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ताल पाल पर किया वसेरा, निर्मल नीर निहारा । लखा सरोवर सूखा जब ही, पखी पख पसारा ॥ २ ॥ पिता पुत्र सब लागे प्यारे, जब लो करे कमाई । जो नहीं द्रव्य कमाकर लावे, दुश्मन देत दिखाई ॥३॥ जव लग स्वारथ सधत है जासे, तब लग तासो प्रीति । स्वारथ भये वात न वूझे, यही जगत की रीति ॥४॥ अपने अपने सुख को रोवे, मात पिता सुत नारी । घरे ढके की वूझन लागे, अन्त समय की वारी ||५|| सभी सगे शिवराम गरज के, तुम भी स्वारथ साधो । नर तन मित्र मिला है तुमको, आतम हित आराधो ॥६॥
१६. भागचन्द
वरनी ।
परिनति सव जीवनकी तीन भाँति एक पुण्य एक पाप, एक राग हरनी ॥ टेक ॥ तामे शुभ अशुभ अघ, दोय करें कर्म वध | वीतराग परिनति ही, भवसमुद्र तरनी ॥१॥ जावत शुद्धोपयोग, पावत नाही मनोग | तावत ही करन जोग, कही पुण्य करनी ॥ २ ॥ त्याग शुभ क्रिया कलाप, करो मत कदाच पाप । शुभ मेन मगन होय, शुद्धता न विसरनी ॥३॥ ऊँच ऊँच दशा धारि, चित प्रमादको विडारि । ऊँचली दशा मति, गिरो अधो घरनी ॥ ४ ॥ 'भागचन्द' या प्रकार, जीव लहै सुख अपार । याके निरधार स्याद् - वाद को उचरनी ॥ ५ ॥ २०. भागचन्द
जीव तू ! भ्रमत सदीव अकेला, सग साथी कोई नहि तेरा । टेक | अपना सुख दुख आपहिं भुगते, होय कुटुम्ब न भेला । स्वार्थ भयें सब विछुर जात हैं, विघट जात ज्यो मेला ॥१॥