________________
( १५४ ) धाव कर असिपत्र जंग मे, शीत उष्ण तन गाले । कोई काटे करवत कर गह, पावक मे परजाले ॥ यथायोग सागर थिति भुगते, दुख को अन्त न आवे । कर्म विपाक इसी ही होवे, मानुष गति तव पावै ॥४॥
अर्थ -नरक मे असिपत्र अग पर पडते ही घाव कर देते हैं । अत्यधिक शीत एव प्रचन्ड गर्मी देह को गला देती है। कोई नारकी दूसरे नारकी को पकडकर करीत से काट डालते हैं और अग्नि मे जला देते है । आयु वन्धन वश सागरोपम की स्थिति पर्यन्त इस प्रकार के महादु खो को भोगते पार नही आता-वहाँ कर्म का विपाक ऐसा ही होता है। उसे पूर्णकर कदाचित मन्द कषाय अनुसार शुभकर्म का विपाक होने पर कोई नारकी नरक मे से निकलकर मनुष्यगति प्राप्त करता है ॥४॥
मात उदर मे रहो गॅद हो, निफसत ही विललावे। डम्भा दान्त गला विष फोटक, डाफिन से बच जावे॥ तो यौवन में भामिन के सग, निशि दिन भोग रचावे । अन्धा हो धन्धे दिन खोदे, बूढा नाड़ हिलावे ॥५॥
अर्थ –मनुष्यगति मे भी माता के गर्भ में सकुचित होकर गेन्द की तरह नव मास तक रहता है और पीछे जन्मते समय त्रास से बिल्लाता है। बालकपन मे अनेक प्रकार के रोग जहरीले फोडे चेचक दान्त गले आदि के रोग आदि से कदाचित बच जावे तो जवानी में निशदिन पत्नी के साथ भोग विलास मे ही मग्न रहता है नये-नये भोग एचाता है और व्यापार धन्धो मे अन्धा होकर जिन्दगी व्यतीत कर देता है । जब वृद्ध हो जाता है तब मस्तक आदि अग कांपने लग जाते है- इस प्रकार मूढ मोही जीव आत्मा के हित का उपाय किये बिना मनुष्य भव व्यर्थ ही गवा देता है ॥५॥
यम पकड़े तब जोर न चाले, सैन हि सैन बतावै। मन्द कषाय होय तो भाई, भवनत्रिक पद पावै ।।