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भारी भूल भई अव सोचो, सतगुरु रहे जगाय रे ।' यह अवसर यदि चूक गया तो, वार-वार पछतात रे ।। सत को समझो समकित धरलो, होगा जग से पार रे ॥३॥
समकित नीव नही डाली चेतन, चारित्र महल बनेगा कैसे । ज्ञान ध्यान का नहीं है गारा, मन स्थिर चित्त होगा कैसे ।।टेका स्वानुभूतिनारी नही व्याही, कुलवन्तिगुणखान शिरोमणि । सहज स्वभावी पुत्र चतुष्टय, गुण अमलान मिलेगा कैसे ॥१॥ एक भाव से कभी न देखा, अनन्त गुण परिवार अनोखा । खड-खड मे उलझ रहे हो, अखडता तो मिलेगी सैसे ॥२॥ राग की आगलगी निजघर मे, तुम देखो अपने अन्तर मे । समता जल मचित नही कीना, राग की आग बुझेगी कसे ॥३॥ मिथ्या मत का चढा जहर तो, अमृतरस छलकेगा कैसे। दुख को सुखकर मान रहे हो, हलाहल विष को पीय रहे हो ॥४॥ अनुभव रस को कभी न चाखा, एक बार अतर नही झाँका। इस कारण से मिला न अबतक, ज्ञान सुधा को पाओगे कैसे ॥५॥ करुणा निज की कभी न आई, पर की नित ही दया कराई। श्रद्धा के अकुर नही आये, चारित्र फल तो पकेगा कसे ॥६॥
३५. ज्ञानी जीव निवार भरम तम, वस्तु स्वरूप विचारत ऐसे ॥टेक!! सुत तिय बन्धु धनादि प्रकट पर, ये मुझते है भिन्न प्रदेशे। इनकी परिणति है इन आश्रित, जो इन भाव परिनवे वैसे ॥१॥ देह अचेतन चेतन मे इन, परिनति होय एक सी कैसे। पूरन गलन स्वभाव धरे तन, मैं अज अचल अमल नभजैसे ॥२॥ पर परिणमन न इष्ट अनिष्ट न, वृथा रोगरूष द्वन्द भये से। नसे ज्ञान निजफसे बन्ध मे, मुक्ति होय समभाव लये से ॥३॥ विषय चाह दवदाह नशे नहि, विन निज सुधा सिन्धु मे पैसे।