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१. बनित्य भावना आयु घटे तेरी दिन-रात, हो निश्चिन्त रहो क्यो भ्रात। यौवन तन धन किंकर नारि, है सब जल बुदबुद उनहारि ॥१॥
अर्थ-हे भाई | तेरी आयु दिन रात घटती ही जा रही है फिर भी तू निश्चत कैसे हो रहा है ? यह यौवन, शरीर, लक्ष्मी, सेवक, स्त्री आदि सभी पानी के बुलबुले समान क्षण भगुर हैं।
भावार्थ-यौवन, मकान, गाय-भैस, धन-सम्पत्ति, स्त्री-पुत्र, घोडा-हाथी, कुटुम्बीजन, नौकर-चाकर तथा पांच इन्द्रियो के विषय यह सर्व क्षणिक वस्तुयें हैं-- अनित्य है । जिस प्रकार इन्द्र धनुष और विजली देखते-देखते ही विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार यह यौवनादि कुछ ही काल मे नाश को प्राप्त होते हैं, किन्तु एक निज शुद्धात्मा ही नित्य और स्थायी है। ऐसा स्वोन्मुखता पूर्वक चिन्तवन करके ज्ञानी जीव वीतरागता की वृद्धि करता है वह 'अनित्य भावना" है।
२. अशरण भावना पूरण आयु बढे छिन नाहि, दिये झोटि धन तीरथ मांहि । इन्द्र चक्रपति हू क्या करै, मायु अन्त पर वे हू मेरे ॥२॥
अर्थ-हे भाई । आयु समाप्त होने पर एक क्षण भी बढती नही, भले करोडो रुपया धनादि तीर्थों पर दान करो। इन्द्र चक्रवर्ती भी क्या करे ? आयु पूर्ण होने पर वे भी मरते हैं।
भावार्थ-ससार मे जो-जो देवेन्द्र, असुरेन्द्र आदि हैं उन सबका जिस प्रकार हिरन को सिह मार डालता है। उसी प्रकार मत्यु नाश करता है। चिन्तामणि आदि मणि, मन्त्र-तन्त्र-जन्त्रादि कोई भी मृत्यु से नही बचा सकता। यहां ऐसा समझना कि निज आत्मा ही शरण है, उसके अतिरिक्त अन्य कोई शरण नही है। कोई जीव अन्य जीव की रक्षा कर सकने में समर्थ नहीं है, इसलिये पर से रक्षा की आशा करना व्यर्थ है। सर्वत्र-सदैव एक निज आत्मा ही अपना शरण है ।