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रक्षक कोई न पूरन व जब, आयु अन्त की वेला। फुटत पारि बधत नहि जैस, दुद्धर जल को ठेला ॥२॥ तन धन जोवन विनशि जात ज्यो, इन्द्रजाल का खेला। 'भागचन्द' इमि लखि कर भाई, हो सतगुरु का चेला ॥ ३ ॥
२१. वीर भगवान सब मिलके आज जय कहो, श्री वीर प्रभु की। मस्तक झुका के जय कहो, श्री वीर प्रभु की ॥१॥ विघ्नो का नाश होता है, लेने के नाम से। माला सदा जपते रहो, श्री वीर प्रभु की ॥२॥ ज्ञानी वनो दानी बनो, बलवान भी वनो। अकलक सम बन जय कहो, श्री वीर प्रभु की॥३॥ होकर स्वतत्र धर्म की, रक्षा सदा करो । निर्भय बनो अरु जय कहो, श्री वीर प्रभु की ॥४॥ तुमको भी अगर मोक्ष की, इच्छा हुई है दास । उस वाणी पर श्रद्धा करो,श्री वीर प्रभु की ॥५॥
२२ वस्तु स्वभाव वस्तु स्वभाव समझ नही पाता, कर्ता धरता वन जाता। स्व को भुलकर पर अपनाता, मिथ्यापन का यह नाता ॥१॥ सहज स्वभाव समझ मे आता, करना धरना मिट जाता। स्व सो स्व और पर सो पर है,सम्यक्पन का यह नाता ।।२।। रोके रुकता लाये आता, धक्के से जाता है कौन । अपनी अपनी सहज गुफा मे, सभी द्रव्य है पर से मौन ॥३॥
२३. भागचन्द सत निरन्तर चिन्तन ऐसे, आतम रूप अबाधित ज्ञानी ॥ठेक।। रागादिक तो देहाश्रित हैं। इनतें होत न मेरी हानि । दहन दहत जिमि सदन न तद्गत, गगन दहन ताकी विधिठानी ॥१॥