहर की क्रिया तो एक सी होती है, सम्यकदृष्टि की दृष्टि अलग है। मिथ्यादृष्टि माने में सब का करता, सम्यकादष्टि माने में सिर्फ ज्ञाता ॥२॥ शास्त्र जो लिखे व्यवहार व निश्चय से, अभूतार्य व्यवहार भूतार्थ निश्चय है । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४३ ) निश्चय उपादेय है व्यवहार हेय है, नय दृष्टि करले भव चला जाय रे ॥३॥ पूजा भक्ति दया, तप और दान, बिना समझे किये आतम भात | स्व दृष्टि करले अवसर है आया, व्यभिचार छोड दे भव चला जाय रे ॥४॥ पचम बीच नाचे ये निर्णय कर तू, चौथा समझले पुरुषार्थ कर तू । प्राप्त की प्राप्ति अवश्य होती है, सन्देह छोड दे भव चला जाय रे ॥५॥ सयोग जो होता है अपने ही कारण, वियोग जो होता है अपने ही कारण । परद्रव्य का कुछ भी कभी न कर सके तू, कृतीत्व छोड दे भव चला जाय रे ॥६॥ बहुत काल बीता धर्म ना पाया, स्व मे धर्म था पर मे जो चेतन चेततू अवसर है आया, भेदज्ञान करले भव चला जाय रे ॥७॥ ५३. (शिवराम ) माना । हे जिनवाणी माता तुमको लाखो प्रणाम, तुमको लाखो प्रणाम । शिवसुखदानी माता तुमको लाखो प्रणाम, तुमको लाखो प्रणाम । 'टेक | तू वस्तुस्वरूप बतावे, अरू सकल विरोध मिटावे । स्याद्वाद विख्याता तुमको लाखों प्रणाम, तुमको लाखो प्रणाम ॥१॥ तू करे है ज्ञान का मण्डन, मिध्यात्व कुमारग खण्डन । तीन जगत की माता तुमको लाखो प्रणाम, तुमको लाखो प्रणाम ||२|| तू 'लोक अलोक प्रकासे, चर अचर पदार्थ विकासे । विश्व तत्व की ज्ञाता तुमको लाखो प्रणाम, तुमको लाखो प्रणाम ॥३॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४ ) तू स्व पर स्वरूप सुझावे, सिद्धान्तो का मर्म बतावे । तू मेटे सर्व असाता तुमको लाखो प्रणाम, तुमको लाखो प्रणाम ||४|| शुद्धात्म तत्व दिखावे, रत्नत्रय पथ प्रगटावे | ॥५॥ निज आनन्द अमृतदाता तुमको लाखो प्रणाम, तुमको लाखो प्रणाम हे मात ? कृपा अब कीजे, परभाव सकल हर लीजे । 'शिवराम' सदा गुण गाता तुमको लाखो प्रणाम, तुमको लाखो प्रणाम ॥६॥ कविवर बुधजन कृत छहढाला मगलाचरण सर्व द्रव्य मे सार, आतम को हितकार है । नमों ताहि चितधार, नित्य निरंजन जानके ॥ अर्थ - जो समस्त द्रव्यो मे सार है एव आत्मा को हितकार है, ऐसे नित्य निरजन स्वरूप को जानकर उसे चित्त में धारण करके मैं नमस्कार करता हू | भावार्थ - ज्ञानी महापुरुषार्थवान है, क्योकि वे ससार शरीर और भोगो से अत्यन्त विरक्त होते हैं, और जिस प्रकार कोई माता पुत्र को जन्म देती है, उसी प्रकार यह बारह भावनायें वैराग्य उत्पन्न करती हैं, इसीलिये ज्ञानी इन बारह भावनाओ का चिन्तवन करते हैं। जिस प्रकार वायु लगने से अग्नि एकदम भभक उठती है, उसी प्रकार इन बारह भावनाओ का बारम्बार चिन्तवन करने से समता रूपी सुख बढ जाता है । जब यह जीव आत्म स्वरूप को जानता है तब पुरुषार्थं बढाकर पर पदार्थों से सम्बन्ध छोड़कर परमानन्दमयी स्वरूप मे लीन होकर समता रस का पान करता है और अन्त मे मोक्ष सुख प्राप्त करता है । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४५) १. बनित्य भावना आयु घटे तेरी दिन-रात, हो निश्चिन्त रहो क्यो भ्रात। यौवन तन धन किंकर नारि, है सब जल बुदबुद उनहारि ॥१॥ अर्थ-हे भाई | तेरी आयु दिन रात घटती ही जा रही है फिर भी तू निश्चत कैसे हो रहा है ? यह यौवन, शरीर, लक्ष्मी, सेवक, स्त्री आदि सभी पानी के बुलबुले समान क्षण भगुर हैं। भावार्थ-यौवन, मकान, गाय-भैस, धन-सम्पत्ति, स्त्री-पुत्र, घोडा-हाथी, कुटुम्बीजन, नौकर-चाकर तथा पांच इन्द्रियो के विषय यह सर्व क्षणिक वस्तुयें हैं-- अनित्य है । जिस प्रकार इन्द्र धनुष और विजली देखते-देखते ही विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार यह यौवनादि कुछ ही काल मे नाश को प्राप्त होते हैं, किन्तु एक निज शुद्धात्मा ही नित्य और स्थायी है। ऐसा स्वोन्मुखता पूर्वक चिन्तवन करके ज्ञानी जीव वीतरागता की वृद्धि करता है वह 'अनित्य भावना" है। २. अशरण भावना पूरण आयु बढे छिन नाहि, दिये झोटि धन तीरथ मांहि । इन्द्र चक्रपति हू क्या करै, मायु अन्त पर वे हू मेरे ॥२॥ अर्थ-हे भाई । आयु समाप्त होने पर एक क्षण भी बढती नही, भले करोडो रुपया धनादि तीर्थों पर दान करो। इन्द्र चक्रवर्ती भी क्या करे ? आयु पूर्ण होने पर वे भी मरते हैं। भावार्थ-ससार मे जो-जो देवेन्द्र, असुरेन्द्र आदि हैं उन सबका जिस प्रकार हिरन को सिह मार डालता है। उसी प्रकार मत्यु नाश करता है। चिन्तामणि आदि मणि, मन्त्र-तन्त्र-जन्त्रादि कोई भी मृत्यु से नही बचा सकता। यहां ऐसा समझना कि निज आत्मा ही शरण है, उसके अतिरिक्त अन्य कोई शरण नही है। कोई जीव अन्य जीव की रक्षा कर सकने में समर्थ नहीं है, इसलिये पर से रक्षा की आशा करना व्यर्थ है। सर्वत्र-सदैव एक निज आत्मा ही अपना शरण है । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) आत्मा निश्चय से मरता ही नही है, क्योकि वह अनादि अनन्त हैऐसा स्वोन्मुखता पूर्वक चिन्तवन करके ज्ञानी जीव वीतरागता की वृद्धि करता है वह "अशरण भावना" है ॥२॥ ३. संसार भावना यो संसार असार महान, सार आप में आपा जान । सुख से दुख, दुख से सुख होय, समता चारों गति नहिं कोय ॥३॥ अर्थ-हे भाई । इस प्रकार यह ससार अत्यन्त असार है, उसमे अपना आत्मा ही मात्र सार है। ससार मे सुख के पश्चात दुःख एव दुःख के पश्चात सुखरूप आकुलता होती ही रहती है। चारो गतियो मे कही भी लेशमात्र सुख शान्ति नहीं है। ____ भावार्थ-जीव की अशुद्ध पर्याय वह ससार है । अज्ञान के कारण जीव चारो गतियो मे दुख भोगता है और पांच परावर्तन करता रहता है किन्तु कभी शान्ति प्राप्त नहीं करता; इसलिये वास्तव मे ससारभाव (शुभाशभाव) सर्व प्रकार से सार रहित है, उसमे किंचित् मात्र सुख नहीं है, क्योकि जिस प्रकार सुख की कल्पना की जाती है वैसा सुख का स्वरूप नही है और जिसमे सुख मानता है वह वास्तव मे सुख नही है किन्तु वह पर द्रव्य के आलम्बन रूप मलिनभाव होने से आकुलता उत्पन्न करने वाला भाव है । निज आत्मा ही सुखमय है, उसके ध्र व स्वभाव मे ससार है ही नही-ऐसा स्वोन्मुखता पूर्वक चिन्तवन करके ज्ञानी जीव वीतरागता में वृद्धि करता है वह 'ससार भावना" है ॥३॥ ४. एकत्व भावना अनन्तकाल गति यति दुख लहो, बाकी काल अनन्तो कहो । सदा अकेला चेतन एक, तो माहीं गुण वसत अनेक ॥४॥ अर्थ-हे भाई । इस जीव ने अनादिकाल से चारो ही गतियो मे दुख ही पाया और बाकी अनन्तकाल पर्यन्त चारो गतियां रहने वाली Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७ ) है । चारो गति मे जीव अकेला ही रहता है । तू चेतन एक है तो भी उसमे अनन्त गुण बसते हैं- सदाकाल विद्यमान रहते हैं । भावार्थ - जीव का सदा अपने स्वरूप से अपना एकत्व और पर से विभक्तपना है; इसलिए वह स्वयं ही अपना हित-अहित कर सकता है - पर का कुछ नही कर सकता। इसलिये जीव जो भी शुभाशुभ भाव करता है उनका आकुलतारूप फल स्वय अकेला ही भोगता है, उसमे अन्य कोई स्त्री, पुत्र, मित्रादि सहायक नही हो सकते, क्योकि वे सब पर पदार्थ हैं और वे सब पदार्थ जीव को ज्ञेय मात्र हैं इसलिये वे वास्तव में जीव के सगे सम्बन्धी हैं ही नही । तथापि अज्ञानी जीव उन्हे अपना मानकर दुखी होता है । पर के द्वारा अपना भला-बुरा होना मानकर पर के साथ कर्तृत्व- ममत्व का अधिकार माना है वह अपनी भूल से ही अकेला दुखी होता है । ससार मे और मोक्ष मे यह जीव अकेला ही है-ऐसा जानकर ज्ञानी जोव निज शुद्ध आत्मा के साथ ही सदैव अपना एकत्व मानकर अपनी निश्चय परिणति द्वारा शुद्ध एकत्व की वृद्धि करता है वह " एकत्वभावना" है ||४|| ५. अन्यत्व भाबना तू न किसी का तेरा न कोय, तेरा सुख दुख तुझ को होय | याते तुझको तू उरधार, पर द्रव्यन ते ममत निवार ॥५॥ अर्थ - हे जीव । तू अन्य किसी का नही और अन्य भी तेरा कोई नही है । तेरा सुख दुख तुझको ही होता है, इसलिये पर द्रव्य पर भावो से भिन्न अपने स्वरूप को तू अन्तर मे धारण कर एव समस्त पर द्रव्य पर भावो से मोह छोड । भावार्थ - जिस प्रकार दूध और पानी एक आकाश क्षेत्र मे मिले हुये हैं, परन्तु अपने-अपने गुण आदि की अपेक्षा से दोनो बिल्कुल भिन्न - भिन्न हैं, उसी प्रकार यह जीव और शरीर भी मिले हुये एकाकार दिखाई देते हैं, तथापि वे दोनो अपने-अपने द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव से बिल्कुल भिन्न भिन्न हैं- कभी एक नही होते । जब जीव और शरीर भी पृथक-पृथक है, तो फिर प्रगट रूप से भिन्न दिखाई देने वाले ऐसे Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४८ ) मोटर गाडी, धन, मकान, बाग, पुत्र-पुत्री, स्त्री आदि अपने साथ कैसे एकमेक हो सकते है ? इस प्रकार सर्व पर पदार्थों को अपने से भिन्न जानकर, स्व सन्मुखता पूर्वक ज्ञानी जीव वीतरागता की वृद्धि करता है, वह "अन्यत्व भावना" है ||५|| ६. अशुचि भावना हाड़ मांस तन लिपटी चाम, रुधिर मूत्र मल पूरित धाम । सो भी पिर न रहे क्षय होय, याको तजे मिले शिव लोय ॥ ६ ॥ अर्थ - हे जीव ! हाड-मास से भरा हुआ यह शरीर ऊपर से चमड़ी से मढा हुआ है, अन्दर तो रुधिर मल-मूत्रादि से भरा हुआ धाम है । ऐसा होने पर भी वह स्थिर तो रहता ही नही, निश्चयकर क्षय को प्राप्त हो जाता है । देह से एकत्व - ममत्व हटते ही जीव को मोक्षमार्ग और मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है । भावार्थ -- शरीर को मलिन बतलाने का आशय - भेद ज्ञान द्वारा शरीर से स्वरूप का ज्ञान कराके, अविनाशीनिज पद मे रुचि कराना है, किन्तु शरीर के प्रति द्वेषभाव उत्पन्न कराने का आशय नही है । शरीर तो उसके अपने स्वभाव से ही अशुचिमय है और यह भगवान् आत्मा निज स्वभाव से ही शुद्ध एव सदा शुचिमय पवित्र चैतन्य पदार्थ है । इसलिये ज्ञानी जीय अपने शुद्ध आत्मा की सन्मुखता द्वारा अपनी पर्याय में पवित्रता का वृद्धि करता है वह "अशुचिभावना" है ॥६॥ ७. आस्रव भावना हित अनहित तन कुल जन माहि, खोटी बान हरो क्यों नाहि । याते पुद्गल फर्म नियोग, प्रणवे दायक सुख दुख रोग ॥७॥ अर्थ - हे जीव । शरीर, कुटुम्बी जन इत्यादि मे हित अनहितरूप -- मिथ्या प्रवृत्ति को तू क्यो नही छोडता । इस मिथ्या प्रवृत्ति से तो पुद्गल कर्मो का आस्रव बन्ध होता है, जो कि साता असतारूप सुखदुख रोग को देने वाला होकर परिणमता है । भावार्थ - विकारी शुभाशुभ भावरूप जो अरुपी दशा जीव मे Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) होती है वह भावास्रव है और उस समय नवीन कर्म योग्य रजकणो का स्वयं स्वत आना सो द्रव्यास्रव है । पुण्य-पाप दोनो आस्रव और बन्ध के भेद है । परमार्थ से पुण्य पाप (शुभाशुभ भाव ) आत्मा को अहित कर है । द्रव्य - पुण्य-पाप तो पर वस्तु हैं, वे कही आत्मा का हित-अहित नही कर सकते। ऐसा यथार्थ निर्णय प्रत्येक ज्ञानी जीव को होता है। और इस प्रकार विचार करके ज्ञानी जीव स्वद्रव्य के अवलम्बन के बल से जितने अश मे आस्रव भाव को दूर करता है उतने अग मे उसे वीतरागता की वृद्धि होती है— उसे "आस्रव भावना" कहते हैं ॥७॥ ५. मंवर भावना पाचो इन्द्रिन के तज फैल, चित्त निरोध लाग शिवर्गल । तुझ मे देरी तू कर शैल, रहो कहा हो कोलू बैल ॥८॥ अर्थ - जीव । तू पाँचो इन्द्रियो के विषयो को रोककर, चित्त निरोध करके (सकल्प-विकल्प रूप मिथ्याभावो का परिहार करके) मोक्षमार्ग मे लग जाना । तू अपने को जड पत्थर सदृश कर अपने पुरुषार्थ मे देरी क्यो कर रहा है ? व्यर्थ ही कोल्हू के बैल की भान्ति क्यों भटक रहा है। भावार्थ - आस्रव का रोकना वह सवर है । सम्यग्दर्शनादि द्वारा मिथ्यात्वादि आस्रव रुकते है । शुभोपयोग और अशुभोपयोग दोनो बन्ध के कारण हैं - ऐसा ज्ञानी जीव पहले से ही जानता है । यद्यपि साधक को निचली भूमिका मे शुद्धता के साथ अल्प शुभाशुभ भाव होते है किन्तु वह दोनो को बन्ध का कारण मानता है । इसलिये ज्ञानी जीव स्वद्रव्य के आलम्बन द्वारा जितने अश मे शुद्धता करता हैं उतने अश मे उमे सवर होता है और वह क्रमश. शुद्धता मे वृद्धि करके पूर्ण शुद्धता प्राप्त करता है । वह "सवर भावना" है || ८ || Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) ६. निर्जरा भावना तज कषाय मन की चल चाल, ध्यावो अपनी रूप रसाल । झड़े कर्म बन्धन दुखदान, बहुरि प्रकाशै केवलज्ञान ॥६॥ अर्थ - हे जीव । तू कषाय एव मन की च चल वृत्ति को छोडकर, आनन्द रस से भरे हुये अपने निज स्वरूप को थ्याओ, जिससे कि दुखदायी कर्म झड जावे और केवल ज्ञान प्रकाश प्रगट हो । भावार्थ -- अपनी-अपनी स्थिति पूर्ण होने पर कर्मों का खिर जाना तो प्रति समय अज्ञानी को भी होता है, वह कही शुद्धि का कारण नही होता है । परन्तु आत्मा के शुद्ध प्रतपन द्वारा जो कर्म खिर जाते हैं वह अविपाक अथवा सकाम निर्जरा कहलाती है । तदनुसार शुद्धि की वृद्धि होते होते सम्पूर्ण निर्जरा होती है तब जीव शिवसुख प्राप्त करता हैं । ऐसा जानता हुआ ज्ञानी जीव रचद्रव्य के आलम्बन द्वारा जो शुद्धि की वृद्धि करता है वह " निर्जरा भावना" है ॥६॥ १०. लोक भावना तेरो जन्म हुम नहि जहाँ, ऐसा क्षेत्तर नाहि कहाँ । याही जन्म भूमिका रचो, चलो निकल तो विधि से बचो ॥१०॥ अथ - हे जीव | सम्पूर्ण लोक मे ऐसा कोई क्षेत्र बाकी नही जहाँ तेरा जन्म न हुआ हो । तू इसी जन्मभूमि मे मोहित होकर क्यो मगन हो रहा है ? तू सम्यक् पुरुषार्थी बनकर इस लोक से निकल अर्थात् अशरीरी जो सिद्धपद उसमे स्थिर होओ । तभी तू सकल कर्म बन्धन से छूट सकेगा । भावार्थ- ब्रह्मा आदि किसी ने इस लोक को बनाया नही है, विष्णु या शेष नाग आदि किसी ने इसे टिका नही रक्खा है तथा महादेव आदि किसी से यह नष्ट नही होता, किन्तु यह छह द्रव्यमय लोक स्वय से ही अनादि अनन्त है। छहो द्रव्य नित्य रच स्वरूप से स्थित रहकर निरन्तर अपनी नई-नई अवस्थाओ से उत्पाद - व्ययरूप परिणमन करते रहते हैं । एक द्रव्य मे दूसरे द्रव्य का अधिकार नही Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) है । यह छह द्रव्य स्वरूप लोक वह मेरा स्वरूप नही है, वह मुझसे त्रिकाल भिन्न है, मैं उससे भिन्न हूँ । मेरा शाश्वत चैतन्य लोक ही मेरा स्वरूप है । ऐसा ज्ञानी जीव विचार करता है और स्वोन्मुखता द्वारा विषमता मिटकर, साम्यभाव वीतरागता बढाने का अभ्यास करता है । वह "लोकभावना" है || ॥ १० ॥ ११. बोधि दुर्लभ भावना सब व्यवहार क्रिया को ज्ञान, भयो अनन्ती बार प्रधान । निपट कठिन अपनी पहिचान, ताको पावत होत कल्याण ॥११॥ अर्थ - हे जीव | सर्वं व्यवहार कियाओ का ज्ञान तो तुझे अनन्ती बार हुआ, परन्तु जिसकी प्राप्ति से कल्याण होता है ऐसे निज चिदानन्द घनस्वरुप की पहचान अत्यन्त दुर्लभ है । अत उस ही की पहचान करना योग्य है, - ऐसा तू जान । भावार्थ :- (१) मिथ्यादृष्टि जीव मन्द कषाय के कारण अनेक बार ग्रैवेयक तक उत्पन्न होकर अहमिन्द्र पद को प्राप्त हुआ है, परन्तु उसने एक बार भी सम्यग्ज्ञान प्राप्त नही किया, क्योकि समयग्ज्ञान प्राप्त करना वह अपूर्व है । उसे तो स्वोन्मुखता के अनन्त पुरुपार्थ द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है और ऐसा होने पर विपरोत अभिप्राय आदि दोषो का अभाव होता है । ( २ ) सम्यग्दर्शन - ज्ञान आत्मा के आश्रय से ही होते है। पुण्यकर्म, पुण्यभाव, पुण्य की सामग्री और परलक्षी ज्ञान के उधाड से नही होते । इस जीव ने बाह्य सयोग, चारो गति के लौकिक पद अनन्त बार प्राप्त किये हैं, किन्तु निज आत्मा का यथार्थ स्वरूप स्वानुभव द्वारा प्रत्यक्ष करके उसे कभी नही समझा, इसलिये उसकी प्राप्ति अपूर्व है । (३) बोधि अर्थात निश्चय सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र की एकता की प्राप्ति प्रत्येक जीव को करना चाहिये । ज्ञानी जीव स्व सन्मुखता पूर्वक ऐसा चिन्तवन करता है और अपनी वोधि और शुद्धि का वारम्वार अभ्यास करता है । वह "बोधि दुर्लभ भावना" है ॥ ११ ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२ ) १२. धर्म भावना धर्म स्वभाव आप सरधान, धर्म न शील नन्हौन न दान, "बुधजन " गुरु की सीख विचार, गहो धर्म आपन सुखकार || १२ || अर्थ :- हे जीव । निज स्वभाव का श्रद्धान करना ही धर्म है । धर्म न तो बाह्य शीलादि पालने मे है, न स्नान करने मे है और न दानादि देने में है । हे बुधजन | तुम श्री गुरु के इस उपदेश पर विचार करो और निज स्वरुप का निर्णय करके आत्मधर्म को ग्रहण करो । भावार्थ :- अतत्त्व श्रद्धान रहित निश्चय सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ही साररुप धर्म है । व्यवहार रत्नत्रय वह परमार्थ से धर्म नही है । जब जीव निश्चय रत्नत्रय रुप धर्म को स्व आश्रय द्वारा प्रगट करता है तभी वह स्थिर, अक्षय सुख प्राप्त करता है । इस प्रकार चिन्तवन करके सम्यग्दृष्टि जीव स्वोन्मुखता द्वारा शुचि की वृद्धि बारम्वार करता है । वह "धर्म भावना" है || १२ || दूसरी ढाल संसार- दुख वर्णन सुन रे जीव कहत हूँ तोको, तेरे हित के काजे । हो निश्चल मन जो तू घारे तब कुछ इक तोहि लाजे ।। जिस दुख से थावर तन पायो, वरन सको सो नाही । अठदश बार मरो अत्र जीयो, एक स्वास के माहीं ॥ १ ॥ अर्थ :- हे जीव | ध्यान पूर्वक सुन, तेरे हित के लिये तुझको कहता हूँ । जो यह हित की बात स्थिर चित्त होकर तू अब धारण करेगा तो तुझे कुछ तो लज्जा आवेगी कि अरे । अभी तक यह मैंने क्या किया ? अज्ञान से मैं कितना दुखी हुआ । एकेन्द्रिय स्थावर Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५३ ) शरीर धारण कर जो अत्यन्त दुख भोगे-उसे शब्दो मे वर्णन किया जा सके-ऐसा नही है । एक स्वास मे अठारह बार तो तू जन्मा और मरा ॥१॥ काल अनन्तानन्त रहो यो पुनि विकलत्रय हूवो। बहुरि असैनी निपट अज्ञानी छिन छिन जीओ मूवो। ऐसे जन्म गहो करमन वश, तेरो जोर न चालो। पुन्य उदय सैनी पशु हूवो, बहुत ज्ञान नहिं भालो ॥२॥ अर्थ:-हे जीव । इस प्रकार तू अनन्तानन्त काल पर्यन्त एकेन्द्रिय पर्याय मे रहा, पश्चात कभी दो इन्द्रियादि विकलत्रय पर्याय वाला हुआ, कदाचितपचेन्द्रिय पर्याय भी पाई तो असज्ञी महा अज्ञानी रहा और क्षण-क्षण मे जन्म-मरण किया। इस प्रकार अज्ञान से कोदय पश होकर तूने अनन्त जन्म धारण किये, वहाँ तेरा कुछ पुरुषार्थ नहीं हो सका , पश्चात पुण्योदय से कदाचित सज्ञी पशु भी हुआ तो भी वहां तू भेदज्ञान प्राप्त नहीं कर सका ॥२॥ जबर मिलो तब तोहि सतायो, निबल मिलो ते खायो। मात त्रिया सम भोगी रे पापी, तातें नरक सिधायो॥ कोटिन बिच्छू काटत जैसे, ऐसी भूमि तहां है । रुधिर राध जल छार बहे जहां, दुर्गन्ध निपट तहां है ॥३॥ अर्थ :-हे जीव । तुझ से बलवान पशुओ ने तुझे सताया और निर्बल मिला तो तूने उसे मारकर खाया। पशु दशा मे तूने माता को स्त्री समान मोगा, इसलिये तू पापी होकर नरको मे जा पडा। जहाँ की भूमि ऐसी कठोर है कि उसका स्पर्श होते ही मानो करोडो बिच्छू काटते हो-ऐसा दुख होता है और जहाँ अत्यन्त दुर्गन्ध युक्त सड़े लोहू से भरी खारे जल जैसी वैतरणी नदी बहती है ॥३॥ (याद रहे जीवों को दुःख होने का मूल कारण तो उनकी शरीर के साथ ममता तथा एकत्व बुद्धि हो है; धरती का स्पर्श आदि तो मात्र निमित्त कारण है।) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) धाव कर असिपत्र जंग मे, शीत उष्ण तन गाले । कोई काटे करवत कर गह, पावक मे परजाले ॥ यथायोग सागर थिति भुगते, दुख को अन्त न आवे । कर्म विपाक इसी ही होवे, मानुष गति तव पावै ॥४॥ अर्थ -नरक मे असिपत्र अग पर पडते ही घाव कर देते हैं । अत्यधिक शीत एव प्रचन्ड गर्मी देह को गला देती है। कोई नारकी दूसरे नारकी को पकडकर करीत से काट डालते हैं और अग्नि मे जला देते है । आयु वन्धन वश सागरोपम की स्थिति पर्यन्त इस प्रकार के महादु खो को भोगते पार नही आता-वहाँ कर्म का विपाक ऐसा ही होता है। उसे पूर्णकर कदाचित मन्द कषाय अनुसार शुभकर्म का विपाक होने पर कोई नारकी नरक मे से निकलकर मनुष्यगति प्राप्त करता है ॥४॥ मात उदर मे रहो गॅद हो, निफसत ही विललावे। डम्भा दान्त गला विष फोटक, डाफिन से बच जावे॥ तो यौवन में भामिन के सग, निशि दिन भोग रचावे । अन्धा हो धन्धे दिन खोदे, बूढा नाड़ हिलावे ॥५॥ अर्थ –मनुष्यगति मे भी माता के गर्भ में सकुचित होकर गेन्द की तरह नव मास तक रहता है और पीछे जन्मते समय त्रास से बिल्लाता है। बालकपन मे अनेक प्रकार के रोग जहरीले फोडे चेचक दान्त गले आदि के रोग आदि से कदाचित बच जावे तो जवानी में निशदिन पत्नी के साथ भोग विलास मे ही मग्न रहता है नये-नये भोग एचाता है और व्यापार धन्धो मे अन्धा होकर जिन्दगी व्यतीत कर देता है । जब वृद्ध हो जाता है तब मस्तक आदि अग कांपने लग जाते है- इस प्रकार मूढ मोही जीव आत्मा के हित का उपाय किये बिना मनुष्य भव व्यर्थ ही गवा देता है ॥