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भूतज हो यदि चेतना, यत्न साध्य नहि मोक्ष । योगी को अतएव नहि, कही कष्ट उपभोग ।१००।। देह नाश के स्वप्न मे, यथा न निज का नाश । त्यो ही देह वियोग मे, सदा आत्म अविनाश ॥१०१॥ दुख सन्निधि मे नहिं टिके, अदुख भेद-विज्ञान । दृढतर भेद-विज्ञान का, अत नही अवसान ॥१०२॥ राग-द्वेष के यत्न से, हो वायू सचार । वायू है तनयत्र की, सचालन आधार ॥१०३॥ मूढ अक्षमय आत्म गिन, भोगे दुख सताप । सुधी तर्जे यह मान्यता, पावें शिवपद आप ॥१०४॥ फरे समाधी तत्र का, आत्मनिष्ठ हो ध्यान । हो परात्म बुद्धि-प्रलय, जगे शान्ति, सुख ज्ञान ॥१०५॥
(२५) इष्टोपदेश
प्रगटा सहज स्वभाव निज, किये कर्म अरिनाश । ज्ञान रूप परमात्मा को, प्रण मिले प्रकाश ॥१॥ उपादान के योग से, उपल कनक बन जाय । निज द्रव्यादि चतुष्क वश, शुद्ध आत्म पद पाय ॥२॥ आतप छाया स्थित पुरुप, के दुख-सुख की भाँति । व्रत से पाता स्वर्ग अरु, अव्रत से नर्कादि ॥३॥ जिन भावो से मुक्ति पद, कौन कठिन है स्वर्ग। वहन करे जो कोश दो, कठिन कोश क्या अर्घ ॥४॥ भोगें सुरगण स्वर्ग मे, अनुपमेय सुख भोग । निरातक चिर-काल तक, हो अनन्य उपभोग ।।५।।