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( ४६ ) अपने मे इष्ट-अनिष्टपना मानना, शरीर की उष्ण या ठडी अवस्था होने पर मुझे बुखार आया, शरीर मे भूख प्यास काली-गोरी आदि अवस्थायें होने पर अपनी आत्मा की अवस्था मानना यह अगृहीत मिथ्यादर्शन के कारण अजीवतत्व सम्बन्धी जीवत्व का उल्टा श्रद्धान है।
प्रश्न २५--भाव आश्रव क्या है ?
उत्तर-शुभाशुभ विकारी भावो का उत्पन्न होना यह भावआस्रव है।
प्रश्न २६-अगृहीत मिथ्यादर्शन के कारण अज्ञानी जीव आत्रव तत्व के विषय मे क्या मानता है ?
उत्तर-"रागादि प्रगट के दुःख दैन, तिन ही सेवत गिनत चैन"। मिथ्यात्व, राग-द्ध ष रूप शुभाशुभ भाव आस्रव हैं। ये भाव आत्मा को प्रगट रूप से दु ख के देने बाले है। परन्तु अगृहीत मिथ्यादर्शन के कारण इन शुभाशुभ भावो को हितरूप जानकर निरन्तर उनका सेवन करना-यह मानवतत्व सम्बन्धी जीव तत्व का उल्टा श्रद्धान है।
प्रश्न २७-भाव वन्ध क्या है ?
उत्तर-आत्मा का अज्ञान, राग-द्वप, पुण्य-पाप रूप विभावो मे रुक जाना—यह भाववध है।
प्रश्न २८-अगृहीत मिथ्यावर्शन के कारण अज्ञानी जीव बंधतत्व के विषय मे क्या मानता है ?
उत्तर- "शुभु अशुभ बध के फल मझार, रति अरति कर निज पद विसार" । जैसे सोने की बेडी वैसे ही लोहे की वेडी दोनो वधन करता है। परन्तु अगृहीत मिथ्यादर्शन के कारण अपने आप का पता ना होने से पुण्य के फल मे राग और पाप के फल मे द्वष करता है। तत्वदृटि से पुण्य-पाप दोनो अहिन कर ही है । परन्तु पुण्य को अच्छा
और पाप को बुरा मानना--यहाँबध तत्व सम्बन्धी जीवतत्व का उल्टा “श्रद्धान है।
प्रश्न २६-नास्ति और अस्ति से भाव संवर क्या है ?