५॥ यम पकड़े तब जोर न चाले, सैन हि सैन बतावै। मन्द कषाय होय तो भाई, भवनत्रिक पद पावै ।। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५५ ) पर को सम्पत्ति लखि अति भूरे के रति काल गमावै । आयु अन्त माला मुरज्ञावै, तब लाख लखि पछतावे ॥६॥ अर्थ - जब मरण काल आ उपस्थित हो तब इस जीव का कुछ भी जोर नही चलता, बोल भी नही सकता, अत मन की बात इशारा कर-करके बतलाता है । इस प्रकार कुमरण भाव से मरकर जो सन्द कषाय रुप भाव हो तो भवनवासी- व्यन्तर या ज्योतिपी इन हलकी जाति के देवो मे उत्पन्न होता है । वहाँ अन्य दूसरे वडे वैभवमान देवो की सम्पदा देखकर खूब झूरता है । अथवा विपय क्रीडा रूप रति मे ही काल गवाता है । आयु का अन्त आने पर उस देव की मन्दारमाला मुरझाने लगती है, उसे देखकर वह जीव बहुत ही पछताता है ॥ ६ ॥ तहं ते चय कर थावर होता, रुलता काल अनन्ता । या विष पंच परावर्तन दे, दुख को नाहीं अन्ता ॥ काललब्धि जिन गुरु किरपा से, आप श्रापको जाने । तब ही बुधजन भवदधि तिरके, पहुँच जाय शिव थाने ॥७॥ अर्थ -- और वह देव आर्त्तध्यान पूर्वक देवलोक से चयकर स्थाबय हो जाता है । इस प्रकार अज्ञान से संसार मे भ्रमते भ्रमते जीव ने अनन्त काल पर्यन्त पच परावर्तन किया और अनन्त दुख पाया । निज काल लव्धि रूप सुसमय आने पर जिन गुरु की कृपा से जब आत्मा स्वयं अपना स्वरूप जानले, मानले और अनुभव करले तव वह जीव भव समुद्र से तिर कर निवार्ण रुप सिद्धपद मे पहुच जाता है जहाँ पाश्वत सुखी रहता है ॥७॥ 1 सार ससार की कोई भी गति सुखदायक नही है । निश्चय सम्यग्दर्शन से ही पच परावर्तन रूप ससार परित होता है । अन्य किसी कारण से दया, दानादि के शुभराग से ससार नही टूटता । कोई भी सयोग सुख दुख का कारण नही है, किन्तु पर के साथ एकत्वबुद्धि कर्त्ताबुद्धि, शुभराग से धर्म होता है, शुभराग हितकर है- ऐसी मान्यता ही एकमात्र दुख का कारण है । सन्यग्दर्शन सुख का कारण है । 4 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५६ ) दूसरी ढाल का सारांश तीन लोक मे जो अनन्त जीव हैं वे सब सुख चाहते हैं और दुःख से डरते हैं । किन्तु अपना यथार्थ स्वरुप समझे तभी सुखी हो सकते हैं। मिथ्यात्व भाव ही दुख का कारण है किन्तु भ्रमवण होकर कैसे-कोसे सयोग के आश्रय से विकार करता है वह सक्षेप मे कहा है। त्रियंच गति के दु.खो का वर्णन -यह जीव निगोट मे अनन्त काल तक रहकर, वहाँ एक श्वास मे अठारह बार जन्म धारण करके अकथनीय वेदना सहन करता है। वहां से निकलकर अन्य स्थावर पर्यायें धारण करता है। बस पर्याय तो चिन्तामणि रत्न के समान अति दुर्लभता से प्राप्त होती है वहां भी विकलत्रय शरीर धारण कर के अत्यन्त दुःख सहन करता है । कदाचित असज्ञी पन्चेन्द्रिय हुआ तो मन विना दु ख प्राप्त करता है । सज्ञी हो तो वहां भी निर्वल प्राणी बलवान प्राणी द्वारा सताया जाता है। बलवान जीव दूसरो को दुख देकर महान पाप का वध करते है ओर छेदन-भेदन, भूख-प्यास, शीतउष्णता आदि के कथनीय दुखो को प्राप्त होते है।। नरक गति के दुःखों का वर्णन -जब कभी अशुभ पाप परिणामों से मृत्यु प्राप्त करते हैं तब नरक मे जाते हैं । वहाँ की मिट्टी का एक कण भी इस लोक मे आ जाये तो उसको दुर्गन्ध से कई कोसो के सज्ञी पचेन्द्रिय जीव मर जायें। उस धरती को छने से भी असह्य वेदना होती है। वहाँ वैतरणी नदी, सेमल वृक्ष, शीत-उष्णता तथा अन्न जल के अभाव से स्वत महान दुख होता है। जब विलो मे औधे मुंह लटकते हैं तब अपार वेदना होती है। फिर दूसरे नारकी उसे देखते ही कुत्ते को भान्ति उस पर टूट पडते हैं और मारपीट करते हैं। तीसरे नरक तक अम्ब और अम्बरीष आदि नाम के सक्लिष्ट परिणामी असुर कुमार देव जाकर नारकियो को अवधिज्ञान द्वारा पूर्व भवो के विरोध का स्मरण कराके परस्पर लडवाते है। तब एक दूसरे के द्वारा कोल्हू मे पिलना, अग्नि मे जलना, आरे से चीरा जाना, कढाई में Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५७ ) उबलना, टुकडे-टुकडे कर डालना आदि अपार दुख उठाते हैं- ऐसी वेदनाये निरन्तर सहना पडती हैं । तथापि क्षणमात्र साता नही मिलती, क्योकि टुकडे टुकडे हो जाने पर भी शरीर पारे की भान्ति पुन. मिलकर ज्यों का त्यो हो जाता है । वहाँ आयु पूर्ण हुये बिना मृत्यु नही होती । नरक में ऐसे दुख कम से कम दस हजार वर्ष तक तो सहना ही पडते हैं, यदि उत्कृष्ट आयु का वध हुआ तो तैतीस सागरोपम वर्ष तक शरीर का अन्त नही होता । मनुष्यगति के दुखो का वर्णन :- किसी विशेष पुण्यकर्म के उदय से यह जीव जब कभी मनुष्य पर्याय प्राप्त करता है तब नौ महीने तक तो माता के उदर में ही पड़ा रहता है, वहाँ शरीर को सिकोडकर रहने से महान कष्ट उठाना पडता है । वहाँ से निकलते समय जो अपार वेदना होती है उसका तो वर्णन भी नही किया जा सकता । फिर बचपन मे ज्ञान बिना, युवावस्था मे विषय भोगो मे आसक्त रहने ये तथा वृद्धावस्था मे इन्द्रियो की शिथिलता अथवा मरण पर्यन्त क्षयरोग आदि मे रुकने के कारण आत्मदर्शन से विमुख रहता है और धामोद्वार का मार्ग प्राप्त नही कर पाता । देवगति के दुखो का वर्णन :-- यदि कोई शुभकर्म के उदय से देव भी हुआ, तो दूसरे बडे देवो का वैभव और सुख देखकर मन ही मन मे दुखी होता रहता है । कदाचित् वैमानिक देव भी हुआ, तो वहां भी सम्यक्त्व के बिना आत्मिक शांन्ति प्राप्त नही कर पाता । तथा अन्त समय मे मन्दार माला मुरझा जाने से, आभूषण और शरीर की कान्ति क्षीण होने से मृत्यु को निकट आया जानकर महान दुःख होता है और बर्त्तध्यान करके हाय-हाय करके मरता है । फिर एकेन्द्रिय जीव तक होता है अर्थात् पुन तिर्यन्च गति मे जा पहुचता है । इस प्रकार चारो गतियो मे जीव को कही भी सुख-शान्ति नही मिलती । इस प्रकार अपने मिथ्यात्व भावो के कारण ही निरन्तर ससारच मे परिभ्रमण करता रहता है । 01 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५८ ) तीसरी ढाल सम्यक्त्व का वर्णन इस विध भव वन के माहि जीव, वश मोह गहल सोता सदीव । उपदेश तथा सहजै प्रबोध, तव ही जागै ज्यों उठत जोग ॥१॥ ___ अर्थ-इस प्रकार ससार रूपी वन मे मोह वश पडा जीव बेसुध होकर सदा गहरी निन्द्रा मे सोया हुआ है। परन्तु जव आत्मज्ञानी गुरु के उपदेश से अथवा पूर्व सस्कार के वल से वह मोह निन्द्रा से जागा । जिस प्रकार रण मे मूछित हुआ योद्धा फिर से जाग गया हो, उसी प्रकार यह ससारो जीव मोह निन्द्रा दूर करके जाग गया ॥१॥ जब चितवत अपने माहि आप, हूँ चिदानन्द नहीं पुन्य पाप । मेरो नाहि है राम भाव, यह तो विधि वश उएज विभाव ॥२॥ ____ अर्थ-आत्मभान करके जब यह ससारी मोही जीव जाग गया तब ही अपने अन्तरग मे अपने स्वरूप का ऐसा चिन्तवन करने लगा कि "मैं चिदानन्द हूँ, पुन्य-पाप मैं नही हूँ, रागभाव भी मेरा स्वभाव नही है, वह तो कर्मवश उत्पन्न हुआ विभाव भाव है" ॥