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प्रश्न २१--जीव स्वरूप क्या है और क्या नहीं है ?
उत्तर-"चेतन को है उपयोगरूप, विनमूरत चिन्मूरत अनूप । यूद्गल नभ धर्म-अधर्म काल, इनते न्यारी है जीव चाल" (१) मैं ज्ञान दर्शन उपयोगीमयी जीवतत्व हूँ; (२) मेरा कार्य ज्ञाता-दृष्टा है, (३)आँख-नाक-कान औदारिक आदि शरीरो रूप मेरी मूर्ति नहीं है, (४) चैतन्य अरूपी असल्यात प्रदेशी मेरा एक आकार है, (५) सर्वज्ञ स्वभावी ज्ञानपदार्थ होने से मेरी आत्मा अनुपम है। (६) मुझ निज
आत्मा के अलावा अनन्तजीव, अन्नतानन्त पुद्गल, धर्म-अधर्म-आकाश एक-एक और लोक प्रमाण असत्यात काल द्रव्यो से मेरे जीवतत्व का स्वरूप पृथक् है क्योकि मेरा द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव पृथक् है और इन सबका द्रव्य क्षेत्र-काल-भाव पृथक है।
प्रश्न २२-अग्रहीत मिथ्यावर्शन के कारण अज्ञानी जीव जीवतत्व के विषय में क्या मानता है ?
उत्तर-"मैं सुखी दुखी मैं रक राव, मेरे धन ग्रह गोधन प्रभाव, मेरे सुत तिय मैं सवल दीन, वेरूप सुभग मूरख प्रवीण" || शरीर है सो मैं ही हूँ, शरीर का कार्य में कर सकता हू, शरीर का हलन चलन मुझ से होता है। शरीर निरोग हो मुझे लाभ हो, वाद्य 'अनुकूल सयोगो से मैं सुखी और वाह्य प्रतिकूल सयोगो से मैं दुखी, मैं निर्धन, मै धनवान, मैं बलवान, मैं निर्बल, मैं मनुष्य, मैं कुरूप, मै सन्दर, शरीर आश्रित क्रियामो मे अपनापना मानना-यह अगृहीत मिथ्यादर्शन के कारण जीवतत्व का उलटा श्रद्धान है।
प्रश्न २३-अजीव तत्त्व क्या है ? उत्तर-जिसमे मेरा ज्ञान-दशन नही है वह अजीव तत्व है।
प्रश्न २४- अगहीत मिथ्यादर्शन के कारण अज्ञानी जीव अजीवतत्व के विषय मे क्या मानता है ?
उत्तर-"तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान" । शरीर उत्पन्न होने से मेरा जन्म हआ, शरीर का नाश होने से मैं मर जाऊँगा, धन शरीर इत्यादि जड पदार्थों में परिवर्तन होने से