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( १६६ ) सिवाय कभी झूठ नहीं बोलते (अर्थात कदाचित किसी धर्मात्मा से कोई दोप हो गया होय उसे बचाने के लिए अपवा कोई निरपराधी फस रहा होय निकालने के लिये इन प्रसगो के सिवायवह कभी झूठ नहीं बोलते) और सत्य सिवाय कभी भी मुख नहीं खोलते
॥४॥ जल मृतिका बिन घन सव हू, विन दिये न लेवे कवह । व्याही वनिता बिन नारो, लघु बहिन बड़ी महतारी ॥५॥ मर्थ •--जिनकी मनाई नही-ऐसा पानी व मिट्टी के सिवाय दूसरी कोई भी वस्तु जो उसे दो नहीं गई हो कभी भी लेता नहीं है। अपनी विवाहिता नारी के अलावा अन्य दूसरी लधुवय स्त्रियो को बहिन समान एव अपने से बडी स्त्रियो को माता समान समझता है ॥५॥
तष्णा का जोर संकोचे, ज्यादा परिग्रह को मोचे। दिश मी मर्यादा लावै, बाहर नहिं पांव हिलावै ॥६॥ अर्थ .-वह श्रावक विषय पदार्थों के प्रति उत्पन्न होने वाली जो तष्णा उसके जोर को सकोचता है, ममता को घटाकर अधिक परिग्रह को छोड देता है, परिग्रह का प्रमाण कर लेता है। दिशाओ मे गमन करने की अथवा किसी को बुलाने, लेन-देन आदि करने की मर्यादा कर लेताहै और मर्यादा से बाहर पग भी नहीं निकालता है ॥६॥
ताह मे गिरि पुर सरिता, नित रहत पाप से डरता। सब अनरथ दड न करता, छिन छिन जिन धर्म सुमरता ॥७॥ अर्थ -पाप से डरने वाला श्रावक दिग्वत मे निश्चित की हुई मर्यादा मे भी पर्वत, नगर, नदी आदि तक गमनादि-व्यापारादि करने की मर्यादा कर लेता है तथा किसी भी प्रकार का अनर्थ दड (खोटा पाप निष्प्रयोजन हिसादि) नहीं करता एव प्रतिक्षण जिन धर्म का स्मरण करता रहता है ॥७॥