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( ११४ ) ढाई सौ का नाम सुनत लालच की झोली खोली है, विप्र बनाने लगा रसोई तव वेश्या यो बोली है।
क्यो करते हो कण्ट हाय करि मैं हि रसोई वनादूंगी, "मैं हो जाउँ पवित्र आज रुपये पांच सौ चढादूंगी ॥११॥ ज्ञान नैन फूटे उर के तृष्णा अधियारी छाई है, करि लीनी स्वीकार रसोई वेश्या ने बनवाई है। खाने को बैठा ब्राह्मण वेश्या ने परसी थाली है, भरि करि एक हजार रुपये की थैली आगे डाली है ॥१२॥ बोली वेश्या हाथ जोडिकरि एक वचन दे देना जी, मेरे कर से एक ग्रास अपने मुंह मे ले लेना जी। कौन पाप का बाप आपको जब ये सबक पढाऊँगी, तव हजार की थैली में चरणो में भेटि चढाउँगो ।।१३॥ देखि थैलिया ब्राह्मण की हो गई भ्रष्ट मति मैली है, कौन देखता है मुझको ले जाऊँ घर को थैली है। ग्रास उठाया वैश्या ने तब पडित जी मुंह वाया है, दे टुकडा वेश्या ने मुंह पे चाटा एक जमाया है ।।१४॥ बोला विप्र अरो बैगा मेरे थप्पड क्यो मारा है, लोभ पाप का बाप पढी ये ही तो सबक तुम्हारा है । धन के लालच में फैसिकरि खाया ते रडी का टुकडा, यही पाप का बाप 'लोभ' जो देता दुनियाँ को दुखडा ॥१५॥ भैय्या लज्जित होय विप्र निज आपे को धिक्कारे है, हाय हाय यह लोभ पाप का बाप नक मे डारे है ॥
(३५) साधु ने दुनिया को झूठा दिखला दिया
(पं० मक्खनलाल) एक पुरुप के सात पुत्र थे छ कुछ नहीं कमाते थे, एक पुत्र धन लाता था तो सब घर वाले खाते थे।