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६. भैया जो जो देखी वीतराग ने, सो सो होसी वीरा रे, विन देख्यो होसो नही क्यो ही काहे होत अघीरा रे ॥१॥ समयो अक बढे नहि घटसी, जो सुख दुख की पीरा रे, तू क्यो सोच कर मन कूडो, होय बज्र ज्यो हीरा रे ॥२॥ लग न तीर कमान बान कहू, मार सके नहिं मीरा रे, तूं सम्हारि पौरुष-बल अपनौ, सुख अनन्त तो तीरा रे ॥३॥ निश्चय ध्यान धरहु वा प्रभु, को जो टारे भव की भीरा रे, "भैया" चेत धरम निज अपनो, जो तारे भवनीरा रे ॥४॥
७ दौलतराम अरे जिया | जग घोखे की टाटी ॥टेक।। 'झूठा उद्यम लोग करत है, जिनमे निशदिन पाटी ॥१॥ जान बूझ कर अन्ध बने है, आखिन बांधी पाटी ॥२॥ 'निकल जायगे प्राण छिनक मे, पडी रहेगी माटी ॥३॥ 'दौलतराम' समझ मन अपने दिल की खोल कपाटी ॥४॥
८. धानतराय 'अव हम आतम को पहचाना जी ॥टेक। जैसा सिद्ध क्षेत्र मे राजत, तैसा घट मे जाना जी ॥१॥ देहादिक पर द्रव्य न मेरे, मेरा चेतन वाना जी ॥२॥ "द्यानत' जो जाने सो स्याना, नहिं जाने सो दिवाना जी ॥३॥
६ दौलतराम हम तो कबहु न निज घर आये। पर घर फिरत वहुत दिन बीते, नाम अनेक धराये ।।टेक।। पर पद निजपद मान मगन , पर परिणति लिपटाये । शुद्ध बुद्ध सुखकन्द मनोहर, चेतनभाव न भाये ॥१॥ नर पशु देव नरक निज जान्यो, परजय बुद्धि लहाये । अमल अखड अतुल अविनाशी, आतम गुण नहिं गाये ॥२॥