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( ६३ ) जीव-पुद्गल दोऊ भिन्न है, भिन्न सकल व्यवहार । तज पुद्गल, ग्रह जीव तो, शीघ्र लहे भवपार ॥५५॥ स्पष्ट न माने जीव को, अरु नहिं जानत जीव । छूटे नही ससार से, भाषे जिन जी अतीव ॥५६।। रत्न-हेम-रवि-दूध-दधि, घी-पत्थर अरु दीप। स्फटिक-रजत और अग्नि नव, त्यो जानो यह जीव ।।५।। देहादिक को पर गिने, ज्यो शून्य आकाश । लहे शीघ्र परब्रह्म को केवल करे प्रकाश ॥५८।। जैसे शुद्ध आकाश है, वैसे ही शुद्ध जीव । जड रूप जानो व्योम को, चेतन लक्षण जीव ॥५६॥ ध्यान धरे अभ्यन्तरे, देखत जो अशरीर । मिटे जन्म लज्जा जनक, पिये न जननी क्षीर ॥६०॥ तन विरहित चैतन्य तन, पुद्गल तन जड जान । मिथ्या-मोह विनाश के, तन भी निज मत मान ।।६१।। निजको निज से जानकर, क्या फल प्राप्ति न पाय ? प्रकटत केवल ज्ञान औ, शाश्वत सौख्य लहाय ॥६॥ यदि परभाव तजि मुनि, जाने आपसे आप। केकल ज्ञान स्वरूप लहि, नाश करे भवताप ॥६३॥ धन्य अहो । भगवन्त बुध, जो त्यागे परभाव । लोकालोक प्रकाश कर, जाने विमल स्वभाव ॥६४॥ मुनिजन या कोई गृही, जो रहे आतम लीन । शीघ्र सिद्धि सुख को लहे, कहते यह प्रभु जिन ॥६५॥ बिरला जाने तत्त्व को, श्रवण करे अरु कोई। बिरला ध्यावे तत्त्व को, बिरला धारे कोई ॥६६॥ गृह-परिवार मम हैं नही, हैं सुख दुख की खान । यो ज्ञानी चिन्तन करि, शीघ्र करें भव हानि ॥६७॥