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(२८) अशुचि-जिमके शृङ्गागे में मेरा यह, महगा जीवन घुल जाता।
अत्यन्त अशुचि जद काया से, इस चेतन का वौसा नाता। आरव-दिनरात गुभाशुभ भावो से, मेरा व्यापार चला करता।
मानस वाणी और काया से, आत्रव का द्वार खुला रहता।। सवर-शुभ और अशुभ की ज्वाला से, पुलसा है मेरा अन्तस्तल ।
शीतल समकित किरणे फूटे, सवर मे जागे अन्तर्वल ।। निर्जरा-फिर तप की शोधक वह्निजगे, कर्मों की कडिया टूट पड़े।
मर्वाग निजात्म प्रदेशो से, अमृत के झरने फूट पड़ें। लोक-हम छोड चले यह लाक तभी, लोकान्त विराजे क्षण मे जा।
निजलोक हमारा वामा हो, शोकान्त बने फिर हमको क्या ।। वोधिदुर्लभ-जागे मम दुर्लभ बोधि प्रभु, दुनयतम सत्वर टन जावे।
वम ज्ञाता दृष्टा रह जाऊं, मद मत्सर मोहि विना जावे ॥ धर्म-चिर रक्षक धर्म हमारा हो, हो धर्म हमारा चिर साथी।
जग मे न हमारा कोई था, हम भी न रहे जग के साथो । चरणों में आया हू प्रभुवर, शीतलता मुझको मिल जावे । मुरझाई ज्ञान-लता मेरी, निज अन्तर्वल से खिल जाने॥ सोचा करता हू भोगो से, वुझ जावेगी इच्छा-ज्वाला । परिणाम निकलता है लेकिन, मानो पावक मे घी डाला। तेरे चरणो की पूजा मे, इन्द्रिय सुख की ही अभिलाषा । अब तक ना समझ ही पाया प्रभुवर | सच्चे सुखकी में परिभापा। तुम तो अविकारी हो प्रभुवर ! जग मे रहते जग से न्यारे। अतएव झको तव चरणो मे, जग के माणिक-मोती सारे ।। स्याद्वादमयी तेरी वाणी, शुभनय के झरने झरते हैं। उस पावन नीका पर लाखो, प्राणी भव वारिधि तिरते हैं । हे गुरुवर शाश्वत सुखदर्शक, यह नग्नस्वरूप तुम्हारा है। जग की नश्वरता का सच्चा, दिग्दर्शन करने वाला है।