________________
( २२ ) निज करण-शक्ति' जानरे तू बाह्य साधन शोध ना,
आत्मा ही तेरा करण है फिर. बात दूसरी पूछना ॥२५॥ निज आतमा निज आत्म को ही ज्ञान भाव जो देत है,
उसका ग्रहण है आत्म को यह 'सप्रदान" स्वभाव है ॥२६॥ उत्पाद-व्यय से क्षणिक है पर ध्र व की हानि नही,
सेवो सदा मामर्थ्य ऐसे 'अपादान' का आत्म मे ॥२७॥ भाव्यरूप जो ज्ञान भावो परिणमे है आत्म मे,
'अधिकरण' उनका आत्म है सुन लो अहो निज वचन मे ॥२८॥ है 'स्व अरू स्वामित्व'7 मेरा मात्र निज स्वभाव मे,
नही स्वत्व मेरा है कभी निज भात्र से को अन्य मे ॥२६॥ अनेकान्त है जयवन्त अहो । निज शक्ति को प्रकाशता,
गक्ति अनन्ती मेरी वह मुझ ज्ञान मे ही दिखावता ॥३०॥ यह ज्ञान लक्षण भाव सह भावो अनन्ते उल्लसे, ___अनुभव करूँ उनका अहो । विभाव कोई नहीं दिखे ॥३१॥ जिन मार्ग पाया मैं अहो । श्री गुरु वचन प्रसाद से,
देखा अहा निजरूप चेतन पार जो पर भाव से ॥३२॥ निज विभव को देखा अहो | श्री समयसार प्रसाद से,
निज शक्ति का वैभव अहो ! यह पार है पर भाव से ॥३३॥ ज्ञान मात्र ही एक ज्ञायक पिण्ड हू मैं आतमा,
अनन्त गम्भीरता भरी मुझ आत्म ही परमात्मा ॥३४॥ आश्चर्य अद्भूत होता है निज विभव की पहचान से,
आनन्दमय आह लाद अछले मुहूर् मुहूर ध्यान से ।।३।। अदभुत अहो | अद्भूत अहो । है विजयवन्त स्वभाव यह, "जयवन्त है मुझ गुरु देवने निज निधान बता दिया ॥३६।।