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(१७३) ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञय, ध्यान-ध्याता-ध्येय, कर्ता-कर्म और क्रिया आदि भेदो का किंचित विकल्प नही रहता, शुद्ध उपयोग रुप अभेद रत्नत्रय द्वारा शुद्ध चैतन्य का ही अनुभव होने लगता है-उसे स्वरुपाचरण चारित्र चौथे गुणस्थान से प्रारम्भ होकर मुनिदशा मे अधिक उच्च होता है।
(२) तत्पश्चात शुक्ल ध्यान द्वारा चार घाति कर्मों का नाश होने पर वह जीव केवलज्ञान प्राप्त करके १८ दोष रहित श्री अरिहन्त पद प्राप्त करता है। फिर शेष चार अघाति कर्मों का भी नाश करके क्षण मात्र मे मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इस आत्मा मे अन्नत काल तक अनन्त चतुष्टय का एक सा अनुभव होता रहता है। फिर उसे पचपरावर्तन रुप ससार में नहीं भटकना पड़ता। वह कभी अवतार धारण नहीं करता। सदैव अक्षय अनन्त सुख का अनुभव करता है। अखण्डित ज्ञान-आनन्द रुप अनन्त गुणो मे निश्चल रहता है उसे भोक्ष स्वरूप कहते हैं।
(३) जो जीव मोक्ष की प्राप्ति के लिये इस रत्नत्रय को धारण करते हैं और करेंगे उन्हे अवश्य हो मोक्ष की प्राप्ति होगी। प्रत्येक ससारी जोव मिथ्यात्व, कषाय और विषयो का सेवन तो, अनाकिाल से करता आया है किन्तु उससे उसे किंचित् शान्ति प्राप्त नही हुई। शान्ति का एक मात्र कारण तो मोक्ष मार्ग है उसमे उस जोव ने कभी तत्परता पूर्वक प्रवृत्ति नही की इसलिये अब भी यदि आत्महित को इच्छा हो तो आलस्य को छोडकर, आत्मा का कर्तव्य समझकर, रोग और वृद्ध अवस्था आदि आने से पूर्व ही मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हो जाना चाहिये; क्योकि यह पुरुष पर्याय, सत्समागम आदि सुयोग वारम्बार प्राप्त नहीं होते । इसलिये उन्हे व्यर्थ न गँवाकर अवश्य ही आत्महित साध लेना चाहिये।