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जब जग विषयो मे रचपच कर, गाफिल निद्रा मे सोता हो । अथवा वह शिव के निष्कटक, पथ मे विष कटक बोता हो ॥ हो अर्द्ध निशा का सन्नाटा, वन मे वनचारी चरते हो । तब शात निराकुल मानस तुम, तत्वो का चिंतन करते हो । करते तप शैल नदी तट पर, तरुतल वर्षा की झडियो मे । समता रसपान किया करते सुखदुख दोनो की घडियो मे ॥ अन्तर ज्वाला हरतो वाणी मानो झडती हो फुलझडियाँ । भवबन्धन तडतड टूट पडे, खिल जावें अंतर की कलिया || तुमसा दानी क्या कोई हो, जग को दे दी जग की निधियाँ । दिनरात लुटाया करते हो, शम-राम की अविनश्वर मणियाँ || हे निर्मल देव | तुम्हे प्रणाम, हे ज्ञानदीप आगम ! प्रणाम । हे शान्ति त्याग के मूर्तिमान, शिव-पथ पथी गुरुवर प्रणाम || ॐ ह्री देवशास्त्रगुरुभ्यो अनर्घ्य पदप्राप्यये महार्घं निर्वपामीति स्वाहा |
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(१०) श्रीदेव शास्त्र गुरु, विदेह क्षेत्र विद्यमान तीर्थकर तथा अनन्तान्त सिद्ध परमेष्ठी पूजा
दोहा - देवशास्त्र गुरु नमनकरि, बीस तीर्थंकर ध्याय । सिद्ध शुद्ध राजत सदा, नमू चित्त हुलसाय ॥ ॐ ह्री श्री देव शास्त्र गुरु समूह | श्री विद्यमान विशति तीर्थकर समूह श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठी समूह । अत्नावतरावतर सवोष्ट | अत तिष्ठ तिष्ठ ठ 이 स्थापनम् । अत्र ममसन्निहितो मन्निधीकरणम् ।
भव-भव वपटू