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स्वरूप आत्मा अपने अन्तरग मे प्रगट भाषित हुआ है, वह देह पर्याय को अस्थिर नाशवान समझकर ससार-शरीर भोगो से उदासीन हो जाता है । वह स्त्री-पुत्रादि को धर्म सम्बोधन करके समस्त चेतन अचेतन परिग्रह के प्रति मोह ममत्व छोड देता है और नगर-धन-मकानादि सब परिग्रह छोडकर वन के बीच एकान्त निर्जन वन मे वास करने का विचार दृढ कर लेता है ॥१॥
भूषण बसन उतार, मगन हय आतम चीना%B गुरु तट दीक्षा घार, सीस-फचलौच जो कोना। त्रस थावर का.धात, त्याग मन वच तन लीना
झूठ वचन परिहार, गहै नहिं जल बिन दीना ॥२॥ अर्थ :-पश्चात वह विरागी श्रावक श्री निर्ग्रन्थ गुरु के पास जाकर समस्त आभूषण एव वस्त्र उतारकर नग्न दिगम्बर वेष धारण कर दीक्षा लेकर केशलोच करके आत्म ध्यान मे मग्न हो जाता है। समस्त त्रस-स्थावर जीवो की हिंसा का मन-वच-काया से त्यागकर देता है, मिथ्या वचनादि बोलने का भी त्यागकर देता है तथा विना दिया हुआ पानी भी नही लेता है ॥२॥
चेतन जड़ तिय भोग, तजो भव-भव दुखकारा; आकंचकि ज्यो जान, चित्त ते परिग्रह डारा । गुप्ति पालने काज, कपट मन वच तन नाहीं। पाँचो समिति सवार परिषह सहि हो आहीं ॥३॥ अर्थ --तथा सर्व प्रकार की चेतन व अचेतन स्त्रियो के उपभोग को भव-भव मे दुखकारी जानकर छोड़ दिया है। तथा चित्त मे निर्ममत्व होकर सर्प की कांचली के समान सर्व प्रकार के परिग्रह को भी भिन्न जानकर छोड दिया है। त्रिगुप्ति के पालने के लिए मन-वचन-काया से कपट भाव छोड दिया है। ईर्या-भाषा-एषणाआदान निक्षेपण तथा प्रतिष्ठापन-इन पांच समिति के पालने मे सावधान हो वर्तन करते हैं और वाईस प्रकार के परिषहजयो को सहन करने लगे ॥३॥