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( ५६ )
जीव, काल, ससार यह, कहे अनादि अनन्त । मिथ्यामति मोह से दुखी, नहि सुख कभी लहन्त ।।४।। चार गति दुख से डरे, तो तज परभाव । शुद्ध आत्म चिन्तन करि, लो शिव सुख का भाव ॥५॥ त्रिविध आतमा जानके, तब बहिरातम रूप । अन्तर आतम होय के, भज परमात्म स्वरूप ॥६॥ मिथ्यामति से मोहिजल, जाने नहि परमात्म । भ्रमते जो ससार मे, कहा उन्हे बहिरात्म ॥७॥ परमात्मा को जानके, त्याग करे परभाव । -सत् पडित भव सिन्धु को, पार करे जिमि नाव ॥८॥ 'निर्मल, निकल, जिनेन्द्र, शिव, सिद्ध, विष्णु, बुद्ध, शात । सो परमातम जिन कहे, जानो हो निन्ति ॥६॥ देहादिक जो पर कहे, सो मानत निज रूप । बहिरात्म वे जिन कहे, भ्रमते बहु भव कूप ।।१०।। देहादिक जो पर कहे, सो निजरूप न मान । ऐसा जान के जीव तू, निजरूप को निज जान ॥११॥ निज को निज का रूप जौ, जाने सो शिव होय । पर रूप माने आत्म का, तो भव भ्रमण न खोय ॥१२॥ बिन इच्छा शुचि तप करे, जाने निज रूप आप । सत्वर पावे परमपद, लहे न पुनि भव ताप ॥१३॥ "बध-मोक्ष परिणाम से" कर निज वचन प्रमाण । अटल नियम यह जानके, सत्य भाव पहिचान ॥१४॥ निज रूप के जो अज्ञजन, करे पुण्य बस पुण्य । तदपि भ्रमत ससार मे, शिव सुख से हो शून्य ।।१५।। निज दर्शन ही श्रेष्ठ है, अन्य न किंचित मान । हे योगी । शिव हेतु अव, निश्चय तू यह जान ॥१६।।