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आवृत्त अन्तर-ज्योति हो, वाह्य विपय मे तुष्ट । जागृत जग-कौतुक तजे, अन्दर से सतुष्ट ॥६०॥ काया को होती नही, सुख दुख की अनुभूति । पोपण शोषन यत्न पर, करते व्यर्थ कुबुद्धि ॥६॥ है मेरे तन वचन मन, यही बुद्धि सस र । इसके भेद अभ्यास से, होते भव-जल पार ॥६२॥ मोटा कपडा पहन कर, माने नहिं तन स्थूल । त्यो वुध तन की पुष्टि से, गिने न आत्मा स्थूल ॥६३।। वस्त्र जीर्ण से जीर्ण तन, माने नहि बुधिवान । त्यो न जीर्ण तन से गिर्ने, जीर्ण आत्म मतिमान ।।६४॥ रक्त वस्त्र से नहि गिने, बुध जन तनको लाल । त्यो वुध तन हो रक्त रग, गिनेन चेतन लाल ॥६॥ वस्त्र फटे माने नही, ज्ञानी तन का नाश । त्यो काया के नाश से, बुध नहि गिने विनाश ॥६६॥ स्पदित जब लगता जिसे, विन चेष्टा बिनभोग । ज्ञान-रहित निष्क्रिय सदा, उसे शान्ति का योग ।।६७।। तन-कचुकि-आवृत है, चेतन ज्ञान-शरीर । यह रहस्य जाने बिना, चिर पाता भवपीर ॥६॥ अणु के योग-वियोग मे, देह समानाकार। दिखती अज्ञ गिने अत , आत्मा देहाकार ॥६६॥ श्वेत स्थूल कृश जानिये पुदगल तन के रुप । आत्मा निश्चय नित्य है, केवल ज्ञान स्वरूप ॥७०॥ निज निश्चल-धृति चित्त मे, उसे मुक्ति का योग। जिसे न निश्चय धारण, शाश्वत मुक्ति-वियोग ॥७१॥ लोक सग से बच-प्रवृति, बच से चचल चित्त । फिर विकल्प फिर क्षुब्ध मन, मुनि जन करे निवृत्ति ॥७२॥ जन अनात्म- दी करे, ग्राम अरण्य निवास । आत्म दृष्टि करते सदा, निज का निज मे वास ॥७३॥