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पांचवीं ढाल का सारांश सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके फिर सम्यग्चारित्र प्रगट करना चाहिये । वहाँ सम्यग्चारित्र की भूमिका में जो कुछ भी राग रहता है वह श्रावक को अणुव्रत और मुनि को पच महाव्रत के प्रकार का होता है, उसे वे पुण्य मानते हैं । जो श्रावक निरतिचार समाधिमरण को धारण करता है। वह समतापूर्वक आयु पूर्ण होने से योग्यतानुसार सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होता है, और वहाँ से आयु पूर्ण होने पर मनुष्य पर्याय प्राप्त करता है, फिर मुनिपद प्रगट करके मोक्ष में जाता है। इसलिये सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक चारित्र का पालन करना प्रत्येक आत्मार्थी जीव का कर्तव्य है। निश्चय सम्यकचारित्र ही सच्चा चारित्र है-ऐसी पद्धा करना तथा उस भूमिका मे जो श्रावक और मुनिपने के विकल्प उठते हैं, वह सच्चा चारित्र नहीं है किन्तु चारित्र मे होने वाला दोष है। परन्तु साधक को अपनी-अपनी भूमिका मे वैस. राग आये बिना नही रहता और उस सम्यक चारित्र मे ऐसा राग नि मत्त व सहचारी होता है इसलिये उमे व्यवहार चारित्र कहा जाता है। व्यवहार सम्यक चारित्र को सच्चा सम्यक चारित्र मानने की श्रद्धा छोड देना वाहिये।
छठवीं ढाल मुनिदशा, केवल ज्ञान और मोक्ष का वर्णन अथिर ध्याय पर्याय, भोग ते होय उदासी नित्य निरन्जन जोति, आत्मा घट मे भासी । सुत दारादि बुलाय, सर्व ते मोह निधारा; त्याग शहर धन घाम, वास वन बीच विचारा ॥१॥ अर्थ :-सम्यग्दृष्टि जीव को नित्य निरन्जन चैतन्य ज्योति