२॥ हूँ नित्य निरजन सिद्ध समान, ज्ञानावरणी आच्छाद ज्ञान । निश्चय सुघ इक व्यवहार भेव, गुणगुणी अंग अगी अछेव ।।३॥ ___ अर्थ :-मैं सिद्ध समान मित्य अविनाशी जीव तत्त्व है, द्रव्यकर्म, नोकर्म और भावकम से रहित हूँ । ज्ञानावरणी कर्म के उदय से मेरा ज्ञान अप्रगट है। निश्चय से मैं अतीन्द्रिय महापदाथ हूँ, गुण-गुणी भेद अथवा अश-अशी भेद आदि सर्व भेद कल्पना तो व्यवहार से है। मैं तो अभेद हूँ ॥३॥ मानुष सुर नारक पशु पर्याय, शिशु युवा वृद्ध बहुरूप फाय। धनवान दरिद्री दास राय, ये तो विडम्ब मुझको न भाय ॥४॥ अर्थ :--तथा मनुष्य-देव नारको व पशु पर्याय अथवा बालक, Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५६ ) जवान, वृद्ध इत्यादि अनेक रूप शरीर की ही अवस्थाये हैं तथा धनवानपना, दासपना, राजापना ये सभी औपाधिक भाव विडम्बना है-उपाधि है, वे कुछ भी मुझे प्रिय नहीं है, मेरे शुद्ध ज्ञायक स्वरूप मे ये कुछ भी शोभता नही ॥४॥ स्पर्श गन्ध वरनादि नाम, मेरे नाहीं मै ज्ञानघाम । मैं एकरूप नहिं होत और, मुझ में प्रतिबिम्बित सफल नर ॥॥ अर्थ:-स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण आदि अथवा व्यवहार नाम आदि मेरे नहीं, ये सभो तो पुद्गल द्रव्य के हैं, मैं तो ज्ञान धाम हूँ. मैं तो सदाकाल एकरूप रहने वाला परमात्मा हूँ, अन्यरूप कभी भी नहीं होता। मेरे ज्ञान दर्पण मे तो समस्त पदार्थ प्रतिविम्बित होते है ॥५॥ तन पुलकित उर हरषित सदीव, ज्यो भई रंकगह निधि अतीव । जब प्रबल अप्रत्याख्यान थाय, तब चित परिणति ऐसी उपाय ॥६॥ ___ अर्थ :--ऐसा भेदविज्ञान पूर्वक सम्यक श्रद्धान होने पर जीव सदा ही अतिशय प्रसन्न होता है, आनन्दित होता है। हृदय में निरन्तर हर्ष वर्तने से शरीर भी पुलकित हो जाता है। जिस प्रकार दरिद्री के घर मे अत्यधिक धन-निधि के प्रगट होने पर वह प्रसन्न होता है। उसी प्रकार यह सम्यग्दृष्टि जीव अन्तर मे निजानन्द मूर्ति भगवान आत्मा को देखकर प्रसन्न होता है। ऐसा सम्यकदर्शन हो जाने पर जब तक अप्रत्याख्यान कषाय की प्रबलता रूप उदय रहता है तब तक उस सम्यग्दृष्टि की चित्त परिणति कसो होती है-उसे अब यहां पर कहते हैं । सो सुनो भव्य चितधार कान, वरणत हूं ताकी विधि विधान । सब फर काज घर माहि वास, ज्यो भिन्न कमल जल मे निदास ॥७॥ अर्थ :-हे भव्य जीवो | तुम चित्त लगाकर उस भेद-विज्ञानी की परिणति को सुनो । उस अविरत सम्यका दृष्टि के विधि-विधान का में वर्णन करता हूँ। स्वानुभव बोध का जिमे लाभ हुआ है। ऐसा वह जीव घर कुटुम्ब के बीच मे रहता है तथा सभी गृहकार्य, व्यापार Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६० ) मादि भी करता दिखाई देता है, परन्तु जैसे जल मे कमल का वास होने पर भी वह जल से भिन्न अलिप्त रहता है। उसी प्रकार गृहवास में रहता होने पर भी धर्मी जीव उस घर, कुटम्ब, व्यापार आदि से भिन्न-अलिप्त एव उदास रहता है ॥७॥ ज्यों सती अग माहीं सिंगार, अतिकरत प्यार ज्यो नगर नारि । ज्यो धाय लडावत अन्य बाल, त्यों भोग करत नाहीं खुशाल ॥८ अर्थ :-जैसे शीलवान स्त्री के शरीर का श्रृ गार पर पुरुष के प्रति राग के लिए नही होता। जैसे वेश्या अतिशय प्रेम दिखाती है। परन्तु वह अन्तरग का प्रेम नही होता । और जैसे धाय माता अन्य दूसरे के बालक को दूध पिलाती है, परन्तु अन्तरग मे वह धाय उस बालक को पराया ही जानती है; ठीक उसी प्रकार सम्यक् दृष्टि जीव ससार के भोगो को भोगता हुआ दीखता है, तथापि उसे उन भोगो मे खुशी नही, उनमे वह सुख मानता नही, उनसे तो वह अन्तरग षद्धान मे विरक्त ही है ॥८॥ अब उदय मोह चारित्र भाव, नहिं होत रंच हू त्याग भाव । तहाँ करै मन्द खोटी कषाय, घर मे उदास हो अथिर थाय ॥६॥ अर्थ :-जब तक उसे चारित्र मोह रूप कर्म प्रकृति का तीव्र उदय रहता है तब तक वह जीव रच मात्र भी त्याग भावरूप व्रत धारण नही कर सकता है। परन्तु वह अशुभ रूप कषायो को शुभभाव रूप करता है और वह अस्थिरपनेवश उदास चित्त वाला होकर घर मे रहता हुआ दिखता है ॥९॥ सब की रक्षा युत न्याय नीति, जिन शासन गुरु को द्रढ़ प्रतीति । बहु रुले अर्द्ध पुद्गल प्रमाण, अन्तर मुहूर्त ले परम धाम ॥१०॥ अर्थ :-और वह सम्यक दृष्टि जीव सभी जीवो की रक्षा सहित न्याय नीति से प्रवर्त्तता है, सर्वज्ञ भगवान के उपदेश को एव सच्चे गुरु की द्रढ़ प्रतीति करता है। यदि सम्यक्त्व से भ्रष्ट हो जावे तो यह अधिक से अधिक अर्द्ध पुदगल परावर्तन प्रमाण काल तक सब की रक्षा पदगल प्रमाण, जीव सभी जीवो को एव सच्ने बाहरुले अद्ध और यह सम्यक् वा भगवान Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१ ) ससार मे रह सकता है और यदि उग्र पुरुषार्थ साधे तो शीघ्र ही अन्तर मुहूर्त मात्र काल मे परमधाम रूप निर्वाण सुख को प्राप्त कर लेता है ॥ १०॥ ये धन्य जीव धन भाग सोय, जाके ऐसी परतीत होय । ताकी महिमा है स्वर्ग लोय, 'बुधजन' भाषे मोसे न होय ॥ ११ ॥ अर्थ :- जिसे सम्यक दर्शन हुआ है, वे जीव धन्य है, वही धन्य भाग्य हैं । स्वर्गलोक मे भी उनकी प्रशसा होती है, ज्ञानी जन भी उनकी प्रशसा करते हैं । परन्तु बुधजन कवि कहते हैं कि मुझ से तो ऐसे आत्मज्ञानी सम्यक् दृष्टि जीव का वर्णन शब्दो मे नही हो सकता है ॥११॥ तीसरी ढाल का सारांश आत्मा का कल्याण सुख प्राप्त करने मे है । आकुलता का मिट जाना वह सच्चा सुख है, मोक्ष ही सुखरूप है, इसलिये प्रत्येक आत्मार्थी को मोक्षमार्ग मे प्रवृत्ति करनी चाहिए । निश्चय सम्यक्दर्शन- सम्यग्ज्ञान- सम्यग्चारित्र - इन तीनो की एकता ही मोक्षमार्ग है । उसका कथन दो प्रकार से है । निश्चय सम्यक्दर्शन - ज्ञानचारित्र तो वास्तव मे मोक्षमार्ग है और व्यवहार सम्यक्दर्शन - ज्ञान चारित्र वह मोक्षमार्ग नही है, किन्तु वास्तव मे बन्धमार्ग है । लेकिन निश्चय मोक्षमार्ग मे निमित्त व सहचारी होने से उसे व्यवहार मोक्षमार्ग कहा जाता है । जो विवेकी जीव निश्चय सम्यक्त्व को धारण करता है उसे जब तक निर्बलता है तब तक पुरुषार्थ की मन्दता के कारण यद्यपि किंचित् सयम नही होता, तथापि वह इन्द्रादि के द्वारा पूजा जाता है । तीनलोक और तीनकाल मे निश्चय सम्यक्त्व के समान सुखकारी अन्य कोई वस्तु नही है । सर्व धर्मों का मूल, सार तथा मोक्षमार्ग की प्रथम सीढी यह सम्यक्त्व ही है । सम्यक्त्व के बिना ज्ञान और चारित्र सम्यकपने को प्राप्त नही होते किन्तु मिथ्या कहलाते हैं । इसलिये प्रत्येक आत्मार्थी की सत शास्त्रो का स्वाध्याय, 1 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२) तत्त्वचर्चा, सत्समागम तथा यथार्थ तत्त्व विचार द्वारा निश्चय सम्यका दर्शन प्राप्त करना चाहिये, क्योकि यदि इस मनुष्य भव में 'निश्चय सम्यक्त्व प्राप्त नहीं किया तो पुन मनुष्य पर्याय को प्राप्ति आदि का मुयोग मिलना कठिन है ।। चौथी ढाल सम्यग्दर्शन के गुणो का वर्णन ऊग्यो आतमसूर, दूर भयो मिथ्यात तम । अब प्रगटो गुण भूर, तिनमे फछु इफ कहत हैं ॥