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उनकी तरह इन्द्र द्वारा पूजा की प्रतीक्षा करूँगा, मैं भी अपने दादा की तरह तीर्थंकर होऊँगा। (भावी तीर्थकर होने वाले द्रव्य मे तीर्थकरत्व की लहरें जगी |)
एक बार भगवान ऋषभदेव की सभा मे भरत ने पूछा : प्रभो । क्या इस सभा मे से भी कोई आपके जैसा तीर्थंकर होगा ? तब भगवान ने कहा-हाँ, यह तेरा पुत्र मरीचीकुमार इस भरतक्षेत्र मे अन्तिम तीर्थंकर (महावीर) होगा। प्रभु की ध्वनि मे अपने तीर्थकरत्व की बात सुनते ही मरीची को अतीव आत्मगौरव हुआ। फिर भी अब तक उसने धर्म की प्राप्ति नही की थी। अरे । तीर्थंकर देव का दिव्यध्वनि सुन करके भी उसने सम्यक् धर्म को ग्रहण नही किया। मात्मभान के बिना वह जीव ससार के अनेक भवो मे रुला।
महावीर का यह जीव, मरीची का अवतार पूर्ण करके ब्रह्म-स्वर्ग का देव हुआ। इसके बाद मनुष्य व देव के अनेक भव मे भी मिथ्यामार्ग का सेवन करता रहा; अन्त मे मिथ्यामार्ग के सेवन के कुफल से समस्त अधोगति मे जन्म धार-धार के बस स्थावर पर्यायो मे असख्यात वो तक तीव्र दुख भोगा। ऐसे परिभ्रमण करते-करते वह आत्मा अतीव कथित व खेदखिन्न हुआ।।
अन्त मे असख्यात भवो मे घूम घूम के वह जीव राजगही मे एक ब्राह्मण का पुत्र हुआ। वह वेद वेदान्त मे पारगत होने पर भी सम्यरदर्शन से रहित था इसलिये उसका ज्ञान व तप सब व्यर्थ था। मिथ्यात्व के सेवनपूर्वक वहा से मर करके देव हुआ, वहाँ से फिर राजगही मे विश्वनन्दी नामक राजपुत्र हुआ । और वहा एक छोटे से उपवन के लिये ससार की मायाजाल देख के वह विरक्त हुआ और सभूतस्वामी के पास जैन दीक्षा ले ली। वहाँ से निदान के साथ आयु पूर्ण करके स्वर्ग मे गया, और वहां से भरतक्षेत्र के पोदनपुर नगरी मे वाहुबलोस्वामी को वश परपरा मे त्रिपृष्ठ नाम का अर्धचक्री (वासुदेव) हुआ; और तीन आरभ परिग्रह के परिणाम से अतृप्तपन