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बौद्ध तथा जैनधर्म
[ धम्मपद और उत्तराध्ययनसूत्र के परिप्रक्ष्य मे तुलना मक अध्ययन ]
डा महेन्द्रनाथ सिंह
एम ए पी एच डी प्राचीन भारतीय इतिहास सस्कृति एव पुरातत्व विभाग
उदयप्रताप स्नातकोत्तर महाविद्यालय वाराणसी
विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी
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BAUDDHA TATHA JAIN DHARMA BUDDHISM AND JAINISM A Comparative Study of
Dhammapada and Uttaradhyayan Sutra
by
Dr M N Singh
1990
ISBN 81 7124 036 4
The publicat on of th s book w financ ally support d by the Indian Cou cıl f H stor cal Research Delhi and the respo s blity for th fts st ted pions pessed o
n cl s ons rea hed ntirely that of the uthor d the I dan ( ouncil of H storical Researh h no
respons bl ty
प्रथम सस्करण १९९ ई
मल्य ११ रुपये
STU विश्वविद्यालय प्रकाशन चौक वाराणसी
मुद्रक शीला प्रिण्टस लहरतारा वाराणसी
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पूज्य माता पिता
श्रीचरणो मे
सादर
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प्राक्कथन
सभ्यता के इतिहास म धर्म का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रहा ह । इहलोक और परलोक दोनों से सम्बन्धित जीवन के प्राय सभी कायकलाप धर्म से प्रभावित होत रहे है । लोकतात्रिक भावना विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने अवश्य इसके प्रभाव म कमी की है लेकिन आज भी बहुत से देशो म धम का यापक प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। हमारे देश म भी जीवन के प्राय सभी क्षत्र धम से प्रभावित हुए है। सभी धम जीवन के परम उद्दश्य की प्राप्ति पर बल देते है और उसोको दष्टिगत रखकर समाज के सघटन और उसके वाय क्षत्र का निर्धारण करते हैं। भारत म प्राचीन ब्राह्मण घम के दाशनिक और आचार-सम्बधी विचारो ने भारतीय जीवन को जो विशिष्टता प्रदान की वह तिहास का क अ य त महत्त्वपूर्ण तथ्य ह । आध्यात्मिक मायताओ सामा जिक तथा राजनी तक सिद्धा तो और सास्कृतिक जीवन पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा ह । इसके साथ ही उखनीय ह कि काल और परिस्थितियाँ जिनम धर्मों का जम होता ह सदा अपरिवतनीय नही रहती। इसी कारण बदलते हुए परिवश म आवश्यक परिवतन लान के लिए सामाजिक और धार्मिक आ दालनो की आवश्यकता पडती ह । परतु कट्टरपथी धम के मल सिद्धातो को सावकालिक मानकर उनका विरोध करने म नही चकत जिसके कारण कुछ देशो को क्राति का माग ग्रहण करना पड़ा।
प्राय सभी धर्मों म जगत के स्रष्टा के रूप म ईश्वर के अस्तित्व और मोक्ष प्राप्ति के साधनो का विधान है । प्राचीन ब्राह्मण धम म पुनज म कमवाद यज्ञ कमकाड
और वण यवस्था आदि का काफी महत्त्व है । परन्तु ई पू छठी शताब्दी तक आते-आत वण यवस्था सामाजिक असमानता का कमकाड एव यज्ञ हिंसा और अनावश्यक धामिक कृत्यो का और ईश्वरवाद एक बाह्यशक्ति पर निभरता का द्योतक बन चका था । इन परिस्थितियो म जनघम और बौद्धधम ने प्राचीन धार्मिक मुख्यधारा से बहुत सी बातो म अपनी अलग पहचान बनाकर नय मागदशन की आवश्यकता पर जोर दिया । विभिन्नताओ के बावजद दोनो म दुख की सव यापकता उसका कारण उसके निरोध का माग और जीवन का परम उद्देश्य ~मोक्ष अथवा निर्वाण-एसे विषयों पर प्रतिपादित उनके सिद्धातो म काफी समानता है । जाति-पाति ईश्वरवाद याज्ञिकी हिंसा और कमका का विरोध तथा आन्तरिक शुद्धि एव सदाचार पर जोर धार्मिक क्षेत्र में वस्तुत क्रान्तिकारी विचार थ । सामाजिक असमानता पर प्रहार और अनीश्वर वादी दर्शन के आधार पर मनुष्य का अपने भाग्य का स्वय विधाता का सिद्धात
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चनौतीपूर्ण विचार थे । यद्यपि कालान्तर में बौद्धधम इस देश से लप्त हो गया और जनम भी कुछ क्षत्रो तक सकुचित रह गया उनके सिद्धात निस्सदेह सार्वकालिक महत्त्व के हैं। सत्य अहिंसा अपरिग्रह सदाचार और समानता की भावना की प्रासंगिकता असदिग्ध ह ।
डॉ महद्रनाथ सिंह द्वारा लिखित पुस्तक बौद्ध तथा जनधर्म दोनो का एक तुलनात्मक अध्ययन ह । कहने की आवश्यकता नही कि इन धर्मों का अध्ययन अनेक विद्वानो ने किया है और इन पर एक विशाल साहित्य उपलध है । परन्तु लेखक मुख्यत अपने को धम्मपद और उत्तराध्ययन सूत्र पर केंद्रित कर दोनो धर्मों के मल सिद्धान्तो का गहराई से अध्ययन किया है । इन ग्रथो से पर्याप्त उद्धरण देकर और अन्य स्रोत सामग्री का यथोचित उपयोग कर डा सिंह न पुस्तक को विश्वसनीय और उपयोगी बनाया है। दोनो धर्मों के दार्शनिक सिद्धा तो ओो उनकी आचार सहिताओ की विवेचना बड ही सन्तुलित ढंग से की गयी है । प्राय सभी अध्यायो म उनको समानताओ और असमानताओ को दर्शाया गया है । कम घम अर्हत निर्वाण पाप-पुण्य भावना या अनुप्रक्षा आदि विषयों का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया ह । हम आशा है कि यह पुस्तक भारतीय धर्मों के अध्ययन में विशेष रुचि लेनेवाले और सामा य पाठक दोनो के लिए पयोगी होगी ।
वाराणसी
२ अगस्त १९८९
- हीरालाल सिंह
भतपूर्व प्रोफसर एव अध्यक्ष इतिहास विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
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बौद्ध तथा जैनधर्म
भारतीय चिन्तन और सदाचार के इतिहास म बौद्ध और जन परम्पराओं का विशेष महत्व है। हिन्दू जोवन की रूढियो और विश्वासो का प्रत्याख्यान करते हुए बद्ध के विचार स्वतत्र धर्म के रूप म स्थापित हुए। उनकी उक्तियां शनै शनै इस तरह विकसित हुइ कि बद्ध के अनुयायियो ने न केवल अपने सबो और विहारो का विकास किया बल्कि निश्चित प्रकार की दाशनिकता त्कशास्त्र तथा आचारशास्त्र का भी पूरी तरह विकास किया । बौद्धधर्म दशन साधना और आचार तीनो क्षत्रों में इतना प्रभावशाली हुआ कि आषो दुनिया पर उसका साम्राज्य छा गया। इसके साथ ही एक जन भाषा भी इस धम की भाषा के रूप म विकसित हुई। ब्राह्मण धम-व्यवस्था के पास यदि वदिक और सस्कृत जमी दो भाषाय थी और वेद स्मृति तथा उपनिषद जसे शास्त्र थे तो बौद्धो के पास पालि जमी भाषा थी पिटक थ निकाय थे और धम्मपद था। ब्राह्मण धम-व्यवस्था के पास ऋषि मुनि आश्रम कुटी मदिर तपस्वी साध और योगी थ तो श्रमण घम व्यवस्था के पास मठ विहार आराम ( बगीचे) भिक्ष तात्रिक और चमत्कारी धम प्रचारक थे। भाषा दशन एव सगठन तीनो के कारण बौद्धधम ब्राह्मणघम को निष्प्रभ करन म सफल रहा । ठीक इसी तरह जैन धम का उद्भव एक ऐसे विचारक तपस्वी की चिन्ता से हुआ था जो ब्राह्मणधम की रूढियो से प्रसन्न नही था । ब्राह्मण शास्त्रो की व्यर्थता भगवान् माबोर के मस्तिष्क म थी । जितेन्द्रिय महावीर ने जिस चिन्तन का सूत्रपात किया था उसे दर्शन तकशास्त्र और साधक मुनिम हल का सहयोग मिला । मन्दिर मति शास्त्र और मुनियो के साथ जैनधम के पास बौद्धो की तरह एक निजी अभिव्यक्ति की भाषा भी थी। इस भाषा को जन प्राकृत कहा जाता है । इसीलिए जनवम के अनुयायियों ने भी ब्राह्मण व्यवस्था का पूरी तरह से उत्तर दिया और उसे निष्प्रभ बनाया । बौद्धधम को राजशक्ति का समथन मिला उसी तरह जनवम को भी राजाओ तथा श्रेष्ठियो का समथन मिला। इस तरह बौद्ध तथा जैन दोनो धम-व्यवस्थाय ब्राह्मण यवस्था के समानान्तर खडी हुइ । इन स्पर्षी यवस्थाओ न अपने धर्मशास्त्रो से श्रीमद्भगवद गीता के समानान्तर दो पुस्तको का प्रचारतत्र भी विकसित किया । गीता में १८ अध्याय है तो बोडयम के धम्मपद म २६ वग्ग है । इसी तरह जनों का धमग्रन्थ उसराध्ययनसूत्र खडा हुआ। इसमें भी ३६ अध्ययन है । इस तरह यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि बौद्ध तथा जैनधम ब्राह्मण चिन्तन की शाखायें नहीं है बल्कि समानान्तर धम-व्यवस्थाय है और इनका
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विकास ब्राह्मणघम के विरोध म स्पर्धा चिन्ता से हुआ है । इसी स्पर्धा म सस्कत शास्त्र श्रीमदभगवदगीता के समानान्तर पालिशास्त्र घमपद और प्राकतशास्त्र उत्तरा ध्ययनसूत्र का सकलन और प्रचारण विकसित हुआ।
धम्मपद और उनराध्ययनसूत्र के मह व को बहुत अलग से देखने को जरूरत है । जब कोई सगठन चाह वह पार्मिक या साम्प्रदायिक हो अपने पूरे बल के साथ खडा होता ह तो उसके पास एक निश्चित जनभाषा का आधार होना चाहिए । साध और कायकर्ता होना चाहिए । सभाकक्ष मठ मन्दिर विहार बगीच मदिर और देवघर भी होन चाहिए । इसके साथ ही उसके पास प्रचलित धमपुस्तिका भी होनी चाहिए । सवग्रासी और सवव्यापी ब्राह्मणषम के समानान्तर यदि बौद्ध और जन धर्मों न अपनी पहचान बनायी तो वह इसी सामजस्य शक्ति के कारण बनी। य दोनो धम-व्यवस्थाय भी दुबल हुइ जब इन्होन जनभाषा साध तापस बल आश्रम और मठ तथा अपना निश्चित आचार छोड दिया। बाद म अनक बौद्ध ग्रन्थ सस्कत म लिखे जाने लगे। इसी तरह परवर्ती जैन-साहि यो को भाषा सस्कत हो जाती ह। सस्कत का स्त्र ग्रहण करना बौद्ध और जैनों की पहली पराजय है । इनकी दूसरी पराजय तब होती ह जब इनके साथ और तपस्वी आश्रमो विहारो तथा आरामो म स्थायी रूप से ठहरन लगते हैं चलना छोड देत है । गुफामो म रुककर चित्र बनाने लगते हैं और मठो म बैठकर मतियां और देवना गढन लगते हैं। अजन्ता
और एलोरा के ऐतिहासिक अवशेष यह स्पष्ट सकेत करत ह कि भिक्षचर्या म चलना मांगना घमना क्रमश कम हुआ और भिक्ष साव कलाजीवी साधक बनन लग । बौद्धधर्म के साधना प्रथो से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि भिक्ष गुप्त स्थानो म निवास करने लगे और क्रमश तत्र वज्र कील मत्र और अतत अभिचार यभिचार से बौद्धो का सम्बध बढता चला गया । जनो के साथ भी एसा ही कुछ हुआ और धीरे धीरे ब्राह्मण घम-व्यवस्था न बौद्ध धम व्यवस्था से लडकर शयवाद को अद्वतवाद के रूप म बदलकर यथावसर शस्त्र से और मख्यत घणा प्रचार से बौद्धधर्म को वस्त कर दिया । मुझ ता यह भी लगता ह कि घणा बढ जान के बाद बुद्ध मूत्तियो को तोडने और श्रमणो को नृशस ढग से मारने की परम्परा पुरोहित घम यवस्था का एक निश्चित कारक बन गयी थी। बुद्ध को तोडन की जो परम्परा शरू हुई उसे ही तुर्को ने भी माग बढाया। तुर्को ने बुत के बहाने बुद्ध को ही तोडा। यह एक पूर्ण नियोजित काय क्रम था जिसे पुरोहित धम के सबालक चला रहे थे। बुद्ध और बत एक ही शब्द क दो रूप है । इसलिए इन सारी टटी हुई मतियो वस्त जमीदोज आश्रमो विहारो और बुद्ध-तीर्थों के लिए तुर्कों को ही नही ब्राह्मणों को भी स्मरण किया जाना चाहिए । अनक स्थानो पर जन-मत्तियो को तोडकर जो हिन्दू मत्तियां स्थापित की
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पयी है उनके पीछे छिपी जैन-बाह्मण-सघष को कोई बनकही कहानी सामने लायी वा सकती है।
धम्मपद और उत्तराध्ययनसूत्र का अध्ययन गीता से सम्बद्ध करके किया जाना चाहिए। क्योकि ये तीनों पुस्तक तीन षम व्यवस्थाओ-बौट जैन और ब्राह्मण षम का मुख भाष है। तीनो की अपनी एकजातीय सस्कति है । साथ ही तीनों के पीछे निजी भाषिक मिथक और बभिव्यक्ति उच्चरण है । तीनो के पीछे सोचती-बोलती रहनेवाली तीन परस्पर सवादी धम-जातियां भी है। तीनो का रक्त एक है लेकिन तीनो को एक-दूसरे की चुनौती रक्त पिपासा की सीमा सक उत्तजित करती है। भाषा का टकराव रीति रिवाजो का टकराव एक दूसरे का एक दूसरे में समा जाना एक दूसरे से अलग होना फिर एकाकार हो जाना मिल जुलकर जाति-चरित्र से सम्बन्धित अनेक रहस्य समेटे हुए है। इसीलिए गीता धम्मपद और उत्तराध्ययनसूत्र का अध्ययन तुलनात्मक और व्यतिरेकी सदी म खास महत्व रखता है। मुझे यह देखकर सुखद आश्चय हुआ है कि प्रतिभाशील उरुण अन्वेषक डॉ महेन्द्रनाथ सिंह ने बहुत उपयुक्त समय पर धम्मपद तथा उत्तराध्ययनसूत्र का सास्कतिक विश्लेषण प्रारम्भ किया ह । डॉ सिंह मुख्यत इतिहास के विद्वान् है लेकिन उन्होंने बडी दिलचस्पी के साथ तस्वमीमासा और पार्मिक सिद्धान्त जसे सूक्ष्म प्रश्नो पर भी गहराई से विचार किया है। उनकी अध्ययन प्रणाली एक शास्त्रगत अन्वेषक की है। वे डॉ एस अतकर डा वासुदेवशरण अग्रवाल डा अजयमित्र शास्त्री डॉ जे एन तिवारी डॉ सागरमल जन और डॉ सुदशनलाल जैन की परम्परा के विद्वान् है । इस परम्परा के विद्वानो की विशेषता यह होती है कि वे मुख्य विषय से सम्बन्धित सारी सामग्री एव सूचनामो को परिश्रमपूर्वक एकत्र करते हैं और उन्हें एक निश्चित क्रम मे उद्धृत करत हुए अज्ञात अश्रुतपूर्व को सामने कर देते है। गे महेन्द्रनाथ सिंह ने अपनी गुरु-परम्परा से काफी कुछ सीखा है और उनकी पुस्तक से यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होने न केवल पूर्व अध्यताओं का पूरा उपयोग किया है कि धम्मपद तथा उत्तरा ध्ययनसूत्र के अध्ययन के साथ-साथ बौद्ध तथा जैन मलपन्यों का भी परिश्रमपूर्वक अध्ययन किया है। इस अध्ययन के निष्कष बहुत महत्वपूर्ण है। जो लोग बौद्ध और जैन-तत्वमीमासा और षम सिद्धान्तो से परिचित नहीं है वे लोग डॉ सिंह की पुस्तक से बहुत अच्छा ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। सार-सकलन तथ्यो की प्रस्तुति व्याख्या विश्लेषण और अर्थापन सभी दृष्टियो से महेन्द्रजी ने एक पण्डित-पोथी लिखी है।
मैं विश्वास करता है और आशान्वित हूँ कि में महेन्द्र नाथ सिंह मागे चलकर अपनी इस विद्या को श्रीमद्भगवद्गीता से भी सम्बर करेंगे और सस्कत पालि और
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१५ उन्होंने अपने स्वानभत ज्ञान को 'चतुरार्य सत्यों के रूप में व्यक्त किया दुख हुलसमुदय दुखनिरोध तथा दुखनिरोष-माग । दु लनिरोध के लिए जिन उपायों को धम्मपद में बतलाया गया है वे ही प्राय उत्तराध्ययन में भी हैं अन्तर इतना ही है कि जहाँ बोद्ध दशन नैरात्म्य पर जोर देता है वहाँ उत्तराध्ययन उपनिषदों की तरह आत्मा के सद्भाव पर । उपयक्त चार बोद्ध सत्यो की तुलना उत्तराध्ययनसूत्र की जैन तत्त्व योजना से निम्न रूप में की जा सकती है धम्मपद का दुख-तत्त्व उत्तराध्ययन के बन्धन-तब से दुख-हतु आस्रव से दुख निरोध मोक्ष से और दुखनिरोध- माग ( अष्टाडिगकमाग ) सवर और निर्जरा से तुलमीय हो सकते हैं ।
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आगे चलकर इसम शरण-गमन अहत तत्व कर्म एव निर्वाण का विवेचन ह | बुद्ध धम और सघ की शरण को त्रिशरण कहते हैं । बौद्धधम में इनको त्रिरत्न माना गया है और प्रत्येक बौद्ध के लिए इनकी अनुस्मृति आवश्यक कही गयी है । बद्ध की अनुस्मृति का अथ है उनके महत्व आदि गुणों का पुन पुन स्मरण । धम्मपद में बद्ध और उनकी स्मृति के ऊपर एक वग ही है। धम्म की अनुस्मृति को बद्ध की स्मृति से भी मह वपूण कहा गया है क्योकि धम के साक्षात्कार से ही बद्ध बद्ध बन थे । धम्मपद में धम्म पर भी एक अलग से बग ह । धर्म के प्रचार एव आध्यात्मिक साधना के अभ्यास के लिए बौद्ध अनुयायियों का सगठन ही सघ था। बद्ध सध को धम द्वारा सचालित और अपन से भी बडा मानते थे । सघ के गुणो का बार-बार स्मरण सधानु स्मृति है और धम्मपद में इसे भी उतना ही आवश्यक माना गया है । त्रिशरण की बात उत्तराध्ययन में तो नही है किन्तु चतुविध शरण का उल्लेख आवश्यक सूत्र म है । संघ के महत्व का उल्लेख नन्दी सूत्र में है । बौद्ध और जैन दोनों म आध्यात्मिक प्रगति के विभिन्न स्तरो की कल्पना है । सामान्यतया बौद्धधम में इनको क्रमश स्त्रोतापन्न सकृदागामी अनागामी एव अर्हत कहा जाता था । धम्मपद में इनका क्रमबद्ध उल्लेख तो नही है किन्तु महत तत्व का वर्णन है। इस ग्रन्थ के सातवें वग्ग का नाम अरहन्त
वर्णन है । महत्व का तात्पर्य साधक
चुका हो और
वीतराग एव
नैतिक जीवन का परम साध्य
वग्ग है और इसकी प्रत्येक गाथा म अहतो का की उस अवस्था से है जिसमें तृष्णा राग-द्वेष की वृत्तियों का क्षय हो वह सभी सांसारिक मोह तथा बन्धनों से ऊपर हो । उत्तराध्ययन में भी अरिहन्त जीवन का प्राय इसी रूप मे वणन है और उसे माना गया है। जैन और बौद्ध दोनो धर्मो को कमसिद्धान्त समान रूप से स्वीकाय है । जगत् के स्रष्टा और नियामक किसी ईश्वर की कपना अस्वीकार कर दोनों धम जीव की गति कम के ही अधीन मानते हैं । परन्तु दोनों के कुछ मौलिक अन्तर भी थे । बौद्ध कर्म को किसी नित्य शाश्वतकर्ता का व्यापार नहीं मानते थे। इसी प्रकार जहाँ बोद्ध कम को मूलत मानसिक संस्कार के रूप में ग्रहण करते थे वहां जैन उसे पौद्गलिक
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मानते थे । बम्मपद और उत्तराध्ययनसूत्र के अध्ययन से भी इन तथ्यों की पुष्टि होती है ।
समाधि और प्रज्ञा ये तीन
धम्मपद में यह उक्ति प्राप्त होती है कि मागों में अष्टांगिक माग सवश्रेष्ठ है परन्तु सम्पण ग्रन्थ के अनुशीलन से यह भी स्पष्ट होता है कि शील ही दुःख विमुक्ति के मल साधन हैं तथा अष्टागिक माग इसी साधन त्रय का पलबित रूप है । उत्तराध्ययनसूत्र में मोक्ष के चार साधन कहे गये हैं दर्शन ज्ञान चारित्र और तप । जैन आचार्यों ने सम्यक चारित्र में ही तप का अन्तर्भाव कर परवर्ती साहित्य में त्रिविध साना - मार्गों का विधान किया । जैन-दशन म यह रत्नत्रय नाम से प्रसिद्ध हुआ । तुलनात्मक अध्ययन से यह भी स्पष्ट होता है कि उत्तराध्ययन के सम्यक दर्शन और सम्यक ज्ञान धम्मपद के समाधि और प्रज्ञा स्कन्ध के समकक्ष है । शील स्कध उत्तराध्ययन के सम्यक चारित्र में सरलता से अन्तभत हो वस्तुत बौद्ध और जैनधम के आधार म मौलिक समानतायें हैं । बौद्धो के व्रतों से सहज ही तुलनीय है। अहिंसा के सम्बन्ध म दोनो म किंचित दृष्टिभद अवश्य था और तत्त्वमीमासा के मौलिक अन्तर के कारण दोनो की ध्यान-पद्धतियो म भी असमानताय थी परन्तु दोनो में सबसे महत्वपूर्ण भद यह था कि जहाँ जनधर्म काय-क्लेश और कठोर तप पर बल देता था बौद्धधर्म अतिवजना और मध्यम माग के पक्ष में था । धम्मपद और उत्तराध्ययन से इन तथ्यो की भी पुष्टि होती है । धम्मपद और उत्तराध्ययन दोनो में पुण्य-पाप की अवधारणाय प्राय समान है। दोनो में याज्ञिकी हिंसा तथा वर्ण भेद की आलोचना है । दोनो सदाचरण को ही जीवन म उच्चता नीता का प्रतिमान मानते हैं और ब्राह्मण की जन्मानुसारी नही अपितु कर्मानुसारी परिभाषा प्रस्तुत करते हैं । साथ ही दोनो म आदश भिक्षु यति के गुण प्राय समान शब्दो में वर्णित है |
धम्मपद का
जाता है । शील जैन
दोनो ग्रन्थो में प्राप्त चित्त अप्रभाव कषाय तथा तृष्णा आदि मनोवैज्ञानिक तथ्यो का विवेचन है । साधारण रूप से जिसे जन-परम्परा जीव कहती है बौद्ध लोग उसीके लिए चित्त शब्द का प्रयोग करते है । उनके लिए चित्त कोई नित्य स्थायी स्वतन्त्र पदाथ नहीं है । चित्त की सत्ता तभी तक है जब तक इंद्रिय तथा प्राह्म विषयों के परस्पर घात प्रतिघात का अस्तित्व है । विषयों के परस्पर घात प्रतिघात का अन्त हो जाता है त्योंही शान्त हो जाता है । atara में चित्त मन और विज्ञान को प्राय माना गया है। जैन दृष्टिकोण से जिसके द्वारा मनन किया जाता है वह मन है । उत्तराध्ययन के अनुसार मन भी एक प्रकार का द्रव्य है जिसके द्वारा सुख-दुख की अनुभति होती है। दूसर शब्दो में इन्द्रियो और आत्मा के बीच की कही मन है । धम्मपद के बिसवग में चित
ज्योही इन्द्रियो तथा चित्त भी समाप्त या एक ही अथ का
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के ऊपर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया है। मनो पुम्बममा पम्मा (मन सभी प्रवृत्तियों का अगुआ है) और फन्दनं चपल चित्तं (चित्त क्षणिक है चचल है) तथा उत्तरा ध्ययनसूत्र के अणसमाहारणयाएणं एगग्गे अण यइ ( मन की समाधारणा से जीव एकाग्रता को प्राप्त होता है ) तथा मणो साहसिबों भीमो दुस्सो परिषावई (मन ही साहसिक भयकर दुष्ट भव है जो चारों तरफ दौडता है ) जैसे वाक्य दोनों ग्रपों में मन के स्वरूप को भलीभांति स्पष्ट करते हैं । वस्तुत मन व्यक्ति के अन्तरग म एक प्रकार का साधन है जिसके द्वारा वह बाह्य ससार को ग्रहण करता है। मन कोई सामान्य इन्द्रिय नहीं है परन् इसे चेतना के रूप में स्वीकार किया गया है। सामान्यतया समय का अनुपयोग या दुरुपयोग न करना अप्रमाद है। धम्मपद तथा उत्तराध्ययनसूत्र में अप्रमाद का विशद विवेचन है। धम्मपद में प्रमाद को मृत्युतुल्य तथा अप्रमाद को निर्वाण कहा गया है। उत्तराध्ययनसूत्र म प्रभाव को कर्म बास्त्रव और अप्रमाद को अकम सवर कहा गया है। प्रमाद के होने से मनुष्य मर्ख और अप्रमाद के होने से पण्डित कहा जाता है। आत्मा को मलिन करनेवाली समस्त भावनायें वासनाय कषाय में गभित हैं। क्रोध मान माया और लोमरूपी भावनाय सबसे अधिक अनिष्ट व अशुभ है। उत्तराध्ययन म इन चारों को कषाय की संज्ञा दी गयी है । धम्मपद म कषाय शब्द का प्रयोग दो अर्थों में है। पहला जैन-परम्परा के समान दूषित चित्त-वृत्ति के अथ म तथा दूसरा सन्यस्त जीवन के प्रतीक गेरुए वस्त्रों के अर्थ म । धम्मपद में कषाय शब्द के अन्तगत कौन-कौन दूषित वृत्तियां आती है इनका स्पष्ट उल्लेख तो नहीं मिलता परन्तु इन अशम चित्तवृत्तियो को दूर कर साधक को इनसे ऊपर उठने का सन्देश दिया गया है। उत्तराध्ययन में इन चारों का विशद वर्णन है ।
प्राचीन भारतीय इतिहास सस्कृति एव पुरातत्त्व विभाग उदयप्रताप स्नातकोत्तर महाविद्यालय
वाराणसी
-महेन्द्रनाथ सिंह
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आमार
प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना म अनेक गुरुजनो मित्रो तथा सस्थाओ से मझे बहविष महायता मिली ह जिनके प्रति आभार निवेदन करना मेरा प्रथम कत्तव्य है।
प्रन्थ-लेखन से प्रकाशन तक म परमपूज्य गुरुवर प्रो डॉ जगदीशनारायण तिवारी विभागाध्यक्ष प्राचीन भारतीय इतिहास सस्कृति एव पुरातत्त्व विभाग ( काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ) तथा प्रो डा सागरमल जन निदेशक पाश्वनाथ विद्याश्रम शोष-सस्थान वाराणसी से प्ररणा सुझाव तथा प्रोत्साहन मिलता रहा है। इसके लिए में इन गवेषी मनीषी तथा प्रज्ञायुक्त यक्तित्वो का चिरऋणी रहूँगा ।
मादरणीय डॉ ओमप्रताप सिंह सगर प्रधानाचाय डा बशबहादुर सिंह उपप्रधानाचार्य तथा डॉ हरिबश सिंह विभागाध्यक्ष प्राचीन भारतीय इतिहास उदयप्रताप स्नातकोत्तर महाविद्यालय वाराणसी का मुझ पर सदैव स्नेह रहा है जिसके लिए मैं अपने को भाग्यशाली मानता हूँ। उन लोगो के प्रति आभार प्रकट करना मरा कर्तव्य है।
____ आदरणीय प्रो डा होरालाल सिंह भू पू विभागाध्यक्ष इतिहास विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी डॉ शुकदेव सिंह रीडर हिन्दी विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय प्रो डॉ कृष्णकुमार सिनहा भ पू सकाय प्रमुख कला संकाय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय डा सुदशनलाल जन रीडर सस्कृत विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय तथा भिक्ष डी रेवत सयुक्त मन्त्री महाबोधि सोसाइटी
ऑफ इण्डिया घमपाल रोड सारनाथ वाराणसी ने समय-समय पर अनेक समस्याओ के निदान तथा काय म गति बनाय रखने की प्ररणा दी है। पुस्तक के लिए शुभाशसा प्रदान कर उन लोगो ने मुश अनुगृहीत किया है । म उन लोगो के प्रति भी कतज्ञ हूँ।
प्रस्तुत प्रथ के प्रकाशन में प्रोत्साहन एव परामश देनेवाले प्रो डॉ गोविद चद्र पाण्डय डॉ घमचद्र जन प्रो में कृष्णदत्त वाजपेयी टैगोर प्रोफेसर एव भू प विभागाध्यक्ष हरिसिंह गौड विश्वविद्यालय सागर (म प्र ) प्रो डा लक्ष्मी कान्त त्रिपाठी प्रो डॉ माहश्वरीप्रसाद तथा प्रो डा पुरुषोसम सिंह प्रा भा इति स एव पुरातत्त्व विभाग का हि वि वि वाराणसी का नामो लेख करना बावश्यक है । लेखक इन विद्वज्जनों का सदैव आभारी रहेगा।
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महत्वपण बिन्दुओं पर सुझाव एव दिशा निर्देशन देनेवाले प्रो डॉ कमलचन्द सोगानी विभागाध्यक्ष दशन सुखाडिया विश्वविद्यालय उदयपुर ( राजस्थान) प्रोफेसर डॉ टी जी कलपटगी विभागाध्यक्ष जन-दशन मद्रास विश्वविद्यालय प्रो डॉ जयप्रकाश सिंह विभागाध्यक्ष इतिहास विभाग नाथ ईस्टन हिल युनिवर्सिटी शिलांग प्रो में लल्लनजी गोपाल डॉ पी सी पन्त प्रा भा इति स एव पुरातत्व विभाग का हि वि वि वाराणसी डॉ महेद्रप्रताप सिंह विभागा ध्यक्ष इतिहास काशी विद्यापीठ वाराणसी का म विशेष आभारी हूँ।
इसी सन्दर्भ में उत्साहवधन करनवाले प्रेरणा के स्रोत डॉ जयराम सिंह इतिहास विभाग राजकीय महाविद्यालय चन्दौली वाराणसी डॉ डी एस रावत भगोल विभाग उदयप्रताप कॉलेज वाराणसी डा झिनक यादव एव श्री बच्चन सिंह के प्रति आभार निवेदन करता हूँ।
म उन सभी विद्वानो के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ जिनकी कृतियाँ अथ के प्रणयन में सहायक रही है। प्रथ के मूल भाग या पाद टिप्पणियो म इनके यथास्थान ससम्मान उ लेख हैं तथा सहायक ग्रन्थ सूची में तत्सम्बन्धी पर्ण प्रविष्टियां हैं। परन्तु प्राक्कथन के इस पयवाद ज्ञापन के प्रसग म भी मैं कुछ विद्वानो का विशेष उलेख करना चाहता हूँ जिनकी कृतियो से मुझ प्रथ की रचना में स्थान-स्थान पर सहायता मिली है यथा-डा सागरमल जैन जैन बौद्ध और गीता के आचार दशनो का तुलनात्मक अध्ययन भाग १ एव २ डा सुदशनलाल जैन उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन डॉ गोविन्दचन्द्र पाडय बौद्धधम के विकास का इतिहास डॉ भरतसिंह उपाध्याय बौद्ध-दर्शन और अन्य भारतीय दशन भाग १ एव भाग २ प बलदेव उपाध्याय बौद्ध दशन मीमासा और भारतीय दशन ।
पुस्तकीय सहायता के लिए के द्रीय ग्रन्थालय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी विश्वनाथ पुस्तकालय गोयनका महाविद्यालय वाराणसी पाश्वनाथ शोष सस्थान ग्रन्थालय वाराणसी महाबोषि ग्रन्थालय सारनाथ वाराणसी तथा प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एव पुरातत्व विभाग के विभागीय प्रन्थालय से प्राप्त सहयोग के लिए मैं इन सस्थायो का आभारी हूँ।
अन्य के प्रकाशन के निमित्त भारतीय इतिहास अनुसधान परिषद् नई दिली ने अनुदान हेतु स्वीकृति प्रदान की इसके लिए मैं सस्था के प्रति विशेष आभारी हूँ।
अपने मित्र श्री पनजय सिह शोष-छात्र भूगोल-विभाग का हि वि वि वाराणसी से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप म जो सहयोग प्राप्त हुआ है उसके लिए आभार प्रदथित करना मैं अपना कतन्य समझता हूँ।
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पूजनीय माता पिता तथा सभी अग्रजों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना आवश्यक कर्तव्य समझता हूँ जिनके आशीर्वाद और कृपा के कारण ही यह ग्रन्थ पूर्ण हो सका ।
अन्त में विश्वविद्यालय प्रकाशन के प्रकाशक श्री पुरुषोत्तमदास मोदी के प्रति आभार प्रदर्शित करता है क्योंकि इनकी तत्परता तथा लगन के कारण ही यह काय समय से पूर्ण हो सका है इसी सन्दम में मैं शीला प्रिण्टस के प्रबन्धक के प्रति भी आभार निवेदन करता हूँ ।
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१९८९
- महे व्रनाथ सिंह
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अनुक्रमणिका
१-३३
८ -१३१
अध्याय
१ भमिका २ धम्मपद में प्रतिपादित तत्त्वमीमासा का उत्तराध्ययन में
प्रतिपादित तवमीमासा से साम्य-वैषम्य ३ धम्मपद के पार्मिक सिद्धान्त और उत्तराध्ययन में
प्रतिपादित धार्मिक सिद्धान्तो से तुलना ४ पम्मपद म प्रतिपादित बौद्ध आचार और उसकी उत्तरा ___ध्ययन म प्रतिपादित जन-आचार मीमासा से तुलना ५ धम्मपद म प्रतिपादित मनोवैज्ञानिक धारणाए और
उनकी उत्तराध्ययन में प्रतिपादित मनोविज्ञान से तुलना ६ धम्मपद म प्रतिपादित सामाजिक एव सास्कृतिक सामग्री
तथा उसका उत्तराध्ययन म प्रतिपादित सामाजिक एवं सास्कृतिक सामग्री से समानता और विभिन्नता अथ सूची
१३२-१८६
१८७-२१७
२१८-२४९ २५ -२६
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बौद्ध तथा जैनधर्म
धम्मपद और उत्तराध्ययन के
परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक अध्ययन
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मध्याय १
भूमिका
बौद्धधर्म का सामान्य परिचय
भारतीय धर्मो के इतिहास में बौद्धधम का स्थान अद्वितीय है । इसका ज्ञान बौद्धधम की उत्पत्ति और विकास के सामान्य अध्ययन से होता है। छठी शताब्दी ई पू न केवल भारतवर्ष अपितु विश्व के अन्य अनेक देशों के लिए धार्मिक आन्दो न का था था । यह न केवल धार्मिक एव आध्यात्मिक चिन्तन की दृष्टि से अपितु सामाजिक एव सास्कृतिक दृष्टियों से भी क्रान्तिकारी युग था । इस अवधि में विश्व के अनेक देशों में महान् समाज-सुधारकों का प्रादुर्भाव हुआ । भगवान् बुद्ध उनमें एक थे। इनका जन्म छठी शताब्दी ई पू के मध्य में सामान्य धारणा के अनुसार हुना था । उनके बचपन का नाम सिद्धार्थ तथा गोत्र-नाम गोतम था । बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन तथा माता का नाम माया या महामाया था जो कोलियवश की राज कुमारी थी । महाप्रजापति गौतमी को बुद्ध की मौसी के रूप में स्वीकार किया गया है । गौतम बुद्ध के प्रारम्भिक जीवन को अनेक विविध घटनाओं से हमारा प्रयोजन नही है | वास्तविकता तो यह है कि प्राचीन स्रोतों में उनके प्रारम्भिक जीवन के विषय म प्रामाणिक सूचनायें अत्यल्प है । १६ वर्ष की अवस्था में गौतम का विवाह यशोधरा
१ पाण्डय गोविन्दचन्द्र स्टडीज इन दी ओरिजिन्स ऑफ बुद्धिज्म प ३१ नारायण ए के दो बैकग्राउण्ड ट दी राइज ऑफ बुद्धिज्म १ १४ और आगे बार्डर ए के इण्डियन बुद्धि म प २८ ।
२ वही बौद्धधम के विकास का इतिहास पृ १९ में गौतम बुद्ध के जन्म निर्वाण आदि की निश्चित तिथियों के सम्बन्ध में किंचित विवाद है ।
३ सुत्तनिपात ३७ ३।१।१८ १९ । ४ महावम्म विनयसुत्त ३।१।१८-२ ५ दीघनिकाय हिन्दी अनुवाद सुत स ६ विनयपिटक कुल्लवग्ग पृ ३७४ ।
८६ ।
२११ १ १९ ।