१॥ अर्थ :--सम्यक्त्व होते ही आत्मारूपी सूर्य उदित हो गया और मिथ्यात्व रूपी अन्धकार दूर हुआ, वही पर अनन्त गुणो का समूह भगवान आत्मा भी प्रगट हो गया, उनमे से कुछ एक गुणो को यहाँ पर कहता हूँ ॥११॥ शका मन मे नाहि, तत्त्वारथ तरधान में। निरवाछित चित माहि, परमारथ मे रत रहै ॥२॥ नेक न करत गिलान, वाह्य मलिन मुनि तन लखे। नाही होत अजान, तत्त्व कुतत्त्व विचार में ॥३॥ उर मे दया विशेष, गुण प्रकट औगुण ढके। शिथिल धर्म मे देख, जैसे तैसे द्रढ कर ॥४॥ साधर्मो पहिचान, कर प्रीति गोवत्स सम। महिमा होत महान, धर्म काज ऐसे करै ॥५॥ अर्थ :-ऐसे आत्मज्ञानी जीव के मन में कभी भी (१) तत्त्वार्य श्रद्धान मे शका नहीं होती, मुक्ति मार्ग साधने मे रत रहते हैं । (२) चित्त मे दूसरी अन्य कोई बाछा नही होती है। (३) मुनिजनों के देह की मलिनता देखकर जरा भी ग्लानि नही करते हैं। (४) सत्त्व और कुतत्त्व के निर्णय मे मूर्ख नही रहते हैं। (५) अन्तर Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) हृदय मे सर्व जीवों के प्रति विशेष दया रूप कोमल परिणाम रहता है, धर्मात्मा के गुणो को प्रसिद्ध करते हैं तथा अवगुणों को ढांकते हैं । (६) धर्मात्मा जीवो को धर्म मे शिथिल होता जाने तो हर सम्भव उपाय के द्वारा उन्हे मोक्षमार्ग मे स्थिर करते हैं । (७) साघर्मी बन्धुओं को देखकर उनके प्रति गौ वत्स समान प्रीति करते हैं । (५) ऐसे सभी धर्म कार्यो को करते हैं कि जिससे धर्म की अतिशय महिमा प्रसिद्ध हो - इत्यादि प्रमाण सहित सम्यक्त्व होने पर निशकितादि आठ गुण तत्काल प्रगट हो जाते हैं ॥२-५॥ मदन जो नृप तात, मदनहि भूपति माम को । मदन विभव लहात, मद नह सुन्दर रूप को ॥ ६ ॥ मद नहिं जो विद्वान, मद नहि तन मे जोर को । मद नहिं जो परधान, मद नहि सम्पत्ति कोष को ॥७॥ हूओ आतम ज्ञान, तज रागादि विभाव पर । ताको ह्वय क्यो मान, जात्याविक वसु अथिर का ॥८॥ } T अर्थ – सम्यकदष्टि जीव का ( १ ) पिता राजा होय तो उसका "भी कुलमद नही होता है । (२) मामा राजा होय तो उसका भी जातिमद नही होता है । (३) वैभव धन ऐश्वर्य की प्राप्ति होने का भी मद नही होता है । ( ४ ) सुन्दर रूप लावण्य का भी मद नहीं होता है । (५) ज्ञान का भी मद नही होता है । ( ६ ) शरीर में 'विशेष ताकत बल होप उसका भी मद नही होता है। (७) लोक में कोई मुखिया प्रधान पद वगैरह अधिकार का भी मद नही होता है । (८) धन-सम्पति कोष का भी मद नही होता है । जिससे रागादि विभाव भावो को छोड़कर उनसे भिन्न आत्मा का ज्ञान प्रगट किया है उसको जाति आदि आठ प्रकार की अस्थिर नाशवान वस्तुओ का म्मद कैसे हो सकता है ? कभी भी नही हो सकता है । इस तरह से सम्यग्दृष्टि जीव को आठ प्रकार के मदो का अभाव वर्तता है ॥ ६-८ ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) बन्दत हैं अरिहन्त, जिन मुनि जिन सिद्धान्त को । न नवे देख महन्त, कुगुरु कुदेव कुधर्म को ॥ ॥ अर्थ :- सम्यग्दृष्टि जीव अरिहन्त जिनदेव, जिन मुद्राधारी मुनि और जिन सिद्धान्त को ही वन्दन करता है, परन्तु कुदेव, कुगुरु, कुधर्म को चाहे वे लोक मे कितने ही महान दिखाई देते हो तो भी उन्हें बन्दन नही करता है - इस प्रकार ज्ञानी जीव को तीन मूढताओ का अभाव होता ही है || Ell कुत्सित आगम देष, कुठिसत गुरु पुनि सेवकी । प्रशंसा यो षट भेव, करै न सम्यक वान हैं ॥१०॥ अर्थ - सम्यग्दृष्टि जीव कुगुरु, कुदेव, कुधर्म, कुगुरु सेवक, कुदेवा सेवक तथा कुधर्म सेवक -यह छह अनायतन दोष कहलाते हैं । उनकी भक्ति - विनय और पूजनादि तो दूर रही, किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव उनकी प्रशसा भी नही करता, क्योकि उनकी प्रशसा करने से भी सम्यक्त्व मे दोष लगता है । - इस प्रकार शकादि आठ दोष, आट मद, तीन मूढता और छह अनायतन-ये पच्चीस दोष जिसमे नही पाये जाते वह जीव सम्यग्दृष्टि है ॥ १० ॥ - प्रगटो ऐसो भाव कियो अभाव मिथ्यात्व को । बन्दत ताके पाँय, 'बुधजन' महे मन वच कायते ॥ ११॥ अर्थ - जिस जीव ने ऐसा निर्मल भाव प्रगटाया है और मिथ्यात्वा - का अभाव किया है-उस ज्ञानी के चरणो की में (बुधजन ) मनवचन काया स वन्दना करता हूँ ॥ ११ ॥ ( चौथी ढाल का सारांश आठ मद, तीन मूढता, छह अनायतन और शकादि आठ ये सम्यक्त्व के पच्चीस दोष है । तथा नि शकितादि आठ सम्यक्त्व के गुण है । उन्हे भली भान्ति जानकर दोष का त्याग और गुणो क प्रहण करना चाहिये । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) पांचवी ढाल श्रावक के १२ व्रतों का वर्णन तिथंच मनुज दोई गति मे, व्रत धारक श्रद्धा चित मे सो अगलित नीर पीवै, निशि भोजन तजत सदोवै ॥२॥ अर्थ -सम्दर्शन सहित व्रत धारण करने वाले सयमी जीव तिर्यंच और मनुष्य इन दो गति मे ही होते हैं। वे अणुव्रत घारी श्रावक विना छना हुआ पानी नहीं पीते और रात्रि भोजन भी सदा के लिये छोड देते हैं ॥१॥ मख अभक्ष वस्तु नहि लावै,जिन भक्ति त्रिकाल रचा। मन वच तन कपट निवार, कृत कारित मोद संवारे ॥२॥ अर्थ -मुख मे कभी भी अभक्ष वस्तु नही लाते, सदैव जिनेन्द्र देव की भक्ति में अपने को लीन रखते है, मन-वचन काया से माया. चारी छोड़ देते है और पाप कार्यो को न स्वय करता है, न कराता. और न उनको अनुमोदना करता है ।।२।। जैसी उपशमत कषाया, तैसा तिन त्याग कराया। कोई सात व्यसन को त्यागै, कोई अणुव्रत में मन पागे ॥३॥ अर्थ -उस आत्मज्ञानी सम्यग्दष्टि को जितनी-जितनी फपाये उपशमती जाती हैं, उतने-उतने प्रमाण मे उसको हिंसादि पापो का त्याग होता जाता है। कोई-कोई तो सात व्यसन का सर्वथा त्याग कर देते हैं और कोई-कोई अणुव्रत धारण करके शुभाशुभभावो से रहित तप मे लग जाते है ॥३॥ त्रस जीव कभी नहि मोरे, विरथा यावर न संहारै। परहित बिन झूठ न बोले, मुख साँच बिना नहिं खोले ॥४॥ अर्थ :--ऐसे श्रावक त्रस जीवो को कभी नही मारते और स्थावर जीवो का भी निष्प्रयोजन कभी भी सहार नहीं करते। पर हित , Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) सिवाय कभी झूठ नहीं बोलते (अर्थात कदाचित किसी धर्मात्मा से कोई दोप हो गया होय उसे बचाने के लिए अपवा कोई निरपराधी फस रहा होय निकालने के लिये इन प्रसगो के सिवायवह कभी झूठ नहीं बोलते) और सत्य सिवाय कभी भी मुख नहीं खोलते ॥४॥ जल मृतिका बिन घन सव हू, विन दिये न लेवे कवह । व्याही वनिता बिन नारो, लघु बहिन बड़ी महतारी ॥५॥ मर्थ •--जिनकी मनाई नही-ऐसा पानी व मिट्टी के सिवाय दूसरी कोई भी वस्तु जो उसे दो नहीं गई हो कभी भी लेता नहीं है। अपनी विवाहिता नारी के अलावा अन्य दूसरी लधुवय स्त्रियो को बहिन समान एव अपने से बडी स्त्रियो को माता समान समझता है ॥५॥ तष्णा का जोर संकोचे, ज्यादा परिग्रह को मोचे। दिश मी मर्यादा लावै, बाहर नहिं पांव हिलावै ॥