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र्थकर है से नीचे के पहले नि अनेक
से ही मरकर वहां से सातवी नरक गया। अरे । उस नरक के घोर दुखो की क्या बात ? ससार भ्रमण मे रुलते हुए जीव ने अज्ञान से कौन-कौन से दुख नही भोगे होगे ! ।
महान कष्ट से असख्यात वर्षों की यह घोर नरक यातना की वेदना पूर्ण करके वह जीव गगा किनारे सिंहगिरि के उपर सिह हुआ, फिर वहा से दधती अग्नि के समान प्रथम नरक मे गया और वहाँ से निकलकर जम्बुद्वीप के हिमवन पर्वत पर देदीप्यमान सिंह हुआ महावीर के जीवने इस सिह पर्याय मे आत्म लाभ प्राप्त किया। किस तरह वह आत्म लाभ पाया-यह प्रसग पढिये
एकबार वह सिह क रता से हिरन को फाडकर खाता था। उसी समय आकाश माग से जाते हुए दो मुनियो ने उसको देखा और 'यह जीव होनहार अन्तिम तीर्थकर है' ऐसे विदेह के तीर्थकर के वचन का स्मरण करके, दयावश आकाशमार्ग से नीचे उतर के, सिह को धर्म सम्बोधन करने लगे. अहो, भव्य मृगराज | इसके पहले त्रिपृष्ठबासु देव के भव मे तूने बहुत से वाछित विषय भोगे, एव नरक के अनेक विध घोर दुख भी अशरण रूप से आक्रन्द कर करके तूने भोगे, उस वस्त चहू आर शरण के लिए तूने पुकार की किन्तु तुझ कही भी शरण न मिला। अरे ! अब भी तूं क रतापूर्वक पाप का उपार्जन क्यो कर रहा है ? घोर अज्ञान के कारण अब तक तूने तत्वो को नही जाना
और वहुत दुख पाया । इसलिये अब तू शान्त हो और इस दुष्ट परिणाम को छोड । मुनिराज के मधुर वचन सुनते ही सिह को अपने पूर्व भवो का ज्ञान हुआ, नेत्रो से अश्रुधारा बहने लगी परिणाम विशुद्ध हुए। तब मुनिराज ने देखा कि अब इस सिंह के परिणाम शान्त हुआ है और वह मेरी ओर आतूरता से देख रहा है इसलिये अभी अवश्य वह सम्यक्त्व का ग्रहण करेगा।
ऐसा सोचकर मुनिराज ने पुरुरवा भील से लेकर के अनेक भद दिखा करके कहा कि रे शार्दूलराज । अवदशवे भव मे तूं भरतक्षेत्र