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निर्वाण बोबषम का परम लक्ष्य है वहाँ समस्त कर्यालयों का भय हो जाता है। वह स्थिति बतीन्द्रिय एवं परम सखकारी है। भगवान बुद्ध ने अभिसम्बोषित काल में ससका साक्षात्कार किया था। पम्मपद में अनेक स्थलों पर निर्वाण का उल्लेख आया है यहां पर निर्माण को सबसे बड़ा सुख कहा गया है। निर्वाण को प्राय नित्य सत्य ध्रुव शान्त सुख अमृतपद परमार्थ इत्यादि कहा गया है।' तृष्णा भय को ही निर्वाण कहा जाता है । निर्वाण इसी बन्म में प्रात होता है। इसीको सोपाषिशेष निर्वाण कहते है । इसको प्रास करने के लिए सापक को लोग ईया मोह मान दृष्टि विचिकित्सा सत्यान बौद्धत्य मही तथा अनुसाप इन दस क्लेशों का नाश करना पडता है । इसकी प्राति के चार सोपान है-स्रोतापत्ति सकृदागामि अनागामि और अहत् । निर्वाण की प्राप्ति सस्कारों के पूर्ण शमन से होती है। वह एक ऐसा आयतन है जहां पृथ्वी जल तेज वायु आकाश अकिन्चन्य लोक परलोक चन्द्र सूय च्युति स्थिति आषार आदि नही है। बकलने भी बौखों के निर्वाण को परिभाषा का उल्लेख किया है। उन्होंने एक स्थान पर रूप वेदना सज्ञा सस्कार और विज्ञान इन पांच स्कन्धो के निरोष को मोक्ष कहा है ।
चतुथ सत्य माग सय था। अपनी रूठ परिभाषा में यह अष्टांगिक मार्ग' के रूप में वर्णित है। भगवान द्वारा उपदिष्ट मध्यम मार्ग यही आय बांगिक मार्य है। इसम आठ अग हैं यथा-सम्यक दृष्टि सम्यक सकल्प सम्यक वाफ सम्पक कम सम्यक आजीब सम्यक व्यायाम ( बेष्टा या प्रयत्न) सम्यक स्मृति एवं सम्यक समाधि । इसमें सम्यक दृष्टि प्रथम ही नहीं अपितु प्रमुख भी है। इसे प्रज्ञा भी कहते हैं । सम्यक का तात्पय सन्तुलित से है । सन्तुलित दृष्टि ही सम्यक दृष्टि है। सन्तुलित से तात्पर्य है दोनो अन्तो की बोर न जाकर बीच में रहना अर्थात् बाचार की दृष्टि से और दार्शनिक दृष्टि से भी पूर्ण सन्तुलित रहना । इसी बार्य अष्टांगिक माग में
१ मज्झिमनिकाय २२३३५ । २ पम्मपद गाथा स २ ३२ ४। ३ बौद्धधर्म के विकास का इतिहास प ९३। ४ सुत्तनिपात पारायणवण । ५ वीपनिकाय तृतीय भाग पृ १८२ । ६ उदान पाटलिगबग । ७ न्यायाचाय महेन्द्रकुमार तत्वाप बाविक (बालक) ११११८ तथा डों
राधाकृष्णन इण्डियन फिलासफी बिल्ल १५ ४१८॥ ८ षम्मपद नापास २७३।
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सील समाधि चौर प्रज्ञा जो बौखधर्म के तीन स्तम्भ है अन्तर्भत हो जाते हैं। प्रारम्भ के दो अब प्रज्ञा उसके बाद के तीन अग शील तथा अन्तिम तीन समाधि है। दीघनिकाय के सूत्रों में शीलों की लम्बी सूचियाँ प्रास होती हैं। विशिष्ट प्रयोजन से शीलों की छोटी-बडी सूचियां भी बनायी गयी थी जैसे उपासको के पार पाबाठ शील संध में नये प्रविष्ट हुए व्यक्ति के दस शील या दस शिक्षापद इत्यादि । शील प्राय वे ही है जो अष्टागिक माग में सम्यक वाक से लेकर सम्यक बाजीव तक उल्लिखित है । प्रज्ञा से प्रभावित शील ही वास्तविक शील है। शील से समाधि और समाधि से प्रज्ञा का उत्पाद होता ह । इस तरह एक चक्र बन जाता है जो जीवन को परिशुद्ध सार्थक एव पूण बनाता है।
सक्षप म बद्ध के माग म बाह्य आचरण की शुद्धि और मानसिक अभ्यास दोनों पर बल था । आचरण-शुद्धि को अत्यन्त आवश्यक माना गया है परन्तु मानसिक अभ्यास या ध्यान को किंचित ऊँची कोटि म रखा गया है क्योकि इसीसे ज्ञान की प्राप्ति सम्भव होती है। इसी प्रकार बार-बार आमनिभरता और सत्य के स्वय साक्षात्कार पर बल दिया गया है। जैनधर्म का सामान्य परिचय
जैनधम की उत्पत्ति एव विकास का इतिहास इस धम के प्रचारको के इतिहास के साथ सम्बद्ध है। इस धर्म के प्रचारको को तीथकर कहा गया है। यहां तीथकर का सामान्य अथ ससार-सागर को पार करनवाले माग की शिक्षा देनवाला है । इसी प्रकार जैन शद की उत्पत्ति जिन अर्थात त्रेता या विजय करनवाले से हुई है अर्थात् वह व्यक्ति जिसने अपनी इद्रियो पर विजय प्राप्त कर ली हो । जन धर्म के प्रचारको ने स्वय सम्यक ज्ञान सम्यक दर्शन एव सम्यक चरित्र द्वारा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करते हुए तपस्या का आचरण कर केवल ज्ञान प्राप्त किया। इसी कारण उन्हें जिन और सवश कहा गया । उन्होंने प्रथम इन्द्रियो पर विजय प्राप्त की तत्पश्चात् केवल ज्ञान प्राप्त किया और जिन द्वारा प्रशिक्षित बम को जनधम कहा गया है।
१ पाण्डय गोविन्दबद्र स्टडीज इन दि ओरिजिन्स आफ बद्धिज्म १ ५१४ दीघनिकाय सामन्नफलसुत्त तथा थामस इ जे हिस्ट्री ऑफ बद्धिस्ट थाट
पृ ४४। २ वीषनिकाय ब्रह्मजालसुत। ३ सुत्तनिपात धम्मिकसुत्त। ४ बौद्धधर्म के विकास का इतिहास १ १४२ । ५ शास्त्री कैलाश जैनधर्म १ ६५ ।
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भूमिका : ९
जैन- अनुमति के अनुसार इस भरत क्षेत्र में अब कमयुग है उसके पूर्व भोगबुग था। भोगयुग की अवस्था में मानव स्वर्णिम आनन्द प्राप्त करता था । मनुष्य की सारी आवश्यकताए कल्पवृक्ष से पूरी हुआ करती थीं । परन्तु यह नैसर्गिक सुख अधिक दिनों तक न रह सका जनसंख्या बढ़ी तथा मनुष्य की आवश्यकताए नित्य नया रूप धारण करने लगीं । फलत भोगयुग कमयुग में बदल गया । इसी समय चौदह कुलकर या मनु उत्पन्न हुए। ये कुलकर इसलिए कहलाते थे कि इन्होंने कुल की प्रथा चलायो तथा कुल के उपयोगी आचार रीति रिवाज सामाजिक व्यवस्था का निर्माण किया । चौदह कुलकरों में श्री नाभिराय अन्तिम कुलकर हुए । इनके पुत्र ऋषभदेव थे जो जैनधर्म के आदि प्रवतक हुए। इन्होंसे जैनधम की परम्परा का प्रारम्भ है। भगवान् ऋषभदेव को जैन ग्रन्थों के अनुसार जिन या तीथकर माना जाता है । सम्पूर्ण जैनधम तथा दशन ऐसे ही चौबीस तोथकरों की वाणी या उपदेश का सकलन है । इन चौबीस तीथकरों में भगवान ऋषभदेव आद्य तथा भगवान महावीर अन्तिम तीथकर माने जाते हैं । इनके अतिरिक्त और भी २२ तीथकर हुए- अजितनाथ सम्भवनाथ अभिनन्दननाथ सुमतिनाथ पद्मप्रभ सुपाश्वनाथ चन्द्रप्रभ सुविधिनाथ शीतलनाथ श्रेयांसनाथ वासुपूज्य विमलनाथ अनन्तनाथ धर्मनाथ शान्तिनाथ कुथुनाथ अरनाथ मल्लिनाथ मुनि सुव्रत नमिनाथ अरिष्टनेमि और पार्श्वनाथ । अन्तिम तीथकर भगवान महावीर का जन्म ५९९ ई प के आसपास विदेह की राजधानी वैशाली के कुण्डनपुर ग्राम में हुआ था जो आधनिक मुजफ्फरपुर जिले का वसुकुण्ड है । उनके पिता सिद्धाथ एक क्षत्रिय कुल के प्रमख थे और माता त्रिशला विदेह के राजा की बहन थी । जैनागम एव पुराण अन्यों के उल्लेखों से पता चलता है कि वघमान का प्रारम्भिक जीवन वैभव से परिपूर्ण था। उन्हें राजकुमारोचित मभी विद्याओ की शिक्षा दी गयी । शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात दिगम्बर-परम्परानुसार वे तीस वर्ष की अवस्था तक अविवाहित हो रहे और तत्पश्चात् प्रव्रज्या ग्रहण की। लेकिन इसके विपरीत श्वेताम्बर - परम्परा के अनुसार शिक्षा प्राप्ति के पश्चात् युवा होन पर वषमान का विवाह यशोदा नामक एक राजकुमारी से हुआ जिससे एक पुत्री भी उत्पन्न हुई थी। उस पुत्री का विवाह जामालि नामक एक क्षत्रिय युवक से हुआ था जो कालान्तर में महावीर का शिष्य भी बन गया था । बद्ध के विपरीत महाबीर अपने
१ जैन हीरालाल भारतीय सस्कृति म जैनधर्म का योगदान प१ । २ जैन जगदीशचन्द्र जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज पु १ ।
३ हरिवंशपुराण ६६।८ ।
४ भारतीय सस्कृति मे जैनधम का योगदान प २४ ।
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१ तथा नपर्म माता-पिता की मृत्यु तक उन्हींके घर में रहे और बाद में जब वह तीस वर्ष के हो गये तब उन्होंने आध्यात्मिक जीवन म प्रवेश किया ।
मिक्ष बन जाने के पश्चात जानपिपासु वर्षमान तपस्या मे लीन हो गये। विभिन्न विघ्न-बाधाओं को सहन करते हुए भगवान महावीर लगभग बारह वष तक कठिन तपस्या करते रहे। तरहव वष वैशाख शुक्ल दशमी के दिन जम्भिक ग्राम के बाहर ऋजुकला नदी के उत्तर तट पर एक शालवृक्ष के नीचे उन्हें पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो गया अर्थात जैसा कि कहा जाता है वह केवली हो गये। इस साधना के फल स्वरूप वह तीथकर बने और अपने जीवन का शेषाश उन्होंने पम के प्रचार और अपने मुनिसंघ को सगठित करन में बिताया। जैनधम के दोनो सम्प्रदायो (श्वेताम्बर एव दिगम्बर ) की परम्परा से ज्ञात होता है कि भगवान महावीर का निर्वाण ५२७ ई पू के आसपास लगभग ७२ वष की आयु म पावापुरी म हुमा था जो पटना जिले में बिहारशरीफ के समीप लगभग सात मील की दूरी पर स्थित है।
___ बौद्धधर्म के विपरीत जैनधर्म का प्रभाव भारत के अन्दर ही सीमित रहा और भारत के अन्दर भी इसका प्रभाव अपने जम के प्रदेश के अदर अपेक्षाकृत कम तथा उसके बाहर विशषत पश्चिम और दक्षिण म अधिक रहा। महामा बद्ध को भांति भगवान महावीर को भी अपने धर्म के प्रचार प्रसार के लिए बनक राजवशो का सहयोग मिला । लिच्छवि-नरेश चेटक स्वय महावीर का शि य था। ज्ञाताधमकथा तथा अनुत्तरोपपासिक दशाग आदि आगम ग्रन्थो से भी ज्ञात होता है कि बिम्बिसार का पुत्र अजातशत्रु पम्पानरेश दधिवाहन तथा उसकी पत्री चदना आदि सभी महावीर के माग के अनुयायी बने । महावीर ने अपने अनुयायियो को चार भागों म विभाजित किया था-मुनि आर्यिका धावक और श्राविका । मुनि बोर
आर्यिका घर-गृहस्थी का त्यागकर सबसे दूर रहनवाले श्रमण एव श्रमणी के रूप में विभाजित ५ तथा अन्तिम दो बग श्रावक और श्राविका के नाम से जाने जाते थे जो घर-गृहस्थी में रहकर जैनषम का आचरण करते थे। यही उनका चतुर्विध जैन सघ था।
१ हिरियन्ना एम भारतीय दशन की रूपरेखा प १५७ । २ पाय रामबी प्राचीन भारतीय कालगणना एव पारम्परिक सवत्सर
प २१२२। ३ ज्ञाताधमकया अध्याय १ । ४ अनुत्तरोपपातिकदशा तृतीय वर्ग सूक्क ४ ।
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मैनपर्व के सिद्धान्त जनवम का सिद्धान्त भी बौडधर्म की तरह एक प्राकृत भाषा अधमागधी में लिक्षित है और परम्परा के अनुसार इसका सम्पादन पांचवीं शताब्दी ईसवी के अन्त या छठी शताम्दी के बारम्भ के आसपास बलमी में देवर्षि की अध्यक्षता में हुमा । इस अपेक्षाकृत बाद की तिथि को देखते हुए कुछ लोग इस चैन-सिवान्त के मूक उपदेश के अनुसार होने में सन्देह करते हैं। लेकिन सचाई यह प्रतीत होती है कि देवर्षि ने उन ग्रन्थों को व्यवस्थित मात्र किया जो पहले से अस्तित्व में थे और तीसरी शताब्दी ई ५ से चले आ रहे थे। इस तिथि से पहले भी कुछ जैन-अन्क थे जिन्हें पर्व कहा जाता है लेकिन बाद में बे लम हो गये तथा इनका स्थान नये अन्य अगों ने ले लिया। इस प्रकार जैन-सिद्धान्त के वर्तमान रूप की प्रामाणिकता में सन्देह करने का कोई कारण नही है हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि इसमें यदा-कदा कोई परिवर्तन-परिवधन नही हुए ।
जैनधम ईश्वर की सृष्टि म विश्वास नहीं करता । इस बम के अनुसार मनुष्य स्वय अपने भाग्य का विषाता होता है। सासारिक एवं आध्यात्मिक जीवन में मनुष्य अपने प्रत्येक कम के लिए उत्तरदायी है। उसके सारे सुख-दुख कम के ही कारण है। ससार में जीव जिन कर्मों से बधकर घूमता रहता है उत्तराध्ययनसूत्र म उनकी सख्या आठ बतलायी गयी है । इस ससार में जितने भी जीव है सभी अपने अपन कर्मों के द्वारा ससार भ्रमण करते हुए विभिन्न योनियों में जाते हैं। किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना जीव को मुक्ति नहीं मिलती। अस मोक्ष की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य अपने पूर्वजन्म के कम-फल का नाश करे और इस जन्म म किसी प्रकार के कमभाष से गृहीत न हो।
स्याद्वार जैनधर्म-दशन का प्रधान सिद्धान्त है। स्यात् शब्द अस पातु के विधिलिङ के रूप का तिङन्त पद जैसा प्रतीत होता है। लेकिन यह शब्द अव्यय है को कथंचित् अथवा अमुक दृष्टि का प्रतीक है। इस प्रकार स्वाहाद का बर्ष सापेक्षवाव अपेक्षावाद बोर कवित्वाव ह जो मिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से वस्तु के तत्व का निरीक्षण करता है। जैन-पान में स्यावाद को भनेकान्तवाद भी कहते है क्योंकि स्यावाद से
१ समवायागसुत्त सूत्र ६ । २ स्टीवेन्सन एस हट मॉफ जैनिज्म पृ १६ । ३ उत्तराध्ययनसूत्र ३३॥२३॥ ४ जैनी जे भाउट लाइन्स बॉफ जैनिज्म पृ १३९१४ । ५ मेहता मोहनलाल जैनधर्म-वशन १ ३५८॥
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१२ बोर तथा जनवम जिस पदाथ का कथन होता है वह अनेकान्तात्मक है । अनेका तात्मक अर्थ का कथन ही बनेकान्तवाद है । अत अव्यय स्यात अनेकात का द्योतक है। इसलिए स्यावाद को अनेकान्तवाद कहा गया है। देवेद्र मनि शास्त्री आदि जैन विद्वानो के अनुसार वास्तविक सत्य की खोज करन म अनकान्तवाद सहायक होता है। अनेकान्त दष्टि से प्रत्येक वस्तु नित्य एव अनित्य दोनों है । तत्त्वाथसूत्र के अनुसार प्रत्येक सत् पदाथ उत्पाद व्यय एव ध्रौव्यात्मक है। स्यावाद के अनुसार सत कभी नाश और असत की कभी उत्पत्ति नही होती। सूत्रकृताग के अनुसार वस्तुतत्व को जीव एव शरीर के रूप म माना गया है। प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक ह । उन अनन्त धर्मों की यथाक्रम सगति बैठाने के लिए विधि एव निषध आदि की भावना से सात प्रकार की भावनाओं का विचार किया गया है। इसे ही ससभगीनय कहत हैं। ये सात प्रकार के हैस्यात अस्ति स्यात नास्ति स्यात अस्ति नास्ति स्यात अवक्तव्य स्यात अस्ति भवक्तव्य स्यात् नास्ति-अवक्तव्य स्यात् अस्ति-नास्ति च अवक्तव्य । यहाँ जैनो के अनुसार इन सात प्रकार की अवस्थामो म द्रव्य क्षत्र काल तथा भाव आदि चार स्वरूपो को लेकर विभिन्न अवस्थाओ को सम्भावना की गयी है जिसके द्वारा वस्तु तत्व की सही जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
___जनो न विश्व के प्राकृतिक तथा अप्राकृतिक स्वरूपो का विचार कर सात प्रकार के मल तत्वो का पता लगाया । ये तत्व जीव अजीव आस्रव बघ सवर निजरा और मोक्ष है पुण्य पाप को भी इनम जोडकर उत्तराध्ययनसूत्र म इनकी सख्या ९ बतलायी गयी है। भगवान महावीर ने तत्व-जान को शिक्षा म बताया है कि जीव और अजीव अर्थात चेतन और जड़ ये दो मल तत्त्व है जो परस्पर सम्बद्ध है। चेतन की मन वचन काया से सम्बधित क्रियाओ द्वारा इस जड एव चेतन
१ मलिषण स्यावाद मजरी पू ६। २ शास्त्री देवेन्द्रमनि धर्म और दशन प १४ । ३ तत्त्वाथ सूत्र ५। ४ भारतीय दशन की रूपरेखा पृ १६४-१६६ । ५ सूत्रकृताग १।१।१७। ६ स्यादाद मजरी २३ । ७ मिश्र लमेश भारतीय दशन प १३१ । ८ तत्वाथसूत्र १।४। १ उत्तराध्ययनसूत्र २८।१।।
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सम्बन्ध की परम्परा प्रचलित है। इसे ही कर्मबन्ध कहा गया है। नियम एवं प्रतावरण के पालन द्वारा इस कमबन्ध की परम्परा को क्या सयम एवं रूप द्वारा पुराने कर्मबन्ध को रोका जा सकता है और जड तत्व से सर्वथा मुक्त जीव अपने अनन्त मान एव दशनात्मक स्वरूप को प्रास कर लेता है। इस प्रकार की क्रिया द्वारा जन्म मरण की परम्परा का विच्छेद करके मोक्ष अपवा निर्वाण प्रास किया जा सकता है। जैनषम में मानव-जीवन का यही परमसत्य बताया गया है।
भगवान महावीर ने अपने घम का मलाधार अहिंसा माना है और अहिंसा के ही विस्तार म उन्होंने पचमहावतो को स्थापित किया। ये पांच व्रत है-अहिंसा अमृषा ( सय) अचीय अमैथन (ब्रह्मचय ) एव अपरिग्रह । इन पांच बतो को मुनियो द्वारा पूर्णत पालन किये जाने पर महावत और गृहस्थों द्वारा स्थल पसे पालन किये जाने पर महाव्रत और गृहस्यो द्वारा स्थल रूप से पालन किये जाने पर अणवत नाम दिया गया। जैन-प्रन्थो से ज्ञात होता है कि पाश्वनाथ ने चातुर्यामधम और महावीर न पांच महाव्रतों का उपदेश दिया। पार्श्वनाथ बादि मध्य के २२ तीर्थकर भिक्षुओ के लिए चार ही व्रतो को आवश्यक मानते थे परन्तु महावीर ने पांचवें ब्रह्मचयक्त को भी आवश्यक बतलाया । दसरा मतभेद भिक्षों के लिए वस्त्र धारण करने पर था। भगवान महावीर ने अचेतनत्व पर बल दिया।
भगवान महावीर समता के पक्षपाती थे। अत उन्होंने जाति एव वण में विश्वास नही किया । उन्होन स्पष्ट रूप से ब्राह्मणों के यज्ञ-यागादि का विरोध करते हुए कहा है कि हे ब्राह्मणो! अग्नि का प्रारम्भ कर और जल मजन कर बाह्मशुद्धि के द्वारा अन्त शुद्धि क्यों करते हो ? जो माग केवल बाह्मशुद्धि का है उसे कुशल पुरुषों ने इष्ट नही बतलाया ह । कुशा यप तृण काष्ठ और अग्नि तथा प्राता और सायंकाल जल का स्पश कर प्राणी और भतो का विनाश कर हे मन्दबुद्धि पुरुष तुम केवल पाप का ही उपाजन करते हो। इस प्रकार बाह्यशुद्धि एव कर्मकाण्ड को निरथक बतलाकर उहोने शद्ध आचरण की प्रतिष्ठा पर बल दिया । उत्तराध्ययन में कहा गया है कि षम मेरा जलाशय है ब्रह्मचय मेरा शान्ति-तीथ है मात्मा की प्रसन्नलेश्या मेरा निर्मल घाट है यहां स्नान कर आत्मा विशुद्ध होता है। बत जो
१ उत्तराध्ययनसूत्र २१।१२ । २ वही २३३२३ । ३ वही २३३१३ । ४ वही १२२३८३९। ५ बही १२०४६ ।
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१४ रवानव परिवाचार के गुणों से सयुक्त है जो सर्वोत्तम सयम का पालन करता है जिसने समस्त मासबो को राक दिया है जिसने कर्मों का नाश कर दिया है वह विपुल उत्तम और ध्रुवगति मोक्ष को पाता है। ब्राह्मणों की जन्मजात वर्णव्यवस्था को अस्वीकार करते हुए उन्होंने कम के आधार पर उसकी व्याख्या की। उनका स्पष्ट विचार था कि कम से ही कोई ब्राह्मण होता है कर्म से ही भत्रिय होता है कम से ही वैश्य होता है और कम से ही मनुष्य शूद्र भी होता है। निर्वाण-प्राप्ति के लिए यह जरूरी है कि मनुष्य अपनी निम्न प्रवृत्तियों का दमन करे। उन्होने सम्यक ज्ञान सम्यक चारित्र एव सम्यक दशन को ही मोक्ष का कारण माना है।
बौद्ध एव जैन-पन्यो म उल्लिखित साक्ष्यो से पता चलता है कि लगभग ६ ई पू में पाश्वनाथ द्वारा विस षम का प्रचार-काय प्रारम्भ किया गया था उसे महावीर स्वामी ने पूरे बिहार प्रदेश में प्रचार-काय द्वारा एक लोकप्रिय धम बना दिया । धीरे धीरे समस्त उत्तर भारत एव बगाल में भी इसकी लोकप्रियता बढ गयी और महावीर के पश्चात् तो समस्त देश में यह षम अत्यन्त लोकप्रिय हो गया । जैनधर्म और बौद्धधम मे समानता और विभिन्नता
भारतीय संस्कृति अनेक प्रकार के विचारो का विकसित रूप है । य विचार अनादिकाल से अनेक धाराओ में बहते चले आ रहे है। इन्हें मुख्य रूप से दो भागो में विभक्त किया जा सकता है--एक वैदिक-परम्परा तथा दूसरी श्रमण-परम्परा । धमण-परम्परा की भनेक शाखाए रही ह किन्तु वर्तमान में केवल दो शाखाए ही दष्टि गोचर होती है जैन परम्परा तथा बौद्ध-परम्परा । ये दोनो हो परम्पराएं अ य परम्परामो की भांति धर्म एव दशन के रूप में विकसित हुई है।
इस प्रकार बौद्ध-दशन एव जैन-दशन दोनो श्रमण-परम्पराओ की दो पपक-पृषक् विचारधाराए है। स्वाभाविक रूप से इनमे कुछ दृष्टियों से साम्य और कुछ दृष्टियो से वैषम्य है । साम्य इस रूप में है कि ये दोनों दशन न तो वेद को प्रमाण मानत है और न ही ईश्वर को जगत का कर्ता । ये कम सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। ससार म सत्व (जोब ) अपने पूर्वकृत कर्मों के कारण हो एक गति से दूसरी गति म जन्म एव मरण को प्राप्त करता हुआ नाना दुखों को भोगता रहता है। ससार म जो भी विचित्रता ह वह प्राणियो के कर्मों के फलस्वरूप ही है। सव इन कर्मों से मुक्त हो जाता है तो
१ उत्तराध्ययनसूत्र २ ॥५२ । २ वही २५।३३। ३ तस्वार्थसूत्र १०१।
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१५
उसका जन्म और मरभ के द्वारा ससार म भटकना समाप्त हो जाता है । मोड-से भेव के साथ इस कम-सिद्धान्त को दोनों ही परम्पराएं स्वीकार करती है ।
किन्तु इन समानताओं के होते हुए भी दोनों धर्मों में जो मौलिक अन्दर है जिनके कारण ये दोनों धर्म मित्र हैं। इनम सबसे प्रमुख बात पदार्थविषयक मान्यता है । बौद्ध-दशन के अनुसार पदार्थ उत्पाद एव व्यय से मुक्त है जब कि जैन दर्शन में पदार्थ उत्पाद व्यय एव धौष्य से युक्त है । फलत वह नित्यानित्यात्मक सामान्य विशेषात्मक एव भेदाभेदात्मक है । बौद्ध-दशन में आत्मा को नित्य एवं स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में न मानकर पथस्कन्धात्मक माना गया है जब कि जैन-दर्शन में आत्मा को परिणामी नित्य स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार किया गया है। जैनधम जात्मवादी और बौद्धधर्म मनात्मबादी है ।
बौद्ध और जैनधम का साम्य और वैषम्य स्पष्ट है । अत यह एक विचारणीय विषय है कि इन दो विचारधाराओं में उक्त साम्य एव वैषम्य किस सीमा तक है और उसका आधार क्या है ? उक्त प्रश्नो का उत्तर पाने के लिए धम्मपद एव उत्तराध्ययनसूत्र का तुलनात्मक अध्ययन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इसका कारण यह है कि जहाँ एक ओर धम्मपद में जो खुद्दकनिकाय का एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है बौद्धधर्म के समस्त तत्त्व संक्षेप म वर्णित हैं तो दूसरी ओर उत्तराध्ययन में जैन-दशन के सभी मूल सिद्धान्तों का कथन ह। बुद्ध ने धम्मपद में बौद्धधम के तत्त्वो का वजन कर तथा महावीर ने उत्तराध्ययन म सभी जैन सिद्धान्तो का वर्णन कर गागर में सागर भरने की कहावत चरितार्थ की है । अत इन दोनों ग्रन्थों का तुलनात्मक अध्ययन जो कि आज तक नही हुआ है बौद्ध एव जन दशन के सम्बन्धो को अधिक अच्छी तरह से समझने में सहायक हो सकता है ।
बौद्ध साहित्य मे धम्मपद का स्थान
धम्मपद पालि बौद्ध साहित्य का एक अत्यन्त लोकप्रिय ग्रन्थ है । ब्राह्मण या श्रौतस्मार्त-परम्परा में जो महत्त्व श्रीमद्भगवद्गीता को प्राप्त है वही स्थान बौद्ध परम्परा में धम्मपद को है । दोनों में मौलिक अन्तर भी है। गीता का एक ही कथानक है और श्रोता भी एक ही है लेकिन धम्मपद के विभिन्न कथानक और विभिन्न धोता है । गीता का उपदेश एक निश्चित समय में समाप्त किया गया था लेकिन धम्मपद में तथागत के पैंतालीस वर्षों के उपदेश सगृहीत हैं। भगवान् बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्ति से लेकर परिनिर्वाणपयन्त समय-समय पर जो उपदेश दिये उनका महत्वपूर्ण अंश धम्मपद में सकलित है । बौद्धधम-दशन के प्रमुख सिद्धान्त इसमें सक्षेप में समाहित हैं ।
धम्मपद शीर्षक की व्याख्या भिन्न-भिन्न विद्वानों द्वारा विभिन्न प्रकार से की गयी है । यह एक अनेकार्थक शब्द है जिसे स्वत बौद्धों में भी स्वीकार किया है ।
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बाईसव निरयवग्ग' में नरक में उत्पन्न होनेवालों का वर्णन है। कहा गया है कि असत्यवादी नरक म जादा है और वह भी जो करके नही किया कहता है । इस प्रकार दोनों को गति मरने पर एक समान है। इस वग में १४ गाथायें है।
तेईसव नागवग्ग में हाथी के समान अडिग रहने का उपदेश है। भगवान् ने कहा है कि जिस प्रकार नाग (हाथी ) युद्ध ममि म धनुष से गिरे बाण को सहन करता है वैसे ही मैं कटवाक्यों को सहन करूंगा क्योंकि ससार में दुशील लोग ही अधिक है। इस वर्ग में १४ गाथाय हैं।
चौबीसवें तण्हावग्ग में तृष्णा का वणन है। तृष्णा के हो कारण मनुष्य खो में पड़ा है । यह सभी पापों की जननी है । लेकिन जो इससे रहित ह उसे शोक नही होता । इस वग में २७ गाथाय है ।
पचीसवे भिक्खुवग्ग में सच्चे भिक्ष का स्वरूप बताया गया है तथा यह बताया गया ह कि एक सच्चे भिक्षु को क्या करना चाहिए यथा भिक्षु इन्द्रियो मे पयम करे सन्तोषी हो और प्रातिमोक्ष की रक्षा करे शुट जीविकावाला हो निरालस रहे तथा मित्रों का साथ करे । इस वर्ग में २३ गाथायें है ।
छब्बीसवें तथा अन्तिम ब्राह्मणवग्ग म ब्राह्मणों के लक्षण बतलाये गये है था वास्तविक ब्राह्मण की परिभाषा की गयी है । ब्राह्मण का अर्थ है सभी पापों से हित व्यक्ति ज्ञानी और महत । इस वर्ग म ४१ गाथायें है।
ऊपर धम्मपद की विषयवस्तु के स्वरूप का जो परिचय दिया गया है उससे IIत होता है कि उसमें नीवि-सम्बन्धी सभी आदश निहित है जो भारतीय संस्कृति और समाज की सामान्य सम्पत्ति है। इसकी गाथाओ में शील समाधि प्रज्ञा नर्वाण आदि का बडी सुन्दरता के साथ वणन है जिसको पढ़ते हुए एक अद्भुत वेग धर्मरस शाति ज्ञान और ससार निबद का अनुभव होता है । इस सम्बन्ध में रतसिंह उपाध्याय के शब्दों में धम्मपद को इस प्रकार बोसो को गीता ही कहना गहिए । सिंहल में बिना धम्मपद का पारायण किय किसी भिक्षु को उपसम्पदा नही ती । बर्मा स्याम कम्बोडिया और लामोस में भी धम्मपद का कण्ठस्थ होना प्राय त्येक भिक्षु के लिए आवश्यक माना जाता है। बुख-उपदेशों का बम्मपद से अच्छा
१ धम्मपद गामा-स ३६। २ वही ३२ । ३ वही ३२ । ४ाहा विमलाचरण हिल्ट्री वॉफ पालि लिटरेचर बिल्ल १ १ २० -२१४ ।
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२२ बोडसमा जनधर्म
साह पालि-साहित्य में नही है। इसकी नैतिक दष्टि जितनी गम्भीर है उतनी ही वह प्रसादगुणपूर्ण भी है।
श्री अघट ज एडम ड ने धम्मपद के अपन अग्रेजी अनुवाद की भूमिका में लिखा है- यदि एशिया-खण्ड में कभी किसी अविनाशी ग्रन्थ की रचना हुई तो वह यह है । इन पदो ने अनेक विचारको के हृदय में चिन्तन की आग जलायी है। इन्हीसे अनुप्राणित होकर अनेक चीनी यात्री मगोलिया के भयानक कान्तार और हिमालय को अलध्य चोटियां लाकर भगवान् बुद्ध के चरणो से पूत भारत भमि के दशनाथ आए । बुद्ध के पमपदो को प्ररणा से ही महाराज अशोक ने अपने राज्य म प्राणदण्ड का निषष किया था और मनुष्यो तथा जानवरो तक के लिए अस्पताल खोले थे।
पूज्य भदन्त आनन्द कौसल्यायन का कथन बिल्कुल ठीक है कि यदि केवल एक पुस्तक को जीवनभर साथी बनाने की कभी इच्छा हो तो विश्व के पुस्तकालय म षम्मपद से बढकर दूसरी पुस्तक मिलनी कठिन है ।
धम्मपद मलत बुद्ध वचन ह अत इसका रचना काल अज्ञात है। लेकिन बाद के साक्ष्यो के आधार पर यह पता चलता है कि हनसाग जिसन सातवी शताब्दी में भारत का भ्रमण किया उसका विचार है कि त्रिपिटक काश्यप के द्वारा प्रथम सगीति के अन्त म ताम्रपत्रो पर लिखा गया था जो बाद म राजा बट्टगामिनि के शासन काल म ( ८८ से ७६ ई पूर्व ) उसे पुस्तको म इसलिए लिपिबद्ध कर दिया गया कि बौद्धधर्म युगों तक जीवित रह सके । अत स्प ट है कि धम्मपद का वतमान रूप इसी समय निश्चित हुआ था।
इस ग्रन्थ की निर्माण तिथि के सम्बन्ध मे प्रधानतया दो प्रकार के मत पाये जाते है। प्रथम मत प्रोफसर मक्सम्यलर का है जिनके अनुसार प्रारम्भ में सभी बोट अन्य मौखिक परम्परा के रूप में ये जो बाद म सिंहल्द्वीप के राजा बट्टगामिनि के आदेश से लिखित रूप में माय । महावश नामक बौद्ध साहित्य की रचना में इस तथ्य का उलेख मिलता है । महावश का निर्माण काल ४५९-४७७ ई प्रसिद्ध है । दूसरा मत
१ उपाध्याय भरतसिंह पालि-साहित्य का इतिहास पृ २३८ । २ कौसल्यायन भदन्त आनन्द धम्मपद की भूमिका पृ १। ३ मक्सम्यूलर एफ सेक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट भूमिका १ १२ । ४ वही इण्डियन एण्टीक्यरी नवम्बर १८८ १ २७ । ५ दीपयश अध्याय २ पंक्ति २ । ६ सेक्रेर गुफ्स वॉफ दी ईस्ट बिल्ल १ भूमिका ।
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भूमि २३
है कि सभी त्रिपिटक का संकलन भगवान् बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् ४७७ ई प राजगृह में आयोजित प्रथम महासगीति-सम्मेलन में किया गया था । द्वितीय और तृतीय महासम्मेलनों में तो इन सकलनों को पर्णता प्राप्त हो गयी थी । अत कहा जा सकता है कि धम्मपद और बौद्ध साहित्य का सकलन ई पू ४७७ तक हो चुका था । इसके लिए कुछ बाह्य प्रमाण दिये जा रहे है । "लिन्दपन्हो एक प्राचीन एव सुविख्यात पालि-ग्रन्थ है । इसकी रचना प्रथम शताब्दी के आरम्भ में हुई है । धम्मपद के बहुत सारे उद्धरणो का उल्लेख इसके अन्तगत आया है । कथावत्थ धम्मपद की बहुत सारी उक्तियो को उद्धत करता है । महानिद्देस और चुल्लनिद्देस भी ई पू द्वितीय शताब्दी के पश्चाद्वर्ती नही हो सकता क्योंकि सम्राट अशोक ने धम्मपद के अप्पमादवन्ग को विद्वान श्रमणो से सुना था जो इस बात का प्रमाण है कि धम्मपद अशोक से पदवर्ती रचना है। अशोक का काल ई प तीसरी शती माना जाता है । अत यह कहा जा सकता है कि धम्मपद का रचना-काल ई प तीसरी शताब्दी से पर्ववर्ती है ।
धम्मपद के अनेक सस्करण और अनुवाद प्राप्त है। विशेष उल्लेखनीय अग्रेजी अनुवाद मक्सम्यलर (एस बी ई ) राधाकृष्णन् नारदथेर एफ एल वुडबड ए एल एडमण्ड इरविंग बैबिट और यू धम्मज्योति के तथा हिन्दी अनुवाद महापण्डित राहुल साकत्यायन और भदन्त आनन्द कौसल्यायन के है । भिक्षु जगदीश काश्यप द्वारा सम्पादित धम्मपद का देवनागरी सस्करण भी खुद्दकनिकायपालि की प्रथम जिद में विद्यमान है । विभिन्न विद्वानो ने अपने सस्करणो में धम्मपद और इसमें प्राप्त उपदेशो के विषय में न्यनाधिक विस्तृत विद्वत्तापर्ण भूमिकायें भी लिखी है । धम्मपद को समझने म अटठकथा भी अत्यन्त सहायक है जिसका बलिगेम ने अग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत किया है और जिससे यह सूचना प्राप्त होती है कि बौद्ध परम्परा के अनुसार किन अवसरों पर बुद्ध ने विभिन्न गाथाय कही थीं । धम्मपदट्ठकथा आचार्य बुद्धघोष की रचना है या नहीं इसके विषय म सन्देह प्रकट किया गया है । जर्मन विद्वान् डॉ विल्हेल्म गायगर ने इसे आचाय बुद्धघोष की रचना नहीं माना है । उन्होने धम्मपद कथा को जातकटठवण्णना से भी बाद की
रचना माना है क्योंकि
१ ओरिजिन्स ऑफ बुद्धिज्म अध्याय १ ।
२ मिor बमरक्षित धम्मपद की भूमिका पृ ४ ।
३ राधाकृष्णन् एस धम्मपद की भूमिका |
४ गायगर विल्हेल्म पानि बिटूरेचर एण्ड लैंग्वेज १० ३२ ।
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२४ गोडवा जनधर्म
दोनो में अनेक कहानियां समान हैं। आश्चय की बात है कि जो कहानियां यहाँ दी गयी है और जिनके आधार पर धम्मपद की प्रत्यक गाथा को समझाया गया है उन्हें भी साक्षात बुद्धोपदेश ही यहां बतलाया गया है जो ऐतिहासिक रूप से ठीक नही हो सकता । फिर भी धम्मपदटठकथा की कहानियो म जातक के समान ही प्राचीन भार तीय जीवन विशेषत सामा य जनता के जीवन की पूरी झलक मिलती है और भार वीय कथा-साहित्य म उसका भी एक स्थान है। जैन-साहित्य में उत्तराध्ययनसत्र
उत्तराध्ययन शब्द दो शब्दो के योग से बना है-उत्तर + अध्ययन अर्थात् प्रधान और पश्चाद्भावी अध्ययन । तापय यह है कि भगवान महावीर ने अपने जीवन के उत्तरकाल म निर्वाण के पूर्व जो उपदेश दिया था उन्ही उपदेशो का सकलन इस ग्रन्थ म हुआ है। यह सूत्र अधमागधी प्राकृत भाषा म निबद्ध एक जन आगम प्रन्थ है। यह एक धार्मिक काव्य ग्रन्थ है । इसम नवदीक्षित साधुओ के सामान्य आचार विचार आदि का वणन किया गया है। कुछ स्थानो पर सामान्य मूलभत सिद्धान्तों की चर्चा की गयी है। इसका स्थान मूल सूत्रो म प्रथम और महत्त्वपण है । मत मूलसूत्रो की सख्या और मामो म पर्याप्त अन्तर पाया जाता है फिर भी उत्तरा ध्ययन के मूल सूत्र होन म किसीको सदेह नही है तथा क्रम म अन्तर होने पर भी प्राय सभी उत्तराध्ययन को प्रथम मूलसूत्र मानत है । जाल शान्टियर ने महावीर के शब्द होने से इन्ह मूलसूत्र कहा है। परन्तु यह कथन ठीक नही है क्योकि सभी प्रन्यो का सम्बध महावीर के वचनो से ह । प्रो गरीनो न इन पर कई टीकाओं के लिखे जाने से मल प्रथ कहा ह । परन्तु यह युक्तिसगत नही है क्योकि प्राय सभी ग्रन्थों पर टीकाय लिखी गयी है । डा शबिंग न साध-जीवन के मूलभत नियमों के प्रति पादक होन के कारण मूलसूत्र कहा है। प्रो एच आर कापडिया नमीचन्द्रजी शास्त्री आदि विद्वान् कुछ सशोषन के साथ इस मिद्धात के पक्ष में है।
