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( ३६ )
पुनि राजमाहि लहि चक्ररत्न | भोग्यो छखण्ड करि धरम जत्न पुनि तप धरि केवलरिद्धिपाय । भवि जीवनको शिवमग बताय । शिवपुर पहुचे तुम हे जिनेश । गुनमडित अतुल अनन्त भेष | मैं ध्यावतु हो नित शीश नाय । हमरी भवबाधा हरि जिनाय १० सेवक अपनो निज जान जान । करुणा करि भौभय भान-भान । यह विधन मूलतरु खण्डखण्ड | चितचिंतित आनद मड मड | ११ | धत्ता - श्रीशांति महना, शिवतियकता, सुगुन अनता, भगवता || भवभ्रमन हनता सौख्यअनता, दातार तारनवता | १२| ॐ ह्री श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
छन्द रूपक सवैया ( मात्र ३१ ) शातिनाथजिनके पदपकज जो भवि पूजै मनवचकाय । जनम जनम के पातक ताके, ततछिन तजिकै जाय पलाय ॥ मनवाछित सुख पावै सौ नर, बाचे भगतिभाव अति लाय तातै 'वृन्दावन नित बर्द, जाते शिवपुरराज कराय ॥ इत्याशीर्वाद । परिपुष्पाजिलि क्षिपेत् ।
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(१३) सम्पूर्ण अर्ज
मैं देव श्री अरहन्त पूजूं सिद्ध पूजूं चाव सो, आचार्य श्री उवज्झाय पूजूं साधु पूजूं भाव सो । अरहन्त-भासित वन पूजूं द्वादशांग रचे गनी, पूजूं दिगम्बर गुरुचरन, शिव हेतु सब आशा हनी । सर्वज्ञ - भाषित धर्म दश विधि, दया मय पूजूं सदा, जजी भावना षोडा रत्नत्रय जा बिना त्रैलोक्य के कृत्रिम अकृत्रिम, चंत्य पच मेरू नन्दीश्वर जिनालय, खचर कैलाश श्री सम्मेद श्री गिरनार चम्पापुरी पावापुरी पुनि
शिव नही कदा | चैत्यालय जजूं, सुर पूजित भजूं । गिरि पूजूं सदी, तीरथ सर्वदा ।
और