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वेष देह आश्रित दिखे, आत्मा का भव देह। जिनको आग्रह वेष का, कभी न वने विदेह ।।८७ जाति देह आश्रित कहो, आत्मा का भव देह । जिनको आग्रह जाति का, सदा मुक्ति मदेह ॥१८॥ वेप जाति से मुक्ति का, आगम आग्रह-वान। नहिं पावे वह आत्म का, परम सुपद निर्माण ॥८६' बुध तन-त्याग-विराग-हित, होते भोग निवृत। मोही उन से द्वेष कर, रहते भोग प्रवृत्त ।।१०॥ दृष्टि पंगु की का करे, अन्धे मे आरोप। तथा भेद विज्ञान विन, तन मे आत्मारोप ॥१॥ पगु अध की दृष्टि का, ज्ञानी जाने भेद । त्यों तन आत्मा मे करे, ज्ञानी अन्तर छेद ॥१२॥ निद्रा अरु उन्माद को, भ्रम माने बहिरात्म। अन्तर दृष्टि को दिखे, सब जग मोहाक्रान्त ॥६॥ हो बहिरातम शास्त्र पटु, हो जाग्रत नहिं मुक्त । निद्रित हो उन्माद हो, ज्ञाता कर्म विमुक्त ।।६४॥ जिसमे बुद्धि जुड़े वही, हो श्रद्धा निष्पन्न । हो श्रद्धा जिसमे वही, होता तन्मय मन ।।६।। बुद्धि-नियोजन नहिं जहां, श्रद्धा का भी लोप । श्रद्धा विन कसे वने, चित-स्थिरता का योग ॥६६॥ जैसे । दीप-संयोग से, वाती बनती दीप । त्यो परमात्म सयोग से, हो परमात्मा जीव ॥९७il. चिदानन्द आराध्य हो, स्वय बने प्रभु आप। " बाँस रगड से बाँस मे, स्वयं प्रकट हो आग ॥९॥ भेदाभेद स्वरूप का, सतत चले अभ्यास । मिले अवाची पद स्वय, प्रत्यावर्तन नाश६६