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लक्ष्मी बढी अधिकार भी, पर बढ गया बोलिये । परिवार और कुटुम्ब है क्या वृद्धि ? कुछ नहि मानिये । ससार का वढना अरे । नर देह की यह हार है । नही एकक्षण तुमको अरे । इसका विवेक विचार है ॥२॥ निर्दोष सुख निर्दोष आनन्द लो जहाँ भी प्राप्त हो । यह दिव्य अन्त तत्त्व जिससे वन्वनो से मुक्त हो । परवस्तु मे मूर्च्छित न हो इसकी रहे मुझको दया । वह सुख सदा ही त्याज्य रे । पश्चात् जिसके दुःख भरा ॥३॥ मैं कौन हू, आया कहाँ से, और मेरा रूप क्या । सम्बन्ध दुखमय कौन है ? स्वीकृत करूं परिहार क्या ? इसका विचार विवेक पूर्वक शान्त होकर कीजिये । तो सर्व आत्मिक ज्ञान के सिद्धान्त का रस पीजिये ॥ ४ ॥ किसका वचन उस तत्त्व की उपलब्धि मे शिवभूत है । निर्दोष नर का वचन रे । वह स्वानुभूति प्रसूत है । तारो अहो तारो निजात्मा शीघ्र अनुभव कीजिये । 'सर्वात्ममे समदृष्टिद्यो' यह वच हृदय लिख लीजिये ॥५॥
योगसार
(२३) श्रीमद् योगीन्दुदेव विरचित्
निर्मल ध्यानरूढ हो, कर्म कलक नशाय । हुये सिद्ध परमात्मा, वन्दत हू जिनराय ॥ १ ॥ चार घातिया क्षय करि, लहा अनन्त चतुष्ट । वन्दन कर जिनचरणको, कहू - काव्य सुदृढ ॥ २ ॥ इच्छक जो निज मुक्ति का भवभय से डर चित्त । उन्ही भव्य सम्बोध हित, रचा काव्य इकचित्त ॥३॥