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( ६५ ) आत्मा दर्शन-ज्ञान है, आत्मा चरित्र जान । आत्मा सयम-शील-तप, आत्मा प्रत्याख्यान ॥१॥ जो जाने निज आत्म को, पर त्यागे निन्ति । यही सत्य सन्यास है, भाषे श्री जिननाथ ॥२॥ रत्न त्रय युत जीव ही उत्तम तीर्थ पवित्र । हे योगी । शिव हेतु हित, तन्त्र-मन्त्र नहिं मित्र ।।३।। दर्शन सो निज देखना, ज्ञान सो विमल महान । पुनि पुनि आतम भावना, सो चारित्र प्रमाण ॥८४॥ जहँ चेतन तहँ सकल गुण, यह सर्वज्ञ वदन्त । इस कारण सब योगिजन, शुद्ध आत्म जानन्त ॥८॥ 'एकाकी, इन्द्रिय रहित, करि योग त्रय शुद्ध । निज आत्मा को जानकर शीघ्र लहो शिवसुख ॥८६॥ बन्ध-मोक्ष के पक्ष से निश्चय तू बन्ध जाय । रमे सहज निजरूप मे, तो शिवसुख को पाय ॥७॥ सम्यग्दृष्टि जीव का, दुर्गति गमन न होय । यद्यपि जाय तो दोष नहि, पूर्व कर्म क्षय होय ।।८।। रमे जो आत्म स्वरुप मे, तज कर सब व्यवहार । सम्यग्दृष्टि जीव वह, शीघ्र होय भव पार ।।६।। जो सम्यक्त प्रधान बुध, वही त्रिलोकप्रधान । पावे केवलज्ञान झट, शाश्वत सौख्य निधान ॥१०॥ अजरामर बहु गुणनिधि, निजमे स्थित होय । कर्म बन्ध नव नहिं करे, पूर्व बद्ध क्षय होय ॥११॥ पकज रह जलमध्य मे, जल से लिप्त न होय । रहत लीन निजरूप मे, कर्म लिप्त नहिं सोय ॥१२॥