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( ५७ ) इष्ट-वियोग अनिष्ट-योग मे, विश्व मनाता है मातम । हेय सभी है विश्व वासना, उपादेय निर्मल आतम ।२३। वाह्य जगत कुछ भी नहि मेरा और न वाह्य जगत का मैं । यह निश्चय कर छोड वाह्यको, मुक्ति हेतु'नित स्वस्थर मैं ।२४। अपनी निधि तो अपने मे है, वाह्य वस्तु मे व्यर्थ प्रयास । जग का सुख तो मृग तृष्णा है झूठे हैं उसके पुरुषार्थ ।२५। अक्षय है शास्वत है आत्मा, निर्मल ज्ञान स्वभावी है। जो कुछ बाहर है सब पर है, कर्माधीन विनाशी है ।२६। तन से जिसका ऐक्य नही हो सुत, तिय मित्रो से कैसे ? । चर्म दूर होने पर तन से, रोम-समूह रहे कैसे ? ।२७। महा कष्ट पाता जो करता पर पदार्थ जड-देह सयोग । मोक्ष महल का पथ है सीधा, जड चेतन का पूर्ण वियोग ।२८। जो ससार पतन के कारण, उन विकल्प जालो को छोड। निर्विकल्प, निर्द्वन्द आत्मा, फिर फिर लीन उसीमे हो।२६। स्वय किये जो कर्म शुभाशुभ, फल निश्चय ही वे देते। करे आप फल देय अन्य तो, स्वय किये निष्फल होते ॥३०॥ अपने कर्म सिवाय जीव को, कोई न फल देता कुछ भी। 'पर देता है' यह विचार तज, स्थिर हो छोड प्रमादी बुद्धि ।३१। निर्मल, सत्य, शिव सुन्दर है 'अमित गति' वह देव महान ।
शाश्वत निजमे अनुभव करते, पाते निर्मल पद निर्वाण १३२। (२२) अमूल्य तत्त्व विचार (मैं कौन हू)
बहु पुण्य-पुज-प्रसग से शुभ देह मानव का मिला, तो भी अरे | भवचक्र का फेरा न एक कभी टला। सुख-प्राप्ति हेतु प्रयत्न करते सुक्ख जाता दूर है। तू क्यो भयकर-भावमरण-प्रवाह मे चकचूर है ॥१॥