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जो शुद्धातम अनुभवे, व्रत-सयम सयुक्त । जिनवर भाषे जीव वह, शीघ्र होय शिवयुक्त ॥३०॥ जब तक एक न जानता, परम पुनीत सुभाव । व्रत-तप-सयम-शील सब, निष्फल जानो दाव ॥३१॥ स्वर्ग प्राप्ति हो पुण्य से, पापे नरक निवास । दोऊ तजि जाने आत्म को, पावे सो शिव वास ॥३२॥ व्रत-तप-सयम-शील सव, ये केवल व्यवहार । जीव एक शिव हेतु है, तीन लोक का सार ॥३३॥ आत्म भाव से आत्म को, जाने-तज परभाव । जिनवर भाषे जीव वह, अविचल शिवपुर जाव ॥३४॥ जिन भाषित षट् द्रव्य जो, पदार्थ नव अरु तत्त्व । कहा इसे व्यवहार से, जानो करि प्रयत्न ॥३५॥ शेष अचेतन सर्व हैं, जीव सचेतन सार । मुनिवर जिनको जानके, शीघ्र हुवे भवपार ॥३६॥ शुद्धातम यदि अनुभवो, तजकर सब व्यवहार । जिन परमातम यह कहे, शीघ्र होय भवपार ॥३७॥ जीव-अजीव के भेद का, ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान । हे योगी । योगी कहे, मोक्ष हेतु यह जान ॥३८॥ योगी कहे रे जीव तू, जो चाहे शिव लाभ । केवलज्ञान स्वरूपी यह, आत्म तत्त्व को जान ॥३६॥ को समता किसकी करे, सेवे पूजे कौन ? किसकी स्पर्शास्पर्शता ठगे कोई को कौन ? को मैत्री किसकी करे, किसके साथ ही क्लेश । जहँ देखू सब जीव तह, शुद्ध बुद्ध ज्ञानेश ।।४०॥ सद्गुरु वचन प्रसाद से, जाने न आतमदेव । भ्रमे कुतीर्थ तब तलक, करे कपट के खेल ॥४१॥