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है । व्यर्थ मे अनादि से पर पदार्थों को इष्ट अनिष्ट मानने के कारण चारो गति का पात्र बनकर निगोद मे चला जाता है । इसलिए इष्ट अनिष्ट रहित अपना ज्ञायक एकरूप भगवान आत्मा है उसका आश्रय लेवे तो मोक्ष का पथिक बन जाता है और अनादि की इष्ट अनिष्ट की खोटी मान्यता का नाश हो जाता है ।
(४) अज्ञानी अनादिकाल से हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि अशुभ भाव हेय मानता है । अणुव्रत महाव्रत, दया दान पूजा, प्रतिष्ठा यात्रा आदि के शुभ भावो को उपादेय मानता है यह महान अनर्थ मिथ्यात्व का महान पान है। क्योकि भगवान ने शुभभावो को बघ का कारण, दुख का कारण, आत्मा का नाश करने वाला, अपवित्र, जड-स्वभावी बताया है और भगवान आत्मा को अबन्धरूप, सुखरूप, आत्मा को प्रगट करने वाला, पवित्र, चेतन स्वभावी उपादेय ही बताया है। ऐसा जानकर शुभाशुभ भाव रहित अपने भगवान आत्मा का आश्रय लेवे तो पर्याय मे सुख और ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है । उसकी गिनती पचपरमेष्टियों मे होने लगती है। मिय्यात्वादि पाँच कारणो का तथा पच परावर्तनरूप ससार का अभाव हो जाता है, ओर अनादिअनन्त परम पारिणामिक भाव का महत्व आ जाता है ।
(५) धर्म का सम्बन्ध बाहरी क्रियाओ से तथा शुभाशुभ भावो से सर्वथा नही है । मात्र आत्मा के धर्म का सम्बन्ध अपने अनन्त गुणो के अभेद पिण्ड से ही है । पात्र जीव उस अभेद पिण्ड भगवान का आश्रय लेकर शुद्धोपयोग दशा मे प्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति चौथे गुणस्थान मे करता है तब उसे भगवान की दिव्यध्वनि का रहस्य समझ मे आता है। चौथे गुणस्थान मे उसे सिद्ध अरहत, श्रेणी, मुनि श्रावकपना क्या है, उसका पता चलता है । तथा मिथ्यादृष्टि एक मात्र मिथ्यात्व के कारण ही दुखो है । ससार के प्रत्येक द्रव्य की अवस्था जैसी केवली के ज्ञान में आती है वैसा ही साधक ज्ञानी चौथे गुणस्थान मे जानता है, मात्र प्रत्यक्ष-परोक्ष का