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नारक तन मे नारकी, पर नहि यह चैतन्य | है अनन्त घी शक्ति युत, अचल स्वानुभव गम्य ॥ ॥ चेतन सहित अचेत के, लख निजतन समकाम । परका आत्मा मानकर, मूढ करे पहचान ॥१०॥ कहै देह को आत्मा, नही स्व-पर पहचान । विभ्रम वश तन मे करे, सुत तियादि का ज्ञान ॥११॥ इस भ्रम मे अज्ञानमय, जमते दृढ सस्कार | यो मोही भवभव करे, तन मे निज निर्धार ॥१२॥ इससे तन्मय आत्म ही, तन से करे सम्बन्ध | आत्म बुद्धि नर स्वात्म का, तन से तजे सम्वन्ध || १३|| मम सुततिय यह उपज जब, जब तन मे निज बुद्धि । आत्म- सम्पदा मानता, हता जगत हा | व्यर्थ ॥ १४ ॥ जग मे दुख का मूल है, तन मे निज का भान । यह तज विषय विरक्त हो, लो निजात्म मे स्थान ||१५|| इन्द्रिय विषय विमुग्ध हो, उनको हितकर जान । मैं आत्मा हू नहिं लखा, भूल गया निजभान ॥ १६॥ वाहिर बचन विलास तज, तज अन्तर मन भोग । है परमात्म का, थोडे मे यह योग ॥१७॥ रूप मुझे जो दीखता, वह तो जड जो जाने गोचर नही, बोलूं किससे में पर से प्रतिबुद्ध, या पर मुझ से प्रतिबुद्ध | यह मम चेष्टा मत्त-सम, मैं विकल्प बिन शुद्ध ||१६|| कहूँ सुनूं में अन्य से है उन्मत वत् कार्य । बचन विकल्प विमुक्त मैं हूँ नहि इन्द्रिय-ग्राहा ॥२०॥
प्रकाश
अनजान । बान ॥१८॥
करे स्तभ मे पुरुष की, भ्रान्ति यथा अनजान । - त्यो भ्रम वस बन आदि मे, कर लेता निजभान ॥२१॥