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( १२७.) तुमतो पूज्य पुजारी मैं, यह भेद करूंगा स्वाहा । बस अभेद मैं तन्मय होना, और सभी कुछ स्वाहा । अब पामर भगवान बने, ये भीख मागने आया ॥४॥ नाथ तुम्हारी पूजा मे सब, स्वाहा करने आया । तुम जैसा बनने के कारण, शरण तुम्हारी आया ॥५॥
२६. केवलचन्द धर्म बिना बावरे तूने मानव रतन गँवाया ।।टेक॥ कभी न कीना आत्म निरीक्षण कभी न निज गुण गया। पर परणति से प्रीती बढाकर काल अनन्त बढाया ॥१॥ यह ससार पुण्य-पापो का पुण्य देख ललचाया। दो हजार सागर के पीछे काम नही यह आया ॥२॥ यह ससार भव समुद्र है बन विषयो हरषाया। ज्ञानी जन तो पार उतर गये मूरख रुदन मचाया ॥३॥ यह ससार ज्ञय द्रव्य है आत्म ज्ञायक गाया। कर्ता बुद्धि छोड दे चेतन नही तो फिर पछताया ॥४॥ यह ससार दृष्टि की माया अपना कर अपनाया। ''केवल" दृष्टि सम्यक् करले कहान गुरु समझाया ॥५॥
२७. चानतराय धिक । धिक | जीवन सम्यक्त्व बिना ॥टेक।। दान-शील-तप-व्रत-श्रुतपूजा, आतम हेतु न एक गिना ॥१॥ ज्यो बिन, कन्त कामिनी शोभा, अवुजविनसरवरज्यो सूना। जैसे विना एकडे बिन्दी, त्यो समकित विन सरव गुना ॥२॥ जैसे भूप बिना सब सेना, नीव बिना मदिर चुनना । जैसे चन्द विहूनी रजनी, इन्हे आदि जानो निपुना ॥३॥ देव जिनेन्द्र, साधु गुरु करुना, धर्मराग व्योहार भना। निहर्च देवधरम गुरु आतम, 'द्यानत' गहिमन'वचनतन ॥४॥