१ जगदीशचन्द्र जैन-साहित्य का बृहद् इतिहास भाग २ पृ १४४ । २ शापन्टियर उ भमिका पृ ३२ तथा कापडिया एच आर हिस्ट्री ऑफ
दी केनोनिकल लिटरेचर ऑफ जैन्स पृ ४२ । ३ वही प ४२। ४ आत्माराम दशवकालिकसूत्र भमिका प ३ तथा हिस्ट्री ऑफ दी केनोनिकल
लिटरचर ऑफ जैन्स पृ ४२ । ५ शास्त्री नेमीचन्द्र प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास ५ १९२ हिस्ट्री पॉफ दी केनोनिकल लिट्रेचर बॉफ अन्स १४ ।
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भूमिका २५
विभिन्न विषयों का प्रतिपादन करते हुए इस प्रन्थ में ३६ अध्ययन है । इनमें आचार-सम्बन्धी और तस्वज्ञान सम्बधी विवेचन है । आचार से सम्बन्ध रखनेवाले विषय है -- २रा परीषह ३रा चतुरङगीया ४था असंस्कृत ५वf अकाममरण ठा क्षुल्लक निधी ७ एलक ८वां कापिलीय ९वाँ नमिप्रव्रज्या १ व द्रुमपत्रक ११व बहुत पजा १२वीं हरिकेशीय १३व चित्तसम्भतीय १४व इषुकारीय १५ समिक्ष १६व ब्रह्मचय समाधि स्थान १७६ पाप श्रमणीय १८ सयतीय १९ मृगापुत्र व महानिग्रन्थीय २१वीं समुद्रपालीन २२व रथनेमी २३व केशी गौतमीय २४ समितीय २५ यशीय २६वी समाचारी २७व खलङकीय २८ मोक्षमाग गति २९व सम्यक्त्व-पराक्रम ३ व तपोमाग ३१वीं चरणविषि ३२ व प्रमाद स्थानीय ३४व लेश्या और ३५व अनगार । तत्त्वज्ञान-सम्बन्धी अध्ययनो में ३३व कमप्रकृति और ३६वीं जीवाजीव विभक्ति है । लेकिन इन अध्ययनों में एक दूसर से काफी निरूपता है ।
२
इन ३६ अध्ययनो के वणन नीच प्रस्तुत किये जा रहे हैं४८ गाथाओ से युक्त प्रथम अध्ययन म विनयषम का वर्णन इसम भिक्ष को भिक्षचर्या विनीत एव अविनीत शिष्यों के गुण-दोषादि के गुरु के कतव्यों का भी वणन है ।
दूसरे अ ययन म साधु के लिए २२ परीषह बताये गये हैं । सूत्र गद्य खण्ड मे और अन्त के ४६ श्लोक पद्य रूप में निबद्ध है । तीसरे अध्ययन में मोक्ष प्राप्ति के साधन मनुष्यत्व श्रुति धारण करने की शक्ति इन चार वस्तुओं को दुलभ कहा गया है। २ गाथायें हैं ।
किया गया है । साथ ही साथ
प्रारम्भ के तीन
श्रद्धा और सयम इस अध्ययन में
चो अध्ययन की तेरह गाथाओ म ससा की क्षणभंगुरता का प्रतिपादन किया गया है तथा भारण्ड पक्षी की तरह अप्रमत्त रहने का उपदेश दिया गया है। पांचव अकाम-मरण नामक अध्ययन में भिक्ष और गृहस्थ के सयमी जीवन की तुलना है और सुकृत गृहस्थ को सुगति-देवगति तथा बाल व्यक्तियों के अकाम मरणादि के बारे में कहा गया है ।
१ प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास पू १९३ ।
२ उत्तराध्ययन सूत्र २।२-४५ ।
३ वही ३३१ ।
४ वही ४१६ ।
५ वही ५१२ ।
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२६ बौद्ध तथा जनधर्म
छठे अध्ययन में १७ गाथाओं के अन्तगत जैन साध के आचार विचार का are है और इसलिए इसका नाम क्षल्लक निम्र थीय ( जैन साधु ) रखा गया है ।
सातव अध्ययन में तीस गाथाओ के अतगत इन्द्रियों क्षणिक हैं इनके विषय क्षणिक हैं । फलत इनसे मिलनेवाला सुख भी क्षणिक है । इन क्षणिक सुखों के प्रलो मनों में आकर भविष्य म होनवाले इनके दुखद परिणामों को साधक न भूले । साधक भातिवश थोड से सुख के लिए अपनी कोई बडी हानि न करे । इस विषय को इस अध्ययन में बहुत सरल सुन्दर एव व्यावहारिक उदाहरणो से स्पष्ट किया गया है ।
क्योकि आठवें अध्ययन के प्ररूपक कपिलऋषि है इसलिए इस अध्ययन का नाम कापिलीय रखा गया है। इसम कपिलमनि द्वारा चोरो को दिये गय सगोता त्मक उपदेशों का संग्रह ह । इस अध्ययन म लक्षणविद्या स्वप्नविद्या और अविद्या का उपयोग साधु के लि वर्जित बताया गया है। लोभ किस प्रकार बढ़ता है इसका अनुभत चित्र इसम खीचा गया है। इसम २ गाथाय है ।
ata अध्ययन म नमित्र या का वर्णन है जिसम राजर्षि नमि का ब्राह्मण वेशधारी इद्र के साथ आध्यात्मिक सवाद वर्णित है । इस अध्ययन म ६२ गाथाय हैं ।
आद्यपद्य के आधार पर दसव अ ययन का नाम दुमपत्रक रखा गया है जिसका अर्थ है वृक्ष का पका हुआ पत्ता । इस अध्ययन में भगवान महावीर द्वारा गौतम के बहान सभी साधको को आत्मसाघना म क्षणमात्र प्रमाद न करन का सन्देश दिया गया है । इसम अन्तमन के जागरण का उदघाष है जा प्रत्येक साधक के लिए ज्योतिस्तम्भ के समान है । इसम ३७ गाथाय है । प्रत्यक गाथा के अन्त म गोयम मापमायए तथा अन्तिम गाथा म सिद्धि गइगए गोयमे पद का उल्लेख ह । ग्यारहव अध्ययन म ३२ गाथाओ के अन्तगत विनीत को बहुश्रुत और अविनीत को बहुत कहा गया है ।
समय
हरिकेशीय नामक बारहव अध्ययन म ४७ गाथाओ के अन्तगत हरिकेशिबल और ब्राह्मणो के मध्य हुए वार्तालाप में कमणा जातिवाद की स्थापना तप का प्रकक तथा अहिंसा यज्ञ की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया गया है ।
तेरह अध्ययन में वित्त और सम्भति नाम के चाण्डाल-पुत्रो की कथा है । इसमें ३५ गाथायें हैं । चिस और सम्भति के नाम के कारण इस अध्ययन का नाम चित्तसंभतीय रखा गया ह ।
इषुकारीय नामक चौदहव अध्ययन म ५३ गाथाय हैं जिनमें इषुकार १ उत्तराध्ययनसूत्र ७।१२ ।
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ममिया २७
नगर के राजा और रानी पुरोहित और उसकी पत्नी पुरोहित के दोनो पुत्रों के दीक्षा लेने का उल्लेख है।
पन्द्रहवें अध्ययन की १६ गाथाओं में सदभिक्ष के लक्षण बताये गये है। इस अध्ययन म अनेक दार्शनिक और सामाजिक तम्यो का सकलन ह ।
ब्रह्मचर्य-समाधि स्थान नामक सोलहव अध्ययन में ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए दस बातों का त्याग आवश्यक बतलाया गया है । इसमें १७ गाथाय पद्य रूप म निबद्ध तथा १२ स्त्र गद्य रूप में है।
सत्रहव अध्ययन में पाप श्रमण के लक्षण बतलाये गये हैं। इसम २१ गाथाय हैं । तीसरी से लेकर उन्नीसवी गाथापयन्त प्रत्येक माथा के अन्त में पावसमणित्ति वुच्चई पद आया है।
सजय नामक अठारहवें अध्ययन में सजय राजा का वणन है जिसने मुनि का उपदेश श्रवण कर श्रमण-धम में दीक्षा ग्रहण की । इसमें ५४ गाथाय हैं।
उन्नीसवें अध्ययन में ९९ गाथाओ के अन्तगत मृगापुत्र की दीक्षा का वर्णन ह जिनमें मृगापुत्र और उसके माता पिता के बीच होनवाला सवाद बहुत ही सुन्दर ह । मृगापुत्र को प्रधानता के कारण ही इस अध्ययन का नाम मृगापुत्रीय है।
बीसव अध्ययन का नाम महानिनथीय है। इसम अनापीमुनि और राजा श्रेणिक के बीच हुए रोचक सवाद का वणन है। इसमें ६ गाथायें है।
समुद्रपालीय नामक इक्कीसव अध्ययन में वणिक पुत्र समुद्रपाल का प्रव्रज्या ग्रहण और सयमपूर्ण श्रमण जीवन वर्णित ह । इसम साधओं के आन्तरिक आचार के सम्बध में वर्णन करते हुए शास्त्रकार ने कहा है कि साध को प्रिय और बप्रिय दोनों बातो में सम रहना चाहिए । इसमें २४ गाथाय है।
बाईसव अध्ययन में अरिष्टनेमि और राजीमती की कथा है। राजीमती का रचनमि को उपदेश म आचार विचार का दिग्दर्शन होता है। विचलित रयनेमि को राजीमती ने इस प्रकार धिक्कारा है-हे कामभोग के अभिलाषी तेरे यश को धिक्कार है त वमन की हुई वस्तु को पुन उपभोग करना चाहता है इससे तो मर जाना अच्छा है।
तेईसवें अध्ययन में ८९ गाथाओं के अन्तर्गत पार्श्वनाथ के शिष्य केशीकुमार
१ उत्तराध्ययन १४५३॥ २ वही १६३१-१ । ३ वही २२४३ तुलनीय विसवन्त पातक ६९।
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२८ : बौद्ध तथा जनधर्म
और महावीर वघमान के शिष्य गौतम के एतिहासिक सवाद का उल्लेख है । पाश्वनाथ न चातुर्याम का उपदेश दिया है और महावीर ने पांच महाव्रतो का पारवनाथ ने •सल धर्म का प्ररूपण किया है और महावीर न अचेल धर्म का ।
अष्टप्रवचनमाता नामक चौबीसव अध्ययन में पाँच समितियों और तीन गुतियों का वर्णन है । वर्णित है कि जो पण्डित साथ हैं वे उक्त आठ प्रवचनमाता या पांच समिति तथा तीन गुतियो के कथन के अनुसार सम्यक प्रकार आचरण करके शीघ्रता से ससार बन्धन से छट जाते हैं और मोक्ष के अधिकारी होते हैं ।
यज्ञीय नामक पचीसव अध्ययन म सच्चा यज्ञ श्रमण ब्राह्मण मनि और कर्मानुसारी जातिवाद की परिभाषा करते हुए साध के आधार का वर्णन किया गया है । इस अध्ययन म ४५ गाथाय है । इसकी १९ से २९ गाथाओ के अन्त म त वय बम माहण पद आया है ।
छब्बीसवें अध्ययन में समाचारी के दस भेद बताये गये हैं । समाचारी का अथ है सम्यक व्यवस्था | इसम साधक के परस्पर के व्यवहारो और कतव्यो का संकेत है। इसमें ५३ गाथायें हैं ।
खलकीय नामक सत्ताईसव अध्ययन म दुष्ट बल के दृष्टान्त द्वारा अविनीत शिष्यो की क्रियाओ का वर्णन है । इसम १७ गाथाय है ।
मोक्षभाग नामक अटठाईसवें अ ययन म ३६ गाथायें हैं जिनम रत्नत्रय माग का वर्णन होने से इसका नाम मोक्षभाग -गति ह ।
स्थानो एव उनके करनेवाले हैं। इसी
सम्यक्त्व - पराक्रम नामक उनतीसव अध्ययन म ७३ फलो की विस्तृत विवेचना की गयी है जो सम्यक्त्व को पुष्ट प्रकार काल प्रतिलेखन प्रयाख्यान वाचना अनुप्रक्षा आदि विषयों का वर्णन है । तपोमागगति नामक तीसव अध्ययन में बताया गया है कि प्राणवष मृषावाद मदत मथन परिग्रह एव रात्रि भोजन से विरक्त होने से होता है।
जीव आनवरहित
चरणविधि का अर्थ है- विवकमलक प्रवृत्ति | इसमें २१ अन्तगत साध के चारित्र और ज्ञान से सम्बंधित कुछ सिद्धान्तों के आहार भय मैथन परिग्रह आदि से साध को मुक्त रहने का उपदेश
१ उत्तराध्ययनसूत्र २४।२७ ।
२ वही २६।२-४ |
३ बही ३ ।२३ ।
गाथायें हैं जिसके
वणन के साथ ही
दिया गया है।
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अमिमा २१
इन्द्रियों की रायद्वेषम प्रवृत्ति को प्रमादस्थानीय मानकर इस अध्ययन का नाम प्रमावस्थानीय रखा गया है। अशुभ प्रवृत्तियां प्रमावस्थान है। प्रमावस्थान का अथ है-वे काय जिन कार्यों से साधना में विघ्न उपस्थित होता है और सापक की प्रगति रुक जाती है।
कमप्रकृति नामक तैतीसव अध्ययन म २५ गापामों के अन्तगत कर्मों के आठ भेदों तथा प्रभेदों को बतलाया गया है।
चाँतीसवें लेश्या अध्ययन म ६१ गाथाओं के अन्तगत लेश्यामओ के प्रकार तथा उनके लक्षणो को बतलाया गया है।
पत्तीसव अध्ययन का नाम अनगार है। इसम २१ गाथाय है जिनके अन्तगत साध के निवासस्थान भोजन-ग्रहण विषि साधना विधि आदि बातों का वणन ह ।
छत्तीसवें अध्ययन में जीव और अजीव का सविस्तार वणन होने से इसका नाम जीवाजीव विभक्ति रखा गया है । इसम २६९ गापाय है।
इस तरह इन अध्ययनो म मुख्य रूप से ससार को असारता तथा साघु के आचार का वणन किया गया है। इससे इसके महत्त्व और प्राचीनता दोनो का बोष होता है । इस महत्त्व के कारण ही इसे मूलसूत्रो अन्यो म गिना जाता है। इस महत्व के कारण ही कालान्तर में इस पर अनक टोकाय आदि लिखी गयी। जैकोबी शा न्टियर विष्टरनित्स आदि विद्वानो ने इसकी तुलना बोडों के सुत्तनिपात जातक और धम्मपद आदि प्राचीन ग्रयो से की है। उदाहरणस्वरूप राजा नमि को बौद्ध-प्रथों में प्रत्यक बुद्ध मानकर उसकी कठोर तपस्या का वर्णन किया गया है । हरिकेशिमुनि
१ शान्टियर उ भमिका पृ ४ तथा देखें उ आत्माराम टीका भूमिका
२२-२५ जैन-साहित्य का बृहद इतिहास भाग २ प १४७ १५२ १५६ १५७ १५९ १६३ १६५ तथा १६७ ।
धम्मपद १२।४ ८४
उत्तराध्ययन
११५ ९/३४
८७
९.४
५।११
२६०१९ २६।२५ २६४
२५।२७ २५।२९ २५४३४
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धम्मपद में प्रतिपावितस्थ
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स्वय कष्ट नही पहुँचाता और कष्ट देने के यदि कोई कष्ट देव तो उसको भला नही कारणो से अहिंसा घम का पालन करता है
है कि उस अथवा स्थावर किसी भी जीव को मन वचन और शरीर के द्वारा बो लिए किसीको प्रेरित नहीं करता और समझता अर्थात् जो तीन योग और तीन उसको आर्य (ब्राह्मण ) कहा जाता है ।
क्योंकि
अत ये आर्यसत्य कहलाते
धम्मपद में कहा गया है कि सत्यों में चार आर्यसत्य श्रेष्ठ है । इन्हें आय ही जानते हैं वे ही उनका सम्यक ज्ञान करते हैं है । य आर्यसत्य यथाथ हैं मिथ्या नही है क्योंकि दूसरों वे वैसे नही देखे जात हैं जैसे कि य आर्यों के द्वारा देखे जाते हैं । धम्मपद में जो बौद्ध प्रयोका सार है चार आयसत्यों की व्याख्या बहुत ही सुन्दर ढंग से की गयी है।
(जो आय नहीं है ) से
जो बुद्ध धम और सब की शरण में गया है वह मनुष्य दुःख दुख की उत्पत्ति दुःख का विनाश अर्थात् निर्वाण और निर्वाण की ओर ले जानवाले श्रेष्ठ अष्टाङ्गिक मार्ग इन चार आयसत्यो को अपनी बुद्धि से देख लेता है । चार आयसत्य ये हैं-१ दुस आयसत्य २ दुखसमुदय आर्यसत्य ३ दुःखनिरोष आर्यसत्य और ( ४ ) दुख निरोधगामिनी प्रतिपद आयसत्य । इन आयसत्यों का ज्ञान किन्ही किन्हींको स्रोतापन्न अवस्था म आशिक रूप में होता है और किन्ही किन्हीको सकृदागामी और अनागामी अवस्था म । किन्तु महत - अवस्था में पूर्णरूप से इनका ज्ञान होता है । जिस सत्य की पहले जानकारी होती ह उसीका पूर्वनिर्देश किया गया है। अब प्रश्न उठता है कि तृष्णा जो दुख का हेतु ह उसका पूर्वनिर्देश क्यो नही है और दुख जो तृष्णा के कारण उत्पन्न होता है तथा जो फलरूप है उसका बाद में निर्देश क्यों नही है ? इसका उत्तर यह है कि जिस बात में प्राणो फँसा है जिससे पीडित होता है जिससे मुक्ति चाहता है और जिसकी वह परीक्षा करता है वह और क्या है दुख ही तो है और इसीलिए इसे ही पहला सत्य बतलाया गया है । मुमक्षु इसके बाद उसके हतुरूप समदय सत्य (तृष्णा) और इसके बाद निरोष सत्य ( निर्वाण ) तथा उसके बाद माग ( अष्टाङ्गिक माग ) को खोजता है ।
१ मध्यान चतुरो पदा -- धम्मपद २७३ ॥
२ धम्मपद गाथा - संख्या १९ ।
३ दुक्ख - दुक्ख समप्पाद दुक्खस्स च व्यतिक्कम । अरियन्टङिगकं मग्ग दुक्ख पसमगामिन ||
४ बौद्ध योगी के पत्र पू ११ १११ ।
वही १९१ ।
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२६.बीड या गर्न
पालि बौद्ध-साहिय में दुख की व्याख्या सामान्यत इस प्रकार से की गयी है यथा--जीवन दुखदायी है पदा होना दुख ह बड़ा होना रोगी होना क्षीण होना मरना शोक करना रोना पीटना चिन्तित होना परेशान होना दुख है अप्रिय के साप सयोग प्रिय से वियोग इच्छा की पूर्ति न होना भी दुख है सक्षप में पांचों उपादान स्कन्ध दुख है। धम्मपद में कहा गया है प्रियों ( पञ्चकाम गुणों) का सग न करे और न कभी अप्रियों का प्रियो का। न देखना और अप्रियो का दशन दुखद होता है । अत दुःख है दुख सत्य ह तथ्यस्प ह अवितष रूप ह और अन्यथा नही है । धम्मपद में भी कहा गया है सभी सस्कार ( पदाथ ) दुखरूप है इस प्रकार जब प्रशा से मनुष्य देखता है तब वह दु खो से मक्ति को प्राप्त हो जाता है । यही निर्वाण का मार्ग है।
__यह सब दुख है ( सवमिद दु खम) पुरुषार्थ में दुख है उसके रक्षण और विनाश में भी दुख है । यह सारा संसार ही दुख से व्याप्त है । द ख से जल रहा है । इसलिए हंसी-खुशी और सुख इस संसार में कहाँ है ? धम्मपद में कहा गया है जब नित्य जल रहा है तो हंसी कैसी और आनन्द कैसा । अन्धकार से घिरे प्रदीप की खोज क्यो नही करते ? ससार अनादि और अनन्त है और वह अविया (बज्ञान) तथा तृष्णा से सचालित है। इस संसार म न तो एसा कोई श्रमण बाह्मण देवता मार या मनग्यतम सत्त्व ही अवशिष्ट है जो ससार में विद्यमान निम्न पाँच वस्तुबो से मछता रहा हो अर्थात जो रोग के अधीन होते हुए भी रुग्ण न हुआ हो जो मृत्यु के आश्रित है वह न मरा हो जो क्षय के वशीभूत होते हुए भी क्षीण न हुआ हो और वह भी जो विनाश के मुख में बैठे होने पर भी नष्ट न हुआ हो।
बुद्ध के अनुसार प्राणियो की ससार यात्रा अनादिकाल से चली आ रही है। उनके उद्गम-स्थान का पता नही है जहां से चलकर अविद्या म फैसकर मनुष्य अपने को तृष्णा के बन्धन में बांधकर इधर-उधर भटकते फिरते है। उनका कहना है किन
१ दीघनिकाय २१३ ५ १ २२७ तथा बुढचर्या १५।४७ । २ मा पियेहि समा मछि अपि यहि कुदाचन । पियान अदस्सन दुक्ख अप्पियान च दस्सन ।
धम्मपद गाया-सख्या २१ । ३ वही २७८ । ४ को न हासो किमानन्दो निच्च पज्जलिते सति ।
अन्धकारेन बोनद्वापदीपं न गवेस्सथ ॥
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पम्मपद में प्रतिपादित अपनीमांसा ३७ आकाश में न समुद्र के मध्य में न पर्वतो की मुफा में बनत में कोई ऐसा प्रदेश विद्यमान नहीं है वहाँ प्रवेश करके स्थित हुआ मनुष्य पापकम से मक हो सके । इस तरह दुख की स्थिति का कथमपि अपलाप नही किया जा सकता । दुख सर्वत्र व्याप्त है । लोग अविद्या में फंसे है दुख को देखते हुए भी उसे नहीं समझते । उसे दूर करने का भी प्रयास नहीं करते । भगवान् कहते है कि दुख हेय है । अत सस्वों को दुख का अन्त करना चाहिए । सक्षेप में यह कहा जा सकता है कि पच उपादानस्कन्ध रूप सज्ञा संस्कार विज्ञान और वेदना दुख है। पंचोपादान सल्बों को हेतु तथा प्रत्ययसहित अनित्य अनात्म और दुखरूप ही कहा गया है।
इस प्रकार उपयक्त तथ्यो को देखने से पता चलता है कि जन्म दुख है। रुग्णावस्था दुःख है । मृत्यु दुख है ऐसी चीजो से मिलन जिनसे हम घणा करते है तथा एसी वस्तुओं से वियोग जिन्हें हम बहुत चाहते हैं दुख है । एक व्यक्ति किसी चीण को चाहता है तो उस वस्तु का न पामा भी दुख है । बन्म मृत्यु दुख और प्रेम सावकालिक तथ्य है। ये सामषस्य के अभाव और असामजस्य की अवस्था के सूचक है। मनुष्य के दस उसके आध्यात्मिक रोम की बड ही इन्द्र है। यह सावभौमिक है
और हमारे अस्तित्व का अभिन्न अग है जो क्षणभगुर तपा नश्वर है। परन्तु इससे मक्ति पायी जा सकती है तथा अवश्य पायी जानी चाहिए ।
द्वितीय आयसत्य है-दखसमवय । समदय का अर्थ है कारण । यदि दुख कारण की हम पहचान कर लेते है और इसे दूर कर देते हैं तो दख स्वत ही लस हो पायेगा । इसका कारण जीने को इच्छा या तन्हा है । मनुष्य को जहां सुख एव मानन्द मिलता है वहां उसकी प्रवृत्ति होती है। उसकी यह अधिक प्रवृत्ति या चाह हो तृष्णा कहलाती है । यह तृष्णा ही द ख का कारण है । तृष्णा ही सस्तों को पुन
१ न अन्तलिकले न समदनमन्झे न पब्बतान विवर पनिस्स । न विज्जती सो जगतिप्पदेसो यत्पटठितो मन्चेष पापकम्मा ।। न मन्तालिमले न समुदवमलेन पन्नताम विवरं पविस्स । नविज्जती सो जगतिपदेसो यत्पटटिस मप्पसहेम्पमच्चू ।।
पम्मपद पापा-सच्या १२७ १२८ । २ गोल्डेनवर्ग बुट १ २१६ २१७ में राधाकृष्णन् एस भारतीय पान १
३३३ फुटनोट ३ तथा डॉ राधाकृष्णन् एस पम्मपरकी भमिका पृ १६ ॥ ३ देखिए में राधाकृष्णन् एस धम्मपद की भूमिका १ १६ ।
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५८ बौड तथा जैनधर्म पुन उत्पन्न कराती ह अर्थात पौनविकी ह नन्दी राग से सहगत है तृष्णा वहाँ-जहाँ सत्त्व उत्पन्न होते हैं वहां-वहाँ अभिनदन ( आसक्ति) करती-कराती है । धम्मपद में कहा गया है कि तृष्णा से शोक उत्पन्न होता ह तृष्णा से भय उत्पन्न होता ह तृष्णा से भक्त को शोक नही फिर भय कहां से? इस प्रकार अपन को अच्छा लगनेवाले स्पादि विषयों में अभिनन्दन करनेवाली तृष्णा तत्र तत्राभिनन्दिनी कहलाती है।
___ अविद्या और कम द ख के हतु होने से समदय सत्य कहे गय है किन्तु गौण रूप से ही सही दुख का तात्कालिक कारण तृष्णा है । धम्मपद में कहा गया है कि अविद्या परम मल है भिक्षओ इस मल को छोडकर निमल बनो। क्योकि तष्णा के अभाव से वे पुनभव उत्पन्न करन म समथ नही होते अतएव तृष्णा ही समदय सत्य कही गई है अविद्या और कर्म नहीं । अविद्या तो अनागत सस्कारों का कारण ह । इसासे को भी समदय कहा गया है । धम्मपद म कहा गया है कि रति ( राग) के कारण शोक उत्पन्न होता है रति के कारण भय उत्पन्न होता है । रति से जो सर्वषा मक्त है उसे शोक नही होता फिर भय कहाँ से हो ? अतएव काम राग आदि होनेवाले कर्म को दुख का कारण कहा गया है। इस तरह से द ख की उत्पत्ति का कारण है तृष्णा प्यास विषयो की प्यास । यदि विषयो की प्यास हमारे हृदय म न हो तो हम इस ससार म न पड और न द ख भोग । तृष्णा सबसे बडा बन्धन ह जो हमें ससार तथा ससार के जीवो से बांधे हुए है। धम्मपद की यह उक्ति कि धीर विद्वान् पुरुष लोहे लकडी तथा रस्सी के बन्धन को दढ नही मानत वस्तुत दढ बन्धन है सारवान् पदार्थों में रक्त होना या मणि कुण्डल पुत्र तथा स्त्री म इछा का होना बिल्कुल ठीक है । मकडी जिस प्रकार अपने ही जाल बुनती ह और अपने ही उसीम बधी रहती है ससार के जीवों १ दीपनिकाय २१३ ८ प २३ विसुद्धिमग १६३१ १ ३४८ मज्झिम
निकाय ११४८ प ६५॥ २ तव्हाय जायते सोको तोहाय जायते भय । तण्हाय विष्पमुत्तस्से नत्थि सोको कुतो भय ।
धम्मपद गाया-सख्या २१६ । ३ अपिज्जा परम मल । एत मल पहत्वान निम्मला होथ भिक्खयो ।
वही २४३॥ ४ रतिया जायते सोको रतिया जायते भय । रतिया विप्पमन्तस्स नत्यि सोको कुतो भय ।।
वही २१४॥ ५ नत बल्ह बन्धनमाह धीरा यदायस दारुज बम्बजग्छ । सास्तस्ता मणिकुण्डलेसु पत्तेसु दारेसु च या अपेक्खा ॥ वही ३४५॥
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पम्मपन में प्रतिपादित बनीमा ३९
की दशा भी वैसी ही ह। वे लोग तृष्णा से नाना प्रकार के विषयों में राग उत्पन्न करते हैं और इसी राग के बधन में अपने को बांधकर दिन रात कष्ट उठाते है। तृष्णा तीन प्रकार की बतलायी गयी ह १ कामतृष्णा
यह नाना प्रकार के विषयों की कामना करती है। २ भवतष्णा
भव = ससार या जन्म अर्थात् इस ससार की सत्ता बनाये रखनेवाली तृष्णा । इस ससार की स्थिति के कारण हमी है । हमारी तृष्णा ही इस ससार को उत्पन्न किए हुए है। ससार के रहने पर ही हमारी सुखवासना चरिताय होती है। अत इस ससार की तृष्णा भी तृष्णा का ही एक प्रकार है जो दु ख का कारण है। ३ विभवतण्या
उच्छेद-दष्टि का नाम विभवतष्णा है। विभव का अर्थ है उच्छेद ससार का नाश । उच्छद-दृष्टि से युक्त राग ही विभवतृष्णा है । पूव-पूर्व भव की तृष्णा पश्चिम पश्चिम भव में उत्पन्न होनेवाले द खों का समुदय होती है । अत तृष्णा समदय सत्य कहलाती है । अविद्या कम व तष्णा स सार के कारणरूप है अत तीनों पृषक-पृषक रूप से दुख के कारण कहे गये है। ३ दुखनिरोष
तृतीय आयसत्य का नाम द खनिरोष है। निरोष शब्द का अर्थ नाश या त्याग है। जब दु ख और उसका कारण ह तब उसके कारण का निरोध कर दुख का भी निरोष किया जा सकता है। दुख के कारण तृष्णा का निरोष ही 'दुसनिरोष है। पांच काम गुणों में नहीं लगना उसमें मानन्द नहीं लेना उसमें नहीं डवे रहने से तृष्णा का क्षय निरोष होता है। इससे ही सम्पूण दुख का निरोष होता है । यही दुखनिरोष है।
पम्मपद में दु खनिरोध को बतलाते हुए निरोप शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार से की गयी है कि किस मुध के निरोप से दुख निव हो जाता है। यदि ऐसा न हो तो जैसे सुदृढ़ बड के सर्वधा नहम होनेवाले तने से कटा वृक्ष फिर बढ़ जाता है वैसे ही
१ ये रागस्तानुपतन्ति सोतं समं कत मक्कत कोषषाक। सम्मपद ३७ । २ दीघनिकाय २३३ ८ १ २३ मज्झिमनिकाय १४८४९ पृ. ६५ वादि । ३ पाण्डेय गोविन्दचन्द्र ओरिजिन्स बॉन् बुद्धिज्म पृ ४३४ ३५ । ४ देखिए संयुत्त निकाय २७८ पृछ ८९।
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परतवानपने तृष्णा और अनुशय के समूल नष्ट न होने से यह दु ख बार बार उत्पन्न होता रहेगा। इसीलिए भगवान् बुद्ध ने कहा है कि समुदय के निरोष से ही दुख का निरोष होता है। परमार्थ से दु खनिरोध निर्वाण ही है क्योंकि निर्वाण को पाकर यह तृष्णा निरुद्ध हो जाती है पृथक हो जाती है और रागरहित ही निरोष या निर्वाण कहलाता है। भगवान ने इसे एक दीपक की उपमा द्वारा इस तरह समझाया ह कि जैसे सेल और बत्ती के होने से प्रदीप जलता रहता है और उस प्रदीप में कोई समय-समय पर तेल न गले और बत्ती को न उकसावे ठोप नही कर तो वह प्रदीप पहले के सभी आहार समाप्त हो जाने पर और नये न पाने से बुझ जायगा वैसे ही बन्धन म डालनेवाले धौ म बुराई ही बुराई मात्र देखते रहने से तृष्णा नही बढती प्रत्युत धीरे-धीरे यह समस्त दुःखस्कन्ध ही निरुत हो जायगे। तुष्णा के नाश से अविद्या का पूर्णतया प्रहाण हो जाता है । अविद्या के प्रहाण से सस्कार एव विज्ञान आदि समस्त प्रत्ययों का भी प्रहाण हो जाता है । इन समस्त दुखो का विप्रणाश होना ही निरोष कहलाता है। ४ दुखनिरोषगामिनो प्रतिपद
प्रतिपद् का अथ ह-माग । यही चतुर्थ आयसत्य है जो दुखनिरोष तक पहुंचानेवाला मार्ग है । दुखनिरोध की ओर ले जानवाला माग ही दुखनिरोषगामिनी प्रतिपद् है। मध्यम माग ( मसिम पटिपदा) भी इसीका नाम है। दुख की शान्ति अर्थात् निर्वाण की प्राप्ति इसी माग के द्वारा सम्भव ह। लोक में जिससे पाया जाता है उसे माग कहते हैं। आचाय बुखघोष कहते हैं कि यह आलम्बन से वषा निर्वाण के अभिमुख होने से दुखनिरोध को प्राप्त कराता है अतएव इसे दुख निरोध की ओर जानेवाला दुखनिरोपगामिनी प्रतिपद कहा गया है। यह माय मान है।
अब प्रश्न उठता है कि दु खनिरोधगामिनी प्रतिपद आय सत्य क्या है ? जो कामोपभोग का हीन प्राम्य अशिष्ट अनाय अनथकर जीवन है और जो अपने शरीर १ समुत्य निरोधेन हि दुक्खं निरुग्मति ।
म बन्नपा तेनाह यथापि मूले अनुपहवे ।। बस्हे छिन्नो पि एक्लो पुनरेव हति ।
एवम्पि तहानुसये अमूहत निम्न-तति दुक्खमिदं पुनप्पन ॥ धम्मपद ३३८ । २ सयुत्तनिकाय २।८६ पृ ७४। ३ बही ५ ७४। ४ उपाध्याय बलदेव बोरवचन-भीमांसा ५१। ५ मिधर्मकोश पृ ११३।
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४२. बोड तथा जैनधर्म
त्रिलक्षण अनित्य दुख अनात्म
बौद्ध-दशन ससार को अनित्य दुख और अनात्म इन तीन दृष्टियो से देखता ह । बौद्ध सभी पदार्थों को अनित्य मानते है। मनित्य का अथ विनाशशील माना जाता है । लेकिन यदि अनित्य का अथ विनाशी करग तो हम फिर उच्छदवाद की
ओर होंग। वस्तुत अनित्य का अथ है परिवतनशील। परिवतन और विनाश अलग भक्षण हैं । विनाश में अभाव हो जाता है परिवतन म वह पुन एक नये रूप में उपस्थित हो जाता है । जसे बीज पौध के रूप म परिवर्तित हो जाता ह विनष्ट नही होता । सभी सस्कार क्षणिक है यह बौद्धो का प्रसिद्ध सिद्धान्त है । शास्ता ने भिक्षाओं को अन्तिम प्ररणा देत हुए कहा सभी सस्कार अनित्य ( नाशवान ) है अत क्षण मात्र भी प्रमाद न कर जीवन के लक्ष्य का सम्पादन करो। यह सिद्धान्त भी प्रतीत्य समुत्पाद से ही निकलता है क्योकि काय कारण या हेतु प्रययवाद का यह नियम सभी पर लागू होता है । जो प्रती यसमत्पन्न होता है उसीकी सत्ता होती है और वह अवश्य क्षणिक होता है । जो क्षणिक नहीं होगा वह निय हो जायेगा और जो नित्य होगा वह हेतुसमुत्पन्न न होगा । बौद्ध दशन म अनि य और क्षणिक का मतलब है सतत परिवर्तनशील । अथक्रियाकारित्व ही वस्तु का लक्षण है जो क्षणिक और प्रतीत्यसमुत्पन वस्तुओ मे ही सम्भव ह न कि नि य और निरपेय वस्तुओ म । इस प्रकार प्रतीत्यसमत्पाद से अनित्यतावाद प्रतिफलित होता है ।
ससार के प्रत्येक पदाथ को अनित्य एव नाशवान् मानना अनित्य भावना है। धन सम्पत्ति कुरब परिवार अधिकार वभव सभी कुछ क्षणभगुर ह । बुद्ध ने अपने उपासकों को अनेक प्रकार से अनि यता का बोध कराया है। संसार में जो कुछ भी है वह सब अनित्य है सदा एक समान रहनवाला नहीं है। सभी उत्पत्ति स्थिति और नाश होने के तीन क्षणो म विभक्त है। रूप वेदना सज्ञा सस्कार और विज्ञान सभी अनित्य है। धम्मपद में कहा गया है कि ससार के सब पदार्थ अनित्य हैं जब बुद्धिमान पुरुष इस तरह जान जाता है तब वह दुख नहीं पाता। यह माग विशुद्धि का है।
ससार का प्रतिदिन का अनुभव स्पष्टत बतलाता है कि यहां सवत्र दुख का १ दीघनिकाय द्वितीय भाग प ११९ । २ सयुत्तनिकाय २१ १२१ दुसरा भाग पृ ३३ । ३ सम्बे सङ्खारा अनिचा ति यदापन्नाय पस्सति । अपमिबिन्दति दुक्खे एसमग्गो विसुखिया' ।।
धम्मपद २७७॥
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धम्मपद में प्रतिपादित सीमासा ।
राज्य है। जिधर दृष्टि डालिये उपर ही दुख दिखायी पडता है। यह बात मिथ्या कथमपि नहीं हो सकती । पहले बायसत्य में यही तथ्य सूत्ररूप में व्यक्त है। दुख की व्याख्या करते हुए तथागत का कथन है जन्म वृद्धावस्था मरण शोक परिदेवना दौमनस्य उपायास सब दुख है । अप्रिय बस्तु के साथ समागम प्रिय के साथ पियोग और ईप्सित की अप्राप्ति दुख है। सक्षेप म राग के द्वारा उत्पन्न पांचो उपादान
जगत के प्रत्येक काय प्रत्येक घटना म दुख की सत्ता है। प्रियतमा जिस प्रिय के समागम को अपने जीवन का प्रधान लक्ष्य मानकर नितान्त आनन्दमग्न रहती है उससे भी एक न एक दिन वियोग अवश्यम्भावी है । जिस द्रव्य के लिए मानवमात्र इतना परिश्रम करता है उसको भी प्राप्ति नितान्त कष्टकारक है । जब अथ के उपार्जन रक्षण तथा व्यय सभी म दुख है तब अर्थ को सुखकारक कैसे कहा जाय । यह ससार तो भव ज्वाला से प्रदीप्त भवन के समान है। मूढजन इस स्वरूप को न जानकर तरह-तरह के भोग विलास की सामग्री एकत्र करते हैं परन्तु देखते-देखते बाल की मौत को समान विशाल सौख्य का प्रासाद पृथ्वी पर लोटने लगता है उसके कण-कण छिन्न भि न होकर बिखर बात है । इस प्रकार परिश्रम तथा प्रयास से तैयार की गयी भोग सामग्री सुख न पदा कर दुख ही पैदा करती है। अत दुख प्रथम आर्यसत्य कहा गया है । साधारणजन प्रतिदिन उसका अनुभव करते हैं परन्तु उससे उद्विग्न नहीं होते। उसे साधारण घटना समझकर उसके आगे अपना शिर झुकाते है। परन्तु बुद्ध का अनुभव नितान्त सच्चा है उनका उद्वेग वास्तविक है । इस प्रकार बद की दृष्टि में यह समग्र संसार दुख ही दुख है।
धम्मपद में भी कहा गया है कि सभी सस्कार ( पदाथ ) दुखरूप है इस प्रकार जब प्रज्ञा से मनुष्य देखता है तब वह दुखों से मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। यही निर्वाण का माग है। अनात्म
अनात्म बोटबम का प्रधान मान्य सिद्धान्त है। इसका अर्थ यह है कि अगर के समस्त पदार्थ स्वस्पर्शून्य है। वे कतिपय धर्मों के समुच्चयमान है उनकी स्वय स्वतत्र सत्ता नहीं है । अनात्म धन्द यही नहीं योक्ति करता है कि बास्मा का अभाव
१ वीषनिकाय द्वितीय भाग पू २२७ । २ सम्बे संखारा दुक्खाति यदा पन्नाय पस्सति । अप निम्विन्दती दुखे एस मग्गो विसुनिया ॥
धम्मपद २७८.
