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(७८) परहित अज्ञ रहे वृथा, पर उपवृति छोड । लोक तुल्य निज हित करो, निजका निजमे जोड़ ॥३२॥ गुरु उपदेशाभ्यास से, निज-पर भेद-विज्ञान । स्वसवेदन-बल करे अनुभव मुक्ति महान ॥३३॥ निजहित अभिलापी स्वय, निज हित ज्ञायक आप। निजहित प्रेरक है स्वय, भात्मा का गुरु आत्म ॥३४॥ अज्ञ न पावे विज्ञता, नही विज्ञता अज्ञ। पर तो मात्र निमित्त है, ज्यो गति मे धर्मास्ति ॥३॥ हो विक्षेप विहीन तज, भालस और प्रमाद । निर्जन मे स्वस्थित करे, योगी तत्वाभ्यास ॥३६॥ ज्यो ज्यो अनुभव मे निकट, आता उत्तम तत्व । नहिं सुलभ्य भी विषय फिर, लगे योगि को भव्य ॥३७॥ जब सुलभ्य भी विषय नहिं लगे योगि को भव्य । आता अनुभव मे निकट, त्यो त्यो उत्तम तत्व ॥३॥ इन्द्रजाल सम जग दिखे, करे आत्म-अभिलाष । अन्य विकल्पो मे करे, योगी पश्चाताप ॥३९॥ योगी निर्जन बन बसे, चहे सदा एकान्त । यदि प्रसग-वश कुछ कहे, विस्मृत हो उपरान्त ॥४०॥ भाषण अवलोकन गमन, करते दिखें मुनेश । किन्तु अकर्ता ही रहे, लक्ष्य स्वरूप विशेष ।।४१॥ कैसा? किसका ?क्यो ? कहाँ ? प्रभृति विकल्प विहीन । तन को भी नहिं जानते, योगी अतीन ॥४२॥ जहाँ वास करने लगे, रमे उसी मे चित्त । जहाँ चित्त रमने लगे, हटे नही फिर प्रीत ।। ४३॥