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शम सुख मे लवलीन जो, करते निज अभ्यास। करके निश्चय कर्म क्षय, लहे शीघ्र शिववास ॥३॥ पुरुपाकार पवित्र अति, देखो आतम राम । निर्मल तेजोमय अरु, अनन्त गुणो का धाम ।।६४॥ जाने जो शुद्धात्म को, अशुचि देहसे भिन्न । ज्ञाता सो सब शास्त्र का, शाश्वत सुख मे लीन ॥६५॥ निज-पर रूप के अज्ञ जन, जो न तजे पर भाव । ज्ञाता भी सव शास्त्र का, होय न शिवपुर राव ॥६६॥ तजि कल्पना जाल सब, परम समाधि लीन । वेदे जिस आनन्द को, शिव सुख कहते जिन ॥९७।। जो पिण्डस्थ, पदस्थ अरु रूपस्थ रूपातीत । जानो ध्यान जिनोक्त ये, होवो शीघ्र पवित्र १९८॥ सर्व जीव हैं ज्ञानमय ऐसा जो समभाव । सो सामायिक जानिये, भाषे जिनवर राव ॥६६॥ राग दोष दोऊ त्याग के, धारे समता भाव। सो सामायिक जानिये भाषे जिनवर राव ॥१०० ।। हिंसादिक परिहार से, आत्म स्थिति को पाय । यह दूजा चारित्र लख पचम गति ले जाय ॥१०१॥ मिथ्यात्वादिक परिहरण, सम्यकदर्शन शुद्धि । सो परिहार विशुद्धि है, करे शीघ्र शिव सिद्धि ॥१०२।। सूक्ष्म लोभ के नाश से, सूक्ष्म जो परिणाम । जानो सूक्ष्म चारित्र वह जो शाश्वत सुख धाम ॥१०३।। आत्मा ही अरहन्त है, निश्चय से सिद्ध जान । आचार्य उपाध्याय औ निश्चय साधु समान ॥१०४॥ वह शिव शकर विष्णु औ रुद्र वही है बुद्ध । ब्रह्मा ईश्वर जिन यही सिद्ध अनन्त औ शुद्ध ॥१०॥