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( ६२ ) तीर्थ-मन्दिरे देव नहिं, यह श्रुत केवलि वान । तन-मन्दिर मे देव जिन, निश्चिय करके जान ॥४२॥ तन-मन्दिर मे देव जिन, जन, मन्दिर देखन्त । हँसी आय यह देख कर, प्रभु भिक्षार्थ भ्रमन्त ॥४३॥ नही देव मन्दिर बसत, देव न मूत्रि-चित्र । तन मन्दिर मे देव जिन, समझ होय समचित ॥४४॥ तीर्थ मन्दिर मे सभी, लोग कहे है देव । विरले ज्ञानी जानते, तन मन्दिर मे देव ।।४।। जरा मरण भय हरण हित, करो धर्म गुणवान । अजरामर पद प्राप्ति हित, कर धोषधि पान ।।४६।। शास्त्र पढे, मठ मे रहे, शिर के लुंचे केश । घरे वेश मुनिजनन का, धर्म न पाये लेश ॥४७।। राग-द्वेष दोऊ त्याग के, निज मे करे निवास । जिनवर भाषित धर्म यह पचम गति मे वास ।।४८।। मन न घटे आयु घटे, घटे न इच्छा-भार । नहि आतम हित कामना, यो भ्रमता ससार ॥४६॥ ज्यो रमता मन विषय मे, त्यो जो आतम लीन । मिले शीघ्र निर्वाण-पद, धरे न देह नवीन ॥५०॥ नर्कवास सम जर्जरित, जानो मलिन शरीर । करि शुद्धात्म भावना, शीघ्र लहो भवतीर ॥५१॥ जग के धधे मे फंसे करे न आतम ज्ञान । जिसके कारण जीव वे, पात नही निर्वाण ॥५२॥ शास्त्र पाठि भी मूढ सम, जो निज तत्त्व अजान । इस कारण इस जीव को, मिलें नही निर्वाण ॥५३॥ मन इन्द्रिय से दूर हट, क्यो पूछत बहु बात ।। राग प्रसार निवार कर, सहज स्वरूप उत्पाद ॥५४॥