६॥ अर्थ .-वह श्रावक विषय पदार्थों के प्रति उत्पन्न होने वाली जो तष्णा उसके जोर को सकोचता है, ममता को घटाकर अधिक परिग्रह को छोड देता है, परिग्रह का प्रमाण कर लेता है। दिशाओ मे गमन करने की अथवा किसी को बुलाने, लेन-देन आदि करने की मर्यादा कर लेताहै और मर्यादा से बाहर पग भी नहीं निकालता है ॥६॥ ताह मे गिरि पुर सरिता, नित रहत पाप से डरता। सब अनरथ दड न करता, छिन छिन जिन धर्म सुमरता ॥७॥ अर्थ -पाप से डरने वाला श्रावक दिग्वत मे निश्चित की हुई मर्यादा मे भी पर्वत, नगर, नदी आदि तक गमनादि-व्यापारादि करने की मर्यादा कर लेता है तथा किसी भी प्रकार का अनर्थ दड (खोटा पाप निष्प्रयोजन हिसादि) नहीं करता एव प्रतिक्षण जिन धर्म का स्मरण करता रहता है ॥७॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ ) द्रव्य क्षेत्र काल सुध भावै, समता सामायिक ध्यावै । यो वह एकाकी हो है, निष्किंचन मुनि ज्यों सोहै ॥८॥ T अर्थ - वह श्रावक द्रव्य क्षेत्र काल और भाव की शुद्धि पूर्वक समतारुप सामायिक को ध्याता है । अष्टमी, चतुर्दशी प्रोषध उपवास के दिन एकान्त मे रहता है और निष्परिग्रही मुनि समान शोभता है 11511 परिग्रह परिमाण विचारै, नित नेम भोग का धोरे । मुनि आवन बेला जावे, तब योग असन मुख लावै ॥ ६ ॥ अर्थ - वह श्रावक परिग्रह की मर्यादा का विचार करता है' और भोग-उपभोग की मर्यादा का भी हमेशा नियम करता है । मुनिबरो को प्रतिदिन आहार दान देने की भावना भाता है और जब ' मुनिवरो के आहार का अर्थ आने का समय बीत जावे तब ही स्वय योग्य शुद्ध भोजन करता है || || वे उत्तम किरिया करता, नित रहत पाप से डरता । जब निकट मृत्यु निज जाने, तब ही सब ममता भाने ॥१०॥ ' अर्थ - इस प्रकार धर्मी श्रावक सदा ही उत्तम कार्य करता है और पाप से सदा ही डरता रहता है । तथा जब मरण का काल समीप आया जानता है, तब तत्काल समस्त परिग्रह की ममता को छोड देता है ||१०|| ऐसे पुरुषोत्तम केरा, 'बुधजन' चरणो का चेरा । वे निश्चय सुरपद पावे, थोड़े दिन में शिव जोवें ॥११॥ अर्थ . -- बुधजन कहते हैं कि हम तो ऐसे उत्तम पुरुषो के चरणो के दास हैं । वे धर्मात्मा श्रावक तो नियम से देव होकर अल्पकाल मे ही मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं ॥११॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८) पांचवीं ढाल का सारांश सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके फिर सम्यग्चारित्र प्रगट करना चाहिये । वहाँ सम्यग्चारित्र की भूमिका में जो कुछ भी राग रहता है वह श्रावक को अणुव्रत और मुनि को पच महाव्रत के प्रकार का होता है, उसे वे पुण्य मानते हैं । जो श्रावक निरतिचार समाधिमरण को धारण करता है। वह समतापूर्वक आयु पूर्ण होने से योग्यतानुसार सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होता है, और वहाँ से आयु पूर्ण होने पर मनुष्य पर्याय प्राप्त करता है, फिर मुनिपद प्रगट करके मोक्ष में जाता है। इसलिये सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक चारित्र का पालन करना प्रत्येक आत्मार्थी जीव का कर्तव्य है। निश्चय सम्यकचारित्र ही सच्चा चारित्र है-ऐसी पद्धा करना तथा उस भूमिका मे जो श्रावक और मुनिपने के विकल्प उठते हैं, वह सच्चा चारित्र नहीं है किन्तु चारित्र मे होने वाला दोष है। परन्तु साधक को अपनी-अपनी भूमिका मे वैस. राग आये बिना नही रहता और उस सम्यक चारित्र मे ऐसा राग नि मत्त व सहचारी होता है इसलिये उमे व्यवहार चारित्र कहा जाता है। व्यवहार सम्यक चारित्र को सच्चा सम्यक चारित्र मानने की श्रद्धा छोड देना वाहिये। छठवीं ढाल मुनिदशा, केवल ज्ञान और मोक्ष का वर्णन अथिर ध्याय पर्याय, भोग ते होय उदासी नित्य निरन्जन जोति, आत्मा घट मे भासी । सुत दारादि बुलाय, सर्व ते मोह निधारा; त्याग शहर धन घाम, वास वन बीच विचारा ॥१॥ अर्थ :-सम्यग्दृष्टि जीव को नित्य निरन्जन चैतन्य ज्योति Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६९ ) स्वरूप आत्मा अपने अन्तरग मे प्रगट भाषित हुआ है, वह देह पर्याय को अस्थिर नाशवान समझकर ससार-शरीर भोगो से उदासीन हो जाता है । वह स्त्री-पुत्रादि को धर्म सम्बोधन करके समस्त चेतन अचेतन परिग्रह के प्रति मोह ममत्व छोड देता है और नगर-धन-मकानादि सब परिग्रह छोडकर वन के बीच एकान्त निर्जन वन मे वास करने का विचार दृढ कर लेता है ॥१॥ भूषण बसन उतार, मगन हय आतम चीना%B गुरु तट दीक्षा घार, सीस-फचलौच जो कोना। त्रस थावर का.धात, त्याग मन वच तन लीना झूठ वचन परिहार, गहै नहिं जल बिन दीना ॥२॥ अर्थ :-पश्चात वह विरागी श्रावक श्री निर्ग्रन्थ गुरु के पास जाकर समस्त आभूषण एव वस्त्र उतारकर नग्न दिगम्बर वेष धारण कर दीक्षा लेकर केशलोच करके आत्म ध्यान मे मग्न हो जाता है। समस्त त्रस-स्थावर जीवो की हिंसा का मन-वच-काया से त्यागकर देता है, मिथ्या वचनादि बोलने का भी त्यागकर देता है तथा विना दिया हुआ पानी भी नही लेता है ॥२॥ चेतन जड़ तिय भोग, तजो भव-भव दुखकारा; आकंचकि ज्यो जान, चित्त ते परिग्रह डारा । गुप्ति पालने काज, कपट मन वच तन नाहीं। पाँचो समिति सवार परिषह सहि हो आहीं ॥३॥ अर्थ --तथा सर्व प्रकार की चेतन व अचेतन स्त्रियो के उपभोग को भव-भव मे दुखकारी जानकर छोड़ दिया है। तथा चित्त मे निर्ममत्व होकर सर्प की कांचली के समान सर्व प्रकार के परिग्रह को भी भिन्न जानकर छोड दिया है। त्रिगुप्ति के पालने के लिए मन-वचन-काया से कपट भाव छोड दिया है। ईर्या-भाषा-एषणाआदान निक्षेपण तथा प्रतिष्ठापन-इन पांच समिति के पालने मे सावधान हो वर्तन करते हैं और वाईस प्रकार के परिषहजयो को सहन करने लगे ॥३॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७० ) छोड़ सकल जंजाल, आपकर आप आप में; अपने हित को आप, करो है शुद्ध-जाप मे। ऐसी निश्चल काय, ध्यान मे मुनि जन केरी॥ मानो पत्थर रची, किधो चित्राम उकेरी ॥४॥ अर्थ :-और कैसे हैं वे मुनिराज ? सकल जगजाल को छोडकर उन्होने अपने द्वारा अपने को अपने मे ही एकाग्र किया है। अपने स्वयं हित के लिए अपने स्वय का ध्यान स्वय ने शुद्ध किया है अर्थात् शुद्धात्मा का ध्यान करके निज स्वरूप मे ही लीन हुए हैं। अहा । शुद्धोपयोग ध्यान मे लीन मुनिराज का शरीर भी ऐसा स्थिर हुआ है कि मानो पत्थर की मूर्ति अथवा चित्र ही हो। इस प्रकार अडौलपने द्वारा आत्म ध्यान मे एकाग्र हैं ॥४॥ चार घातिया नाश, ज्ञान में लोक निहारा, दे जिनमत उपदेश, भव्य को दुखते टारा। बहुरि अघाती तोड़, समय मे शिवपद पाया; अलख अखंडित जोति, शुद्ध चेतन ठहराया ॥५॥ अर्थ :-इस प्रकार शुद्धात्म ध्यान द्वारा चार घाति कर्मों का घात करके केवलज्ञान मे लोकालोक को जान लिया और केवलज्ञान के अनुसार उपदेश देकर भव्य जीवो को दुख से छुडाया अर्थात् मुक्ति का मार्ग प्रकाशित किया। पश्चात चार अघाति कर्मों का भी नाश करके एक समय मात्र मे सिद्धपद प्राप्त किया तथा इन्द्रिय ज्ञान से जो जानने मे नही आता ऐसा अलख अतीन्द्रिय अखड आत्मज्योति शुद्ध चेतना रूप होकर स्थिर हो गई ॥