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अच्छा कहकर जाय घसा तांबे पीतल के कोठे मे, धरा सामने भरा हुआ देखा बडा जल लोटे मे । हलवा पूडी कचोडी लड्डू पेड़े बालूसाई के, भरे घरे थे थाल कटोरे रबडी दूध मलाई के ॥ १६ ॥
सोचा दिन भर का भूखा हू पहले तो खाना खाऊँ, -पीछे जो कुछ माल मिले वोरे भरि भरि ढो ले जाऊँ ।
- भोजन किया पिया ठडा जल बिछा हुआ पलिका पाया, जरा लेटि तो लूं दिनभर का थका हुआ हूँ घबराया ॥ १७॥
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पडा पलग पर लगी हवा सो गया न अब जगने वाला, बजे ठीक छै चपरासी ने पाँव पकडि बाहर डाला । रत्न सुवर्ण रजत तांबा पीतल खेल विषय गोरख धधा भोजन में
कुछ ले नहि पाया है, समय बिताया है ॥ १८ ॥
इसी तरह से हम भी नर भव के चारो पन खोते हैं, "लिया नही कुछ साथ हाथ मलिमलिकरि पोछे रोते हैं। सम्यग्दर्शन के हित शैशव खेल कूद में खोया है, श्रावकपन के हित था यौवन तरुणी के सगमे सोया है ॥ १६ ॥ मध्य अवस्था मुनिबनने को खोई गोरख धन्धे मे, वृद्धपना अरहत दशा हित पडि गया काल के फदे मैं,
नर भव सुकुल सुथल जिनवाणी बार बार नहि पायेगा, जो ये अवसर खोया तो भैय्या पीछे पछतायेगा ||२०||