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(१०८ ) मान बाल तीर्थकर को देखते हो सजय व विजय नाम के दो मुनियो का सन्देह दूर हुआ, इससे प्रसन्न होकर उन्होने 'सन्मतिनाथ' नाम दिया । मगम नाम के देव ने भयकर सर्प का रूप धारण करके उस बालक की निर्भयता व वीरता की परीक्षा करके भक्ति से 'महावीर' नाम दिया। तीस वर्ष की कुमार वय मे तो उनको जाति स्मरण ज्ञान हुआ और ससार से विरक्त होकर के अगहन कृष्णा दशमी को वे स्वय दीक्षित हुए । उसको मुनिदशा मे उत्तम खीर से सबसे प्रथम आहार दान कुलपाक नगरी के कुल राजा ने दिया । उज्जैन नगरी के वन में रुद्र ने उनके ऊपर घोर उपद्रव किया, परन्तु ये वीर मुनिराज निज ध्यान से किंचित भी न डिगे सो नही डिगे । इससे नम्रीभूत हो रुद्र ने स्तुति की व अतिवीर (महाति महावीर) ऐसा नाम रक्खा । । __कौसाम्बी नगरी मे बन्धनग्रस्त सती चन्दन वाला को ये पाँच मगल नामधारक प्रभू के दर्शन होते ही उनकी वेडी के बन्धन तुर्त टूट गये और उसने परम भक्ति से प्रभू को आहारदान दिया। साढे वारह वर्ष मुनि दशा मे रह करके, वैशाख शुक्ला दशमी के दिन सम्मेदशिखर जी तीर्थ से करीब १० मील पास मे जृम्भिक गांव की ऋजुकूला सरिता के तौर पर क्षपक श्रेणी चढकर प्रभू ने केवलज्ञान प्रगट किया । वे अरहत भगवान राजगृही के विपुलाचल पर पधारे ।
६६ दिन के बाद, श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से दिव्यध्वनि द्वारा धर्मामत की वर्षा प्रारम्भ की; उसे झेलकर इन्द्र भूति गौतम आदि अनेक जीवो ने प्रतिवोध पाया। वीर नाथ की धर्म सभा मे ७०० तो केवली भगवत थे, सब मिलके १४०००मुनिगण व ३६०००अजिकार्य थी। एक लाख श्रावक व तीन लाख श्राविकाये थी असख्य देव व सख्यात तिथंच थे। तीस वर्ष तक लाखो करोडो जीवो को प्रतिवोध के वोर प्रभू पावापुरी नगरी मे पधारे। वहा के उद्यान मे योग निरोध करके विराजमान हुए, व कार्तिक वदी अमावस्या के सुप्रभात मे परम सिद्धपद को प्रगट करके सिद्धालय मे जा विराजे, उस सिद्ध प्रभु को नमस्कार हो।