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धम्मपद में प्रतिपादित
मीमांसा
उस पदार्थ की वस्तु सत्ता हो नहीं है जो प्रोत्यसम पन नही है । इसलिए पार्थनिकक्षत्र में यदि कोई बुद्ध की देन को एक शब्द में पूछना चाहे तो नि सन्देह यह कहा जा सकता है कि प्रतीत्यसमत्पाद का सिद्धान्त ही भगवान् बुद्ध की विशेषता है। कार्यकारण का सिद्धान्त तो बुद्ध से पूर्व भी अय दाशनिक-सम्प्रदायों में ज्ञात पा किन्तु वह सभी वस्तुओ पर लाग नही था। ऐसे अनेक तत्त्व अछते रह जाते थे जिस पर यह नियम लाग न होता था जसे-आत्मा प्रकृति ईश्वर बाकाश काल दिए आदि । बद्ध ने सबप्रथम इस सिद्धान्त का गौरव प्रदान किया उसे सब पदार्थों पर लाम किया और उसे सत्ता का पर्यायवाची बनाया। यह बहुत बडी बात थी। इसने दार्शनिक जगत् मे हलचल पैदा की और दार्शनिक-विचारों के विकास की अनन्त सम्भावनाएं उमत कीं। यही कारण है कि बौख-दशन गतिशीलता क्रियाशीलता और प्रगतिशीलता का पर्यायवाची बन सका।
बौद्ध-शन आग चलकर वैभाषिक सौत्रान्तिक विज्ञानवाद (योगाचार) और शूयवाद (माध्यमिक ) इन चार वाशनिक सम्प्रदायों में विकसित हुमा किन्तु ममी का आधारभत सिदा त प्रतीत्यसमत्पाद ही था। प्रतीत्यसमत्पाद की भिन्न-भिन्न व्याख्या करके ही उन्होने अपने-अपने दशन की नीव रखी। प्रतीत्यसमपाद की देशना भगवान बुद्ध ने की थी अत सभी बीड-दार्शनिक सम्प्रदाय-प्रवर्तक आचार्यों ने कहा कि जसी उन्होंने प्रतीत्यसमत्पाद की व्याख्या की वही बुध का असली मन्तव्य पा और वे ही उनके विचारों के वास्तविक उत्तराधिकारी तथा उनके सच्चे बनुयायी थे। इसी एक प्रतीत्यसमपाद की व्याख्या के माषार पर एक ओर स्थविरवादी वैभाषिक और सौत्रान्तिक आदि वस्तुबाद की स्थापना करते है तो दूसरी ओर विज्ञानवादीयोगाचार विज्ञानवाद की और शून्यवादी-माध्यमिक अपने शून्यवाद की। बौदों का सर्वप्रसिद्ध मणिकवाद का सिद्धान्त भी इसी प्रतीस्थसमसाद की सूक्ष्म व्याख्या की देन है। कहने का आशय यह है कि प्रतीत्यसमत्पाद एक ऐसा व्यापक और वैज्ञा निक सिद्धान्त था जिसने ज्ञान के विकास में अपूर्व योगदान किया।
प्रतीत्यसमत्पाद का अब है हेतु-प्रत्ययों से उत्पाद । प्रत्येक वस्तु हेतु-प्रत्ययों से उत्पन्न (प्रतीत्यसमत्पन्न) है। वो हेतु-प्रत्ययों से उत्पन्न नहीं वह वस्तु ही नहीं अपितु अवस्तु और काल्पनिक है। इसी दृष्टि से भात्मा शिवर काल मावि बोडों द्वारा कल्पित नित्य पदाथ अवस्तु सत् कल्पित एव प्रान्त सिब हो जाते है। इस तरह इस सिदान्त से शाश्वतवाद का निषेध हो पाता है। फिर भी हेतु-फल की श्रृंखला बराबर जन्म-जन्मान्तरपर्यन्त अविभिन्न रूप से पलती रही है और यह तब तक
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१ दीघनिकाय द्वितीय भाग
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५ बोडसपा बनधर्म
चलती रहती है जब तक निर्वाण प्राप्त नही कर लिया जाता। अत इस सिवान्त से चार्वाको का वह मत भी निराकृत हो जाता है जिसके अनुसार जीवन केवल वर्तमान ही है । इस तरह उच्छदवाद का भी प्रतीत्यसमत्पाद द्वारा निषष कर दिया जाता है । साथ ही अहेतुकवाद स्वभाववाद प्रक्रियावाद आदि अनक मतवादो के लिए कोई स्थान नही रह जाता। निर्वचन
प्रतीत्यसमुत्पाद म प्रति का अथ प्राप्ति ह । इस उपसग के साथ गत्यथक इण धातु का योग है । उपसर्ग की वजह से पातु का अर्थ बदल जाता है । फलत प्रति-इ का अथ प्राप्ति होता है और क्त्वा प्रत्यय के योग से निष्पन्न प्रतीत्य का अथ हैप्राप्त करके । पद धातु सत्ताथक है। सम उत् उपसगपूवक इसका अर्थ प्रादु भर्भाव है । अत प्रतीत्यसमत्पाद का अथ हेतु प्रत्ययो को प्राप्त कर कार्य का उत्पाद होता है। इससे प्रतीत्यसमत्पाद की बौद्धधम म स्पष्ट महत्ता दृष्टिगोचर होती है। पावशाग प्रतीत्यसमुत्पाद
प्रतोत्यसमत्पाद सिक्षान्त द्वारा ही बुद्ध ने सासारिक जीवन की सम्यक व्याख्या की और दुख का कारण समझाया। दुख अकारण नही सकारण है और कारण दूर करने पर दुख से मक्ति पायी जा सकती ह । आयसस्यों के माध्यम से सक्षप में बद्ध न समझाया कि दुख का कारण तृष्णा है। परन्तु इसी कारण प्रक्रिया के अन्वेषण का विकसित रूप १२ निदानों की शृखला में दिखाई पडता है। प्रती यसमुत्पाद १२ निदान या अग यथाथ म कारणो या प्रत्ययों की ही शृखला ह । इन १२ अगो का वणन बौद्ध ग्रन्थो में इस प्रकार मिलता है- अविद्या प्रत्यय से संस्कार सस्कार प्रत्यय से विज्ञान विज्ञान प्रयय से नामरूप नामरूप-प्रत्यय से षडायतन षडायतन प्रत्यय से स्पश स्पश प्रत्यय से वेदना वेदना प्रत्यय से तृष्णा तृष्णा-प्रत्यय से उपादान उपादान प्रयय से भव भव प्रत्यय से जाति जाति प्रत्यय से जरा मरण शोक परिदेव दु ख दौमनस्य एव उपायास होते हैं। इस प्रकार समस्त दुख स्कन्ध का समुदय होता ह यही प्रतीत्यसमुत्पाद है।
बद्ध के उपदेशों में द्वादशाङ्ग कही सक्षिप्त और कही विस्तृत है कही एक से पारह कही सात से बारह कही बारह से एक कही आठ से एक कही तीन से बारह
१ बौख-संस्कृति का इतिहास भास्कर भोगबद्र जैन १ ९४ । २ अभिधर्मकोश भाष्य ३।२८ पृ १३८ । ३ विनयपिटक महापग १ पृ १ दीघनिकाय २।५५ १ ४४ सयुत्तनिकाय
२।१ पृ १ बिसुविमग्ग १७१२ १ २६२ ।
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५६ : पोल तथा जनधर्म प्रस का भेद लिया गया है। इससे स्पष्ट है कि एकेद्रिय-सम्बधी स्थावर के पांच भेद ही उपयुक्त है जो निम्न है१ पृथ्वीकायिक जीव
जिनका पृथ्वी ही शरीर है उ है पथ्वीकायिक जीव कहते हैं। इनके दो भेद है-सूक्ष्म और बादर (स्थल)। सूक्ष्म और बादर के भी दो भेद है-पर्याप्त और अपर्याप्त । बादर पर्याप्त के प्रथमत दो भद है-सुकोमल और कठिन । पुन सुकोमल पृथ्वी के ७ और कठिन पृथ्वी के ३६ भद बताये गये हैं। मृदु पथ्वी के ७ प्रकार हैं । इसी प्रकार कठिन पथ्वी के ३६ भेद बताय गये है। २ अकायिक जीव
ऐसे जीव जिनका शरीर ही जल है अकायिक कहे जाते है। अन्य में इनके
१ उत्तराध्ययनसूत्र २६३३ ३१ । २ दुविहा पुढवी जीवा उ सुहमा बायरा तहा । पज्ज-तमपज्जत्ता एवमेए दुहा पुणो ।।
वही ३६७ । ३ बायरा जे त पज्जत्ता दुविहाते वियाहिया । सण्हा खरा य बोद्धव्वा सण्हा सत्त विहातहि ॥
वही ३६७१ । ४ किव्हा नीला य रुहिरा य हालिददा सुक्किला तहा। पण्ड-पणगमटिया खरा छत्तीसई विहा ।
वही ३६७२। खरा तीसईविहा ॥ पुढवी य सक्करा बालया य उवले सिक्ता य लोणसे । अय-तम्ब-तउय-सीसगरुप्प-सुवण्णे यवेइरेय ।।
चन्दण-गेल्य-हसगन्मपुलए सोगन्धिए य बोद्धत्वे । चन्दप्पह-वेरुलिए जलकन्ते सूरकन्ते य ॥
वही ३६१७२-७६ ।
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पम्मर में प्रतिपादित नासा ५७ चार भेद बताये गये हैं यथा-सूक्ष्म वादर पर्याप्त और अपर्याप्त । बादर पर्याप्त बीव के पांच भेदों का उल्लेख किया गया है। ३ वनस्पतिकायिक जीव
वृक्ष पौषे लतायें आदि हो जिनके शरीर है उन्हें वनस्पतिकायिक जीव कहते है । पृथिवी के भेदों की तरह इसके भी सूक्ष्म पावर पर्याप्त भौर अपर्याप्त ये पार मेर बताये गये है। बादर-पर्याप्त-वनस्पतिकाय के साधारण शरीरवाली वनस्पति और दूसरी प्रत्येक शरीरवाली वनस्पति ऐसे दो भेद किये गये हैं। साधारण मोर प्रत्येक के भी प्रकारो का उलेख है। ४ मनिकायिक जीव
ऐसे जीव जिनका शरीर ही अग्नि है अग्नि से पृथक नहीं हो सकते । पृथिवी
१ दुविहा माउजीवा उसुहमा बायरा तहा। पज्जन्तमपज्जन्ता एवमेए दुहा पुणो ॥
उसराध्ययनसूत्र ३६६८४ । २ वायरा जे उ पज्जन्ता पचहा त पकित्तिया । सुबोदए य उस्से हरतणमहिया हिमे ॥
वही ३६४८५ । ३ दुविहा वणस्सई जीवा सुहमा बायरा सहा । पज्ज-तमपज्जन्ता एवमेए दुहा पुणो ॥
वही ३६०९२। ४ बायराजे उ पज्यत्ता दुविहा ते विया हिया। साहारणसरीराय पत्तेगा य तहे व य ॥
वही ३६९३ । ५ साहारणसरीरा उणगहा ते पकित्तिया।
वही ३६०९६-९९। मुसुण्डी य हलिदाय उणगहा एवमानयो ।। पत्तेग सरीरा उणेगहा ते पकित्तिया ।
हरिय काया य बोखल्या पत्तया इति आहिया ।
पही ३६१९४९५।
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५८ बौख तथा मनवम
की तरह इसके भी चार भेद है। उनम से बादर पर्याप्त अग्नि अनेक प्रकार से वणन की गयी है। अग्निकाय के अनेक भेद बताय गये है। ५ वायुकाधिक जीव
ऐसे जीव जिनका शरीर ही वायु ह वायु से पथक नही हो सकते । वायुकाय के भी चार भेद है। बादर पर्याप्त वायु के पाँच भद है।
इस तरह सक्षप से बादर ( स्थल) एकेन्द्रिय स्थावर जीवो का विभाजन अन्य में किया गया है । इनकी आयु ( भवस्थिति ) कम से कम अन्तमहूतं एक समय से लेकर ४८ मिनट तक की समय ह तथा अधिक से अधिक पथिवीकायिक की २२ हजार वर्ष अप्काय की ७ हजार वष वनस्पतिकाय की १ हजार वष अग्निकाय ( तेजर काय ) की तीन दिन रात और वायुकाय की तीन हजार वर्ष की है। इस आयु के पूर्ण होने के बाद ये जीव नियम से एक शरीर छोडकर दूसरा शरीर धारण कर लेते है।
अस जीव दो द्रियो से लेकर पांच इद्रियोवाले जीव त्रस कहलाते हैं । त्रस जीवो के पार भेद है।
१ दविहा तेउजीवा उ सुहमा बायरा तहा।
पज्ज तमपज्जत्ता एवमेए दहा पुणो ॥ उत्तराध्ययनसूत्र ३६।१ ८। २ बायरा जेउ पजन्ता गगहा ते वियाहिया ।
इगाले मुम्मुर अग्गी अच्चि जाला तहव य ॥ उक्का विजय बोडव्वाठोगहा एवमायओ। एग विहमणोणत्ता सहुमा ते वियाहिया ।।
वही ३६।१ ९११ । ३ दुविहा पाउजीवा उ सुहमा बायग तहा । पज-तमपज्जन्ता एवमए दुहा पुणो ॥
__ वही ३६।११७ । ४ बायराजे उ पज्जन्ता पचहा त पकित्तिया ।
उक्कतिग्या-मण्डलिया षण गुजा सुदवायाय ।। सवटठगवाते य उणेगविहा एवमायो ।
वहो ३६।११८ ११९ । ५ वही ३६६८ तथा देखिए वही ३६१८८ १ २ ११३ १२२ । ६ पोराला तसा जे उचउहा ते पकित्तिया । बेइन्दिय-तइन्दिय-वउरो-पचिन्दिया चेव ॥
वही ३६४१२६।
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धम्मपद में प्रतिपारित तस्वमीमांसा ५९ विष बीच
जिनमें स्पर्शन और रसमा दो ही इन्द्रियाँ हों वे दोन्द्रिय जीव कहलाते हैं। इनके पर्याप्त और अपर्याप्त दो भेद किये गये हैं। इसके अतिरिक्त भी इनके अनेक भेद ग्रन्थ में दिखाई देते है। २ त्रीणिय जीव
स्पशन रसना और प्राण इन तीन इन्द्रियों से युक्त जीव त्रीन्द्रिय कहलाते हैं । इसके भी पर्याप्त और अपर्यास दो भेद है। श्रीन्द्रिय जीवो के जितने उपभेद है उनके बारे में प्रन्थ में बताया गया है। ३ चतुरिनिय जीव
स्पर्शन रसना प्राण और चक्षु इन चार इन्द्रियो से युक्त जीव चतुरिद्रिय जीव कहलाते हैं । ये जीव भी दो प्रकार के हैं पर्याप्त और अपर्याप्त । इनके उपभेदो के बारे म भी प्रथम उल्लेख किया गया है। १ बेइन्दिया उजे जीवा दुविहा ते पकित्तिया । पज-तमपज्जत्ता तेसि भेए सुणेह मे ॥
उत्तराध्ययनसूत्र ३६४१२७ । २ किमिणो सो मगला व अलसा माइवाया।
इइ ब िदया एए गहा एवमात्रओ ॥
वही ३६३१२८-१३ । ३ तेइन्दिया उजे जोवा दुविहा ते पकित्तिया । पज्जत्तमपज्जत्ता तेसिं भेए सुणेह मे ॥
बही ३६।१३६। ४ कुन्थु पिवीलि उड्डसा उक्क लदेहिया वहा ।
इन्द गोवगमाईया गहा एवमायो ।
पही ३६।१३७-१३९ । ५ परिन्दिया उजे जीवा सेसि भेए सुणे हमे ।
वही ३६६१४५॥ ६ अन्धिया पोत्तिया व माच्छयामसगा तहा ।
इइ चारिन्दिया एए उणगहा एषमायबो॥
बही ३६१४६-१४९ ।
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६ बोर तथा जनधर्म
उपर्यत तीना प्रकार के जीव स्थल होने से लोक के एकदेश मे रहते है। ये अनादिकाल से चले आ रहे ह और अनन्त काल तक रहगे परन्तु किसी जीवविशेष की स्थिति की अपेक्षा सादि और सान्त है। इन सभी की स्थिति कम-से-कम अन्त मुहूर्त है तथा अधिक से अधिक वीद्रिय की १२ वष श्रीन्द्रिय की ४९ दिन चतुरिन्द्रिय की ६ मास है। स्पादि के तारतम्य से इनके हजारों भेद हो सकते है। एकेन्द्रिय से केकर चतुरिन्निय तक के सभी जीव तिर्यञ्चों की ही श्रेणी म आते हैं। ४ पवेनिय बीव
__ स्पशन रसना घ्राण पक्ष और कण इन पांच इद्रियों से युक्त जीव पोन्द्रिय कहलाते है । इनके मुख्यत चार प्रकार ह जो निम्नलिखित हैं१ लोगे गदेसे ते मव्वे म सम्वत्थ वियाहिया ।।
उत्तराध्ययनसूत्र ३६१३ । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय जीव के लिए देखिए ।
वही ३४१३९ १४९ । २ सतह पप्पडणाइया अपजवसिया विय।। ठिउ पणुच्च साईया सप अवसिया निय ।।
वही ३६१३१ । इसी प्रकार नीद्रिय तथा चतुरिद्रिय जीव के लिए देखिए ।
वही ३६४१४ १५ । ३ वासाइ बारसे व उ धक्कोसेण वियाहिया । बेइन्दिय आउठिई अन्तोमुहत्त जहम्निया ॥
वही ३६॥१३२। एणूणपण्ण होरता उपको सेण वियाहिया । तेइन्दिय माउठिई अन्तोमुहत अहम्निया ।
वही ३६।१४१ । छच्चेव य मासा उ उक्कोसेण पियाहिया । परिन्दिय आरठिई अन्तोमुहुत जहन्निया ।
६.१५१ । ४ वही ३६११३५ ५ परिदिया उजे जीवा घउम्विहा से वियाहिया। नेरइया तिरिक्खा य मणया देवा य आहिया ॥
वही ३६।१५५ ।
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बन्नपद में प्रतिपादित तस्वमीमांसा १ १ मारती बीच
अपोलोक में निवास करनेवाले जीव नारकी कहे जाते हैं। अपोलोक में सात नरक-ममियां है जिनका कि ग्रन्थ में निर्देश किया गया है। इनकी अधिकतम मामु ऊपर से नीचे के नरकों में क्रमश १ सागर ३ सागर ७ सागर १ सागर १७ सागर २२ सागर और ३३ सागर है । निम्नतम आयु प्रथम नरक की १ हजार वर्ष तथा अन्य नरकों में पूर्व २ के नरकों की उत्कृष्ट आयु ही आगे २ के नरकों की निम्नतम आयु है।
एकेन्द्रिय से लेकर पार इन्द्रियवाले जीव तथा पंच इन्द्रियों में पशु-पक्षी आदि तियञ्च कहलाते है । तियञ्च अविसमूच्छिम और गर्भक भेव से दो प्रकार के है। दोनों के पुन जल स्थल और आकाश में चलने की शक्ति के भेद से तीन भेव किये गये है। (क) जलपर नियंत्र
जल में चलने फिरने के कारण इन्हें पावर कहते है। ग्रन्थ में इनके पांच भेद बताये गये है।
स्थल ( भमि ) में चलने के कारण इन्हें स्थाचर कहते है। इनकी मुख्य दो
१ नेरइया सतविहा सत्तहापरिकित्तिया ॥
उत्तराध्ययनसून ३६३१५६ १५७ । २ वही ३६।१६ -१६६ । ३ पचिन्दिय तिरिक्खायो दुविहा ते नियाहिया । सम्मच्छि मतिरिक्खाओ गम्भवक्कात्तया सहा ॥
वही ३६.१७ । ४ दुविहावि ते भवे विविहा जलयरा यलयरा ठहा । खहयरा य बोरम्बा तेखि भेए सणेह मे ॥
वही ३६४१७१। ५ मच्छा य कच्छमा य गाहा य मगरा व्हा। सुसुमारा य बोढव्या पंचहा बलयराहिया ।।
वही ३६११७२।
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६२.पोट बामनयन
जातियां है-चतुष्पप और परिसर्प। चतुष्पद के चार प्रकार बताये गय है। इसी प्रकार परिसप की मख्य दो जातियां हैं ।
___माकाश में स्वच्छन्द विहार करने मे समथ जीव नभचर कहलाते हैं। ऐसे जीव मख्यतया चार प्रकार के है।
इस तरह पञ्चेद्रिय तियञ्च मख्यत तीन प्रकार के हैं । इनकी आयु निम्नतम अन्तमहत्त तथा अधिकतम १ करोड पूर्व जलचर की ३ पयोपम स्थलघर की तथा असत्यय भाग पल्योपम की ह। शेष क्षत्र एव कालकृत वर्णन द्वीन्द्रियादि की
१ चउप्पया य परिसप्पा दविहा थलयरा भवे ॥
उत्तराध्ययनसूत्र ३६४१७९ ।
२ एगखुरा दखुरा चेव गण्डीपय-सणप्पया । हयमाइ-गोणमाइ गयमाइ सीहमाइणो ।
वही ३६।१८ । ३ भुओ रगपरिसप्पा य परिसप्पा वुविहा भवे । गोहाई अहिमाई य एक्केवका डण गहा भवे ॥
वही ३६।१८१ । ४ चम्मे उ लोम पक्खी य तइया समुग्गपाक्खया। विययपक्खी य बोद्धन्वा पक्खिणो य चउन्विहा ।।
१८८। ५ ७ लाख ५६ हजार करोड वर्षों का एक पूर्व होता है ।
वही आत्माराम टीका प १७४५ । ६ एगा य पुष्य कोडीमो उक्कोसेण वियाहिया ।
आउटिठई जलयराणं अन्तोमुहुत्त अहन्निया । वही ३६।१७५ पलिमोवमाउ तिण्णि उ उक्कोसेण वियाहिया। आउटिठई पल यराण अतोमुहुत्त जहन्निया । वही ३६।१८४ पलि ओवमस्स भागो असखज्जइमो भवे । आउटिठई खहयराण अन्तोमुहुत्त जहलिया ।
वही ३६६१९१ ।
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३ मनुष्य
ससारी जीवों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है और चार दुर्लभ अगों की प्राप्ति में एक मनुष्य जन्म भी है । मनुष्य पर्याय की प्राप्ति पुण्यकर्म विशेष से होती है । उत्तराध्ययन में उत्पत्ति-स्थान की दृष्टि से सम्मूच्छित और गर्भम्युस्कान्विक ( गर्भज ) 'के ये दो भेद किये गये हैं । गर्भ से उत्पन्न होनेवाले मनुष्य तीन प्रकार के मनुष्य है— कर्मभूमिक अकमममिक और अन्तरद्वीपक । ग्रन्थ में इनके सहयागत भेदों का १५३ और २८ इस प्रकार क्रमपूर्वक वर्णन किया गया है। अन्तत तथा अधिक से अधिक तीन प योपम बतलायी गयी है इनकी आयु सौ वर्ष से कम मिलती है ।
इनकी कम-से-कम आयु
। ग्रन्थ में एक जगह
धम्मपद में प्रतिपादिता । ६३
१ चत्तारि परमगाणि दुल्लहाणीह जन्तुणो । माणुसत सुइ सद्धा संजमम्मि य बीरिय ॥
तथा- - दुल्लहे खल माणसे भव चिरकालण वि सव्वपाणिणां ।
२ कम्माण तु पहाणार आणपुब्बी कयाइ उ । जीवा सोहिमणुप्पत्ता आययतिमणुस्तय ॥ वही ३।७६२ ३ मणुया दुविह भेया उत मे कित्तयओ सुण । समुच्छिमा य मणुया गभवक्कान्तिया तहा ॥
भैया सखा उकमसो तेसि इइ एसा
४ गन्भववकात्तया जेउ तिविहा ते वियाहिया । reम्म कम्मभूमाय मन्तरद् दीवया तहा ॥
५ पन्नरस - तीस - विहा
उत्तराध्ययनसूत्र ३११ ।
३।६२ २ ।११२२।३८ ।
reories |
वियाहिया ||
६ पालि ओवमाइ तिण्णि उ उक्कोसेण वियाहिया । आउठिई मणुयाण अन्तोमूहत जहन्निया ॥
७ जाणि जीयन्ति दुम्मेहा ऊणे बासस्याउए ॥
वही ४ । ४ १६ ।
वही ३६।१९५ ।
वही ३६।१९६ ।
वही ३६।१९७ ॥
बही ३६१२ 1
वही ७।१३ ।
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६४ : बौद्ध तथा जैनधर्म
४ देव जोब
पुण्य कर्मों का फल भोगने के लिए जीव देव पर्याय को प्राप्त करता है । भौमय व्यन्तर ज्योतिषी और वैमानिक ये चार प्रकार के देव कहे जाते हैं । इनके अन्य भवान्तर प्रमुख २५ भेद हैं । परन्तु इकतीसव अध्ययन में २४ प्रकार के देवों की संख्या का उल्लेख है ।
१ भवनपति या भवनवासी देव
भवनो में उत्पन्न होनवाले देवो को भवनपति या भवनवासी कहते है । इनकी दस जातियाँ है ।
२ व्यन्तरदेव
जिनके उत्कष और अपकषमय रूप विशेष हैं तथा गिरि कन्दरा और वृक्ष के विवरादि में जिनका निवास है उनको व्यन्तरदेव कहत हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में इनकी संख्या आठ बतायी गयी है ।
१ बोरस्स पस्स धीस्त सव्वषम्भाणवत्तिणो । चिच्चा अषम्म धम्मिटठे देवेसु उववज्जई ||
२ देवा चउब्विहा वृत्ता ते मे कित्तयओ सुण । भोमिज्ज- वाणम तर - जोइस वेमाणिया तहा ॥
वही ७।२९ तथा २१२६ ।
वही ३६ २ ४ तथा ३४१५१ ।
३ दसहा उभवणवासी अटव्हा वण चारिणो । पचविहा जोइसिया दुबिहा वेमाणिया तहा ||
४ स्वाहिए सुरेस अ ।
५ असुरा नागसु वण्णा बिज्ज अग्गी य आहिया । दीवो दहि दिसा वाया चणिया भवणवासिणो ॥
६ पिसायभया जक्खा य रक्खसा किन्नराकिपुरिसा । महोरगा य reer rcoविहा वाणमसरा ॥
वही ३६।२५।
वही ३१।१६ ।
वही ३६।२५ ।
वही ३६।२ ६ ।
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७ बौड तवा जनपम व्यक्ति का शरीर शुभ कर्मोदययुक्त है अर्थात् वह व्यक्ति सब प्रकार से सुखी है । इसी तरह जो व्यक्ति पापी होता है वह सब प्रकार से दुखी होता है। इस प्रकार पुण्य
और पाप का फल सुख और दुःख है । सुख एव दु ख यक्ति के व्यक्तित्व अर्थात् शारी रिक एव मानसिक गठन पर अवलम्बित है जिसका निर्माण पुण्य और पाप अर्थात् शुभ और अशुभ कर्मों के आधार से होता ह ।।
पण्य और पाप दोनो बन्धनरूप हैं अत मोक्ष-साधना के लिए हेय माने गये है । पारमार्थिक दष्टि से पुण्य और पाप दोनो म भेद नही किया जा सकता क्योकि दोनो ही अन्ततोगत्वा बन्धन के हेतु है इनका भेद केवल यावहारिक स्तर पर है। दोनो का क्षय करन से ही मुक्ति मिलती है।
पण्य आध्यात्मिक साधना म सहायक तत्व ह । शुभ कम पदगल का नाम पण्य है। पण्य के कारण अनेक ह । यथा-दौन दुखी पर करुणा करना उनकी सेवा शुश्रषा करना दान देना आदि अनेक प्रकार से पण्योपाजन किया जाता है । जैनषम में मुनि सुशीलकुमार ने पण्य की उपमा वायु से की है। इसी प्रकार जैन आचार्यों के अनसार जिस विचार एव आचार से अपना और दूसरो का अहित हो वह पाप है। विचारको के अनुसार पापकम को उत्पत्ति के स्थान तीन है--राग द्वेष और मोह । लेकिन उत्तरा ययन म पापकम की उ पत्ति के स्थान राग और द्वेष ये दो ही मान गय हैं। इस प्रकार पापकों का आचरण करनेवाले सभी जीव इस लोक तथा परलोक म दु ख को प्राप्त होते है। इसलिए पापकर्मों के बदले पण्य ( शुभ ) कर्मों का ही आचरण करना चाहिए। उत्तरा ययनसूत्र के १९व अध्ययन म मृगापुत्र
१ उत्तराध्ययन २ ॥१४॥ २ दुविह खदेऊण य पण्णपाव निरगण सव्वओ विप्पमुक्के । तरित्ता समदद व महाभवोध समुददपाले अपणागम गए ।
यही २१॥२४॥ ३ जनघम मुनि सुशीलकुमार प ८४ । ४ रागद्दोसे य दो पावे पावकम्म पव-तेण ।
उत्तराध्ययनसूत्र ३१।३। ५ एव पयापेच्च इह च लोए कडाण कम्माण न मोक्ख अत्यि ॥
वही ४।३। ६ हुयासण जलन्तम्मि चियासुमहिसो विव । दढो पक्को य अवसो पावकम्महि पावियो ।।
बही १९५७ ।
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पम्मपद में प्रतिपाति नीकांता
अपन उपभोग में आई हुई नरक सम्बन्धी यातना का वर्णन करते है। इसी प्रकार समुद्रपालीय नामक इक्कीसवें अध्ययन में चोर की अत्यन्त शोषनीय दशा को देखकर वैराग्य उत्पन्न समुद्रपाल कहने लगता है कि अशुभ कर्मों के माचरण का ऐसा ही कटु परिणाम होता है। साराश यह ह कि जो अशुभ कम है उनका अन्तिम फल अशुभ अर्थात दुखरूप ही होगा।
__भारतीय चिन्तको की दृष्टि मे पण्य और पाप-सम्बन्धी समग्र चिन्तन का सार इस कथन में समाविष्ट है कि दूसरो की भलाई करना पण्य और कष्ट देना पाप है जिसके कथन से पापो का विच्छद हो जावे उसे प्रायश्चित्त कहते हैं इसलिए आलोचना आणि प्रायश्चित्त से पापो की विशुचि होती है और पापों की विशुद्धि से इस जीव का बारित्र अतिचार से रहित हो जाता है तथा विषयों से विरक्त रहनवाला जीव नये पापकर्मों का उपाजन नही करता और पूर्व म सचित किए हुओं का नाश कर देता है । इस प्रकार पूर्वसचित कर्मों का नाश और नवीन कर्मों के बन्ध का अभाव हो जाने से उस जीव को जम मरण की परम्परा म नही आना पडता । ५ मानव तस्व
पुण्य-पापल्प कम आन को आस्रव कहते हैं। परन्तु आस्रव से मख्यतया पापा स्रव को समझा जाता है। इसीलिए उत्तराध्ययन में पापास्रव के पांच भेदों का सकेत किया गया है यद्यपि उनके नामों का उल्लेख नही है। उपर्यत पांच प्रमख मानव द्वार या बन्ध हेतुओ को पुन अनेक भेद प्रभदो में वर्गीकृत किया गया है जिनका केवल नामोल्लेख करना पर्याप्त है । आत्मा में कम के आने के द्वाररूप आस्रव के मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय और योग ये पांच भेद बताये गये हैं जो कि बन्ध के कारण हैं। इन्हें मानव प्रत्यय भी कहते हैं।
१ अहो सुभाण कम्माण निजाण पावग इम ॥
उत्तराध्ययनसूत्र २१॥९ २ पायच्छित करणेण पावकम्म विसोहि अणयह निरइयारे यावि भवः ।
बही २९।१७। ३ विणियटठणयाएण पावकम्माण अकरणयाए अन्भुई। पुष्य बताण य निज्जरणयात नियत्तेइ तो पच्छाचार संसार कन्तार
वीइवयइ। वही २९॥३३ । ४ तत्वापसून ब ६ सू १५ । ५ पचासवणवत्तो।
उत्तराध्ययनसूत्र ३४१२१॥
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पम्मपर में प्रतिपाति सवनीमाला ७७
एक मौका संसाररूपी समुद्र में तैर रही है जिसमें दो छिद्र है। उनमें से एक से गन्धा और दूसरे से साफ पानी मा रहा है। पानी के आते रहन से नाव अब डबने ही वाली है कि नाव का मालिक उन दोनो छिद्रो को बन्द कर देता है जिनसे पानी अपर प्रवेश कर रहा था और फिर दोनों हाथों से उस भरे हुए पानी को उलीचकर निकालने लगता है । धीरे धीर बह नौका पानी से खाली हो जाती ह और पानी की सतह पर आकर अभीष्ट स्थान को प्राप्त करा देती है । इस तरह इस दृष्टान्त म नौका अजीव तत्त्व और नाविक जीव तत्त्व है। गन्दे और साफ पानी पाप और पुण्य के प्रतीक है।
जल का नाव में प्रवेश करना मानव एकत्रित होना बन्ध पानी आनेवाले छिद्रो को बन्द करना सवर नाव से पानी को उलीचना निजरा तथा जल के निकल जाने पर नाव का सतह पर मा जाना मोक्ष है।
इस प्रकार हम देखते है कि उपर्यत तस्व-याजना में जीव और अजीव ज्ञेयतत्त्व माने गय है जब कि पाप आस्रव और बध ये तीनों त्याज्य तथा पुण्य सवर निजरा और मोक्ष ये चारो उपादेय मान गय है । पाप आस्रव और बन्ध इन तीन से बचना चाहिए तथा पुण्य सवर और निजरा इन तीन का आचरण करना चाहिए । अन्तिम तत्त्व मोक्ष है जिनकी प्राप्ति के लिए इन सबका आचरण किया जाता है । यद्यपि निर्वाण के साधक के लिए पुण्य का आचरण भी लक्ष्य नहीं है फिर भी सापना-माग मे सहायक होन के का ण उसकी आवश्यकता म्वीकार की गयी है । लेकिन शास्त्रकारों ने पुण्य को भी त्या य ही माना है। इस प्रकार जीव और अजीव ये दो जय तथा आस्रव सवर निजरा और मोक्ष उपादेय माने गये है।
तुलनात्मक अध्ययन धम्मपद और उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित तस्व-योजना की तुलना करने पर पता चलता है कि दुखो की अनुमति प्रत्येक प्राणी को कट मालम होती है । अतः बे दुखों से छटकारा पाने के लिए नाना प्रकार के प्रयत्न करते देखे जाते हैं । सासारिक जितने भी प्रयत्न है वे सब क्षणिक सुख को देने के कारण वास्तव मे दुखरूप ही है। सच्चे और अविनश्वर सुख को प्राति के लिए चेतन और अचेतन के सयोग और वियोग को आध्यात्मिक प्रक्रिया को जिन नौ तथ्यो (सत्यो ) मे विभाजित किया है उनमें पूण विश्वास उनका पूर्ण ज्ञान और तदनुसार आचरण आवश्यक है। उन नौ तथ्यों के क्रमश नाम है -चेतन (जीव) अचेतन ( अजीब) चेतन और अचेतन को सम्बन्धावस्था (बन्ध ) अहिंसादि शुभ काय ( पुण्य) हिंसादि अशुम काय
१ उत्तराध्ययनसूत्र २८१४ ।
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७८ बोडसमा नव
(पाप) अचेतन का चेतन के साथ सम्बन्ध करानेवाले कारण का निरोष (सबर) चेतन से अद्यतन का अशत पृथक्करण (निर्जरा ) तथा चेतन का पण स्वातन्त्र्य ( मोक्ष )। इन चतन अचेतन और उनके सयोग वियोग की कारण-कार्य-शृङखला के विकाल सत्य होने से इन्ह तथ्य या सय कहा गया है। इन्ह मुख्यत पांच भागों में विभक्त किया जा सकता है--
१ चतन और अचेतन तत्व-जीव और अजीव २ ससार या द ख की अवस्था-बघ ३ ससार या दु ख के कारण-पुण्य पाप और आस्रव ४ ससार या दुख से निवृत्ति का उपाय--सवर और निजरा ५ ससार या दु ख से पूर्ण निवृत्ति-मोक्ष ।
ससार या दुख का कारण कर्म बन्धन है और उससे छटकारा पाना मोक्ष है। पतन ही बन्धन और मोक्ष को प्राप्त करता है तथा अचतन ( कम ) से बन्धन और मोक्ष होता है। बबन म कारण ह पुण्य और पापरूप प्रवृत्ति जिससे प्ररित हाकर अचेतन ( कर्म ) चतन के पास आकर बध को प्राप्त होत हैं। इन अचतन कर्मों के भाने को रोकना तथा पहले से आये हुए कर्मों को पृथक करने रूप सवर और निजरा मोक्ष के प्रतिकारण हैं। इस तरह बघ मोक्ष चेतन अचतन पुण्य पाप आस्रव सवर और निजरा य नौ सावभौम स य होने से तथ्य कहे गये हैं।
इसी तथ्य का साक्षात्कार भगवान बुद्ध न भी किया और उन्होन इसका ही एक दूसरे ढग से चतुराय सत्यों के रूप म उपदेश दिया। चूंकि धम्मपद मे कोई स्थायी चेतन व अचेतन पदाय स्वीकार नही किया गया है। अत ऊपर पांच भागो में विभा जित ९ तथ्यो म से प्रथम भाग को छोडकर शेष चार रूपों में वर्णन किया गया है । - १ दुल सत्य है
ससार में जम जरा मरण इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग आदि द ख देखे जाते है । अतः य सत्य है। २ सुशों के कारण सत्य हैं (दुसमुक्य सत्य)
