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मोटर गाडी, धन, मकान, बाग, पुत्र-पुत्री, स्त्री आदि अपने साथ कैसे एकमेक हो सकते है ? इस प्रकार सर्व पर पदार्थों को अपने से भिन्न जानकर, स्व सन्मुखता पूर्वक ज्ञानी जीव वीतरागता की वृद्धि करता है, वह "अन्यत्व भावना" है ||५||
६. अशुचि भावना
हाड़ मांस तन लिपटी चाम, रुधिर मूत्र मल पूरित धाम । सो भी पिर न रहे क्षय होय, याको तजे मिले शिव लोय ॥ ६ ॥
अर्थ - हे जीव ! हाड-मास से भरा हुआ यह शरीर ऊपर से चमड़ी से मढा हुआ है, अन्दर तो रुधिर मल-मूत्रादि से भरा हुआ धाम है । ऐसा होने पर भी वह स्थिर तो रहता ही नही, निश्चयकर क्षय को प्राप्त हो जाता है । देह से एकत्व - ममत्व हटते ही जीव को मोक्षमार्ग और मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है ।
भावार्थ -- शरीर को मलिन बतलाने का आशय - भेद ज्ञान द्वारा शरीर से स्वरूप का ज्ञान कराके, अविनाशीनिज पद मे रुचि कराना है, किन्तु शरीर के प्रति द्वेषभाव उत्पन्न कराने का आशय नही है । शरीर तो उसके अपने स्वभाव से ही अशुचिमय है और यह भगवान् आत्मा निज स्वभाव से ही शुद्ध एव सदा शुचिमय पवित्र चैतन्य पदार्थ है । इसलिये ज्ञानी जीय अपने शुद्ध आत्मा की सन्मुखता द्वारा अपनी पर्याय में पवित्रता का वृद्धि करता है वह "अशुचिभावना" है ॥६॥
७. आस्रव भावना
हित अनहित तन कुल जन माहि, खोटी बान हरो क्यों नाहि । याते पुद्गल फर्म नियोग, प्रणवे दायक सुख दुख रोग ॥७॥ अर्थ - हे जीव । शरीर, कुटुम्बी जन इत्यादि मे हित अनहितरूप
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मिथ्या प्रवृत्ति को तू क्यो नही छोडता । इस मिथ्या प्रवृत्ति से तो पुद्गल कर्मो का आस्रव बन्ध होता है, जो कि साता असतारूप सुखदुख रोग को देने वाला होकर परिणमता है ।
भावार्थ - विकारी शुभाशुभ भावरूप जो अरुपी दशा जीव मे