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( १२ )
हो नमस्कार शुद्धतम को, हो नमस्कार जिनवर वाणी । हो नमस्कार उन गुरुओ को, जिनकी चर्या समरससानी || दर्शन दाता देव है, आगम सम्यग्ज्ञान । गुरू चारित्र की खानि हैं, मैं वन्दो धरि ध्यान ।
(३) देव दर्शन पाठ
पाया ।
अति पुण्य उदय मम आया, प्रभु तुमरा दर्शन अब तक तुमको बिन जाने, दुख पाये निज गुण हाने || पाये अनन्ते दुख अब तक, जगत को निज जानकर । सर्वज्ञ भापित जगत हितकर, धर्म नहि पहिचान कर ॥ भव बन्ध कारक सुख प्रहारक विषय मे सुख मानकर । निजपर पर विवेचक ज्ञानमय, सुख निधि-सुधा नही पानकर ॥ १ ॥ तव पद मम उर मे आये, लखि कुमति विमोह पलाये । निज ज्ञान कला उर जागी, रुचि पूर्ण स्वहित मे लागी ॥ रुचि लगी हित मे आत्म के, सतसंग मे अब मन लगा । मन मे हुई अब भावना, तव भक्ति मे जाउँ रंगा ॥ प्रिय वचन की हो टेव, गुणिगण गान मे ही चित्त पगे | शुभ शास्त्र का नित हो मनन, मन दोष वादनते भगे ॥२॥ कब समता उर मे लाकर, द्वादश अनुप्रेक्षा भाकर । ममतामय भूत भगाकर, मुनिव्रत धारूँ बन घर कर दिगम्बर रूप कब, अठ बीस गुण पालन दो बीस परिषह सह सदा, शुभ धर्म दश धारन तप तपूँ द्वादश विधि सुखद नित, बघ आश्रव अरू रोकि नूतन कर्म सचित कर्म रिपु को निर्ज कब धन्य सुअवसर पाऊ, जब निज मे ही रम भेद मिटाळ रागादिक दूर
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कर्तादिक
जाकर ॥
करूँ ।
करू ॥ परिहरू । || ३ ||
जाऊ ।
भगाऊ ||