अब दुख है तो द ख के कारण भी अवश्य है । तृष्णा सब प्रकार के दुखों की कारण है। ३ सुखनिरोष सत्य
यदि द ख और द ख के कारण है तो कारण के नाश होने पर दुःख का भी विनाश होना चाहिए।
१ धम्मपद २७३।
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धम्मपद में प्रतिपारित तत्वमीमांसा
४ दुलनिरोष मार्ग सत्य
स्खों को दूर करन का रास्ता भी है । अत” यह भी सत्य है।
इस तरह चेतन अचेतन द्रव्य है या नही परमाथ म सुख है या नही इसका कोई समुचित उत्तर न देकर भगवान बद्ध ने यह कहा कि उपरोक्त चार बातें सत्य है । दख से छटकारा चाहते हो तो इन बाय सत्यो पर विश्वास करके दख-निरोष के मार्ग का अनुसरण करो। दु ख-निरोध के माग में जिन उपायों को धम्मपद में बदलाया गया है के ही प्राय उत्तराध्ययन में है अन्तर इतना ही है कि यहाँ बौद्ध-दशन आत्मा की अमाव ( नराम्य ) की भावना पर जोर देता है वहाँ उत्तराध्ययन उपनिषदो की तरह आत्मा के सदमाव की भावना पर जोर देता है।
उपयुक्त चार तत्वों की तुलना उत्तराध्ययनसूत्र के जैन-तत्त्व-योजना से निम्न रूप म की जा सकती है। धम्मपद का द ख उत्तराध्ययनसूत्र के बन्धन के समान है जब कि द ख हेतु की तुलना आस्रव से की जा सकती है क्योंकि जैन परम्परा म आस्रव को बधन का और बौद्ध परम्परा मे दुख हेतु ( प्रतीत्यसमुत्पाद ) को द ख का कारण माना गया है। इसी प्रकार दुख निरोध का माग ( अष्टांग माग ) उत्तरा ध्ययन के सवर और निजरा से तुलनीय है। द खनिरोषगामिनी प्रतिपद् या निर्वाण की तुलना उत्तराध्ययन के मोक्ष से की जा सकती ह ।
२ दुख हेतु (प्रतीत्यसमुत्पाद) २ आस्रव ३ दुखनिरोष का माग __३ सबर और निर्जरा
(अष्टाङ्ग माग) ४ ८ सनिरोषगामिनी प्रतिपद् ४ मोम (निर्वाण) (निर्वाण)
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अध्याय ३
धम्मपद के धार्मिक सिद्धान्त और उत्तराध्ययन में
प्रतिपादित धार्मिक सिद्धान्तो से तुलना
प्रस्तुत अध्याय म प मपद के आधार पर बद्ध अर्हत त्रिशरण निर्वाण धम कम अनुप्रेक्षा आदि बौद्ध मा यताओ का विवेचन है और उत्तराध्ययनसूत्र के आधार पर समानान्तर अथवा सदृश जैन-मा यताओ से तुलना मक अध्ययन ह ।
जिस समय भगवान् बद्ध का लोक म आविर्भाव हुआ उस समय देश में अनेक मतवाद प्रचलित थे। लोगो की जिज्ञासा जाग उठी थी और विचार-जगत म उथल पुथल हो रही थी। परलोक ह या नही कम है या नही कर्मों का पल ( विपाक) होता है या नहीं इस प्रकार के प्रश्नो के प्रति लोगो के हृदय म बडा कौतहल था। एसे ही काल म जब सद्गृहस्थ भी सया वषण म घर बार छोडकर भिक्षु या वनस्य हो रह थे बद्ध का शाक्य वा मे जम हुआ। इनका कुल क्षत्रिय गोत्र गौतम और नाम सिद्धाथ था । य राजा शुद्धोदन के पत्र थे और मायादेवी इनकी माता थी। उस समय पूर्व के प्रदेशो म भत्रियो का प्राधा य था । सिद्धाथ ने राजकुमारो की भांति शिक्षा प्राप्त की परन्तु वे बचपन से ही विचारशील थे और इसीलिए उनकी उत्सुकता जीवन के रहस्यो को जानन के लिए बढ़ने लगी। सासारिक सुखो से ये जल्दी ही विरक्त हो गय और युवावस्था म ही परमाथ सत्य की खोज म एक दिन घर से निष्क्रमण किया तथा काषाय वस्त्र धारण कर भिक्षभाव ग्रहण कर लिया। उस समय तापसो की बडी प्रसिद्धि थी। “न्ह मालम हुआ कि आलार कालाम नि श्रेयस का शान रखत है। सिद्धाथ उनके पास गय और पूछा कि जम मरण याधि आदि दुखों से जीव कैसे मुक्त होता है ? आलार कालाम ने सक्षप में अपन शास्त्र के निश्चय को समझाया। उन्होने ससार की उत्पनि और प्रलय को समझाया और तस्वों की शिक्षा देकर नैष्ठिक पद की प्राप्ति का उपाय बताया। किन्तु सिद्धाप को सन्तोष न हमा । विशेष जानने के लिए वे उद्दक राम पुत्त के आश्रम में गये किन्तु जब उनसे भी सतोष नहीं हुआ तो व अनुत्तर शान्ति-पद की गवेषणा में उरुवेला भाये और नरंजना नदी के तट पर आवास किया। उन्होने विचार किया कि मुझमें भी बता
१ सामन्नफलसुत्त दीपनिकाय प्रथम भाग प ४५-५२।
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पानिक सिवानों से तुलना ८१
है वीर्य है स्मृति समाधि और प्रशा है मैं स्वय धर्म का साक्षात्कार कर्सगा। सिद्धार्थ बोधि के लिए कृतसंकल्प हो अखत्य-मूल में पर्यकबद्ध हुए और यह प्रतिज्ञा की कि जब तक वे कृतकृत्य नहीं होते इसी बासन में बैठे रहेंगे। इस प्रकार रात्रि के प्रथम याम में उनको पूबजमों का ज्ञान हुआ दूसरे याम में विव्य चक्ष की प्राप्ति हुई और अन्तिम याम मे द्वादशाग प्रतीत्यसमुत्पाद का साक्षात्कार कर उन्हें अनभव हुआ कि उनका बार बार जन्म लेना समाप्त हो गया ब्रह्मचयवास पूरा हो गया और यह उनका अन्तिम जम है । आस्रवों का क्षय हो जाने से अब उन्हें इस लोक में पुन नहीं माना है। यह उनका बद्धत्व है । उस दिन से व बद्ध कहलाने लग । ज्ञान प्राप्ति के अवसर पर भगवान ने जो प्रीतिवचन कहे उनका वणन धम्मपद में इस प्रकार है- बिना रुके अनेक जमों तक ससार में दौड़ता रहा। (इस कायारूपी) गृह को बनानेवाले ( = तृष्णा ) को खोजत पुन पुन दुखमय जम में पडता रहा । हे गृहकारक (तृष्ण ) मने तुझे देख लिया अब फिर त घर नही बना सकेगा। तेरी सभी कड़ियाँ भग्न हो गयी गृह का शिखर गिर गया। चित्त सस्काररहित हो गया। महत्व (तृष्णा-भय ) प्राप्त हो गया।
उपयक्त विद्यता ही बद्ध की सम्बोधि पी परन्तु कालान्तर में बुद्धपद के विकास से विद्यता के आधार पर ही बद्ध के अय अनेक विशिष्ट गुणो-चल वैशारख आदि और सवज्ञता-की कपना की गयी। प्रारम्भ में बद्ध अपने और अन्य महतों में भेद नही मानते थे। परन्तु बद्ध पद विशिष्ट हो जाने की स्थिति में अत्यन्त विरल माना गया अत बद्ध और सामान्य अहत् की उपलब्धि में भेद किया गया। इसी क्रम म तीन प्रकार के मुक्त पदों की कपना की गयी महत प्रत्येक बद्ध और सम्यक सम्बद्ध । बद्ध के अतिरिक्त और उनसे पूर्व के आय मानुषी बद्धों की कल्पना भी विकसित हुई । बद्ध शब्द का प्रयोग पालि निकायों में अनेक बार हुआ है। वीपनिकाय के महापदानसुत और मजिसमनिकाय के अच्छरियम्भुतषम्म सुत्त ( ३३३३३) से अनेक सुत्तों म इस प्रकार के शब्द दृष्टिगोचर होते है। प्राचीन पालि-साहित्य में सात बद्धों के नाम मिलते है यषा-विपस्सी सिखी वेस्सभ ककुसन्ध कोमागमम १ अनेक जाति ससार सपाविस्स अनिम्बिस
गहकारकं गवे सन्तो दुक्खा जाति पुनपुन । महकारक दिोसि पुनगेह म काहसि । सम्बाते फासुकाभग्गा गहकट विसखित । विसबारगत पित्त तहान सयमन्मणा ॥
पम्मपद १५३ १५४ तथा दीपनिकाय प्रथम भाग पृ ७३ ।
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८२ बोर सपा जनवम कश्यप और गौतम । खुद्दकनिकाय के अन्तगत बुद्ध-वश मे शाक्य मुनि के पर्व चौबीस बद्धों का वणन है । नये नाम इस प्रकार है--दीपकर को डन्ज मगल सुमन रेवत सोभित अनोमदस्सी पदुमनारद पदुमुत्तर समेष सुजात पियवस्सी अत्थदस्सी धम्मदस्सी सिद्धत्य तिस्स और फुस्स। अगुत्तरनिकाय म बद्ध के तथागत बुद्ध और प्रत्यक बद्ध ये दो प्रकार बतलाये गये हैं। दीघनिकाय म तथागत बद्ध को सम्यक सम्बद्ध कहा गया है। उत्तरकालीन परिभाषाओ के अनुसार सम्यक सम्बद्ध वह व्यक्ति है जिसन करुणा से प्रेरित होकर जगत के सारे प्राणियो को दुख से मुक्त करन का भार अपने कन्धो पर लिया है। स्वय बद्ध हुए दूसरे लोगो का जो अनेक प्रकार की रुचि शक्ति और योग्यतावाले लोग है उपकार करना सम्भव नही है अत वह बद्धत्व प्राप्त करने के लिए पुण्य-सम्भार और शान-सम्भार का अर्जन करता है। इसके लिए वह तीन असख्यय क पपर्यन्त अनक योनियो म ज म लेकर छह पार मिताओ को पूर्ण करता ह यथा-दान पारमिता शील पारमिता शान्ति पारमिता वीय पारमिता यान पारमिता एव प्रज्ञा पारमिता। प्रज्ञा पारमिता को छोडकर शेष पांच पारमिताय पु य सम्भार तथा प्रज्ञा पारमिता ज्ञान-सम्भार कहलाती है। जिस दिन उसन द्धत्व प्राप्त करने का सकल्प लिया था और अनन्त जमो के बाद जिस दिन उसे बोधि प्राप्त होती है इसके बीच उसकी सज्ञा बोधिसत्त्व होती ह । जिस दिन उसे सम्यक सम्बोधि का लाभ होता है उस दिन प्रज्ञा पारमिता भी पण हो जाती है और उस दिन से वह सम्यक सबद्ध कहलान लगता है। वह करुणा और प्रज्ञा का पज हाता ह । दोनो उसमें समरस होकर स्थित होती ह और वह करुणामय अनत ज्ञानवान सवज्ञ और अनत लाकोत्तर शक्तियो से समवित हो जाता है । वह सभी प्राणियो को दुख से मुक्त करन के माग को देशना करता है। भगवान बद्ध इसी तरह के सम्यक सम्बद्ध थे।
प्रत्यक बद्ध वह व्यक्ति है जो अपन को दुम्स से मुक्त करन का सकल्प लेकर और इसके लिए प्रवजित होकर शील समाधि आर प्रज्ञा भावना के द्वारा अर्थात आय अष्टाङ्गिक माग के अभ्यास द्वारा चार आयसत्यो का साक्षात्कार कर अपने
१ दीघनिकाय महापदानसुत्त । २ बौद्धधम के विकास का इतिहास पृ ३५६ । ३ अगुत्तरनिकाय २।६५ तथा डिक्शनरी आफ पालि प्रापर नेम्स भाग २
२९४ । ४ दीघनिकाय ( सामन्नफलसुत्त ११५)। ५ वही दोषनिकाय द्वितीय भाग पृ ११ ।
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धार्मिक सिखातों से तुल्या क्लेशों का प्रहाण करता है। यह पुण्य-सम्मार का अर्जन अधिक नहीं करता। इसकी विशेषता यह होती है कि जिस जन्म में उसे प्रत्येक बद्ध बोधि प्राप्त होती है उस जम म वह किसीको अपना शास्ता मार्ग प्रदशक अथवा गुरु नही बनाता अपितु अपने बल पर निर्वाण प्राप्त करता है।
इसके अतिरिक्त बौद्ध टोकाओं में चार प्रकार के बद्ध बतलाय गये है१ सम्बन्न बद्ध (सर्वज्ञ बद्ध) २ पच्चेक बुद्ध (प्रत्येक बुद्ध) ३ चतु सच्च बद्ध (चतु सत्य बद्ध ) और ४ सुत बद्ध
(श्रत-बद्ध)। धम्मपद के चौदहव बद्ध वर्ग म बद्ध के प्रकारों का उल्लेख तो नही मिलता है लेकिन बद्ध विनायक सम्बुद्ध श्रावक तथा गौतम श्रावक आदि विशेषणों से उसे अलकृत किया गया है जिसके विजय का फिर पराजय नही होता है जिसके विजय का कोई भागीदार इस संसार में नही हो सकता ऐसे अगम्य त्रिकालज्ञ बद्ध को आप कौनसा पथ दिखला सकते हैं। जो प्रबुद्ध और अप्रमत्त है जो ध्यान म मग्न रहनेवाले हैं जो धीमान और एका त सुख में आनद मनाते हैं ऐसे सत्पुरुषों के साथ देवता भी स्पर्धा करत है। क्योकि बद्ध का जम तथा बद्धत्व प्राप्ति दुलभ ह इसलिए कोई पाप न किया जाव भलाई की जाय और अपने मन की शुद्धि की जाय यह उपदेश सब बद्धो का ह। निन्दा न करना पात न करना भिक्ष नियमो द्वारा अपने को सुरक्षित रखना परिमाण जानकर भोजन करना एकान्त में सोना-बैठना चित्त को योग म लगाना यही बद्धो का शासन ह ।
उत्तराध्ययनसूत्र में भी चार प्रत्येक बद्धों का उलेख मिलता है यथा(१) करकण्डु (कलिंग का राजा) (२) द्विमुख (पचाल का राजा )
१ डिक्शनरी ऑफ पालि प्रापर नेम्स मलाल शेखर माग २ १ २९४ तथा
उत्तराध्ययन एक समीक्षात्मक अध्ययन आचाय तुलसी पृ ३५ । २ धम्मपद १८७ ५८ ५९ । ३ वही २९६-३ १ तक। ४ वही १७९ १८ । ५ वही १८१ । ६ वही १८२ १८३ । ७ बही १८५.
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८४ पौष तथा नपर्व
(३) ममि (विदेह का राजा) और (४) मग्गति (गधार का राजा)।
इसका विस्तृत वणन टीका म प्राप्त है। य चारो प्रत्येक बुद्ध एक साथ एक ही समय में देवलोक से व्युत हुए एक साथ प्रवजित हुए एक ही समय मे बुड हुए एक ही समय में केवली बने और एक साथ सिद्ध हुए। इनम से करकण्डु बढ़े बल को देखकर प्रतिबुद्ध हुआ। द्विमुख को इद्रस्तम्भ क देखने से वरा य हुआ तथा नमि राजा ने चडियो के शब्दो को सुनकर ससार का परित्याग कर दिया और नग्गति राजा मलरीविहीन आम्रवृक्ष को देखकर वैराग्यवश दीक्षित हो गए।
उत्तराध्ययन की कथाओ के आधार पर करकण्ड और द्विमुख का अस्तित्व भगवान महावीर के शासनकाल म सिद्ध होता है । उसके दो मुख्य आधार है (१) करकण्डु पद्मावती का पुत्र था। वह चटक राजा की पुत्री और दधिवाहन की पत्नी थी। य दोनों भगवान् महावीर के समसामयिक थे। (२) द्विमुख की पुत्री मदन मञ्जरी का विवाह उज्जनी के राजा चण्ड प्रद्योत के साथ हुआ था। यह भी भगवान महावीर के समसामयिक थे। चारो प्रयक बुद्ध एक साथ हुए थ इसलिए उन चारो का अस्तित्व भगवान महावीर के समय मे ही सिद्ध होता है।
अहंत अहन शब्द श्रमण-सस्कृति का प्रिय शब्द ह। श्रमण लोग अपने तीर्थहरों या वोतराग आत्मामो को अहंन कहत थ । बौद्ध और जैन-साहित्य म अहन शब्द का प्रयोग हजारोबार हुआ है । जैन लोग पाहत नाम से भी प्रसिद्ध रह है। भगवान् महावीर
और बुद्ध समकालीन थे और स्वाभाविक रूप से दोनों की वाणी और भाव म बहुत अधिक साम्य है । बहुत से शब्द और भाव तो दोनो धर्मों के प्रन्यो म समान रूप से देखकर लोग आश्चयचकित हो जाते हैं। भगवान बुद्ध और उनके शिष्यो के लिए भी अरहत विशेषण बौद्ध-ग्रन्यो म पाया जाता ह जो कि एक विशिष्ट अवस्था या उपलब्धि का सूचक है । अहत् अघ का विकृत रूप है। अध ऋग्वेद म भी आया है। वहां
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उमराध्ययनसूत्र १८४६ ।
१ करकण्ड कलिगेसु पचाले सुय दुम्मुहो।
नयी राया विदेहेसुगन्धारेसुयनग्गई ॥ २ उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा २७ । ३ सुखबोषापत्र १३३ । ४ वही १३३-१३५ । ५ वही पत्र १३६ । ६ ऋग्वेद २।३।१ २।३।३ .
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पार्मिक सिद्धान्तों से तुलना ८५ इसका बथ है--योग्य उच्च अदास्पद इत्यादि । इस प्रकार ऋग्वेद के समय में भी इस शब्द से एक उच्चादर्श सूचित होता था। बाद म जैनषम ने इस वैदिक शब्द को अपना लिया और अपुरुष रत्नों के सम्बन्ध म इसे प्रयुक्त किया क्योकि इस शब्द से आदर्श में निहित पूरा-पूरा भाव प्रकट होता था। इस प्रकार अहत जैन तीथरो के लिए प्रयुक्त होने लगा और इसके द्वारा जैनधम के सबश्रेष्ठ आवश पुरुष का बोध होने लगा। बारहवीं शताब्दी के जैन कोषकार हेमचन्द्र ने जैन तीथरो के पर्यायवाची शम्वों का वर्णन किया है। उन्होने बुद्ध के भी पर्यायवाची शब्द दिये हैं। यह सूची तीपर के पर्यायवाली सूची से बहुत लबी है पर इसम अर्हत् शब्द का पता नही है । बौड कोषकार अमरसिंह (छठी शताब्दी ) ने भी अपने अमरकोष में बुद्ध के पर्यायवाची शब्द देते हुए अहत् का कोई उलेख नही किया है। किन्तु हेमचन्द्र और अमरसिंह दोनो ने ही बुद्ध के नामो म जिन शब्द का उल्लेख किया ह । जिन और अहत् से श्रेष्ठ तथा बादश पुरुष का बोध होता है अत ये जनो तथा बौदो दोनो के आदर्श परुषो के सम्बन्ध म लागू हो सकते हैं। पर यहां यह भी याद रखना चाहिए कि जैना और आर्हता से जैनधर्मानुयायियो का बोष होता है और इस प्रकार जिन और अहंत भी जैन आवश पुरुषों के लिए विशेषत प्रयुक्त हुआ है। जिन शब्द जि घातु से बना है जिसका अर्थ होता है जीतने वाला । किसे जोतनेवाला यह यहां गुप्त एव अध्याहृत है। भगवान महावीर को अन्तिम देशना के रूप म माने जानेवाले प्रसिद्ध शास्त्र उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जो दुजय सग्राम म सहस्र सहस्र योद्धाओ-शत्रुओ को जीत लेता है वह वास्तविक विजता नही माना जाता । वास्तव म एक आत्मा को जीतना ही परम जय है । इसलिए ह पुरुष | त आत्मा के साथ ही युद्ध कर बाह्य शत्रुओ के साथ युद्ध करन से तुझे क्या लाभ है ? जो आत्मा द्वारा आत्मा को जीतता है वही सच्चा सुख प्रास करता है। १ अहज्जिन पारगतास्त्रकाल वित्लीणा
ष्टकर्मा परमेण्ट्यधीश्वर । शुभ स्पय भूभगवान्जगत्प्रभुस्तीय करस्तीर्थकरो
जिनेश्वर ॥
बभिधान चिन्तामणि ११२४ २५ । २ उत्तराध्ययन ९।३४ ३५ तुलनीय
यो सहस्स सहस्सेन सङ्गामे मानुसे जिने । एक बजेय्यमत्तान स वे सङ्गामजुत्तमो ।।
धम्मपद १४।
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८६ बौद्ध तथा धर्म
इन उदगारो से यह निश्चित हो जाता है कि यहां बाह्य शत्रुओं के साथ लडकर उन्हें जीतने की बात नही अपितु आन्तरिक शत्रुओ के साथ जझकर उन्हें जीतने की बात कही गयी है । यह युद्ध कैसे करना चाहिए यह मा यहाँ बता दिया गया है अर्थात् आत्मा के द्वारा आत्मा को जीतना चाहिए । इसका अथ हुआ अपना आत्मबल सकल्पशक्ति और वीर्यो लास बढाकर अन्त करण म स्थित महान शत्रमओ पर नियन्त्रण करना । जैनधम के अनुसार अन्त करण के प्रबल शत्रु है-राग द्वेष और मोह । इन्हीके कारण क्रोष मान माया लोभ काम तष्णा मादि दुष्ट वत्तियां उत्पन्न होती ह और उहीके कारण कमबन्धन होता है जिसके फलस्वरूप नाना गतियो और योनियो म परिभ्रमण करना और जम मरणादि दुख सहना होता है। वैसे देखा जाय तो दुष्कृत्यो या दवृतियो म प्रवृत्त मात्मा ( मन आदि इद्रियसमह ) भी आमा का शत्रु बन जाता है। इस प्रकार आन्तरिक शत्रओं की गणना अनेक प्रकार से होती है । तात्पय यह है कि जो इन आतरिक शत्रओ को जीत लेत है वे जिन कहलाते हैं ।
___सम्भवत बौद्धों न जनो से ही इन दोनो शब्दो को ग्रहण किया। अहत एक अवस्था या पदविशेष है। उस अवस्था को बुद्ध न ही नहीं अपितु उनके अनेक शिष्यो और शिष्याओ न भी समय-समय पर प्राप्त किया जिसके अनेक उदाहरण है। बौद्ध और जनधम दोनो द्वारा अहत शद के प्रयोग पर टिप्पणी करते हुए प बचरदास डोशी ने लिखा ह कि धम्मपद के प्रारम्भ म ही बुद्ध भगवान का विशेषण अरहव बतलाते हुए नमस्कार किया गया है यथा--नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स । यह उसी प्रकार ह जैसे जन ग्रन्थों में नमो अरिहताण । किन्तु यह ध्यान में रखना चाहिए कि बौद्ध प्रयोग म अरहत षष्ठी विभक्ति मह और विशेषण के समान व्यवहृत है । अत वह श्रद्धय या आदरणीय के मथ म ही प्रयुक्त प्रतीत होता है । वहाँ अहत से वह अथ नही निकलता जो नमो अरिहताण के अरिहताण से निकलता है।
धम्मपद के सातव वग्ग का नाम अहन्तवग्ग है। इस वग्ग म अहतो के सम्बन्ध म विचार किया गया है। इस वग की प्रत्येक गाथा म जैन महतो या
१ अप्पामित्तममित्त च दप्पटिठय सुपटिठओ ॥ उत्तराध्ययनसूत्र २ ॥३७ । तुलनीय
अत्तना वकत पाप अत्तना सकिलिस्सति । असना मकत पाप अत्तना व विसुज्झति । सुद्धि असुखि पच्चत्त नान्नो अन्न विसोषये ॥धम्मपद १६५ तथा जैन बोद नथा गीता के आचार-दशनों का तुलना मक अध्ययन भाग १ १ ३६३ । २ महावीर-बाणी ४।
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पार्मिक सिद्धान्तों से तुलना ८७
तीथकरों की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चर्चा की गयी है। महत् शब्द का ऐसा ही प्रयोग धम्मपद की १६४वी गाथा में किया गया है
यो सासन अरहत अरियान पम्मजीविन ।
धम्मपद के टीकाकार आचाय बद्धघोष ने यहाँ अरहत को विशेषण और सासन को विशेष्य बताया है और यही ठीक भी है। इस प्रकार यहाँ अरहत का अथ सम्मानास्पद समझना चाहिए । अब यह विचार करना चाहिए कि बौद्धो के अनुसार अहंत का क्या अथ है ? खुद्दकपाठ म इसका अथ इस प्रकार दिया हुआ है- दसइ गहि समन्नागतो अरहाति वुज्जति -अर्थात जिसम दस लक्षण वतमान हो वह अहत है। इससे बोष होता ह कि बौद्धो की दृष्टि म अहत् का बहुत ऊचा किन्तु एक निश्चित स्थान था और एसा जान पडता है कि वह स्थान केवल बद्धत्व के नीचे था। अत मालम पडता है कि बौद्धधम म अर्हत्व की भावना किसी दूसरे सम्प्रदाय से ग्रहण की गयी है और वह सम्प्रदाय निस्सन्देह जन सम्प्रदाय है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि नतिक जीवन का आदश अहतावस्था माना गया है। महत अवस्था से तात्पय तृष्णा या राग द्वेष की वृत्तियों का पूण भय है । जो राग द्वष और मोह से ऊपर उठ चका ह जिसमें किसी भी प्रकार की तृष्णा नही ह जो सुख दुख लाभ अलाभ और नि दा प्रशसा मे समभाव रखता है वही अहत है । इसके अतिरिक्त अहंत को स्थितात्मा केवली उपशान्त आदि नियमो से भी जाना जाता ह । धम्मपद म अहत के जीवनादर्श का निम्न विवरण इस प्रकार है जिसने अपनी यात्रा को समाप्त कर लिया है जिसन चिन्ताओ को याग दिया है जिसने सब तरह से अपने आपको स्वाधीन कर लिया है और सब बन्धनो को काट दिया है वह कष्टो से परे है । उनको घर में सुख मालम नही होता वे भली प्रकार विचार कर घर को याग देते है जैसे राजहस अपने घरबार अर्थात् झील को त्याग देत हैं। वे पुरुष जिनके पास धन नही है जो खास किस्म का भोजन करते है जिन्होने पण स्वाधीनता पद निर्वाण को प्राप्त कर लिया है उनका माग आकाश म विधरनेवाले पक्षियो के माग की तरह समझना कठिन है । इस प्रकार के कतव्यपरायण पुरुष भमि तथा इन्द्रवज की तरह सहनशील हो जाता है वह कोच से रहित सरोवर की तरह है वह पुनजन्म की प्रतीक्षा नहीं करता। उसके विचार स्थिर हो जात है और कर्म क्षोभरहित हो जाते हैं तब वह मौनी कहलाता है । जो असृष्ट वस्तु को पहचानता है
१ जन बौद्ध तथा गीता के आचार-वर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग १
डॉ सागरमल जन प ४१७ । २ धम्मपद अरहन्तवग्ग ९ -१९ ।
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८८ पौडसमा नपर्म
जिसने सब बधनों को तोड़ दिया है और सब इच्छाओ को याग दिया ह वही श्रेष्ठ मनुष्य है । ऐसा मनुष्य जहां कही भी विहार करता है वह भमि (पवित्र ) है।
भदन्त बोधानद महास्थविर द्वारा लिखित बौद्धचर्या-पदति म शब्द के विषय म निम्नलिखित टिप्पणी प्रास होती ह अहत-जीव मुक्त । अह तीन प्रकार के होते हैं-बुद्ध प्रत्येक बुद्ध और श्रावक अर्हत् । इनम जो पुरुष बिन गुरु की सहायता के स्वयं अपने प्रतिभा बल से सवज्ञता या पणज्ञान प्राप्त करके । लाम करते हैं वे बुद्ध प्रत्येक बुद्ध क लाते हैं। और जो पुरुष बुद्ध प्रदर्शित प चलकर सवज्ञता और निर्वाण लाभ करत हैं वे श्रावक अहत् कहलाते है । ब प्रत्येक बद्ध म यह अतर ह कि कम ऋषि ज्ञान ऋषि आदि सब प्रकार की अ प्रतिभा तथा जिसम असस्पेय अप्रमेय प्राणियो के उदबोधा करने को प्रतिभा है वे बुद्ध कहलाते है और जो अपन प्रतिभा बल से अय प्राणियो का उदबोधन न सकत केवल स्वय निर्वाण लाभ कर सकत हैं वे प्रत्यक बुद्ध कहलाते है। बुद्ध जैनो म भी प्रसिद्ध है।
श्रावक की निर्वाण प्राप्ति के लिए चार अवस्थामओ का विधान दिया गया १स्रोतापन्न
स्रोताप न शब्द का अथ ह धारा म पडनवाला । जब साधक का चित्त प्र एकदम हटकर निर्वाण के माग पर आरूढ हो जाता है जहां से गिरन की स नही रहतो तब उसे साताप न क त ह । जैसे किमी तीव्र जलधारा म पि (तिनका ) अवश्य एक दिन समग तक पहुच जाता है उसी प्रकार स्रोतापन्न भी अधिक-से-अधिक सात जमो म अवश्य सम्पण क्लेशो का प्रहाण करने म र आता है। उसका आठवां जम नहीं होता। वह मनुष्य देव आदि उच्च भू उत्पन्न होकर एक-दो जम में भी अहत् हो सकता है कि तु किसी भी हालत से अधिक जम नही लेता। २ सहुदागामी
स्रोतापन हो जान के बाद आगे मार्गाभ्यास करने पर व्यक्ति । (कामराग) देष (प्रतिषा) एव मोह ( अविद्या ) इन तीन सयोजनों को ५
१ उत्तराध्ययनसूत्र १८०४६ । २ खुदकनिकाय सम्पा भिक्ष जगदीश काश्यप (खुद्दकपाठ-रतनसुत) ३ दीघनिकाय प्रथम भाग पृ १३३ १९५ द्वितीय भाग १ . भाग १ ८४ १ २।
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पार्मिक सिद्धान्तों से तुलना ८९ देता है तो सकृदागामी कहलाने लगता है। ऐसा यक्ति इस कामभमि मे अधिक से अधिक एक बार ( सक ) जम लेकर अपने सम्पूण दु ख का प्रहाण कर देता है। ३ अनागामी
इसे अनागामी इसलिए कहत है क्योकि ऐसे व्यक्ति का इस मनुष्य भमि (कामभमि ) म फिर उत्पाद नही होता । कामभूमि म पुन आनेवाला न होन से यह अनागामो कहलाता है । रूप अरूपमि म उत्पन होकर यह अपने दुख का अन्त कर देता है। ४ अहत्
उपयक्त तानो व्यक्ति जिन क्लेशों का प्रहाण करन म असमथ रहते हैं यह यक्ति बाकी के बच हुए ऊर्ध्वभागीय पाँच क्लेशो का भी प्रहाण कर अहत कहलाने लगता ह । अर्थात इसके सम्पण दस सयोजन ( कामराग रूपराग अरूपराग प्रतिष मान दष्टि शीलवत परामश विचिकि सा औद्धत्य एव अविद्या) सर्वथा प्रहीण हो चके हैं । इसे अब कुछ प्रहाण करना शष नही है। इसे जो करना था वह कर दिया जा पाना था वह पा लिया। यह कृतकृय एव पण मनोरथ हो गया है। इसका ब्रह्म चय वास पण हो गया इसे अब फिर जन्म ग्रहण नहीं करना है। यह इसी जम म अनास्रव चित्त विमुक्ति एव प्रज्ञा विमुक्ति का अनुभव करत हुए विहार करता है।
जन-दशन मे नतिक जीवन का परमसाध्य वीतरागता की प्राप्ति रहा है। जन दशन म वीतराग एव अरिहत इसी जीवनादश के प्रतीक है। वीतराग की जीवन-शैली क्या होती है इसका वणन जनागमो म यत्र-तत्र बिखरा हुआ है। डा सागरमल जन न उसे इस प्रकार से प्रस्तुत किया है जो ममत्व एव अहकार से रहित ह जिसके चित्त में कोई आसक्ति नहीं है और जिसने अभिमान का त्याग कर दिया है जो प्राणिमात्र के प्रति समभाव रखता है जो लाम-अलाभ सुख-दुख जीवन मरण मान अपमान और निन्दा प्रशसा में समभाव रखता है जिसे न इस लोक और परलोक की कोई अपेक्षा नही है किसीके द्वारा चन्दन का लेप करन पर और किसीके द्वारा बसूले से छिलने पर जिसके मन में राग देष नहीं १ दीपनिकाय प्रथम भाग पृ १३३ १९५ द्वितीय भाग पृ ७४ तृतीय
भाम ५ ८३ १२।। २ वही पृ ८३ ८४ १३ । ३ वही पृ ८३ ८४ । ४ जैन बोस तथा गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन माग ११
४१६ ४१७ ।
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बोट तथा जैनधर्म
होता जो खान म और अनशन व्रत करने म समभाव रखता है वही महापुरुष है। जिस प्रकार अग्नि से शुद्ध किया हुआ सोना निमल होता है उसी प्रकार राग द्वेष बोर भ५ आदि से रहित वह निमल हो जाता है। जिस प्रकार कमल कीचड एव पानी म उत्पन होकर भी उसम लिप्त नहीं होता उसी प्रकार जो ससार के कामभोगों में लिम नही होता भाव से सदव ही विरत रहता है उस विरतामा अनासक्त पुरुष को इद्रियो के शब्दादि विषय भी मन म राग द्वेष के भाव उ पन्न नहीं करते। जो विषयरागी व्यक्तियों को दुख देते हैं वे वीतरागी के लिए दुख के कारण नहीं होत है । वह राग द्वष और मोह के अध्यवसायो को दाषरूप जानकर सदव उनके प्रति जागृत रहता हुआ माध्यस्थ भाव रखता है। किसी प्रकार के सकप विक प नहीं करता हुआ तृष्णा का प्रहाण कर देता है । वीतराग पुरुष राग द्वष और मोह का प्रहाण कर शानावरणीय दशनावरणीय और अन्तराय कम का क्षय कर कृतकृत्य हो जाता है । इस प्रकार मोह अन्तराय और आस्रवो मे रहित वातराग सवज्ञ सवदर्शी होता है । वह शुक्ल ध्यान और सुसमाधि होता है और आयु का भय होन पर मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
धम्मपद और उत्तराध्ययन के अहत पद-सम्बधी तुलना मक अध्ययन से यह पता चलता है कि बौद्धधम की तरह ही जैनधर्म म भी अहत्-पद को बहुत महत्त्व दिया गया ह । जनधम का महान ध्यय ही वीतरागता की प्रासि ह । दोनो प्रथो में
महत शब्द जीवन्मक्त के लिए प्रयक्त है। जिसका चित्त मन सवथा प्रक्षीण हो चका है वीतप्तष्ण हो जाने के कारण उसके कम दग्धबीज की तरह विपाक (फल) उत्पन्न नही करत । शरीर त्याग के बाद फिर जम ग्रहण नही करता आवागमन मक्त हो जाता है । राग द्वेष और मोह सब नष्ट हो जाता है तब अहत-पद प्राप्त होता है । वह पसि कृतकृय हो जाता है। अत सभी के लिए पज्य बन जाता है ।
त्रिशरण बुद्ध धम और सघ बौद्धधम के तीन रत्न मान गय ह । आचार्य वसुबध ने
१ उत्तराध्ययनसूत्र १९४९ -९३ । २ वही २५।२१ २७ ३२।४७ ३५ । ३ वही ३२१६१ ८७ १ । ४ वही ३२।१८। ५ वही १९९४ ३५११९२ २३।७५-७८ ६ खुदकपाठ धमसाह (नागाजुनकृत मवसमलर द्वारा स पावित माक्सफोर
१८८५ ) पृ १।
