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( ६७ ) इन लक्षण से युक्त जो, परम विदेही देव । देहवासी इस जीव मे, अरु उसमे नहिं भेद ॥१०६॥ सिद्ध हुवे अरु होयगे हैं अब भी भगवन्त ।
मातम दर्शन से हि यह, जानो होय निःशक ||१०७॥ • भव भीति जिनके हृदय, "योगीन्दु" मुनिराज । एक चित्त हो पद रचें, निज सम्बोधन काज ।।१०८।।
(२४) समाधि-तन्त्र
नमू सिद्ध परमात्म को अक्षय वोध स्वरूप । जिनने आत्मा आत्म मय, परजाना पररूप ॥ १॥ अक्षर इच्छा बिन बचन, सुगत सुखद जग व्याप्त । तारक, नाशक कर्ममल, जयतु नमू वह आप्त ॥२॥ चहे अतीन्द्रिय सुख. उन्हे, आत्मा शुद्ध स्वरूप । श्रुत, अनुभव, अनुमान से, कहू शक्ति अनुरूप ॥३॥ त्रिविध रूप सब आतमा, अन्तरात्म हो- वेद । पद परमातम प्राप्त कर, बहिरातम पद छेद ॥४॥ बहिरातम भ्रम वश गिने, आत्मा तन इक रूप । अतरात्म मल शोधता, परमात्मा मल मुक्त ॥५॥ शुद्ध, स्पर्श-मल विन प्रभु अव्यय । मज परमात्म । ईश्वर, निज, उत्कृष्ट वह, परमेष्ठी परमात्म ॥६॥ आत्म ज्ञान से हो विमुख, इन्द्रिय से वहिरात्म । आत्मा को तनमय समझ, तन ही गिने निजात्म ॥७॥ तिर्यक मे तिर्यच गिन, नर तन मे नर मान । देव देह को देव लख, करे मूढ पहिचान ||८||