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पुण्य उदय सुख की बढ़वारा, पाप उदय दुख होत अपारा। पुण्य-पाप दोऊ ससारा, मैं सब देखन जाननहारा |राह मेतिहुँ जग तिहुँ काल अकेला, पर सजोग भया भव मेला । थितिपूरी कर खिरखिर जाहि, मेरे हर्ष शोक कछु नाहि ॥ ३॥ रागभावतें सज्जन जाने, द्वेप भावतें दुर्जन मानें। राग-द्वेष द्वोऊ मम नाहि, द्यानत मे चेतन पद माहि ॥४॥ ४. कीर्तन
हू स्वतंत्र निश्चल निष्काम, ज्ञाता दृष्टा आतम राम । मैं वह हू जो है भगवान, जो मैं हू वह है भगवान । अन्तर यही ऊपरी जान, वे विराग यहाँ राग वितान ॥१॥ मम स्वरूप है सिद्ध समान, अमित शक्ति सुख ज्ञान निधान । किन्तु आश वश खोया ज्ञान, बना भिकारी निपट अजान ||२|| सुख दुख दाता कोई न आन, मोह राग रूष दुख की खान । निजको निज पर को पर जान, फिर दुख का नहीं लेश निदान | ३| जिन शिव ईश्वर ब्रह्मा राम, विष्णु बुद्ध हरि जिसके नाम । राग त्याग पहुँचूँ निजधाम, आकुलता का फिर क्या काम ||४|| होता स्वय जगत परिणाम, मैं जगका करता क्या काम । दूर हटो परकृत परिणाम, जायकभाव लखूं अभिराम ॥५॥ ५. बुधजन हमको कछु भय ना रे, जान लियो ससार ॥टेक॥ जो निगोद मे सो ही मुझमे, सो ही मोक्ष मकार । निश्चयभेद कछू भी नाही, भेद गिने ससार ॥१॥ परवश आपा विसारि के, राग दोष को घार । जीवत मरत अनादि काल ते, यों ही है उरझार ॥२॥ जाकरि जैसे जाहि समय में, जे होता जा द्वार । सो वनि है टरि है कछु नाहि, करि लीनी निरधार ॥३॥ अगनि जरा पानी बोबे, विछुरत मिलत अपार, सो पुद्गल रूपी में बुधजन सबको जानन हार ॥४॥