५॥ काल अनन्तानन्त, जैसे के तैसे रहि हैं; अविनाशी अविकार, अचल अनुपम सुख लहि है। ऐसी भावना भाय, ऐसे जे फारज करि हैं। ते ऐसे ही होय, दुष्ट करमन को हरि हैं ॥६॥ अर्थ-ऐसी सिद्ध दशा को प्राप्त करके वह जीव अनन्तानन्त काल Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७१) पर्यन्त ऐसे के ऐसे रहता है तथा अविनाशी, अविकार, अचल, अनुपम सुख का निरन्तर अनुभव किया करता है। जो कोई भव्यजीव ऐसी आत्म भावना भाकर श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र का कार्य करते हैं, वे भी इस अनुपम अविनाशी सिद्ध पद को प्राप्त करते है और दुष्ट कर्मों को नाश कर देते हैं ॥६॥ जिनके उर विश्वास, वचन जिन शासन नाहीं; ते भोगातुर होय, सहैं दुख नरकन माहीं । सुख दुख पूर्व विपाक, अरे मत कल्पै जीया; कठिन कठिन ते मित्र, जन्म मानुष का लिया ॥७॥ सो बिरथा मत खोय, जोय आपा पर भाई; गई न लावै फेर, उदधि मे डूबी राई । भला नरक का वास, सहित जो समकित पाता%B वुरे बने जो देव, नृपति मिथ्यामत माता ॥८॥ अर्थ -जिन के मन मे जिनशासन के वचनो का अर्थात सर्वज्ञ भगवान के उपदेश का विश्वास नहीं है, वह जीव विषय भोगो मे मग्न पश्चात नरको मे दुख भोगते हैं। ससार मे सुख-दुख तो पूर्व कर्मों के उदय अनुसार होता है। अत हे जीव । इससे तू डर मत अर्थात अन्यथा कल्पना मत कर । उदय मे जो कर्म आया हो उसे सहन कर । हे मित्र । बहुत ही अधिक कठिनता से यह मनुष्य जन्म तुझे मिला है, इसलिये इसे तू व्यर्थ यो ही विषयो मे मत गवां । हे भाई । इस नर भव मे तू स्व-पर के विवेकरुप भेद विज्ञान प्रगट कर, क्योकि जिस प्रकार समुद्र मे डूबा हुआ राई का दाना पुन मिलना अत्यन्त कठिन है, उसी प्रकार इस दुर्लभ मनुष्य जन्म बीत जाने के वाद पुन. प्राप्त करना कठिन है। सम्यक्त्व की प्राप्ति सहित तो नरकवास भी भला है परन्तु सम्यक्त्व रहित मिथ्यात्व भाव से भरा हुआ जीव देव अथवा राजा भी हो जाय तो भी वह बुरा हो है ॥७-८॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२ ) नहीं खरच धन होय, नही काहू से लरना; नहीं दीनता होय, नहि घर का परिहरना । समकित सहज स्वभाव, आपका अनुभव करना, या विन जप तप वृथा, कष्ट के माही परना ॥६॥ अर्थ :- सम्यक्त्व वह तो आत्मा का सहज स्वभाव है, उसमे न तो कुछ धन खर्च होता है और न ही किसी से लडना पडता है। न तो किसी के पास दीनता करनी पडती है और न ही घरवार छोडना पडता है । अपना एक रूप त्रिकाली सहज स्वभाव - ऐसे आत्मा का अनुभव करना वही सम्यक्त्व है । सम्यक्त्व के विना जप-तप आदि व्यवहार क्रियारूप आचरण निरर्थक है, कष्ट मे पडना है ॥ ६ ॥ कोटि बात की बात, अरे "बुधजन" उर धरना, मन वच तन शुचि होय, गहो जिनमत का शरना । ठारा सौ पच्चास अधिक नव सम्वत जानों, तीज शुक्ल वैशाख, ढाल षष्टम उपजानो ॥१०॥ अर्थ :- ग्रन्थ की पूर्णता करते हुए प० बुधजन अन्तिम पद मे कहते हैं कि अरे भव्य आत्माओ बुधजनो | करोड़ो बात की सार रूप यह बात तुम अन्तरग मे धारण करो, मन वचन काया की पवित्रता पूर्वक जिन धर्म की शरण ग्रहण करो । ढाल' - इस नाम की शुभ उपमा वाला यह छह पदो की रचना 'छहढाला' सम्वत १८५६ की बैशाख शुदि तीज को समाप्त हुई ||१०|| छठवीं ढाल का सारांश (१) जिस चारित्र के होने से समस्त पर पदार्थों से वृत्ति हट जाती है, वर्णादि तथा रागादि से चैतन्यभाव को पृथक कर लिया जाता है, अपने आत्मा में, आत्मा के लिये, आत्मा द्वारा, अपने आत्मा का ही अनुभव होने लगता है, वहीं नय प्रमाण, निक्षेप, गुण-गुणी, Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७३) ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञय, ध्यान-ध्याता-ध्येय, कर्ता-कर्म और क्रिया आदि भेदो का किंचित विकल्प नही रहता, शुद्ध उपयोग रुप अभेद रत्नत्रय द्वारा शुद्ध चैतन्य का ही अनुभव होने लगता है-उसे स्वरुपाचरण चारित्र चौथे गुणस्थान से प्रारम्भ होकर मुनिदशा मे अधिक उच्च होता है। (२) तत्पश्चात शुक्ल ध्यान द्वारा चार घाति कर्मों का नाश होने पर वह जीव केवलज्ञान प्राप्त करके १८ दोष रहित श्री अरिहन्त पद प्राप्त करता है। फिर शेष चार अघाति कर्मों का भी नाश करके क्षण मात्र मे मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इस आत्मा मे अन्नत काल तक अनन्त चतुष्टय का एक सा अनुभव होता रहता है। फिर उसे पचपरावर्तन रुप ससार में नहीं भटकना पड़ता। वह कभी अवतार धारण नहीं करता। सदैव अक्षय अनन्त सुख का अनुभव करता है। अखण्डित ज्ञान-आनन्द रुप अनन्त गुणो मे निश्चल रहता है उसे भोक्ष स्वरूप कहते हैं। (३) जो जीव मोक्ष की प्राप्ति के लिये इस रत्नत्रय को धारण करते हैं और करेंगे उन्हे अवश्य हो मोक्ष की प्राप्ति होगी। प्रत्येक ससारी जोव मिथ्यात्व, कषाय और विषयो का सेवन तो, अनाकिाल से करता आया है किन्तु उससे उसे किंचित् शान्ति प्राप्त नही हुई। शान्ति का एक मात्र कारण तो मोक्ष मार्ग है उसमे उस जोव ने कभी तत्परता पूर्वक प्रवृत्ति नही की इसलिये अब भी यदि आत्महित को इच्छा हो तो आलस्य को छोडकर, आत्मा का कर्तव्य समझकर, रोग और वृद्ध अवस्था आदि आने से पूर्व ही मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हो जाना चाहिये; क्योकि यह पुरुष पर्याय, सत्समागम आदि सुयोग वारम्बार प्राप्त नहीं होते । इसलिये उन्हे व्यर्थ न गँवाकर अवश्य ही आत्महित साध लेना चाहिये। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रारम्भ से पहले वैशुद्धियों को शुद्ध कीजिय पृष्ठ संख्याय पंक्ति २१ २४ ३२ ३५ ३६ AAWA ३७ ३८ ३६ ४० ५० ५३ ५५ ५६ ६० ६३ ७२ ७७ ७६ 420424 ८२ ८५ २० २४ १८ २२ २१ १६ ६ १६ १४ ० १७ ८ १८ ५ २१ १० २३ १४ २० २६ ६ ३ अशुद्धि w m त्रयवध वन चत्य वराग्य धन शचि हन बन दशधम त आ प्रम जौ मोक्षाथ केकल ससर मे कम ढले पोछे चल ओर ८८ ६५ ६७ ६८ ६८ भारतीय श्रुति-दर्शन केन्द्र शृतकरूप मुनिवरो और शुद्ध aafaa वैन चैत्य वैराग्य घन शुचि हन बैन दशधर्म तो आज प्रेम जो मोक्षार्थ केवल ससार मै कर्म ठुले पीछे चलूं और मृतकरूप मुनिवर ओर Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ संख्या पंक्ति * 101 1066 1072 "अशुद्धि भो"----- रघकती निवृत सम्यकमाग शुद्ध भी घषकती निर्वृत सम्यक्मार्ग तुरन्त 107 108 तुर्त 1 पढ 116 122 घोर 122 128 मुद गोर दोष समोवर रावन निजथर 131 'सरोवर रोवन निजघर ~ or ur / .20 MAMAL42020922 اسم اس 136 भयो भैया 1 137 138 145 भया किया मेरे 150 150 150 थ्याओ रचद्रव्य स्व स्वरूप कियाओ बड भया ही किया ही मरे घ्यायो स्वद्रव्य स्व स्वरूप क्रियाओ बड़े पूर्वक 151 ~ 155 156 Boor ओर और 157 164