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धार्मिक सिधान्तों से तुलना ९१ अभिषमकोश भाष्य म इन तीन रत्नों की तुलना क्रमश वैद्य भेषज्य एवं उपस्थापक से की है। इनका स्मरण स्वस्तिकारक है। अत नम रत्नत्रयाय कहकर इन्हें अक्सर नमस्कार भी किया जाता है । इससे भय दुख आदि दूर होते है । त्रिशरण-गमन बौद्ध सघ में प्रवेश की प्रथम औपचारिक आवश्यकता थी । प्रनया के प्रार्थी को सिर और दाढी मडाकर काषाय वस्त्र पहनकर उत्तरासग एक कन्ध म बठकर और हाथ जोडकर तीन बार यह कहना पडता था बुद्ध की शरण जाता हूँ बम्म की शरण जाना हूँ और सघ की शरण जाता है।
अब प्रश्न उठता है कि शरण का क्या अथ हो सकता है ? शरण का अथ दढ निष्ठा एव तदनुसार आचरण करना ह । भगवान बुद्ध न पूजा-पाठ का निषष किया था। उन्होन अपनी पजा तक को साथक न कहकर धम आचरण की ओर सबको प्ररित किया था। उन्होन यह भी कहा था कि मनुष्य भय के मार पर्वत बन उद्यान वृक्ष चत्य आदि को देवता मानकर उनकी शरण म जाते हैं। किन्तु य शरण मगलदायक नही य शरण उत्तम नही क्योकि इन शरणो मे जाकर सब दुखो से छटकारा नही मिलता। जो बुद्ध धम और सघ की शरण जाता ह और चार माय सत्यो की भावना करता है वही सब दु खो से मक्त होता है ।
१ अभिषमकोश भाष्य पृ ३८७ । २ देखिय रतनसुत्त ( सुत्तनिपात )। ३ विनयपिटक महावग्ग प २४
और बौद्धधम के विकास का इतिहास
४ महापरिनिम्बानसुत्त प १४४ । ५ बहु वे सरण यति पब्बतानि वनानि च ।
आराम रुक्खचेत्यानि मनुस्साभय तज्जिता ॥ नेत खो सरण खेमं नेत सरणमत्तम । नेत सरणमागम्म सब दक्खा पमञ्चति ॥
धम्मपद १८८ १८९॥
६ यो व बुद्ध च धम्म च सघ
सरण गतो।
एत खो सरण खेम एत सरणमुत्तम । एत सरणमागम्म सम्बदुक्खा पमुच्चति ।।
वही १९ -१९२।
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१८:ब तथा जेमधर्म
विनमें कम और क्लेश मात्रय प्रहण करते हैं वे उपषि है। जो उपपि भी हैं और शेष भी रहते है वे उपषिशेष कहलाते हैं। वस्तुत अहत् व्यक्ति के पांच स्कन्ध हो उपधिशेष ह। निर्वाण का लाभ हो जाने क्लेशो का क्षय हो जाने तथा क्लेशवश नवीन कर्मों का सम्पादन न करन पर भी पुराने कर्मों के विपाक (फल) के रूप में उनकी स्थिति तब तक बनी रहती ह या उनको धारा का प्रवाह तब तक चलता रहता है जब तक आयु का क्षय नही होता यही सोपाधिशेष अवस्था है।
जब अहत व्यक्ति का आयु भय से मरण हो जाता है तब उसके सभी प्रकार के नाम धर्मों की सन्तति तथा रूप धर्मों की सतति सवदा के लिए सवथा निरुद्ध हो जाती है । उसके पांचो स्कन्धो का निरोष हो जाता है। जिस अवस्था म उपषियोष कहलानेवाले पांच स्कन्धो का भी अभाव हो जाता है वह निर्वाण धातु अनुपषिशेष निर्वाण कहलाती है।
जन-परम्परा में भी मुक्ति के इन दो रूपो की कल्पना है वहां वे भाव मोक्ष और द्रव्य मोक्ष कही गयी है। भाव मोक्ष की अवस्था के प्रतीक अरिहत और ग्य मोक्ष की अवस्था के प्रतीक सिद्ध मान गये ह । उत्तराध्ययनसूत्र म मोक्ष और निर्वाण शब्दो का दो भिन्न भिन्न अर्थो म प्रयोग हुआ है। उनमें मोक्ष को कारण और निर्वाण को उसका कार्य बताया गया है। इस सदभ म माक्ष का अथ भाव मोक्ष या राग-दूष से मुक्ति है और द्रव्य मोक्ष का अथ निर्वाण या मरणोत्तर मुक्ति को प्राप्ति है । निर्वाण के विशेषण
यद्यपि मपद आदि बद्ध वचनो में निर्वाण के स्वरूप अथवा आकार का स्पष्ट विवचन उपल ध नही होता फिर भी उसके अनेक पर्यायवाची शब्द उपलब्ध होते ह जिनसे निर्वाण के स्वरूप का आकलन करने मे बडो सुविधा होती है जैसे-अमृत अजर अमर अरूप नि य असाधारण निष्प्रपच अच्युत अयन्न असस्कृत लोकोत्तर निर्वाण आदि ।
हेतु प्रत्ययों से उत्पन्न होने के कारण निर्वाण अमृत असंस्कृत मजर एव अमर कहलाता है । जो त्पन्न होता है उसका विनाश ध्रुव है । निर्वाण उत्पन्न नहीं होता
१ विसुद्धिमग्ग १६७३ पृ ३५६ । २ दीघनिकाय द्वितीय भाग पृ १२ । ३ उत्सराध्ययन २८१३ तथा जन बौद्ध तथा गीता के आचार-दशनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग १ १ ४१५ ।
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धार्मिक सिद्धान्तों से तुलना । ९९
केवल विशिष्ट मार्ग द्वारा प्राप्त होता है अत वह जरा मरण धर्मवाला नहीं है इस लिए वह नित्य भी है । उसकी पवकोटि भी नही है अत वह अनादि अन्तरहित एव अप्रभव है । रूप-स्वभाव का न होने से वह अरूप तथा सवप्रपचो से रहित होने के कारण निष्प्रपच कहलाता है । कपना शब्द तक का विषय न होने से अतक्य ग भीर एव दुजय कहलाता है । तृष्णा से निर्गत होने के कारण उसे निर्वाण कहते हैं ।
इस प्रकार विचार करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि निर्वाण परमार्थत स्वभावभूत एक धम है। न तो वह सांख्यो की प्रकृति या बौद्धेतर दार्शनिकों की आत्मा की भाँति नित्य व्यापक एव सत्तावान् कोई द्रव्य ह न ही शय विषाण की तरह वह सर्वथा अलीक है। न तो वह प्रतीत्यसमुत्पन्न धर्मों की तरह संस्कृत घम है और न प्रतिमात्र है । वह एक परमाथ धर्म है जिसका साक्षात्कार एव प्राप्ति होती है किन्तु उसका भाव या अभाव के रूप में निवचन नही किया जा सकता । अत उसे भावत्वेन एव अभावत्वेन अनिवचनीय ही कहा जा सकता है ।
भगवान् बद्ध की सारी देशना का एकमात्र रस निर्वाण है । उनके धम का आदि और अन्त सब कुछ निर्वाण है। निर्वाण दुख और उसके कारणो की निवृत्ति है । यह सवश्रेष्ठ अवस्था एव परमपद है । इसकी प्राप्ति के बाद कुछ प्राप्त करना शेष नही रहता । यह परम शान्ति है । इस अवस्था को प्राप्त कर लेने पर भी यदि व्यक्ति जीवित है तो वह सोपविशेष निर्वाण या जीवमुक्त की अवस्था इस अवस्था में वह जो कुछ करता है वही पण्य है वही कुशल है फल नही भोगना पडता क्योंकि इन कर्मों के पीछे राग द्वेष मोह क्लेश नहीं होते । य कम निराभोग कम कहलाते है । इनके द्वारा केवल लोक-सग्रह
१ निब्बान योगक्खम अनुत्तर । पारमेस्सत्तिमच्चुषेय्य सुदुत्तर ।
नत्थिसन्ति परं सुख ।
निब्बान परम सुख 1
येयन्ति अच्युत ठान यत्य गन्त्वा न सोचते । सन्तिमग्गमेवग्रहय निब्बान सुगतेन देसित । यहि झानन्च पन्ना व से निशान सन्तिके ।
तथा-
धम्मपद २३ ।
वही ८६ ।
वही २२ ।
वही २३२४ ।
वही २२५ ।
वही २८५ । बही ३७२ ।
arafters प्रथम भाग १ १२ द्वितीय भाग पू अभिषम्मत्थसगही द्वितीय भाग पु ७२८ तथा १
कहलाती है। किन्तु इसका उसे तृष्णा आदि कोई
३२ ।
७२१ ।
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१
बोर तथा मानव
या लोक-कल्याण होता है। भगवद्गीता में यही निष्काम कमयोग कहा गया व्यक्तित्व के विकास की इससे ऊची अवस्था नही होती । एसे व्यक्ति के लौकिक स्कन्ध जब निरुद्ध हो जाते है अर्थात् जब वह मर जाता है तो पुन उन स्कन्ध उत्पाद नहीं होता। एसे व्यक्ति के नाम और रूप धर्मों की धारा सवषा समा। जाती है । इसे ही निरुपषिशेष निर्वाण की अवस्था कहत है। जैन-दर्शन में मोक्ष का स्वरूप
जन-तत्त्व भीमासा के अनुसार सबर के द्वारा कर्मों के आगमन का निरो जाने पर और निजरा के द्वारा समस्त पुरातन कर्मों का भय हो जाने पर आत्म जो निष्कम शुद्धावस्था होती है वही मोक्ष ह । मोक्ष आत्मा की शुद्ध स्वरूपार ह । मोक्ष को जीवन का अन्तिम लक्ष्य मानन के कारण जैन आचार्यों ने मोक्ष मोक्ष माग दोनों पर विस्तार से विचार किया ह । उत्तराध्ययन भी अन्य भारतीय घा ग्रन्थो को तरह जीवो को मुक्ति की ओर अग्रसर करना अपना चरम लक्ष्य समझत
मोम के लिए निर्वाण शब्द का प्रयोग जैन आचार्यों ने भी किया निर्वाण का शाब्दिक अथ है-नि शेषण वान गमन निर्वाणम अर्थात् सम्पूण र गमन निर्वाण है । निर्वाण के बाद जीव का संसार म पुनरागमन नही होता । यहाँ पर निर्वाण का अथ है कमजय सासारिक अवस्थाओ का सदैव के लिए स हो जाना । बौद्ध-दशन का भी मूल लक्ष्य जीवों को मुक्ति की ओर ले जाना जैन मनीषियों ने मोक्ष के स्वरूप का प्रतिपादन करने के साथ अन्य भारतीय दश मान्य मोक्ष के स्वरूप की समीक्षा भी की है और तार्किक दृष्टि से उपयुक्त जैन-परि को प्रतिस्थापित किया है । उत्तराध्ययनसूत्र म मक्ति के अथ को डॉ सुदशनलार ने अपनी पुस्तक म विस्तृत रूप स प्रस्तुत किया है जिसे उसके स्वरूप के विष विशेष जानकारी प्राप्त होती है । वे शब्द निम्नलिखित है
१ जन बौद्ध तथा गीता के आचार-दशनो का तुलनात्मक अध्ययन मा
११। २ उत्तराष्ययन २३७१-७३ तथा जन बौद्ध तथा गीता के आचार-दर्शन
तुलनात्मक अध्ययन भाग १ प ४२ । ३ नायए परिनिन्बुए
उत्तराध्ययनसूत्र ३६॥ मत्यि अमोक्खस्स निव्वाण
वही २८३ । ४ उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन ३७५-३७८ ।
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धार्मिक सिद्धान्तों से तुलना : ११
१ मोक्ष
मोक्ष शब्द की उत्पत्ति मुच धातु से हुई है जिसका व्यथ छटकारा प्राप्त करना होता है | अध्यात्म विषय होने से यहाँ पर ससार के बन्धनभत कर्मों से छटकारा जीव को होता है तथा कमबन्धन से रहित जीव को मुक्त जीव कहा गया है । अत मोक्ष का अर्थ हुआ सब प्रकार के बचन से रहित जीव द्वारा स्वस्वरूप की प्राप्ति ।
२ बहि बिहार
यहाँ पर विहार शब्द का अर्थ है अम-जरा-मरण से व्याप्त ससार । अत बिहार का अथ हुआ ससार के आवागमन से रहित स्थान या जन्म मरणरूप ससार से बाहर | मोक्ष की प्राप्ति हो जाने के बाद जीव का ससार म आवागमन नही होता है अत प्रथम उसे बहि विहार कहा गया है । ३ सिद्धलोक
ग्रन्थ म निर्वाण अयाबाध सिद्धि लोकाग्र क्षम जीव और अनाबाध इन नामो का उल्लेख मिलता है परन्तु इस स्थान को पूर्ण रूप से सयम का पालन करनेवाले महर्षि लोग ही प्राप्त करत हैं क्योकि यह स्थान सर्वोत्तम सर्वोच्च तथा सबके लिए कायाणकारी है । इसम सर्वप्रकार के कषायो से विरत होकर परमशान्त-अवस्था को प्राप्त होने से इसको निर्वाण कहा गया है । लोक के अग्र अन्त भाग में होने से इसको
लोकाग्र नाम से भी पुकारत है क्योकि यहाँ से लोक का यह लोक का प्रधान भाग होन से शीर्षस्थानापन्न भी है। जीब सिद्ध बुद्ध एव मुक्त होकर अपने अभीष्ट को प्राप्त कर जाता है तथा वह सिद्धलोक सभी पापो के उपशमन होने से परमकल्याणरूप और सर्वोत्कृष्ट है ।
सिद्धलोक को चला
प्रारम्भ भी होता है और
मोक्ष को प्राप्त करनेवाला
१ बन्धमोषखपहण्णिणो
२ बहि विहाराभिनिविटठचित्ता । वही १४|४|
ससारपारनिच्छिन्न ।
वही ३६।६७ ।
३ अलोए पहिया सिद्धालोयग्गेय पइटिठया । उत्तराध्ययन ३६।५६ तथा
निव्वाण ति अबाह ति सिद्ध लोगग्गमेव य ।
खेम सिव अणावाह ज चरन्ति महेसिणो ॥ अकलेवरसेणि मुस्सिया सिद्धिगो मलोयं गच्छसि । खेमच सिव अणुत्तर
उत्तराध्ययन सूत्र ३६।२६९ ।
वही २३१८३ ।
वही १ १३५ ।
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१२ बोहतवा जनधर्म
४ मास्मवसति
मुक्त होने का अथ है आत्मस्वरूप की प्रासि । अत आमवसति या आम प्रयोजन की प्राप्ति का अथ है मोक्ष की प्राप्ति । ५ अनुत्तरगति प्रधानमति घरगति और सुगति
बम में सामाय रूप से चार गतियां मानी गयी ह जो ससार भ्रमण में कारण हैं । परन्तु मोक्ष एसी गति है जिसे प्राप्त कर लेने पर पुन ससार म आवागमन नही होता है । इससे श्रेष्ठ कोई गति नहीं है । अत इसे अनुत्तरगति कहा गया है । यद्यपि देव और मनुष्यगति को प्रथम कही कही सुगति कहा गया है परन्तु वह ससारापेक्षा से कहा गया है । वस्तुत सुगति मोक्ष ही ह । ससार को चार गतियों से भिन्न होने के कारण यह पचमगति ह । ६ ऊर्ध्वविशा
मुक्तात्माय स्वभाव से ऊध्वगमन स्वभाववाली है और जहाँ मुक्त जीव निवास करते ह वह स्थान लोक के ऊपरी भाग म ह । अत मोम को प्राप्ति का अर्थ है ऊर्ध्व दिशा म गमन । ७ दुरारोह
निर्वाण प्राप्त करना अत्यन्त कठिन होने से इसे दुरारोह कहा गया है । अन्य म कहा गया है कि लोक के अग्रभाग म एक एसा स्थान है जहां पर जरा और मृत्यु का अभाव है तथा किसी प्रकार की याधि और वेदना की भी वहां पर सत्ता नही एव वह स्थान ध्रव निश्चल अर्थात शाश्वत ह परन्तु उस स्थान तक पहुँचना अत्यन्त कठिन है । तात्पय यह है कि उस स्थान पर पहुचने के लिए सम्यक दशन सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र ये तीन साधन है । इनके द्वारा ही वहां पर पहुंचा जा सकता है परन्तु इनका सम्यकतया सम्पादन करना भी बहुत कठिन है।
१ अप्पणो वसहि वए।
उत्तराध्ययन १४४८ तथा इह कामाणियट्टस्स अत्तटठे अबराई। वही ७२५ । २ पत्तो गइमणुत्तर। वही १८३८३९४ ४२ ४३ ४८ आदि । गह पहाण च तिलोगपिस्सुय ।
वही १९९७ । जीवा गच्छन्ति सोग्गइ
वही २८१३ । सिद्धि वरगइ गया।
वहो ३६६६७ । ३ उडढ पक्कमई विस।
वही १९८२ । ४ वही २३१८१८३।
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धार्मिक सिद्धान्तों से तुलना : १३
८ अपुनरावृत्त और शाइबत
यहाँ आने के बाद जीव पुन कभी भी ससार में नही आता है । अत अपुनरा वृत्त है तथा नित्य होने से शाश्वत भी है। तात्पय यह है कि मोक्ष दशा को प्राप्त हो जाने पर न तो कोई कम शेष रहता है और न किसी प्रकार के दुख का उपभोग करना पड़ता है ।
९ अव्याबाज
सब प्रकार की बाधाओ से रहित तथा अत्यन्त सुखरूप होने से निर्वाण को अव्याबाध भी कहा गया है । वात्पय यह है कि निजगुण का सुख एक अनुपम सुख होता
और सातावदनीय कम के क्षयोपशम से जो सुख उत्पन्न होता है वह अनित्य सादि सान्त होता है परन्तु इसके विपरीत जो आध्यात्मिक सुख ह वह अजन्य होने से नित्य अथवा अनन्त पदवाला है ।
१
लोकोत्तमोत्तम
तीनो लोकों मे सर्वश्रेष्ठ होने से निर्वाण को लोकोत्तमोत्तम कहा गया है। मोक्षस्थान म प्राप्त हुआ जीव फिर इस ससार में आकर जन्म मरण की परम्परा को प्राप्त नही होता अर्थात मोक्षस्थान ध्रुव है । नित्य ह । जो लोग मुक्तात्मा का पुनरा गमन मानते हैं व भ्रान्त हैं। क्योकि जब तक यह आत्मा आश्रवो से हित नही होता तब तक मोक्ष की प्राप्ति दलभ ही नही किन्तु असम्भव है।
इस तरह यह निर्वाण की अवस्था रूप रहित अत्यन्त दखाभावरूप निरतिशय सुखरूप
जरा व्याषि एव भौतिक शरीर से शात क्षमकर शिवरूप घनरूप
१ अपुणागम गए
सत्वगुणसम्पन्नयाएण अपुणरावृति जणय ।
२ अणगारेण जीवे सारीर
माणसाण दुक्खाण छेयणभेयण-सजो गाईण वोच्छेय करे अव्वाबाह च सुह निव्वेतह ||
३ लोगत्तमुतम ठाण सिद्धिं गच्छसिनीरओ |
निरासवे सखवियाण कम्म
उवे ठाण विउलतम धुव ॥
उत्तराध्ययन २१।२४ तथा
वही २९।४५ ।
वही २९|४ |
वही ९१५८ तथा
वही २ । ५२ ।
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२०४ोडतान
वृद्धि एवं ह्रास से रहित अविनश्वर ज्ञानरूप दशनरूप पुनजन्म से रहित तथा एकान्त अधिष्ठानरूप है। मोक्ष का वणन उत्तराध्ययन के छत्तीसव अध्ययन म है लेकिन अनेक अध्ययनों की परिसमाति में सिद्ध गति निर्वाण या मोक्ष प्राप्त होने का उल्लेख है।
मोक्ष की प्राप्ति के लिए श्रद्धा ज्ञान और चारित्ररूप रत्नत्रय को आवश्यकता पड़ती है। चार्वाक दर्शन को छोडकर अय सभी भारतीय दशनो का भी प्रधान लक्ष्य जीवों को मुक्ति की ओर ले जाना है। इस तरह उत्तरा पयन म जो मक्ति की अवस्था दर्शायी गयो है वह एक दिय अवस्था ह जहाँ न तो स्वामी-सेवकभाव है और न कोई इछा इसे प्राप्त कर लेन पर जीव कभी भी ससार म नहीं आता। वह कम बन्धन से पूण मक्त हो जाता है । यह आ मा के निलिप्त स्वस्वरूप की स्थिति है । सब प्रकार के सासारिक बन्धनो का हमेश के लिए अभाव हाने स इसे मक्ति कहा गया है ।
इस प्रकार तुलनामक अध्ययन करन पर पता चलता है कि धम्मपद एव उत्तराध्ययनसूत्र जिस प्रकार आमा के विषय म एकमत नहीं है ठीक उसी प्रकार निर्वाण के विषय म भी एकमत नही हैं यद्यपि दोनो ग्रयो म निर्वाण का चर्चा है । धम्मपद म जहाँ विमक्ति को अवस्था के लिए निर्वाण शब्द का प्रयाग किया गया है वही उत्तराध्ययनसूत्र म निर्वाण शद की अपेक्षा मोम गद का ही प्रयाग अधिक है। लेकिन दोनो ग्र थो म निर्वाण के लिए सचे विश्वास ज्ञान और आचार विचार को प्रधानता दी गयी है। दोनो म मख्य अन्तर यह है कि बौद्ध दष्टि से द्रय सत्ता का अभाव हो निर्वाण है जब कि जन दष्टि से आमा को शुद्ध अवस्था निर्वाण ह । बम का स्वरूप
धम का स्वरूप बडा यापक है । उसको इस विशेषता के कारण ही बड-बड विद्वान उसका कोई एसा स्वरूप निर्धारित नही कर पाते हैं जो सवमा य हो। यही
१ अरुविणोजोवणा नाणदसण सनिया। अउल सुह सपत्ता उवमाजस्सनत्यि उ ।।
उत्तरा ययन ३६६६ । २ वही ३६।४८-६७ । ३ वही ११४८ ३१२ १३७ ११॥३२ १२।४७ १३॥३५ १४१५३
१६३१७ १८१५३ २११२४ २४।२७ २५।४३ २६५२ ३ ॥३७ ३१।२१
३२।१११ ३५।२१ ३६॥ ६८। ४ उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन ५ ३८८८९ ।
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पानिक सिद्धान्तों से तुलना : १५
कारण है कि धर्म को कोई एक सवमान्य परिभाषा नही उपलब्ध होती । व्युत्पत्ति के अनुसार इसके प्राय दो अर्थ किये जाते हैं (१) ध्रियते लोक अनेन इति धर्म अर्थात जिससे लोक धारण किया आय वह धर्म है और ( २) घरति धारयति वा लोक इति धम अर्थात जो लोक को धारण करे वह षम है। मूल भावना यह है कि धम के द्वारा ही इस लोक का पारण या सचालन होता है। जीवन के चार पुरुषार्थों में धम का प्रमख स्थान है । घम की मान्यता के अनुसार धम और स य एक है तथा दोनों पर्याय वाची शब्द है । घम सत्य के ही माग का नाम है । धम्मपद म भी सत्य सयम दम
और अहिंसा को धर्म के ही अन्तगत माना गया ह । आचाय बुद्धघोष ने विसुद्धिमग्न में धम शब्द के मुख्यत चार अर्थों का विवचन किया . (१) सिद्धात (२) हतु ( ३ ) गुण और (४) निसत्त । बौद्ध-साहित्य म घम शद का प्रयोग और भी व्यापक अर्थ म किया गया ह । वह कही स्वभाव कही कत्तव्य कही वस्तु और कही विचार और प्रथा का वाचक भी बनकर आया ह । इसके अतिरिक्त धम शब्द का प्रयोग बाघि षम या ज्ञान घम के लिए भी कहा गया ह। ज्ञान का ही बौद्ध लोग सचा धम मानत थ । ज्ञान के अतिरिक्त धम शब्द का प्रयोग सत्य के अथ में भी मिलता है । धम्मपद म धम श द का प्रयोग भगवान बद्ध के उपदेशो के लिए किया गया ह। उसम लिखा ह कि बद्धिमान् लोग धम अर्थात भगवान बद्ध के वचनो को सुनकर उसी प्रकार शुद्ध और निमल हो जात है जिस प्रकार गम्भीर जलाशय मे जल निमल हो जाता ह । जो अछी तरह उपदिष्ट धम म धर्मानुचरण करते हैं वे ही दस्तर मृत्यु के राय का पार कर सकत है । इस प्रकार हम देखत ह कि धम्मपद म धम शब्द का प्रयोग भगवान् बद्ध के उपरेशो के अथ म किया गया है ।
१ बौद्ध दशन तथा अय भारतीय दशन उपाध्याय भरतसिंह भाग १
पृ ११९। २ यम्हि सच्चन्च धम्मो च अहिंसा सन्नगो दमो ।।
धम्मपद २६१ । ३ बौद्ध दशन तथा अन्य भारतीय दशन भाग १ १२१ । ४ वही पृ १२ । ५ यथापि रहदो गम्भीरो विप्पसन्नो अनाविलो ।
एव धम्मानि सुब्वान विप्पसोदन्ति पण्डिता ॥ धम्मपद ८२ । ६ य प खो सम्दक्खाते पम्मानवत्तिनो। तेजना पारमेस्सन्ति मञ्चुषेय्य सदुत्तरं ।
वही ८६ ।
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१६ बोब सवा नपर्म
धम्मपद के तेरहवें लोकवग्ग म कहा गया है कि नीच कम न करें प्रमाद में न रहें मावागमन के चक्र म न पड उठ और धम का आचरण कर । सुचरित बम का आचरण करनेवाला धर्मचारी इस लोक तथा परलोक दोनो जगह सुखपवक रहता है। लेकिन जिसने घम का उलधन किया ह जो झठ बोलता है और परलोक का हंसी-मजाक उडाता है ऐसा मनुष्य किसी प्रकार के पाप करने से न डरेगा। उन्नीसवें धम्मटठवग्ग म पम म स्थित रहनेवालो की प्रशसा की गई है। अधिक बकवाद करने से मनष्य घम का धारण करनवाला नही कला सकता । वही पुरुष सबमुच षम को धारण करनेवाला है जो यद्यपि थोडा बोलता है लेकिन अपने जीवन से उस सिद्धान्त को देखता ह जो मन य विचारपक्षक समान घम से दूमरो का पथ प्रदशन करता है और जो धर्म द्वारा रक्षित तथा मघावी ह। वही बम को धारण करनेवाला है जो कभी घम की अवहेलना नही करता। धम को सवत्र प्रशसा की गयी है। धम्मपद में भी कहा गया है कि घम का दान सब दानो से श्रेष्ठ है धम की मिठास सब मिठाइयों से श्रेष्ठतम है घम का आनद सब सुखो से बढकर है ।
जैन दशन म धम का व्युत्पत्तिमलक अथ ह धारणात बम अर्थात जो पारण किया जाये वह धर्म ह । ध धातु के धारण करने के अथ म बम शब्द का प्रयोग होता है। जैन-पर परा म वस्तु का स्वभाव धम कहा गया है। प्रयक वस्तु का किसी न किसी प्रकार का अपना स्वभाव होता है। वही स्वभाव उस वस्तु का अपना धम माना जाता है। आ मा के अहिसा सयम तप आदि गुणो को भी घम का नाम दिया गया है। यही नहीं वरन समष्टि रूप म इसे इस प्रकार भी कह सकत है कि धर्म आत्मा की राग द्वष-तीन परिणति है। इनके अतिरिक्त पम के और भी अनक अथ होते हैं । उदाहरण के लिए नियम विधान परम्परा यवहार परिपाटी प्रचलन माचरण कतव्य अधिकार न्याय सद्गुण नतिकता क्रिया सत्कम आदि अर्थो म कम शब्द का प्रयोग होता आया है।
१ धम्मपद १६७ १६९ । २ वही १७६ । ३ वही २५७ २५९ । ४ सब्बदान धम्मदान जिनाति स ब रस व मरसो जिनाति । सब्ब रति धम्मरसो जिनाति।
वही ३५४ । ५ जैन-दशन मेहता मोहनलाल प ८। ६ जैन दर्शन मनन और मीमासा मुनि नथमल प २९१ । ७ भगवान महावीर पाठक शोभनाथ प ९९ ।
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धार्मिक सिद्धान्तों से तुलना १७
धम शब्द की वरीयता को परखने का मनीषियों ने भी खब प्रयास किया है । अत धमवित्त का वह भाव ह जिसके द्वारा हम विश्व के साथ एक प्रकार के मेल का अनुभव करते हैं । इस प्रकार विद्वानो ने धम को महत्ता को आंकने का terrate प्रयास किया है किन्तु तथ्यत घम वही है जिससे मानवता का कल्याण हो । महावीर ने मानव कल्याण हेतु धर्म की उपयोगिता का उपदेश इस रूप में दिया ह । यथा - जिस समय ससारी जीव जन्म जरा और मरण तथा आणि व्याधिरूप जलराशि के महान वेग में बहते हुए व्याकुल हो उठत हैं उस समय इस घमरूप महाद्वीप की शरण में जान से उनकी रक्षा हो जाती है । यहाँ पर जन्म जरा और मृत्यु को समद्र जल के समान कहा गया है और श्रुत चारित्ररूप धम को महाद्वीप बतलाया गया है । इसलिए ससाररूप समुद्र के जरा-मरणादिरूप जल प्रवाह में बहते हुए प्राणियो को इसी धर्मरूप महाद्वीप का सहारा द और इसीकी शरण में जाना सर्वोत्तम ह । किन्तु मनुष्य भौतिकता में भटक घम की यथाथता को परख नही पाता जो उसके इस लोक और परलोक को सवारने में सक्षम होता है । तीथकर महावीर ने मनुष्यो को आगाह किया है कि जो रात्रि चली जाती है वह बापस लौटकर नही आती किन्तु अधम का सेवन करनवाले मनुष्य की सभी रात्रियाँ निष्फल हो जाती है । अर्थात् मनुष्य उन रात्रयो म न जाने दे सत्य आचरण से धम का क्योकि धम के अतिरिक्त इस संसार म आए । तथ्यत सत्य शिव सुन्दरम की विषय में जो कुछ कहा वह लोक मङ्गल की पथक्त्व कृत्रिमता व रूढ़िवादिता से ग्रस्त हिंसा कहे जा सकत । यही कारण था कि तत्कालीन
करवटें बदलता हुआ सुअवसर हाथ से पालन करे जिससे वास्तविक कल्याण हो । कोई वस्तु विद्यमान नही जो तरे उपयोग म घम ह । महावीर न घम के सम्बंधित है । उनकी दृष्टि में या अन्य कष्टदायक कृत्य धम नही हिंसा का उन्होंने घोर विरोध किया.
समष्टि ही भावना से
१ जैन दर्शन प ९१ ।
पाणिण |
२ जरामरण वेगेण बुज्झमाणाण धम्मो दीवो पइटठाय गई सरण मुत्तम ॥
३ जाजा बबइ रयणी नसा पडिनिगत्तई ।
धम्मच कुणमाणस्स सफलाजति राइओ ॥
४ वही १४।४ ।
उतराध्ययन २३।६८ ।
वही ४।२४ २५
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१८ बरतमा नपर्म तथा प्रत्येक प्राणी को धम का ही आचरण स्वीकार करने के लिए कहा क्योकि धम का आचरण अति दकर है। इस प्रकार हम देखते हैं कि षम का सम्बष किसी "पूजा आराधना बलि अथवा आड बर से नही ह अपितु वसुधैव कुटम्बकम की भावना से ह जिसमें सभी प्राणियो के कयाण का असीम हित समाहित है। महावीर की दृष्टि में धर्म का उद्देश्य है सुकम करना जिससे सुख मिलता ह जब कि धम से विमुख होने पर कुकर्म की प्रवृत्ति उपजती ह जा द खदायक होती है । तभी तो उन्होन कहा ह कि जो मनुष्य पाप करता है वह घार नरक म जाता ह और जो आय धम का आचरण करनवाला ह वह दिव्य गति म जाता ह। धम से सुख और अधर्म से दुख मिलता है । अत मनुष्य को भली प्रकार समझकर इस वास्तविकता को परखना चाहिए । वसे तो मनुष्य इस लोक म घम को आराधना के लिए आया ह जो सदव उसकी रक्षा करता ह । धम के अतिरिक्त अय कोई यहा पर रक्षक नही है ।
महावीर ने घम की इस महत्ता को परखकर स्पष्ट कहा था कि धम प्रचार के पवित्रतम अनुष्ठान म यथाशक्ति योग देकर आत्मोद्धार एव परोद्धार को। जन जन के कयाण हेतु जहाँ धम अपक्षित ह वही स्वय के लिए भी इसकी उपयोगिता अनूठी है । महावीर न आम-सयम हतु भी धम की महत्ता का प्रतिपादन किया है । मनरूप घोडा इस जीवात्मा को जिधर चाहे ले जाता है ऊंची-नीची जिस गति म चाह अकेल देता है। इसलिए प्रयेक मुमुक्षु पुरुष को चाहिए कि अपन मन को सुधार ले उसे समापिर लान का प्रयत्न करे। सरलता से ही आमा की शुद्धि होती है और शुद्ध आ मा म ही प्रम स्थिर रहता ह। अथ में अय उपमाओ द्वारा भी धम
उत्तराध्ययन १८३३३ ।
१ धम्म घर सुदच्चर । २ पडन्ति नरए घोरे जे नरापावकारिणो । दिग्व च गइ गच्छत्ति चरित्ता धम्ममारिय ।।
वही १८।२५ ।
३ एक्को हु मो नरदेव ।
ताण न वि जई अन्नमि हह किंचि ।।
वही १४।४ ।
४ मनो साहस्सिओमीमो दस्सोपरिधावई ।
त सम्म तु निगिण्हामि धम्म सिक्खाइकन्थग । ५ सोही उज्जुयभूयस्स-ग॥ धम्मो सुद्धस्स चिटठई ॥
वही २३१५८॥ वही २३१५८ । वही ३।१२।
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पाकिस्तों से सुना। १९
की वरीयता को बखाना गया है। निम्न उदाहरण विचारणीय है जो भगवान् महावीर को वाणी से उद्भूत है जिस प्रकार स्नान करने के लिए बाहर एक जलाशय होता है उसी प्रकार आन्तरिक स्नान के लिए अहिंसा घमरूप जलाशय है जो कि कमरूप मल को दूर करन म समय है तथा जिस प्रकार तडाग म सोपान आदि लगे होत है उसी प्रकार अमरूपी तडाग के ब्रह्मचय आदि शान्ति-तीय है जो कमरूप मल को जड से दूर करने म तथा मिथ्यात्वादि कालष्यरहित होने से आत्मा की प्रसन्न लेश्या के सपादन म समथ है। सो इस प्रकार के धमरूप जलाशय म स्नान किया हुवा आमा कममल से रहित होकर निष्कलक हो जाता है । जीव उस परमशीतलता को प्राप्त करता हुआ समस्त अन्तर और बाह्य के दोषो को दूर करता है। इसी स्नान के द्वारा कुशल पुरुषो ने और समाधिस्थ योगी महर्षियो न उत्तम स्थान को परमधाम को प्राप्त किया है।
मासारिक सवार के लिए धम का सम्बल आवश्यक है चाहे वह कोई भी क्षत्र क्यो न हो । यहाँ तक कि नीति निर्धारण म भी धर्म की उपयोगिता वरदान स्वरूप है। तभी तो महावीर ने कहा है कि धमहीन नीति जगत् के लिए अभिशाप ह और नीतिहीन धम कोरी वैयक्तिक साधना है। अत ह साधक | जो व्यवहार बम से उत्पन्न है और ज्ञानी पुरुषो ने जिनका सदा आचरण किया है उनका आचरण करनवाला परुष कभी निन्दा को प्राप्त नहीं होता। घम की उपयोगिता इसी स्वाधीन एव स्थायी सुख को प्राप्त कराने म है जो अथ काम आदि किसी भी अन्य उपाय से प्राप्त नहीं हो सकता। धम से ही मनुष्य की सच्चे स्वाधीन सुख की इच्छा की पूर्ति हो सकती है। विवेक-दृष्टि से सोचा जाय तो ससार के समस्त पदार्थ जिनसे मनुष्य सुख की बाशा रखता है अघ्रय है अशाश्वत है। प्रत्येक पदाथ जिसम मनुष्य सुख
१ पम्मेहरए बम्भे सन्ति तित्थे
अणाविले अत्तपसन्न लेसे ।
जहिं सिणाया विमला विसुया महारिसी उत्सम ठाण पत्ते॥
उत्तराध्यपन १२।४६ ४७ । २ धम्मज्जिय च ववहार बुढे हायरिय सया। तमापरन्तो ववहार मरह नाभिगच्छई ।।
वही ११४२.
