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है निश्चित सिद्ध स्वपद मेरा, हे प्रभु कब इसको पाऊँगा। सम्यक् पूजा फल पाने को, अव निज स्वभाव मे आऊँगा । अपने स्वरूप की प्राप्ति हेतु, हे प्रभु मैंने की है पूजन । तब तक चरणो मे ध्यान रहे, जब तक न प्राप्त हो मुक्ति सदन । ॐ ह्री श्री अर्हन्त-सिद्ध-आचार्य-उपाध्यायसर्वसाधु पच परमेष्ठिभ्यो अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा।
श्री शान्तिनाथ जिन पजा
मत्तगयन्द छन्द (यमकालकार) या भवकाननमे चतुरानन, पापपनानन घेरि हमेरी । आतमजान न मान न ठान न, बान न होइ दई सट गरी । तामद भानन आपहि हो, यह छान न आन न आननटेरी । आन गही शरनागतको, अब श्रीपतजी पत राखह मेरी ॥१॥ ॐ ह्री श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्र | अन्नावतर अवतर, सवोपट् । ॐ ह्री श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्र । अत्र तिष्ठ तिष्ठ, ठ ठ । ॐ ह्री श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्र | अन्न मम सन्निहितो भव भव वपट् । [अष्टक] छन्द विभगी। अनुप्रासक । (माना ३२ जगनवजित ।) हिमगिरिगतगगा, धार अभगा, प्रासुक सगा, भरि भृगा। जरजन्म मृतगा, नाशि अघगा, पूजि पदगा मुहिगा। श्रीशान्तिजिनेश, नुतनाकेश, वृषचक्रेश चक्रेश। हनि अरिचक्रेश, हे गुनधेश, दयामृतेश मक्रेश ।१।। ॐ ह्री श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल नि स्वा वर बावनचदन, कदलीनदन धनआनदन सहित घसो। भवतापनिकन्दन, ऐरानदन, वदि अमदन, चरन वसो । श्री ।। ॐ ह्री श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चदन नि० स्वाहा । हिमकरकरि लज्जत, मलयसुसज्जत, अच्छत जज्जत भरिथारी। दुखदारिद गज्जत, सदपदसज्जत, भवभय भज्जत अतिभारी ।श्री। ॐ ह्री श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्व स्वाहा ।