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होती है वह भावास्रव है और उस समय नवीन कर्म योग्य रजकणो का स्वयं स्वत आना सो द्रव्यास्रव है । पुण्य-पाप दोनो आस्रव और बन्ध के भेद है । परमार्थ से पुण्य पाप (शुभाशुभ भाव ) आत्मा को अहित कर है । द्रव्य - पुण्य-पाप तो पर वस्तु हैं, वे कही आत्मा का हित-अहित नही कर सकते। ऐसा यथार्थ निर्णय प्रत्येक ज्ञानी जीव को होता है। और इस प्रकार विचार करके ज्ञानी जीव स्वद्रव्य के अवलम्बन के बल से जितने अश मे आस्रव भाव को दूर करता है उतने अग मे उसे वीतरागता की वृद्धि होती है— उसे "आस्रव भावना" कहते हैं ॥७॥
५.
मंवर भावना
पाचो इन्द्रिन के तज फैल, चित्त निरोध लाग शिवर्गल । तुझ मे देरी तू कर शैल, रहो कहा हो कोलू बैल ॥८॥
अर्थ - जीव । तू पाँचो इन्द्रियो के विषयो को रोककर, चित्त निरोध करके (सकल्प-विकल्प रूप मिथ्याभावो का परिहार करके) मोक्षमार्ग मे लग जाना । तू अपने को जड पत्थर सदृश कर अपने पुरुषार्थ मे देरी क्यो कर रहा है ? व्यर्थ ही कोल्हू के बैल की भान्ति क्यों भटक रहा है।
भावार्थ - आस्रव का रोकना वह सवर है । सम्यग्दर्शनादि द्वारा मिथ्यात्वादि आस्रव रुकते है । शुभोपयोग और अशुभोपयोग दोनो बन्ध के कारण हैं - ऐसा ज्ञानी जीव पहले से ही जानता है । यद्यपि साधक को निचली भूमिका मे शुद्धता के साथ अल्प शुभाशुभ भाव होते है किन्तु वह दोनो को बन्ध का कारण मानता है । इसलिये ज्ञानी जीव स्वद्रव्य के आलम्बन द्वारा जितने अश मे शुद्धता करता हैं उतने अश मे उमे सवर होता है और वह क्रमश. शुद्धता मे वृद्धि करके पूर्ण शुद्धता प्राप्त करता है । वह "सवर भावना" है || ८ ||