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________________ (११) करुणानिधि तुमको समझ नाथ, भगवान भरोसे पड़ा रहा। भरपूर सुखी कर दोगे तुम, यह सोचे सन्मुख खडा रहा । तुम वीतराग हो लीन स्वय मे, कभी न मैंने यह जाना। तुम हो निरीह जग से कृत-कृत, इतना ना मैंने पहिचाना ॥ प्रभु वीतराग की वाणी मे, जैसा जो तत्त्व दिखाया है। यह जगत स्वय परिणमनशील, केवलज्ञानी से गाया है। उस पर तो श्रद्धा ला न सका, परिवर्तन का अभिमान किया। बनकर पर का कर्ता अब तक, सतका न प्रभो सम्मान किया । भगवान तम्हारी वाणी मे, जैसा जो तत्त्व दिखाया है। स्याद्वाद् नय अनेकान्तमय, समयसार समझाया है। उस पर तो ध्यान दिया न प्रभो, विकथा मे समय गमाया है। शुद्धात्मरुचि न हुई मन मे, ना मन को उधर लगाया है ॥ मैं समझ न पाया था अब तक, जिनवाणी किसको कहते हैं । प्रभु वीतराग की वाणो मे, कैसे क्या तत्त्व निकलते हैं ।। राग धर्ममय धर्म रागमय, अव तक ऐसा जाना था। शुभ कर्म कमाते सुख होगा, बस अब तक ऐसा माना था। पर आज समझ मे आया है, कि वीतरागता धर्म अहा। राग-भाव मे धर्म मानना, जिनमत मे मिथ्यात्व कहा। वीतरागता की पोषक ही, जिनवाणी कहलाती है। यह है मुक्ति का मार्ग निरन्तर, हमको जो दिखलाती है ।। उस वाणी के अन्तर्तम को, जिन गुरुओ ने पहिचाना है। उन गुरुवर्यों के चरणो मे, मस्तक वस हमे झुकाना है। दिन रात आत्मा का चिंतन, मदु सम्भाषण मे वही कथन । निर्वस्त्र दिगम्बर काया से भी, प्रगट हो रहा अन्तर्मन ।। निर्ग्रन्थ दिगम्बर गदनानी, स्वातम मे सदा विचरते जो। ज्ञानी घ्यानी समरससानी, द्वादश विधि तप नित करते जो॥ चलते फिरते सिद्धो से गुरु, चरणो मे शीश झुकाते हैं। हम चलें आपके कदमो पर, नित यही भावना भाते हैं।
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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