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छोड़ सकल जंजाल, आपकर आप आप में; अपने हित को आप, करो है शुद्ध-जाप मे। ऐसी निश्चल काय, ध्यान मे मुनि जन केरी॥
मानो पत्थर रची, किधो चित्राम उकेरी ॥४॥ अर्थ :-और कैसे हैं वे मुनिराज ? सकल जगजाल को छोडकर उन्होने अपने द्वारा अपने को अपने मे ही एकाग्र किया है। अपने स्वयं हित के लिए अपने स्वय का ध्यान स्वय ने शुद्ध किया है अर्थात् शुद्धात्मा का ध्यान करके निज स्वरूप मे ही लीन हुए हैं। अहा । शुद्धोपयोग ध्यान मे लीन मुनिराज का शरीर भी ऐसा स्थिर हुआ है कि मानो पत्थर की मूर्ति अथवा चित्र ही हो। इस प्रकार अडौलपने द्वारा आत्म ध्यान मे एकाग्र हैं ॥४॥
चार घातिया नाश, ज्ञान में लोक निहारा, दे जिनमत उपदेश, भव्य को दुखते टारा। बहुरि अघाती तोड़, समय मे शिवपद पाया;
अलख अखंडित जोति, शुद्ध चेतन ठहराया ॥५॥ अर्थ :-इस प्रकार शुद्धात्म ध्यान द्वारा चार घाति कर्मों का घात करके केवलज्ञान मे लोकालोक को जान लिया और केवलज्ञान के अनुसार उपदेश देकर भव्य जीवो को दुख से छुडाया अर्थात् मुक्ति का मार्ग प्रकाशित किया। पश्चात चार अघाति कर्मों का भी नाश करके एक समय मात्र मे सिद्धपद प्राप्त किया तथा इन्द्रिय ज्ञान से जो जानने मे नही आता ऐसा अलख अतीन्द्रिय अखड आत्मज्योति शुद्ध चेतना रूप होकर स्थिर हो गई ॥५॥
काल अनन्तानन्त, जैसे के तैसे रहि हैं; अविनाशी अविकार, अचल अनुपम सुख लहि है। ऐसी भावना भाय, ऐसे जे फारज करि हैं।
ते ऐसे ही होय, दुष्ट करमन को हरि हैं ॥६॥ अर्थ-ऐसी सिद्ध दशा को प्राप्त करके वह जीव अनन्तानन्त काल