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बौद्ध तथा जैनधम
विकार
मनुष्य
यह तो
की कल्पना करता है परिवर्तनशील है । इसलिए इस दु खप्रचर ससार म या सांसारिक पदार्थों में सुख तो राईभर है मगर दुख पवत के बराबर है। फिर वह राईभर सुख भी स चा सुख नही ह सुख का सुखाभास है। एसी स्थिति म को सोचना चाहिए कि वह कौन-सा काय है जिससे म दुख से बच सकें । निश्चित है कि स्वाधीन और सच्चा सुख घम से ही प्राप्त होता है । ऐसे सच्चे सुख के भागी धर्म को जीवन म ओत प्रोत कर देनेवाले पूण धर्मिष्ठ वीतरागी मुनि ही हो सकते हैं अथवा वीतराग-माग पर चलनवाले धर्मिष्ठ साध-श्रावक वर्ग हो सकते हैं । इसी प्रकार शुद्ध आमतत्त्वरूप उत्तम सिद्धपद और उत्तम अरिहन्त वीतराग-पद की प्राप्ति के लिए एकमात्र साधन धम ही है । घम के द्वारा ही अरिहन्त सिद्ध और साध पदो को उत्तमत्व प्राप्त है ।
११
इस प्रकार हम देखत हैं कि धर्म की शक्ति दो प्रकार से प्रकट होती है - एक तो वह आपदग्रस्त व्यक्तियो का रक्षण करता है उन्हें शरण देता है दूसर वह सुख की प्राप्ति कराता है । उत्तराध्ययन म घम की इस द्विविष शक्ति पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है । यथा सकडो कष्टो म फैसे हुए क्लेश और रोग से पीडित मरण भय से हताश दुख और शोक से पीडित व्यथित तथा जगत में अनेक प्रकार से याकुल एव निराश्रित जनो के लिए धर्म ही निय शरणभत है ।
इस प्रकार तुलनात्मक अध्ययन करने पर पता चलता है कि धम के बिना मानव-जीवन की कोई कीमत नही है । किन्तु अवश्य ही उस धर्म का अथ है नैतिकता और सदाचार | प्राणरहित शरीर की तरह उस जीवन का मूल्य नहीं है जिसम धर्म rear नैतिकता नही रहती। अगर जीवन म घम का प्रकाश न हो तो वह अन्वा है और वह अपने लिये तथा दूसरो के लिए भी भारस्वरूप है । मनुष्य मे से पशुता के
नि कासन का श्रय धम को ही है। घम मनुष्य की देवी वृत्ति है। यह प्रवृत्ति ही उसम दया दान सन्तोष करुणा अनुकम्पा क्षमा अहिंसा आदि अनक गुणो को उत्पन्न करती है ।
१ अधुवे असासयमि ससार मिदुक्खपउराए ।
कि नाम होज्ज त कम्मय जणा ह दोग्गइन गच्छेज्जा ॥
उत्तराध्ययन ८ । १ ।
२ वही २ । २२ - ३१ ।
३ जन बौद्ध तथा गीता के आचार-दशनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग १ पृ
४४ ।
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पामिक सिद्धान्तों से तुलना : ११
कर्म बौद्धधम एक मनोवैज्ञानिक धम है। मनोविज्ञान की आधारशिला पर वह प्राणि-अगत् को कम्मदायाद कम्मस्सक कमयोनि और कम्मपटिसरण कहता है । भगवान् बद्ध के इन बचनों में बौद्धधर्म का सार निहित है। बौद्धधम की यह कम पादिता उसकी बद्धिवादिता का परिणाम है । बौद्ध विचारकों ने भी क्रिया के अथ में ही कम शब्द का प्रयोग किया है। वहां भी शारीरिक बाचिक और मानसिक क्रियाओं को कम कहा गया है जो अपनी नैतिक शुभाशुभ प्रकृति के अनुसार कुशल अथवा अकुशल कम क जाते हैं। भगवान् बद्ध न कम शब्द का प्रयोग बड व्यापक रूप में किया है । उसे वह चेतना का पर्यायवाची मानते थे। यह बात उनको निम्नलिखित उनि से प्रकट है चेतना ही भिक्षुओ का कम है में ऐसा कहता है। चेतनापूवक कर्म किया जाता है काया से वाणी से या मन से। यहां पर चेतना को कर्म कहने का आशय केवल यही है कि चेतना के होने पर ही ये समस्त क्रियाए सभव है । बौद्ध दशन म चेतना को ही कम कहा गया है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि दूसरे कर्मों का निरसन किया गया है।
कम मलत दो प्रकार के है-चतना कम और चेतयित्वा कर्म । चित्त कर्म ( मानसिक कम ) और चेतयित्वा अथवा चेतसिक कर्म ( काय बोर वचन से उत्पन्न होने के कारण कायिक और वाचिक कर्म ) कहे गये है। इस प्रकार कर्म शब्द क्रिया के अथ म प्रयुक्त होता है लेकिन कर्म शब्द का अथ क्रिया से अधिक विस्तृत है। कर्म शब्द में शारीरिक मानसिक और वाचिक क्रियाओं का निर्धारण और उन भावी क्रियाओं के कारण उत्पन्न होनेवाली अनुभूति सभी समाविष्ट हो जाती है। कर्म म क्रिया का उद्देश्य क्रिया और उसके फलविपाक दोनो ही अर्थ लिये जाते हैं । आचाय नरेन्द्रदेव ने लिखा है केवल चेतना ( आशय) और कम ही सकल कर्म नही है। कम के परिणाम का भी विचार करना होगा। इससे एक अपूर्व कर्म एक अविज्ञप्ति होती है।
बौद्ध-दर्शन कर्म के चैत्तसिक पक्ष को ही स्वीकार करता है और यह मानता
१ ममिमनिकाय चलकम्मविभगसुत्त ३।४।५ । २ सयुत्तनिकाय (रो ) जिल्द २ ५ ३९४ अगुप्तरनिकाय (रो )
जिल्द २ पृ १५७-५८ बौद्धधर्म के विकास का इतिहास १८४। ३ बौवधर्म-पशन १ २४९ । ४ वही १ २५५ ।
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११२ : बौद्ध तथा जैनधर्म
है कि बन्धन के कारण अविद्या वासना तष्णा आदि चत्तसिक तत्व ही है। यदि ऐसा नहीं तो मानना पड़ेगा कि काय वाक और मन ये तीन कर्मद्वार हैं। सभी कर्म इन्हीं द्वारों से सम्भूत हैं एव मन का सम्बन्ध सभी के साथ ह । मन उनका प्रतिशरण है । कहा गया है- सारी अवस्थाओं का मन अगुवा है मन प्रधान ह और सारे कम मनोमय है | जब अपना मन बरा या भला होता है तब कायिक और वाचिक कृत्य भी उसके मुताबिक बर या भले होते हैं ।
अनक प्रकार से
किया गया है ।
बौद्धकम विचारणा म कर्मों का विभाजन बुद्धघोष ने इन्हें चार प्रकार से विभाजित किया ह ( १ ) कृत्य के अनुसार ( २ ) विपाक देन के पर्याय से ( ३ ) विपाक के काल के अनुसार ( ४ ) विपाक के स्थान के अनुसार । सर्वास्तिवादी कर्मों का विभाजन किंचित निम्न प्रकार से करत थे । कर्म विपाक के सम्बन्ध में बोद्ध और जन दृष्टिकोण
कम और विपाक की प परा से यह ससार चक्र प्रवर्तित होता रहता है । भगवान् बद्ध कहत है कि कम से विपाक प्रवर्तित हात ह और विपाक से कम उत्पन्न होता है । कर्म से पुनज म होता है और इस प्रकार यह ससार प्रवर्तित होता है । बौद्ध दार्शनिक भी कर्म और विपाक के सम्बध म इसे स्वीकार करते हैं। कहा गया है कि कम और विपाक के प्रवर्तित होन पर वृक्ष बीज के समान किसीका पूर्व छोर नही जान पडता है | बौद्ध दार्शनिको के अनुसार जसे किसी बीज के भुन जान पर उस बीज की दष्टि से बीज-वृक्ष की परपरा समाप्त हो जाती ह वैसे ही व्यक्ति के राग द्वेष और मोह का प्रहाण हो जान पर व्यक्ति की कम विपाक-परपरा का अन्त हो जाता है । जन दार्शनिको के अनुसार भी राग-द्वेषरूपी कम बीज के भन जाने पर कर्म प्रवाह की परपरा समाप्त हो जाती है ।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या का फल दूसर व्यक्ति को दे सकता है ?
एक यक्ति अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मों क्या व्यक्ति अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मों
१ मनोपुव्वङ्गमा घम्मा मनोसेटठा मनोमया ।
२ विसुद्धिमग्ण भाग २ प २४ ।
३ सिस्टम्स ऑफ बद्धिस्टिक घाट सोगेन यावाकामी पू १५ ।
४ मज्झिमनिकाय ( फितिसुत ३1१1३ ) तथा जन बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनो का तुलनात्मक अध्ययन भाग १ प ३१४ ।
धम्मपद गाथा - सख्या १ ।
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धार्मिक सिद्धान्तों से तुलना । ११३
का ही भोग करता है अथवा दूसरों के द्वारा किये हुए शुभाशुभ का फल भी उसे मिळता है ? इस सन्दर्भ में दोनों दर्शनों के दृष्टिकोण पर भी विचार कर लेना आवश्यक है । बौद्ध-दृष्टिकोण के सम्बन्ध में आचाय नरेन्द्रदेव लिखते हैं कि सामान्य नियम यह है कि कम स्वकीय है जो कर्म करता है वही ( सन्तान प्रवाह की अपेक्षा से ) उसका फल भोगता है । किन्तु पालि निकाय में भी पुण्य परिणामना ( पत्तिवान ) है । वह यह भी मानता है कि मृत की सहायता हो सकती है । स्थविरवादी प्रेत और देवों को दक्षिणा देते हैं अर्थात् मिक्षओं को दिये हुए दान ( दक्षिणा ) से जो पुष्प सचित होता है उसको देते हैं। बौद्धो के अनसार हम अपने पुण्य में दूसरे को सम्मिलित कर सकते हैं पाप में नही। इस प्रकार बौद्ध विचारणा कुशल कर्मों के फल-सविभाग को स्वीकार करती है । जैन विचारणा के अनुसार प्राणी के शुभाशुभ कर्मों के प्रतिफल में कोई भागीदार नही बन सकता । जो व्यक्ति शुभाशुभ कर्म करता है वही उसका फल प्राप्त करता है । उत्तराध्ययनसूत्र म स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ससारी जीव स्व एव पर के 'लए जो साधारण कर्म करता है उस कर्म के फलभोग के समय बन्धु बान्धव (परिजन) हिस्सा नही लेते। इसी ग्रन्थ में प्राणी की अनाथता का निर्णय करते हुए यह बताया गया है कि न तो माता पिता और पुत्र-पौत्रावि ही प्राणी का हिताहित करने में समर्थ है । इस प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र में कर्म-फल-संविभाग को
अस्वीकार किया गया है ।
८
इस प्रकार बौद्ध विचारक न केवल कर्मों के विपाक में नियतता और अनियतसा को स्वीकार करते हैं वरन् दोनो की विस्तत व्याख्या भी करते हैं । वे यह भी बताते हैं कि कौन कर्म नियत विपाकी होगा। प्रथमत वे कर्म जो केवल कृत नहीं किन्तु
१ बौद्धधर्म-दर्शन पृ २७७ तथा जैन बौद्ध तथा गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग १ पृ ३९६ ।
२ कत्तारमेव बणुजाइकम्म ॥
कम्मस्सते तस्स उबेय-काले
नबन्धवा बन्धवय उवेन्ति ॥
३ त मे तिगिच्छ कुव्यन्ति चाउप्पाय जहाहिय ॥
नय दुक्ला विमोएड एसामज्झ अगाहया ||
उत्तराध्ययन १३।२३ ।
वही ४|४|
बही २ ।२३ - ३ |
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११४ : बौद्ध तथा जनधर्म
उपचित भी हैं नियत विपाक कम हैं। दूसरे वे कम जो तीन प्रसाद ( श्रद्धा ) और तीव्र कलेश (राग-द्वेष ) से किय जात है नियत विपाक कम है। बौद्ध-दशन की यह धारणा जैन-दशन से बहुत कुछ मिलती जुलती है । लेकिन प्रमुख अन्तर यही है कि जहाँ बोद्ध दशन तीव्र श्रद्धा और तीव्र राग द्वेष दोनो अवस्था म हानेवाले कम को नियत विपाकी मानता है वहाँ जैन-दशन मात्र राग द्वेष ( कषाय ) की अवस्था में किये हुए कर्मों को ही नियत विपाकी मानता है । दोनो ही इस बात से सहमत है कि मातृवध पितृबघ तथा धम सघ और तीथ तथा व प्रवतक के प्रति किये गये अपराध नियत विपाकी होते हैं ।
कमवाद के दार्शनिक और नतिक पक्ष के अतिरिक्त भगवान बुद्ध उसके सामा जिक पक्ष म भी विश्वास करत थे । सामाजिक क्षेत्र में वह जन्मजात वणव्यवस्था में बिल्कुल विश्वास नही करत थे। उनका कहना था कि कोई भी वर्णव्यवस्था जन्म के आधार पर स्थापित नही की जा सकती है । बुद्धोपदिष्ट चातुवर्णी शुद्धि का आधार कम ही है । चाह शूद्र हो या अन्य कोई प्राणी यदि वह स्मृति प्रस्थान आदि की भावना करता है तो निर्वाण का साक्षाकार करता है । कर्म मनुष्य मनुष्य म भेद नही करता । पुण्य कर्म से आयु की वृद्धि होती है और बत्तीस महापुरुष-लक्षण भी मनुष्य पूर्वज म के किय कर्मों के परिणामस्वरूप पाता है । कहने का तात्पय यह है कि विश्व की व्यवस्था में कम ही प्रधान है । इसलिए मनुष्य को अधिक-से-अधिक शुभकम करना चाहिए । इसीलिए भगवान् बुद्ध ने कम प्रतिशरण बनने का उपदेश दिया था । वे बद्धशरण और कमशरण म कोई भेद नही मानते थे। कम अच्छा है वह बुद्ध के समीप ह चाहे वह उनसे सौ जिसका कर्म बुरा है वह बुद्ध से दूर है चाहे वह उनकी उनके पैरो के पीछ पैर रखता हुआ हो चल रहा हो । कमवाद का सिद्धा त बौद्धधम की आधारशिला है ।
जैन-दशन म कम शब्द के अनेक अथ मान गये है । साधारणत कम शब्द का
उनका कहना था कि जिसका
दूरी पर भी हो ।
योजन की सघाटी के छोर को पकडकर इस प्रकार हम देखते हैं कि
१ जैन बौद्ध तथा गीता के आचार दशनो का तुलनात्मक अध्ययन भाग १ पृ ३२४ ।
२ अग्गन्न-सुत्त ( दीघनिकाय ३ | ४ ) ।
३ चक्कवति - सोहनाद-सुस ( दीघनिकाय ३१३ ) ।
४ लक्खणसुत ( दीघनिकाय ३७ ) |
५ सघाटित ( इतिवृतक ) |
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पालिari सुना १२५ अर्ष किया होता है अर्थात जो कुछ किया जाता है यह कर्म है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जीव के राग-देषरूप परिणामों के निमित्त से जो रूपी बचेतन द्रव्य जीव के साप सम्बस होकर ससार में भ्रमण कराते है कर्म है। कर्म के बीज राग और देष है कर्म मोह से उत्पन्न होता है कम जन्म-मरण का मूल है और पम-मरण ही दुख है। यह जीव द्वारा किये जाने के कारण कर्म कहलाता है। कर्म जब आत्मा के साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं तो वे मुख्य रूप से माठ रूपों में परिवर्तित हो जाते है जिन्हें कर्मों के मुख्य प्रकार कह सकते है। आठ मूल को या कर्म प्रकृतियों के नाम क्रमश इस प्रकार है (१) ज्ञानावरणीय (२) शनावरणीय (३) वेदनीय (४) मोहनीय (५) आयु ( ६ ) नाम (७) गोत्र और (८) अन्तराय कर्म । इनम प्रथम चार कर्मों को धातिया कम कहते है क्योंकि ये आत्मा के गुणों का पात करते है। शेष चार कर्म अधातिया है क्योकि ये आत्मस्वरूप का पात नहीं करते । ग्रथम इसीलिए चार धातिया कर्मों के विमष्ट होने पर जीव को जीवन्मुक्त मान लिया गया है। क्योकि शेष चार अधातिया कम आयु के पूर्ण होने पर एक साथ बिना
१ जन बौद्ध तथा गीता के आचार दशनो का तुलनात्मक अध्ययन भाग १
२ उत्तराध्ययन ३३६१ १६ । ३ रागो य दोसो वि य कम्मबीय
कम्म च मोहप्पभव वयति । कम्म च जाई मरणस्स मूल दुक्ख प जाई मरण वयति ॥
वही ३२१७ । ४ नाणस्सावरणिज्ज दसणावरण तहा।
बेयणिज्ज तहा मोह आउकम्मं तहेव य ।। नामकम्म च गोय च अन्तराय तहेव य । एवमेयाइ कम्माइ अटठेव उ समासमो ॥ वही ३३२ ३ सया उत्तराध्ययन
सूत्र एक परिशीलन १ १५४-१६१ । ५ पसत्य जोग परिवन्नेयर्ण अणगारे अणसषासज्येव सबेइ।
उत्तराष्पयन २९।८। पेयणिज्ज भाउय नामंगोतब एए पत्तारि विकम्म से जुपय सह।
बहो २९।७३ और बाणे २९॥४२ ५९ १२।
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११६
विशेष प्रयत्न के नष्ट हो जाते हैं। नीचे आठ कर्मों के स्वरूप आदि का वर्णन किया जा रहा है-
१ ज्ञानावरणीय कर्म
जिसके द्वारा पदार्थों का स्वरूप जाना जावे उसका नाम ज्ञान है तथा जो कर्म ज्ञान का आ छादन करनेवाला हो वह ज्ञानावरणीय कम है। ज्ञान पाँच प्रकार का है । यथा - ( १ ) श्रुतज्ञानावरण ( २ ) आमिनिबोधिक ज्ञानावरण ( ३ ) अवधि ज्ञानावरण ( ४ ) मन पययज्ञानावरण (५) केवलज्ञानावरण ।
२ दशनावरणीय कम
पदार्थों के सामा य बोध का नाम दशन है । अस जिस कम के द्वारा इस जीवात्मा का सामान्य बोध आवृत हो जावे उसे दशनावरणीय कहते हैं । इस कम के ९ भेद गिनाये गये है जिसम प्रथम पाँच निद्रा से सम्बन्धित हैं तथा अन्य चार दशन सम्बन्धी है ( १ ) निद्रा (२) निद्रा निद्रा (३) प्रचला ( ४ ) प्रचला प्रबला ( ५ ) स्त्यानगृद्धि ( ६ ) चक्षदशनावरण (७) अवक्षदशनावरण ( ८ ) अवधिदर्शनावरण (९) केवलदर्शनावरण ।
३ वेदनीय कम
जिस कम के द्वारा सुख-दुख का अनुभव किया जाये उसका नाम वेदनीय कम
१ उत्तराध्ययन ३२।१९ ।
२ नाणावरण पचविह सुय अनिणिबोहिय ।
आहिनाण च तइय मण नाणं व केवल | वही ३३।४ तथा उत्तराध्ययन सूत्र एक परिशीलन प १५४ ।
३ निद्दातहेव पयला निद्दानिद्दा पयल पयलाय ।
नायम्बा ॥
तत्तोय योण गिद्धी उ पचमा होइ arge चक्ख ओहिस्स दसण केवले य एव तु नवविगप्पं
आवरणे ।
तथा उत्तराध्ययन सूत्र एक परिशीलन पू १५५ । ४ बेयणीय पिय दुविह सायमसाय व आहिय ।
सायस्स उ बहू भया एमेव असायस्स वि ।।
नायव्य दसणा वरण || उत्तराध्ययन ३३।५६
उत्तराध्ययन ३३१७ ।
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पातिक जिवन्तो सेना १९७ है। यह दो प्रकार का है सातादेवनीय और मसालावेदनीय । इन दोनों के पुन अनेक भेद है जिसे अन्य म गिनाया नही गया है। ४ मोहनीय काम
जिस कर्म के प्रभाव से जीवात्मा जानती हुई भी मूढ़ता को प्राप्त हो जाये उसको मोहनीय कर्म के नाम से अभिहित किया गया है। इसके प्रमुख दो भेद है दशन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीय पुन तीन प्रकार का है (१) सम्यक्त्व मोहनीय (२) मिथ्यात्व मोहनीय और ( ३ ) सम्यक्त्व मिथ्यात्व मोहनीय (मित्र मोहनीय )। सदाचार म मूढता पैदा करनेवाले चारित्र मोहनीय कम के दो भव बताये गये है कषाय मोहनीय और नोकषाय मोहनीय । कषाय मोहनीय के सोलह भेद अन्य म बताये गये ह और नोकषाय के सात अथवा नौ भेव है। ५ मायुकम
जिस कम के प्रभाव से जीवात्मा अपनी आय को पूर्ण कर उस कम को आयु
१ उत्तराध्ययन ३३१७ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन १५७ । २ मोहणिज्ज पि दविह दसण चरण वहा । वसर्ण तिविह वुत्त वरण विह भवे ।। उत्तराध्ययन ३३३८ २९६७२ ५६ २९ ३२१ २ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन प १५७ ।। ३ सम्मत चेव मिच्छत सम्मामिच्छत्तमेवय ।
एयायो तिन्नि पयडीओ मोहणिज्जस्सदसण ।।
उत्तराध्ययन ३३९ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन पृ १५७ १५८ । ४ परितमोहण कम्म दुविह तु वियाहियं । कसाय मोहणिज्ज व नोकसायं तहेवय ।।
उत्तराध्ययन ३३१ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन पृ १५८ । ५ सोलस विहनैएवां ।
कम्मं तु कसायजं ॥ उत्तराध्ययन २०११ सपा उत्तराध्ययनसूत्र एक परि
शीलन १ १५९ ६ सत्त विह नवविह वा कम्म प नोकसाया।
उत्तराध्ययन ३३११ तथा उत्तराध्ययनसून एक परिचालन
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११८ : बौद्ध तथा जैनधर्म
कम कहते हैं । चार गतियों के माधार से
इसके चार भेद किये गये हैं' ( १ ) का ( २ ) तिर्थगा ( ३ ) मनुष्यायु और (४) देवायु । यहाँ एक बात विशेष ध्यान रखने की है कि ग्रन्थ म सूत्राथ चिन्तन का फल बतलाते हुए लिखा है कि इससे ate आयुकर्म को छोडकर शेष सात कर्मों के प्रगाढ़ बन्धन को fee आयुकम का जन्म विकल्प से करता है। कर्मों से कुछ भिन्नता रखता है ।
शिथिल कर देता है । आयुकम शेष सात
इससे स्पष्ट है कि
६ मामकम
शरीर आदि की रचना का हेतु जो कम है उसको नामकम कहते हैं । यह दो प्रकार का है शुभनाम और अशुभनाम । इस कर्म के प्रभाव से ही जीव को शुभाशुभ शरीर इन्द्रिय आदि की प्राप्ति होती है ।
७ गोजकम
जिसके द्वारा जीवात्मा ऊच-नीच कुल में उत्पन्न हो अर्थात ऊच-नीच सज्ञा से सम्बोधित किया जावे उसका नाम गोत्रकम है। इसके उच्च और निम्न दो भेद हैं ।
८ अन्तरायकम
जो कम दान आदि में विघ्न उपस्थित कर देवे उसकी अन्तराय सज्ञा है । कहने का अर्थ यह है कि देनेवाले की इच्छा तो देन की हो और लेनेवाले की इच्छा लेने की हो परन्तु ऐसी दशा में भी दाता और याचक की इच्छा पूरी न हो यह
१ मेरइय तिरिक्खाउ मणुस्सा उत्वतेवय । देवाय चउत्प त आउकम्म चउम्विह ।
उत्तराध्ययन ३३।१२ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन पू १६ । २ अणुप्पे हाएण आठयवज्जाओ सत्तकम्मप्पगडीओ पणिय बघणबद्धाबो सिडिलबंघणबद्धाथो पकेरह आउय चणकम्म सियबन्धs सियनो बन्धइ ।
उत्तराध्ययन २९/२३ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन पू १६
३ नामकम्म तु दुविह सुहमसुह व आहिय ।
सुहस्स उबहूमेया एमेव असुहस्सवि ॥
उत्तराध्ययन ३३ । १३ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन पु १६१ ।
४ गोयकम्मं दुविह उच्च नीय व आहिय ।
उच्च अट्ठविह होइ एव
नीय पि आहिय ||
उत्तराध्ययन ३३।१४ ।
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पानिक सिवानों से तुलना ARC जिस कर्म के कारण सम्भव होता है उसे जैन-परिभाषा में अन्तरायकर्म कहा गया है। इसके पांच भेद अन्य में निमाये गये है पथा-बानान्तराय सामान्तराम भोया सराय उपभोगान्तराय और बीर्यान्तराय ।
शानावरणीय मावि कर्मों की विभिन्न स्थितियां भी बतायी गयी है जो इस
अधिकतम समय १ज्ञानावरणीय तीस कोटाकोटि सागरोपम
अन्समुहूत २ दशनावरणीय ३ वेदनीय
बारह मुहूत ४ मोहनीय सत्तर कोटाकोटि सागरोपम
अन्तर्मुहूत ५ आयु
सैंतीस सागरोपम ६ नाम बीस कोटाकोटि सागरोपम
আত পছু ७ गोत्र । अन्तराय तीस कोटाकोटि सागरोपम
अन्तर्महूर्व उपयक्त स्थितियां कर्मों के मूल भेदों की अपेक्षा से ही है। इस स्थिति की सीमा के अदर कम अपना फल दिखाकर नष्ट हो जाते है और उनके स्थान पर नये नये कम आते रहते है।
इस तरह यद्यपि कर्मों का वणन पूर्ण हो जाता है परन्तु कर्मों के रूपी होने पर भी उन्हें इन नग्न नषों से देखना सम्भव नही है । यह कैसे समझा जाय कि अमुक प्रकार के कम का बन्ध हुआ है इसके लिए ग्रन्थ मे कमलेश्याओं का वर्णन किया गया है जिसका अर्थ होता है बात्मा के बचे हुए कर्मों के प्रभाव से व्यकि में उत्पन्न
१ दाणे लाभे य भोगेय उवभोगे पीरिएकहा।
पचविहमंतराय समासेण वियाहिय ।।
उत्तराध्ययन ३३।१५।
२ उदहीसरिनामाण तीसई कोरिकोडियो ।
नामगोताण उस्कोसा अट्टमहत्तापहाम्नया ।।
वही ३६१९-२३ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन पृ १६३ ।
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होनेवाला अध्यवसाय विशेष । बेश्या के वर्णन द्वारा उत्तराध्ययन में व्यक्ति के बापरण के अनुसार शुभाशुभ फल का कथन किया गया है । व्यक्तियों के अच्छे और बुरे बापरण को तरतम भाव से छह भागो में विभक्त करके तदनुसार ही छह लेश्याओं के स्वरूप का वर्णन किया गया है । क्रमश उनके नाम है --कृष्ण नील कापोट तेज
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१ उत्तराध्ययन ३४.३ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन पृ १६५ । २ पचासवप्पबत्तो तीहि अगत्तो छस अविरमओय । तिव्वारम्भपरिणओ खुददो साहसिओ नरो ।। निधन्यसपरिणामो निस्ससो अजिइदिओ। एयजोगसमाउत्तो किण्हलेसतु परिणम ।।
उत्तराध्ययन ३४।२१ २२ ३४१४१ १६ २८२ ३३ ३४ ४३ ४५४८५६ ५८-६ । ३ इस्सा अमरिस-अतवो अवि ज-माया अहीगेद्धी पओसे य सढ रिया य । पमते रसलोलए सायगवे सए य । आरम्भाओ अविरमओखुद्दो साहस्सिओ नरो। एय जोगसमाउत्तो नील लेस तु परिणमे ।।
वही ३४।२३ २४ ३४॥५१११६ १८२ ३३ ३५ ४२ ४९ ५६ ५८-६ । ४ वके वक समायारे नियडि ले अण जुए । पलिउचग ओवहिए मि छादिटठी अणारिए । उप्फालग दुटटवाईय तण यावि य मच्छरी । एय जोगसमाउत्तो काउलेस तु परिणमे ।।
वही ३४४२५ २६ ३४।६ १२ १६ १८२ ३३ ३६ ४ ४१५
५ नीयावित्ती अचवले अमाई अकु कहले । विणीयविणा दन्ते जोगव उवहाणव ॥ पियषम्मे दढषम्मे बज्जभीरु हिएसए । एय जोगसमाउत्तो तेउलेस तु परिणम ।।
वही ३४।२७ २८ ३४१७१३ १७१९२ ३३ ३७४ ५१५३ ५७-६ ।
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१२६ : बोड तमा मनधर्म
बाले को यमराज नही देखता। यह हसना कैसा और यह मानन्द कैसा जब चारों तरफ बराबर आग लगी हुई ह ? अन्धकार से घिरे हुए प्रकाश को क्यों नहीं देखते हो? ४ एकत्व भावना
उत्तराध्ययन के अनुसार मनुष्य अकेला ही जमता ह और अकेला ही मरता है हर हालत म उसका कोई साथी नही ह ऐसा विचारना एकत्व भावना है । इसके अन्तगत साधक यह चिन्तन करता ह कि जीव सवथा अकेला ही रहता है। जन्म से बाल्यावस्था युवावस्था बढ़ापा और मृत्यु के समय तक उसे कोई दूसरा सहायक नहीं बन पाता। चाहे जितना धन वैभव घर-द्वार पुत्र-कलत्र हो मरते समय किसीका कोई साथ नही देवा । यह जीव द्विपद चतुष्पद क्षत्र घर धन-धाय और सर्ववस्तु को छोडकर तथा दूसरे कम को साथ लेकर पराधीन अवस्था म परलोक के प्रति प्रयाण करता है और वही कम के अनुसार अच्छी या बरी गति को प्राप्त करता है।
धम्मपद म भी एकत्व भावना का विचार उपल ध है। भगवान बुद्ध कहते है कि अपन से जात अपन से उत्पन्न अपने से किया हुआ पाप ही दुबधि मनुष्य को विदीण कर देता ह जिस प्रकार कि पाषाण से निकला बज पाषाणमय मणि को छेद डालता है। अपने पाप का फल मनुष्य स्वय भोगता है। पाप न करने पर वह स्वय शुद्ध रहता है प्रत्यक पुरुष का शद्ध अथवा अशुद्ध रहना उसी पर निभर है । दूसरा ( आदमी) दूसरे को शुद्ध नही कर सकता। इसलिए कहा गया है कि जितनी हानि शत्र शत्र की या वैरी वैरी की करता ह उससे अधिक बुराई झठे माग में लगा हुआ यह चित्त करता है।
१ धम्मपद १८ तथा जन बौद्ध तथा गीता के आचार-दशनो का तुलनात्मक
अध्ययन भाग २ प ४२८ । २ धम्मपद १४६ तथा जन बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक
अध्ययन भाग २ पू ४२८। ३ उत्तराध्ययन ४।४। ४ वही १३१२४ १९७७ २ ॥३७ ४८ तुलनीय धम्मपद ४२ । ५ धम्मपद १६१ तथा जन बौद्ध तथा गीता के आचार-दशनों का तुलनात्मक
अध्ययन भाम २ ४२५ । ६ पम्मपद १६५ सुलनीय उत्तराध्ययन २ ३६ ३७ । ७ धम्मपद ४२।
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पानिय सिखातों में तुलना १२७
ससार के सभी पदार्थ मुमसे भिन्न है और मैं उनसे भिन्न है। ऐसा विचार किया जाता है कि देहादि समस्त इन्द्रियां अथवा बाह्य पदार्थों से बात्मा का कोई लगाव नहीं बल्कि वे सारी चीजें मात्मा से एकदम भिन्न ही है। मादमी अकेला जन्मता है और अकेला मरता है। उसकी सज्ञा विज्ञान और पेदना भी व्यक्तिगत होती है। अन्यत्व भावना का मुख्य लक्ष्य साधक की बाह्य आसक्ति को कम करना है।
धम्मपद में अयत्व भावना का सुन्दर चित्रण नैरास्य-दर्शन के रूप में हमा है। कहा गया है अहो । यह तुच्छ शरीर शीघ्र ही चेतनारहित होकर निरथक काष्ठ की भांति पृथ्वी पर शयन करेगा। जिस प्रकार राजाओं के चित्रित रच जीण हो जाते हैं उसी प्रकार शरीर भी वृद्धावस्था को प्राप्त होता है। जहां मूख लोग दुखी होते हैं और ज्ञानी लोगो को आसक्ति नहीं होती। इसलिए मनुष्य स्वय की रक्षा करे क्षणभर भी न चूके । क्षण को चुके हुए लोग नरक में पडकर शोक करते है। ६ मधि भावना
शरीर की अशुचिता का विचार करना अशचि भावना है। उत्तराध्ययनसूत्र में भी शरीर की अशचिता एव अशाश्वतता का निर्देश है । उसमें कहा गया है कि यह शरीर अनित्य अर्थात् मणभगुर है और स्वभाव से अपवित्र है क्योकि इसकी उत्पत्ति शुक्र शोणित आदि अपवित्र पदार्थों से ही देखी जाती है तथा इस शरीर की अपेक्षा से इसम निवास करनवाला जीव भी अशाश्वत ही है अथवा इसमें जीवात्मा का निवास भी अशाश्वत ही है। इसके अतिरिक्त यह शरीर नाना प्रकार के द ख और क्लेशो का भाजन है क्योंकि जितने भी शारीरिक अथवा मानसिक द ख अथवा क्लेश है ये सब शरीर के आश्रय से ही होत ह । इसलिए यह शरीर अनेक प्रकार के दुखों और स्लेशो का स्थान है।
१ उत्तराध्ययन १८.१४ १५ १३३२५ । २ धम्मपद ४१। ३ वही १५१ । ४ वही १७१। ५ बही ३१५॥ ६ इमं शरीरं अणिम्म बसुइ असुइ सभव । असांसमायासमिस क्स-केसाणमायणं ।।
उत्तराभ्ययन १९१३।
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१२८ । बौद्ध तथा जैनधर्म
धम्मपद में भी कहा गया है कि अनेक प्रकार के वस्त्रालकारादि से सजाये हुए किन्तु भावों से भरे हुए मास बसा मज्जा आदि से फूले हुए अनक दुखों से पीडित तथा अनेक सकल्पोंवाले इस चित्रित शरीर को तो देखो जिसकी स्थिति स्वायी नहीं है। यह शरीर जरा-जीण रोगो का घर है क्षणभंगुर ह दगष का ढेर है और किसी समय खड-खण्ड हो जायेगा क्योंकि जीवन का अन्त ही मरण है ।
৩ आम भान
दुख अथवा कमबध के कारणो पर विश्वार करना आस्रव भावना है । परन्तु आसव से मुख्यतया पापास्रव को समझा जाता है । इसीलिए उत्तराष्ययन में पापासव के पाँच भेदों का संकेत किया गया है। बोद्ध-परम्परा म आस्रव भावना के सम्बन्ध में बुद्ध का कहना है कि जो कतव्य को बिना किय छोड देत है और अकतव्य करते हैं एसे उद्धत तथा प्रमत्त लोगो के आस्रव बढ़ जाते हैं । परन्तु जिनकी चतना शरीर के प्रति जागरूक रहती है जो अकरणीय आचरण नही करत और निर तर सदाचरण करत हैं एसे स्मृतिमान् और सचेत मनुष्यो के आस्रव नष्ट हो जात ह देखनेवाले तथा सदा दूसरो से चिढनवाले के आस्रव ( चित्त के वह चित्त के मैलो के विनाश से दूर हटा हुआ है। लेकिन जो सदा और रात दिन शिक्षा ग्रहण करत रहते हैं अर्थात अपने दोषों के क्षय और गुणो की वृद्धि करने में लगे रहते हैं और एक ही निर्वाण जिनका परायण है अत्तिम उद्देश्य है उनके आस्रव अस्त हो जाते ह ।
।
दूसरो के दोष
मल ) बढ़त हैं । जागरूक रहते हैं
८ सबर भावना
सवर भावना म आत्रव के विपरीत कर्मों के आगमन को रोकने के उपायों पर विचार किया जाता है। सवर भावना आस्रव भावना का विधायक पक्ष है । उत्तराध्ययन
१ धम्मपद १४७ ।
२ वही १४८ १४९ १५ तथा जन बौद्ध तथा गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग २ पृ ४२६ ।
३ उत्तराध्ययन ३४।२१ १९/१४२ ।४५ २९।११ ।
४ धम्मपद २९२ २९३ तथा जैन बौद्ध तथा गीता के आचार-दर्शनों का
तुलना मक अध्ययन भाग २ ४२९ ।
५ धम्मपद २५३ ।
६ वही २२६ ।
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पार्मिक सिवानों से तुच्या १२९ सूत्र में कहा गया है कि संयम से यह बीय बालव से रहित हो जाता है तथा कायगुप्ति से जीव संवर को प्राप्त करता है और सबर के द्वारा कायगुप्तिवाला श्रीव सर्व प्रकार के पापासबों का निरोष कर देता है।
धम्मपद में भी सवर-भावना का उल्लेख मिलता है। बुद्ध का कथन है कि आंख का सवर ( सयम ) उत्तम है कान का सवर उत्तम ह प्राण का सवर उत्तम है जीभ का सवर उत्तम है । काया वाणी और मन का सबर भी उत्तम ह। जो सवत्र सवर करता है वह द खों से छट जाता है। इसलिए भिक्ष को सदैव इस सम्बन्ध में स्मृतिमान् रहना चाहिए।
९ निजरा भावना
जिन कर्मों का बघ पहले हो चुका ह उनको नष्ट करन के उपायो का विचार करना निजरा भावना है । उत्तराध्ययनसूत्र म कहा गया है कि नाले बन्द कर देने व अन्दर के जल को उलीच-उलीचकर बाहर निकाल देने पर जैसे महातालाब सूख जाता है वैसे ही आस्रवद्वारों को बन्द कर देने और पूर्वसचित कर्मों को तपस्या के द्वारा निर्जीव करने पर मारमा पुद्गल-मुक्त हो जाती है ।
१ लोक-भावना
लोक की रचना आकृति स्वरूप आदि पर विचार करने के लिए लोक-भावना है । जन दशन के अनुसार यह लोक किसीका बनाया हुआ नही है और अनादिकाल से चला आ रहा है। आत्माए भी अनादिकाल से अपने शुभाशुभ कार्यों के अनुसार परिभ्रमण कर रही है । इस लोक के अग्रभाग पर सिद्धस्थान है। सिद्धस्थान के नीचे ऊपर के भाग म स्वर्ग और अधोभाग में नरक है। इसके मध्य भाग मे तियञ्च एव मनुष्यो का निवास है । लोक की इस आकृति एवं स्थिति पर विचार करते हुए साधक सदैव यही सोचे कि उसका आचार एसा हो जिससे उसकी मात्मा पतन के स्थानो को
१ उत्तराध्ययन २९।२७ तथा जैन बौद्ध तथा गीता के आचार-वशनों का
तुलनात्मक अध्ययन भाग २ पृ ४२९ । २ उत्तराध्ययन २९।५५ । ३ पम्मपद ३६ ३६१ तथा जैन बौद्ध तथा गीता के बाचार दर्शनों का तुलनात्मक
अध्ययन भाग २ ३ ४३ । ४ उत्तराध्यपन ३ १५६।
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१५.चोड तथा नव छोडकर ऊध्वलोक में जन्म ले या लोकान पर जाकर मक्ति प्राप्त कर सके। यही इस भावना का सार है।
धम्मपद में भी कहा गया है कि नीच धर्म का सेवन नही करना चाहिए प्रमाद से दूर रहना चाहिए मिथ्या धारणा में नही पडना चाहिए। क्योकि ऐसा करने से आवागमन का चक्र बढ जाता है। यह लोक अधे के सदृश है यहां दखनेवाले ही है जाल से मुक्त पक्षी की भांति बिरले ही स्वर्ग जाते हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि यह विश्व बौख-दर्शन की तरह अभावरूप नही है अपितु यह उतना ही सत्य और ठोस है जितना हम प्रतीत होता है ।
११ बोषि-खुलभ भावना
बोषि दलभ भावना के द्वारा यह चितवन किया जाता ह कि समाग का जो बोष प्राप्त हुआ ह उसका सम्यक आचरण करना अत्यन्त दुष्कर है। इस दलभ बोध को पाकर भी सम्यक आचरण के द्वारा आत्मविकास अथवा निर्वाण को प्रास नही किया तो पुन एसा बोष होना अत्यन्त कठिन है। जैन विचार में चार चीजो की उपलब्धि अत्यन्त दलम कही गयी है-ससार म प्राणी को मनुष्यत्व को प्राति धर्म श्रवण शुद्ध श्रद्धा और सयम-माग में पुरुषाथ ।
धम्मपद मे कहा गया है कि मनुष्यत्व की प्राप्ति दलभ है मानव-जन्म पाकर भी जीवित रहना दुलभ है कितने अकाल म मृयु को प्राप्त हो जाते है । मनुष्य बनकर सबम का श्रवण दुलभ है और बद्ध होकर उत्पन्न होना तो अत्यन्त दलभ है। १२ धर्म-भावना
धर्म के स्वरूप और उसकी आरमविकास की शक्ति का विचार करना धम भावना है । धर्म के वास्तविक स्वरूप का विचार करना आवश्यक है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि ससार में एकमात्र शरण षम ही है इसके सिवा अन्य कोई १ उत्तराध्ययनसूत्र का ३६वां अध्ययन तथा जन बौद्ध तथा गोता के आधार
दशनो का तुलनात्मक अध्ययन भाग २ प ४३१ ।। २ धम्मपद १६७ । ३ वही १७४। ४ उत्तराध्ययन ३६८-११ तथा जैन बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनो का
तुलनात्मक अध्ययन भाग २ पृ ४३१ । ५ धम्मपद १८२ तथा जैन बौद्ध तथा गोता के आचार-दर्शनो का तुलनात्मक अध्ययन भा
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पाकिसानों से तुला : ११ रक्षक नहीं है । बरा और मृत्यु के प्रवाह में वेग से डरते हुए प्राणियों के लिए धर्म द्वीप ही उत्तम स्थान और शरणरूप है।
धम्मपद में कहा गया है कि धम के अमृत रस का पान करनेवाला सुख की नीद सोता है उसका चित्त प्रसन्न रहता है। पण्डित पुरुष आर्यों द्वारा प्रतिपादित धम माग पर चलता हुमा मानन्दपूर्वक रहता है।
इस प्रकार इन बारह अनुप्रक्षाओं अथवा भावनामो के चित्तवन से पित्त समभाव युक्त होता है जिनसे कषायों का उपशमन होता ह और सम्यक्त्व प्रकट होता है। वैराग्य म दृढता आती ह । ससार-सम्बन्धी दख-सुख पीडा जन्म मरण आदि का मनन चिन्तन करने से वृत्ति अन्तमखी होती है। इसी कारण इन्हें वैराग्य की जननी कहा गया है । धम्मपद म अनुप्रक्षा शद के स्थान पर भावना का प्रयोग है और यद्यपि भावनाओ को वहाँ न उस प्रकार का पारिभाषिक महत्त्व प्रास है और न उनकी एक स्थान पर १२ अथवा अन्य सख्याओं के रूप म गणना है फिर भी उत्तराध्ययन की विभिन्न अनुप्रेक्षामो के समानान्तर भाव धम्मपद म भी प्राप्त हो जाते हैं। .
