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(१९) सर्वज्ञ देव कथित छहों द्रव्यों की स्वतन्त्रता दर्शक छह सामान्यगुण
कर्त्ता जगत का मानता, जो कर्म या भगवान को । वह भूलता है लोक मे, अस्तित्व गुण के ज्ञान को ॥ उत्पाद - व्यययुत वस्तु है, फिर भी सदा ध्रुवता धरे । अस्तित्वगुण के योग से, कोई नही जग में मरे ॥१॥ वस्तुत्वगुण के योग से, हो द्रव्य में स्व-स्व क्रिया । स्वाधीन गुण- पर्याय का ही, पान द्रव्यो ने किया || सामान्य और विशेषता से, कर रहे निज काम को । यो मानकर वस्तुत्वको, पाओ विमल शिवधाम को || २ || द्रव्यत्वगुण इस वस्तु को जग मे पलटता है सदा । लेकिन कभी भी द्रव्य तो, तजता न लक्षण सम्पदा ॥ स्वद्रव्य मे मोक्षाथि हो, स्वाधीन सुख लो सर्वदा । हो नाश जिससे आज तक की, दुखदाई भव कथा || ३ || सब द्रव्य-गुण प्रमेय से, बनते विषय हैं ज्ञान के रुकता न सम्यग्ज्ञान पर से, जानियो यो ध्यान से || आत्मा अरूपी ज्ञेय निज, यह ज्ञान उसको जानता । है स्व पर सत्ता विश्व मे, सुदृष्टि उनको जानता ॥४॥
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यह गुण अगुरुलघु भी सदा, रखता महत्ता है महा । गुण-द्रव्य को पर रूप यह होने न देता है अहा || निजगुण - पर्यय सर्व ही रहते सतत निज भाव मे । कर्ता न हर्ता अन्य कोई, यो लखो स्व-स्वभाव मे ||५|| प्रदेशत्व गुण की शक्ति से, आकार द्रव्य धरा करे । निज क्षेत्र मे व्यापक रहे, आकार भी पलटा करे ॥