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वरणादिक विकार पुद्गल के, इनमे नहि चैतन्य - निशानी | यद्यपि एक क्षेत्र अवगाही, तद्यपि लक्षण भिन्न पिछानी || २ || मैं सर्वाग पूर्ण ज्ञायक रस, लवण खिल्लवन लीला ठानी । मिलो निराकुलस्वाद न यावत, तावत परपरणतिहितमानी ॥३॥ भागचन्द निरद्वन्द निरामय, मूरति निश्चय सिद्ध समानी । नित अकलक अवकसक बिन, निर्मल पक विना जिमि पानी ||४|| २४. फोन
में ज्ञानानन्द स्वभावी हूँ, मैं ज्ञानानन्द स्वभावी हूँ ॥ टेक ॥ मैं हूँ अपने मे स्वय पूर्ण, परकी मुझमे कुछ गन्ध नही । में अरस अरुनी अस्पर्शी, परसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं ॥१॥ मैं राग-रग से भिन्न भेद से, भी मैं भिन्न निराला हू । मैं हूँ अखन्ड चैतन्य पिण्ड, निज रस में रमने वाला हू ||२|| मैं ही मेरा कर्त्ता धर्ता, मुझ मे पर का कुछ काम नही । में मुझ ने रमने वाला हू, पर मैं मेरा विश्राम नही || ३ || मैं शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध एक, पर परणति से अप्रभावी हू । आत्मानुभूति से प्राप्त तत्व, मैं ज्ञानानन्द स्वभावी हूँ ||४|| २५. नाथ तुम्हारी पूजा मे सब स्वाहा करने आया । तुम जैसा बनने के कारण, शरण तुम्हारी आया ॥ टेक ॥ पच इन्द्रिय का लक्ष्य करू, मैं इस अग्नि मे स्वाहा । इन्द्र नरेन्द्रो के वैभव की, चाह करू मै स्वाहा । तेरी साक्षी से अनुपम, मैं यज्ञ रचाने आया ॥ १ ॥ जग की मान प्रतिष्ठा को भी, करना मुझको स्वाहा । नही मूल्य इस मन्द भाव का, व्रत तप आदि स्वाहा । वीतराग के पथ पर चलने, प्रण लेकर मैं आया ॥ २ ॥ करे जग के अपशब्दो को, करना मुझको स्वाहा । परलक्षी सब ही वृत्ती को, करना मुझको स्वाहा । अक्षय निरकुश पद पाने, और पुण्य लुटाने आया || ३ ||
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