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३२.
उठ मूरख रूदन मचाया, सपने मे राजपद पाया ॥ टेक ॥ एक ईंट सिरहाने रख कर, सोय गया पृथ्वी पर पडकर । मुदे चैन से नैन स्वपन मे देखी अद्भुत माया, सपने मे ॥१॥ देखा एक शहर अति भारी, कोट किला और महल अटारी । प्रजा वहाँ की मिलकर सारी, इसको नृपत बनाया, सपने मे ॥२॥ बैठ तख्त पर हुक्म करे अब, आज्ञा माने सारे भूपत । छत्र चँवर सिर दुरे देख, तब नृप हर्पाया, सपने मे ॥३॥ वरी नार सुन्दर सुखदायी, चक्रत्रत सब सम्पत्ति पाई । भोगत भोग अनेक चैन मे, लाखो वर्ष गँवाया सपने मे ॥४॥ एक दिन राजसभा मे बैठे दे मुख ताव मूंछ को ऐठे । इतने मे कोई राहगीर ने, उसको आन जगाया, सपने मे ॥५॥ आँख खुली जब देखा जंगल, कहाँ गये वो सारे मगल । -राजपाट सब ठाट वाट पल भर मे कहा समाया, सपने मे 'हाय-हाय कर रोवन लागा, ले खुरपा मारन को भागा । -मूरख पथी तेने मेरी खोय, दई सबरी माया, सपने मे ॥७॥ ऐसे ही जानो जग सपना, पर द्रव्य को न मानो अपना । मक्खन क्यो भरमाया, सपने मे
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राजपद पाया ||८||
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३३. तर्ज-दिल लूटने वाले ...
स्वास स्वास में सुमिरन करले, करले आतम ज्ञान रे । न जाने किस स्वास मे बाबा, मिल जाये भगवान रे ॥ टेक ॥। अनादिकाल से भूला चेतन, निज स्वरूप का ज्ञान रे । जीव देह को एक गिने बस, इससे तू हैरान रे ॥ शुभ को शुद्ध मानकर प्राणी, भ्रमत चतु गति माहि रे ॥१॥ कभी नरक मे हुआ नारकी, कभी स्वर्ग मे देव रे । - कभी गया तिर्यंच गति में, कभी मनुज पर्याय रे ॥ चौरासी मे स्वांग घरे पर, किया न भेद विज्ञान रे || २ ||