१ उत्तराध्ययन १४।४ तथा जैन बौद्ध तथा गीता के आचार-वशनों का
तुलनात्मक अध्ययन भाग २ ३ ४३ । २ उत्तराध्ययन २३१६८ । ३ धम्मपद १६९ तथा जैन बौर तथा पीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक
अध्ययन भाग २ १ ४३१ ।
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अध्याय ४ धम्मपद मे प्रतिपादित बौद्ध आचार और उसकी उत्तरा ध्ययन में प्रतिपादित जैन आचार मीमासा से तुलना
आचार और विचार जीवन-यात्रा की गाडी के दो पहिय है तथा परस्पर सम्बद्ध हैं । डा मोहनलाल महता ने अपनी पुस्तक जन आचार म इसे निम्न प्रकार से स्पष्ट किया है। आचार बिना विचार की प्ररणा से सम्भव नही ह और उसी प्रकार विचार को व्यावहारिक रूप देने के लिए आचार की अनिवायता होती ही है। जब तक आचार को विचारो का सहयोग प्राप्त न हो अथवा विचार आचार रूप म परिणत न हो तब तक जीवन का यथाथ विकास नही हा सकता।
मत सिद्धात और यवहार अथवा ज्ञान एव क्रिया अथवा विचार एव आचार के सम्यक सन्तुलन से ही व्यक्तित्व का विकास होता है । इस द्वैत के लिए शन एव आचार शब्द का भी प्रकारा तर से प्रयोग होता है । इन दोनो को उपयुक्तता एब अनिवायता के सम्बध म बताया भी गया है कि जिस प्रकार अभीष्ट स्थान पर पहुचन के लिए निर्दोष आँख व पैर दोनो आवश्यक है उसी प्रकार आध्यात्मिक सिद्धि के लिए दोषरहित ज्ञान एव चारित्र दोनों अनिवाय हैं। दूसर शब्दो म नानविहीन आचरण नत्रहीन पुरुष की गति के समान है जब कि आचाररहित ज्ञान पगु पुरुष को स्थिति के सदृश है।
भारतीय दशनो म माचार एव विचार दोनो को समान अधिकार दिया गया है । आचार एव विचार को ही प्रकारान्तर से क्रमश यवहार और सिद्धान्त अथवा क्रिया एव ज्ञान अथवा घम एव दशन कहा गया है।
अष्टाङ्गिक माग बौद्धधम का चौथा आयसत्य दु खनिरोधगामिनी प्रतिपदा का अपर नाम आय अष्टाङ्गिक माग है । यह अष्टाङ्गिक माग बौद्धधम की आचार मोमासा का धरम साधन है। इस मार्ग पर चलने से प्रत्यक व्यक्ति अपने दुःखो का नाश कर निर्वाण प्राप्त कर लेता है। इसलिए यह समस्त मार्गों में श्रेष्ठ माना गया है। माय
१ देख जैन आचार मेहता मोहनलाल ५ ५। २ मग्गानङ्गिको सेटठो। पम्मपद २७३ ।
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बरसान-माचार १६
अष्टांगिक माग बुट शासन में निश्चय ही एक अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रखता है । अपने सर्वप्रथम प्रवचन (धम्मचक्कपबत्तनसुत्त ) में भगवान् ने पञ्चवर्गीय भिक्षओं को इसका उपदेश दिया था और मध्यमा प्रतिपदा के साथ इसकी एकात्मकता दिखाई थी । यही वह माग है जिसे तथागत ने खोज निकाला । मध्यमा प्रतिपदारूपी आर्य अष्टागिक मार्ग अरण धम है और वही ठीक मार्ग है। यह मार्ग आँख खोल देनेवाला है शान करा देनेवाला है। यह शासन अभिज्ञा बोष और निर्वाण की ओर ले जानवाला है। भगवान ने कहा है कि निर्मल ज्ञान की प्राप्ति के लिए यही एक मार्ग है और दूसरा कोई मार्ग नही । इस मार्ग पर चलन से तुम दुख का नाश करोगे।
सम्पूण धम्मपद के अनुशीलन करने से यह ज्ञात होता है कि बौरवम के अनुसार शील समाधि और प्रज्ञा ये तीन मुख्य साधन है । अष्टागिक मार्ग इसी साधना त्रय का पलवित रूप है। बौधर्म में आचार की प्रधानता है। तथागत निर्वाण के लिए तवज्ञान के जटिल मार्ग पर चलने की शिक्षा कभी नहीं देत प्रत्युत तत्त्वज्ञान के विषय प्रश्नों के उत्तर म वे मौमावलम्बन ही श्रेयस्कर समझते हैं। आधार पर ही उनका प्रधान बल है। यदि अष्टागिक मार्ग का पालन किया जाय या आश्रय लिया जाय तो शान्ति अवश्य प्राप्त होगी। भगवान के उपदेश का यही सार है । मार्ग पर मारूद होना अत्यन्त आवश्यक है। बद्ध ने भिक्षुओं से कहा-उद्योग तुम्हें करना होगा । उपदेश के श्रवणमात्र से दुखनिरोध कथमपि नही होगा। उसके लिए आवश्यक ह उद्योग करना। तथागत का काय तो केवल उपदेश देना है। उस पर चलना भिक्षओ का काय है। उस माय अष्टागिक मार्ग म आरूढ़ होकर पान म रत होनेवाले व्यक्ति ही मार के बन्धन से मुक्त होते हैं अन्य पुरुष नहीं। इसलिए भिक्ष को तथागत के उपदिष्ट धम में उद्योगी हो सत-अथ में अप्रमादी एव मात्मसयमी
१ अरणविभगसुत्तन्त मज्झिमनिकाय ३३४.९ । २ चम्मचकपवत्तनसुत्त। सयुत्तनिकाय । ३ एसोवमग्गोनत्यन्नो दस्सनस्स विसतिय । एतं हि तुम्हे पटिपज्जपमारस्सेत पमोहन ।। एत हि तुम्हे पटिपन्ना दुक्खस्सन्त करिस्सव । बक्खातो वे मया मग्मो अन्नाय सम्बसन्यन ॥
धम्मपद २७४ २७५ । ४ तुम्हेहि किन्च भातप्प बसातारो तथागता । पटिपन्ना पमोक्सन्ति शापिनो मारवन्धमा ।।
वही २७६.
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१३४ बोड तवा गर्व हो विहार करना चाहिए। इससे बढकर उद्योग तथा स्वावलम्बन की शिक्षा दूसरी कोन हो सकती है।
प्राय आर्य अष्टागिक मार्ग को तथागत के मूल उपदेशो में माना जाता है। श्रीमती रीज डविडस ने अष्टांगिक मार्ग को बद्ध की मूलदेशना का अग होने पर शका की है। अगुत्तरनिकाय के अष्टक निपात और दीघनिकाय के सगीति पर्यायसूत्र म माठ अग ( सम्यग्दष्टि ) आदि का उल्लेख न होने से इस मयता पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया है। सम्भव ह कि आरम्भ म मध्यम मार्ग से अथ केवल दो अतियो का परिहार था और आठ अग बाद म जोड गय । लेकिन ये आठ अग ३७ बोधि पक्षीय धर्मों म भी गिनाये जाते हैं। कही-कही सप्ताङ्ग और दशाङ्ग मार्ग के रूप म भी इसका वर्णन पाया जाता है। इसलिए इसे मूल देशना से बहिमत नही किया जा सकता। इस स्थिति म अष्टागिक मार्ग को धमदेशना का मल भाग स्वीकार करने म कोई आपत्ति नही होनी चाहिए । मध्यमा प्रतिपदा
___ भगवान बुद्ध द्वारा उपदिष्ट माग मध्यममाग या मध्यमा प्रतिपदा कहलाता है क्योकि यह सैद्धान्तिक और यावहारिक दोनो दष्टियों से दोनो अन्तो का परिहार करता है । जो कहता है कि आमा ह वह शाश्वत दृष्टि से पूर्वानत म अनुपतित होता है । जो कहता है कि आमा नही है वह उच्छद दृष्टि के दूसरे मत म अनपतित होता है । शाश्वत और उच्छेदवाद दोनो अतो का परिहार कर भगवान मध्यमा प्रतिपद ( माग ) का उपदेश करते हैं । इसी तरह एक अन्त काम-सुखानुयोग है दूसरा अन्त आत्मक्लमषानुयोग ( शरीर को कठिन तप से पीडा देना) ह । भगवान दोनों अन्तों का परिहार करत है । भगवान कहते हैं कि देव और मनुष्य दो दृष्टियों से अनुगत रहते हैं। केवल चक्षष्मान ही यथाभत देखता है जब भव निरोध के लिए धम की देशना होती है तो उनका चित्त प्रसन्न नहीं होता। इस प्रकार वे इसी ओर रह जाते है । दूसर भव से जुगुप्सा कर विभव का अभिनन्दन करत है। वे मानते हैं कि उच्छद ही शाश्वत और प्रणीत है। वे अतिधावन करत ह । चक्षष्मान भत को भतत देखता है। वह भत के विराग निरोष के लिए प्रतिपन्न होता है। यह मध्यममाग माय अष्टा गिक माग ह । भगवान यह नही कहते कि मझ पर श्रद्धा रखकर बिना समझे ही मेरे
१ शाक्य रीज डविडस टी डब्ल्य पृ ८९ । २ बौद्धधम के विकास का इतिहास प ११७ । ३ अभिधम्मत्यसग्गहो पर हिन्दी प्रकाशिनी व्याख्या १ ७८४ । ४ देखें दीघनिकाय ३३२५२ प १९४ २९२ २४ ।
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मोट तथा रोम-माचार | १३५
अधिगम करे। दूसरे के
धम को मानो । भगवान् कहते हैं कि मेरा धर्म एहिपस्सिक और पच्चतं वेदितब्ब है । अर्थात् भगवान् सबको निमन्त्रण देते हैं कि आओ और देखो इस घम की परीक्षा करो ।' प्रत्येक को अपने चिस में उसका अनुभव करना होगा। यह ऐसा धम नही है कि एक माग की भावना करे और दूसरा फल का साक्षात्कार करने से इसका साक्षात्कार अपने को नही होता हैं कि हे भिक्षुओ तुम अपन लिए स्वय दीपक हो आर्य अष्टमिक मार्ग के प्रत्येक अग का विशिष्ट स्वरूप १ सम्यक दृष्टि
।
इसलिए भगवान् कहते
दूसरे की शरण मत जाओ ।
1
दृष्टि का अथ ज्ञान है । सत्काय के लिए ज्ञान की मित्ति आवश्यक होती है । आचार और विचार का परस्पर सम्बन्ध नितान्त घनिष्ठ होता है । विचार की भित्ति पर ही चार खडा होता है। इसलिए आचार-माग में सम्यक दृष्टि पहला अग मानी गई है । जो व्यक्ति अकुशल को तथा अकुशल मूल को जानता है कुशल तथा कुशल मूल को जानता है वही सम्यक दृष्टि से सम्पन्न माना जाता है । सम्यग्दृष्टि के बिना शील और समाधि की प्राप्ति नही होती न ही बिना शील और समाधि के सम्यग्दृष्टि की। धम्मपद म कहा गया है कि जो दोषयुक्त काय को दोषयुक्त जानकर तथा दोषरहित काय को दोषरहित जानकर यथाथ धारण करते हैं व प्राणी सम्यक दृष्टि को धारण करके सद्गति को प्राप्त होत हैं। दुख द खसमुदय द खनिरोष और द खनिरोधगामिनी प्रतिपद इन चार आय सत्यों का यथाथ ज्ञान सम्यग्दष्टि है । सम्यग्दृष्टि के परिणामस्वरूप ही सदाचार की प्राप्ति होती है । धम्मपद में कहा गया है कि जो शील और सम्यक दर्शन से युक्त अर्थात सम्यक दृष्टि से सम्पन्न धर्म मे स्थित सत्यवादी और अपने कार्यों को करनेवाला है उसे लोग प्रिय बताते हैं ।
१ दीघनिकाय प्रथम भाग पृ ७५ ।
२ वही द्वितीय भाग पु ८ 1
३ बज्ज चवज्जतोनत्या अवज्जन्व अवज्जतो ।
सम्मादिठिसमादाना सत्ता गच्छत्ति सुग्गति ॥
४ दीघनिकाय द्वितीय भाग पृ २३३ । ५ सील दस्सन सम्पन्न धम्मटठ सम्यवादिन । अन्तनो कम्मकुम्बान तं जनो कुरुते पिय ॥
धम्मपद ३१९ ।
वही २१७ ।
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११५ बोडतवा जमवर्म
सम्यग्दृष्टि कुशल-अकुशल का ज्ञाता होता है। वह अकुशल को छोड कुशल का उपाजन करता है। कायिक वाचिक तथा मानसिक सभी कर्म दो प्रकार के होते है कुशल ( भले ) और अकुशल (बुरे )। इन दोनो को भलीभांति जानना सम्यक दृष्टि है। दीघनिकाय में इन कर्मों का विवरण इस प्रकार हैअकुशल
कुशल कायकम १ प्राणातिपात (हिंसा) १ अ हिमा
२ अदत्तादान (चोरी) २ अचौर्य ३ मिथ्याचार ( व्यभिचार) ३ अ-व्यभिचार ४ मृषावचन (झूठ)
४ सत्य बोलना वाचिकम ५ पिशुन वचन (चुगली । ५ अपिशुन वचन
६ परुष वचन ( कट वचन) ६ अ-कटुवचन ७ सम्प्रलाप ( बकवाद )
७ अ-सप्रलाप ८ अभिध्या ( लोभ)
८ अ-लोभ मानसकम ९ व्यापाद (प्रतिहिंसा ) ९ अ प्रतिहिंसा १ मिथ्यादष्टि
१ मिथ्या दृष्टि न होना। २ सम्यक संकल्प
सकप का अथ दढ निश्चय ह । सकल्प के अनेक अथ है-इछा इरादा विचार मनोरथ आदि। ठीक इच्छा या इरादा अथवा विचार ही सम्यक सकप है जिसका सम्बध चित्त के साथ रहता है। यह चित्त कुशल एव अकुशल दोनो दिशाओं म ही हो सकता है । चित्त में पहले हिंसात्मक रागयुक्त विचार उठत है । जब ये अधिक बलवान होते हैं तब मिथ्या सकप कहलात हैं। इनका ही प्रतिपक्षी सम्यकसक प है। धम्मपद म कहा गया है कि जो असार को सार और सार को असार समझते है वे मिथ्या सकल्प में पड व्यक्ति सार को प्राप्त नही करते हैं। लेकिन जो असार को असार और सार को सार समझते हैं वे सम्यक सकप से युक्त यक्ति सार को प्राप्त करते हैं ।
सम्यक सकप तीन प्रकार का होता है जि हे नष्क्रम्य अव्यापार एष अवि हिंसा सकल्प कहा जाता है ।
१ असारे सारमतिनो सारे चासारदस्सिनो ।
ते सार नाषिगच्छन्ति मिछासङकप्पगोचरा ।। सारच सारतो नत्वा असारन्थ असारतो। ते सार अधिगच्छन्ति सम्मासङकप्पगोचरा ॥
षम्मपद ११ १२।
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बोद तपा-माचार १७
सभी कुशल धर्मों से सप्रयुक्त वितक नष्क्रम्य सम्यक सकल्प है। इसे यों भी कह सकते हैं कि अन्यापाद एव अविहिंसा से अवशिष्ट निर्दुष्ट सभी वितक नैष्क्रम्य सम्यक सकल्प है।
व्यापाद शब्द का अर्थ हिंसा या परविनाश चिन्ता है इसका विपरीत भाव मत्री ही अव्यापाद है । इसलिए सभी प्राणियों के प्रति हिंसा से विरत होकर मैत्रीपूर्ण व्यापार करने का दृढ निश्चय ही अव्यापाव है। धम्मपद में कहा गया है कि इस ससार में वैर से वैर कभी शान्त नही होते अपितु अवर ( मैत्री ) से ही शान्त होते है।
हिंसा से विरत होना या हिंसा के विचार का न होना ही अविहिंसा सम्यक-सकल्प है। धम्मपद में कहा गया है कि जो सुख चाहनेवाले प्राणियों को अपने सुख की चाह से दण्ड से मारता ह वह मरकर सख नही पाता और जो सख चाहनेवाले प्राणियों को अपने सुख की चाह से दण्ड से नही मारता है वह मरकर सुख पाता है। ३ सम्यक वाक
ठीक भाषण-सठ वचन और बकवास का त्याग सम्यक वचन कह जाते हैं। भगवान् बुद्ध ने सम्यक वचन का कथन निषघात्मक शैली से दिया है यथा मिथ्यावचन से विरति ही सम्यक वचन है ।
१ अभिषम्मत्पसग्गहो पर हिन्दी प्रकाशिनी व्याख्या १ ७५८ । तुलनीय दोष निकाय ११६३ प ५५ मज्झिमनिकाय १०२६७ प ३२८ सुत्तनिपात
४ ७ ( पब्बज्जासुत्त )। २ नहि वेरेन वेरानि सम्मत्तीष कुदाचन । अवेरेन च सम्मन्ति एस धम्मो सनन्तनो ॥
धम्मपद गाया-सल्या ५ । ३ सुखकामानि भतानि यो दण्डेन विहिंसति ।
अत्तनो सुखमेसानो पेचसोन लभते ।। सुखकामानि भूतानि यो दण्डन सुखं न हिसा। अत्तनो सुखमेसानो पेच्च सो लभते सुख ॥
बही १३१ १३२ । ४ सहस्समपि चे वाचा अनत्यपदसहिता।
एक मत्य पद सेय्यो य सुत्वा उपसम्मति ॥
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१५८.बीवनमा धर्म
४ सम्यक कर्मान्त
अष्टाणिक माग का चौथा अग सम्यक कर्मान्त है। मनुष्य की सदगति या दुर्गति का कारण उसका कम ही होता है। कम के ही कारण जीव इस लोक में सुख या दुख भोगता है तथा परलोक म भी स्वग या नरक का गामी बनता है। धम्मपद का कथन है कि असत्यवादी नरक म जाते हैं और वह मनुष्य भी जो किसी काम को करके भी नहीं किया ऐसा कहता है। दोनो प्रकार के नोच कम करनेवाले मनुष्य मरकर एक समान होते हैं। अतएव मनुष्य को चाहिए कि सब प्रकार के बरे कर्मों का परित्याग कर दे और पचशील का आचरण कर ।
दीघनिकाय म हिंसा चोरी और काम मिथ्याचार से विरत रहना सम्यक कर्मान्त बतलाया गया है । धम्मपद म कहा गया है कि जो धीर पुरुष काय वाणी
और मन से सयत रहते हैं वास्तव में वे ही सुसयमित है। ५ सम्यक माजीव
ठीक आजीविका । आय श्रावक मिथ्या आजीव (शठी जीविका ) को छोडकर सम्यक आजीव से जीविका चलाता ह । बिना जीविका के जीवन धारण करना कठिन ह वस्तुत असम्भव ह । मानवमात्र को शरीर रक्षण के लिए कोई न कोई जीविका ग्रहण करनी ही पड़ती है। परन्तु यह जीविका अछी होनी चाहिए जिससे दूसरे प्राणियो को न तो किसी प्रकार का क्लेश पहुचे और न उनकी हिंसा का अवसर आवे । भगवान बद्ध ने उस समय को पांच जीविकाओ को हिंसाप्रवण होने से अनुचित ठहराया है
१ हथियार का यापार २ प्राणियो का व्यापार ३ मास का यापार ४ शराब का रोजगार और ५ विष का व्यापार।
अभतवादी निरय उपेति यो वापिकत्वा न करोमि चाह । उभो पि त पेच समा भर्वा त निहीनकम्मा मनुजा परत्य ।।
धम्मपद गाथा-सस्या ३६। २ धम्मपद २४६ २४७ दीघनिकाय द्वितीय भाग १ २३३ । ३ दीघनिकाय २१३१२ पृ २३३ । ४ कायन सवुता धीरा अथो वाचाय सवता ।
मनसा सवुता धीरा ते वे सुपरिसवता ।। धम्मपद गाथा सख्या २३४ । ५ दीघनिकाय द्वितीय भाग प २३३ ।
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बोड स्वाभापार १९
इस प्रकार के साधनों के माध्यम से जीविकोपार्जन करना हीन माना गया है। इनसे विरत होकर ऐसे कार्यों द्वारा जीविका उपाजन करना जिससे किसीकी हानि न हो सम्यक माणीविका है । जीविकोपाजन के साधनो में सवत्र निर्दोष ढग को ही श्रेष्ठ बताया गया है।
धम्मपद से प्रकट है कि जिस प्रकार भ्रमर विभिन्न पुष्पों पर जाकर उनसे रस लेकर अपनी जीविका चलाता है उसी प्रकार भिक्ष गांवों में विचरण करते हुए बिना किसी पर भारस्वरूप बने जीविकोपाजन करे ।
६ सम्यक व्यायाम
ठीक प्रयत्न शोधन उद्योग । भिक्ष अनुत्पन्न पापों को न उत्पन्न होने देने के लिये इच्छा उत्पन करता है उनसे प्रयत्नपूर्वक अपने चित्त को रोकता है। इसी प्रकार वह उत्पन पापों के नाश और अनुत्पन्न सुकर्मों के उत्पाद के लिए इच्छा उत्पन्न करता है। उत्पन्न कुशल धर्मों की स्थिति अ नाश बद्धि विपुलता एव पूर्णता के लिए इच्छा उत्पन्न करता है। यही सम्यक व्यायाम है । सत्कर्मों के करने की भावना करने के लिए प्रयत्न करत रहना चाहिए । इन्द्रियो पर सयम बरी भावनाओ को रोकने और अच्छी भावनाओ के उत्पाद के प्रयत्न और उत्पन्न अच्छी भावनाओं को कायम रखने के प्रयल य सम्यक व्यायाम है । बिना प्रयत्न किये चचल चित्त से शोभन भावनाय दूर भागती जाती है और बरी भावनाय घर जमाया करती है। अत यह उद्योग आवश्यक है। ७ सम्यक स्मृति
स्मृति का अर्थ है जागरूकता । इस अग का विस्तृत वर्णन दीघनिकाय के महा सतिपटठानसुत्त में प्राप्त है। स्मृति प्रस्थान चार है-(१) कायानुपश्यना (२) वेदनानुपश्यना ( ३ ) चित्तानुपश्यना और ( ४ ) धर्मानुपश्यना । इन चारों स्मृति प्रस्थानो की भावना करने को सम्यक स्मृति कहते हैं ।
___ स्मृति का अभ्यासी कायानुपश्यना का अभ्यास करते हुए इस शरीर को विश्लेषण द्वारा समझने का यत्न करता है । वह इसे जानन-पहचानने का यत्न करता
१ यथापि भमरो पुफ्फ वण्णगन्ध आहेठय । फलेति रसमादाय एव गाने मुनी परे ।
धम्मपद गापा-सख्या ४९ तुलनीय दशवकालिक गापा-सख्या २। २ दीघनिकाय द्वितीय भाग १ २३३ २३४ । ३ वही २२३१३ १ २३४ मजिसमनिकाय ११५६ पृ ७७ ।
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१४० बौद्ध तथा बेगचनं
है कि यह काया अचिरस्थायी है। मृत्यु के पश्चात जब यह शरीर श्मशान में फेंक दिया जाता है तो फूलकर उवण हो जाता है । उसमें कीट हो जाते हैं जिसे काक यूगाल खाकर क्षत विक्षत कर देते हैं । स्मृतिभाव का अभ्यासी यह देखते-सोचते हुए कि वह श्मशान भूमि में जो विवर्ण पतितकाय ह वही यह शरीर है अपन शरीर से आसक्ति का निवारण करता है । शरीर गंदगी की राशि है । जल के बुलबलो की तरह उत्पन्न विलीन होनवाला मृग मरीचिका के समान धोखा देनेवाला और क्षण भगुर है। स्मृति के द्वारा काया के प्रति ऐसे अभ्यास को कायानुपश्यना कहा जाता है । धम्मपद में कहा गया है कि जिन्ह नित्य कायगता स्मृति उपस्थित रहती है वे अकर्तव्य को नही करते और कर्तव्य को निरन्तर करनेवाले होते हैं । ऐसे स्मृतिमान और द्धिमानों के चित्तमल अर्थात् आस्रव अस्त हो जाते हैं ।
वेदनानुपश्यना का अथ वेदनाओ के प्रति जागरूकता है । यह वेदना पाँच प्रकार की होती ह - ( १ ) सुखावेदना ( २ ) सौमनस्यवेदना ( ३ ) दु खावेदना (४) दौर्मनस्यवेदना और (५) उपेक्षावेदना ।
चित्तानुपश्यना का अर्थ चित्त के प्रति जागरूकता है । चित्त अनेक प्रकार क होते हैं यथा-सराग वीतराग सदोष वीतदोष समोह वीतमोह समाहित असमाहित चित्त आदि ।
धर्मो के प्रति जागरूकता का नाम धर्मानुपश्यना ह । धम शब्द से यहाँ पाँच नीवरण ( कामच्छन्द व्यापाद स्त्यानमृद्ध औद्ध य-कौकृत्य और विचिकित्सा ) पाँच
१ यथा बढबलक पस्से यथापस्सेमरीचिक । एव लोक अवक्खन्त मचराजानपस्सति ||
धम्मपद गाथा-सख्या १७ 1
२ य सन्य सुसमारद्वानिच्च कायगतासति । अकिञ्चन्ते न सेवन्ति किन्व सात चकारिनो । सतान सम्पजानान अत्य गच्छन्ति आसवा ||
३ बोद्ध-दशन तथा अन्य भारतीय दर्शन भाग १ पृ ३६६ ।
४ बोद्ध-दशन-मीमांसा पू ५८ ।
५ मावर पितर हन्त्वा राजानो द्वे च सोत्थिये ।
arraपन्नम हत्वा अनीषो याति ब्राह्मणो ।।
वही २९३ ।
धम्मपद २९५ ।
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बौद्ध तथा आचार १४१
उपादान स्कन्ध ( रूप वेदना सज्ञा सस्कार और विज्ञान ) छह नाम्यन्तरिक और बाहरी आयतन । सात बोध्यन' एवं बार आय सत्यों का अर्थ ग्रहण किया गया है । इन धर्मो को उनके यथाथरूप में जानना धर्मानुपश्यना है ।
इस प्रकार ये चारों ही स्मृत्युपस्थान सस्वों की विशुद्धि का इनसे ही भिक्ष आत्मशरण और अनन्यशरण होकर बिहार करता है। गया है कि स्मृतिमान लोग ध्यान विपश्यना आदि में लगे रहते हैं नही होते । जिस प्रकार हस जलाशय का परित्याग कर चले जाते हैं लोग गृहो को त्याग देते हैं ।
वे
८ सम्यक समाधि
समाधि चित्त की एकाग्रता के अर्थ में प्रयुक्त है । सम्यक समाधि का अर्थ है -- ठीक समाधि यथाथ समाधि । समाधि से चित्त को एकाग्र किया जाता है चित्त का दमन किया जाता है क्योकि एकमात्र चित्त के दमन से सभी दात्त हो जाते हैं । धम्मपद में इसीलिए कहा भी गया है कि चित्त का दमन करना अ छा है चित्त का दान्त होना सुखावह है । चित्त कुशलाकुशल धर्मो म प्रवृत्त होता है । इसलिए भिक्षु कामवासनाओ से अलग हो बराइयो से अलग हो वितक और विचारयुक्त विवेक से उत्पन्न प्रीति सुखवाले प्रथम ध्यान को प्राप्त हो विहार करता है और इसी प्रकार
१ यो वस्स सतजीव अपस्स उदयब्बय !
एकाह जीवितं सेय्यो पस्सतो उदयब्जय ॥
एकमात्र माग है ।
धम्मपद में कहा
आलस्य में रत
उसी प्रकार के
धम्मपद ११३ |
२ चक्ष श्रोत्र घ्राण जिल्ह्वा काय और मन ये भीतरी आयतन हैं वैसे हो रूप शब्द गन्ध रस स्पश और धर्म- ये छ बाहरी ।
३ स्मृति धम विचय बीय प्रीति प्रभब्धि समाधि और उपेक्षा ।
४ दुख द खसमुदय दु खनिरोष और द खनिरोषणामिनी प्रतिपद ।
५ महासतिपटठान ( दीघनिकाय २1९ ) ।
६ उय्युम्जन्ति सतीमन्तो न निकेते रमन्ति ते 1 हसा व पल्लल हित्वा ओकमोक जहन्ति ते ।।
७ मज्झिमनिकाय १।३ १ ३७१ ।
८ चित्तस्स दमन साधु चित्त दात सुखावह ॥
धम्मपद ९१ ।
धम्मपद ३५ ॥
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दिव्यज्ञान की अवस्था में है । यद्यपि उत्सराध्ययन में इनके स्वरम धाविका विशेष विचार नहीं किया गया है तथापि इनके विषय में कुछ संकेत भवस्य मिलते है, पो निम्नलिखित है
इसका अम है शब्दवन्य शास्त्रज्ञान । परन्तु सत्यश्रुतज्ञान वही है जो बिनोपविह प्रामाणिक शास्त्रों से होता है। जिनोपविष्ट प्रामाणिक ग्रन्थ अग (प्रधान) और अगवाह (अप्रधान ) के मेव से दो प्रकार के है । अत सुखज्ञान भी प्रथमत दो प्रकार का है। अग ग्रन्थों की संख्या बारह होने से अगश्रुतशान भी बारह प्रकार का है तथा अगवा ग्रन्थों की कोई सीमा नियत न होने से अनेक प्रकार का है। अग अन्यों की प्रधानता होने से उत्सराज्यमन में समस्त श्रुतज्ञान को द्वादशा का विस्तार कहा गया है। द्वादशाङ्ग के वेत्ता को ही बहुश्रत कहा गया है तथा बहुश्रत के महत्व को प्रकट करने के लिए सोलह दृष्टान्तों से उसकी प्रशसा की गयी है।
ये सभी दृष्टान्त साभिप्राय विशेषणों से युक्त है अत ग्रन्थ में श्रुतज्ञानी के कुछ अय सहज गुण गिनाये गये हैं जो इन दृष्टान्तो से पुष्ट होते है जैसे - अज्ञानी समुद्र की तरह गम्भीर प्रतिवादियों से अपराजेय अतिरस्कृत विस्तृत श्रतज्ञान से पूर्ण जीवों का रक्षक कर्म भयकर्ता उत्तम अर्थ की गवेषणा करनेवाला और स्व-पर को मुक्ति प्रास करानेवाला होता है। इसी तरह अतनानी के अन्य अनेक गुण समझे जा सकते हैं । सत्यज्ञान की प्राप्ति में शास्त्रों का स्थान प्रमुख होने से अवज्ञानी को बहुत प्रशंसा करके उसका फल मुक्ति बसलाया गया है।
१ उत्तराध्ययन २८१२१ तथा उत्तराध्यवनसूत्र एक परिशीलन १ २०९। २ दुवाल संग जिणक्खाय ।
उत्तराध्ययन २४१३ । बारसगविऊ बुझे । वही २३७ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन
३ जहा संखम्भिपय निहिय दुहमओ वि विरायइ ।
सुयस्सपुण्णा विउलस्स ताइणी सवितुकम्म गइमुत्तम गया ।
उत्तराध्ययन ११।१५-३१। ४ वही ११॥३२ २९।२४ ५९ ११८ १ २ वषा उत्तराध्ययन पूत्र एक
परिशीलन पृ २१ । ५ उत्तराध्ययनसून एक परिशीलन १ २१ ।
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२ मानिनिधिमान
पक्ष आदि इन्द्रियों और मन की सहायता से उत्पन्न होनेवाला शान बानि निबोधिक कहलाता है। जैन-दशन म इसका प्रचलित नाम मतिज्ञान है क्योंकि यह इन्द्रियादि की सहायता से होता है। ३ मधिज्ञान
अवधि का अर्थ है सीमा । जो ज्ञान इद्रियादि की सहायता के बिना कुछ सीमा को लेकर अन्त साक्ष्यरूप होता है वह अवधिज्ञान कहलाता है। मन पर्यायज्ञान
दसरो के मनोगत विचारों को जानने की शक्ति के कारण इसे मन पर्यायज्ञान कहा गया ह । यह दिव्यशान को दूसरी अवस्था है और अवधिज्ञान से श्रेष्ठ है।
मोहनीय ज्ञानावरण दशनावरण और अन्तराय कम के क्षय से कैवल्यज्ञान प्रकट होता है । यह ज्ञान की सर्वोच्च अवस्था है। इसीलिए उत्तराध्ययन में इसे अनुत्तर सवप्रधान सम्पूण प्रतिपूण आवरणरहित अन्धकाररहित विशुद्ध लोकालोक प्रकाशक बतलाया गया है। इस ज्ञान को धारण करनेवाले को केवली केवलज्ञानी या सवज्ञ कहा गया है। इस ज्ञान की प्राप्ति होने पर जीव उसी प्रकार सुशोमित होता है जिस प्रकार आकाश में सूय । इस ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर जीव घेष कर्मों को नष्ट करके नियम से मोक्ष जाता है ।
१ जैन-बम-दर्शन महता मोहनलाल पृ १५७ । २ उत्सराध्ययनसूत्र एक परिशीलन पृ २१२ । ३ वही पृ २१२ । ४ तओ पच्छा अणुतर अणत कसिण पडिपुण्ण निरावरण वितिमिर विसुद्ध लोगालोगप्पभावग केवल धरनाणदसण समुप्पाडेइ ।
उत्तराध्ययन २९।७२। ५ उग्ग तब चरित्ताण जायादोणिवि केवली। वही २२।५ । ६ सन्नाणनाणोवमए महेसो अणुत्तर चरिउ धम्मसचय । अणुसरे नाणघरे अससी मोभासह सूरिए वडतालक्खे ।
__वही २११२३ । ७ जाव सजोगी भवइ ताक्य इरिया बहियकम्म बन्धइ सुहफरिस दुसमयठिइय । त पढमसमएबट बिइय समए वइय तइय समए निज्जिण । त बब पुटठ उदीरियं वेश्य निजिण्ण सेयालेय अकम्म चावि भवइ ।।
वही २९७२।
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३ सम्मारिका (साबार)
सम्यक्पादित का बर्थ है समाचार माचार पति का यह मूल्य है जिसके द्वारा वह महान के महान् और निम्न से भी निम्न बन सकता है। समाचार पक्ति को नीचे से उच्च सिंहासन पर न देता है और दुराचार उपसिंहासन से नीचे गर्त में उकेला देता है । सम्बक दर्शन और सम्यक् ज्ञान होने पर भी यदि व्यक्ति में सदाचार नहीं है जो यह सम्यक वचन और सम्यक माग निरर्थक है क्योंकि उनका प्रयोजन सदाचार में प्रवृत्ति कराना है। मत कहा गया है कि पढ़े हए वेद व्यक्ति की रक्षा नहीं कर सकते है। प्रश्न उठता है कि सदाचार क्या है? यदि सदाचार को एक वाक्य में कहना चाहें वो कह सकते है कि दूसरे के साथ वैसा ही व्यवहार करना जैसा हम दूसरे से स्वय के प्रति पाहते है। समाचार को उत्तराध्ययन में अहिंसा के म में उपस्थित किया गया है तथा इस अहिंसा के साथ सत्य चोय ब्रह्मचय और बन सम्पत्ति का त्याग ( अपरिग्रह) इन चार अन्य बाचारपरक नियमो को बाड़ा गया है। ये ही जैनधम के पांच प्रसिद्ध है। शेष जितने भी नियम और उपनियम है सब इन पांच व्रतों की ही पूर्णता एवं निर्दोषता के लिए है। ज्यो-ज्यों इन बातों के पालन से सदाचार में वृद्धि होती जाती है त्यों-स्यों व्यक्ति मुक्ति की ओर बढ़ल बाता है। इसी प्रकार ज्योज्यो वह मुक्ति की ओर अग्रसर होता जाता है त्यों-त्यों पूर्वबद्ध कम मात्मा से पृषक हो जाते हैं और ज्यों ज्यों पूर्वबद्ध कर्म बास्मा से पथक होते जाने है त्यो-त्यों मारमा निर्मल से निर्मलतर अवस्था को प्राप्त करती हुई मुक्ति को प्राप्त कर लेती है। चारित्र के पांच प्रकार है -(१)सामायिक (२) छेदोपस्थापना ( ३ ) परिहार विशुसि ( ४ ) सूक्ष्मसम्पराय तथा ( ५) यथास्यातचारित्र ।
१ वेया अहीया न भवन्ति ताण । उसराध्ययन १४।१२ तथा उत्तराध्ययनसून
एक परिशीलन पृ २२८ । पसुबन्धा सम्पबेयाजदछ । पावकम्मणा । न त तायन्ति दुस्सील कम्माणि बलबन्तिह ।।
उत्तराध्ययन २५३ । २ एवं परितकरं पारित होइ बाहिय ॥
यही २८ ॥ तथा-परितमापारगुणनिए तबो अणुत्तर संचम पालिया। निरासवे संबवियागकम्म उहाणं विस्नुसम धुर्व ।।
बही २५२ च्या उत्तराध्ययानसूत्र एक परिशीलन पु. २२९ । ३ सामाश्यप छेत्रोपट्मपर्ण मशीन।
परिहार विसीय मुद्रमं बहसंपराय ॥
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०
४ तप
माया गय
उत्तराध्ययन में कही कहीं चारित्र से पृथक जो तप का बणन मिलता है वह उसके महत्व को प्रकट करने के लिए किया गया है। तप एक प्रकार की अग्नि है जिसके द्वारा सैकडो भावो के सचित पर्व कर्मों को शीघ्र हो जलाया जा सकता है । ग्रन्थ म कषामरूपी शत्रओं के आक्रमण पर विजय प्राप्त करने के लिए तप को बाण एवं अर्गलारूप बतलाया गया है । अत कभी-कभी तप को चारित्र से पथक बतलाया गया है अन्यथा वह चारित्र से पृथक नहीं है क्योंकि इसमें जो तप का वणन मिलता है वह साधु के आधार का हो अभिन्न अंग है और साधु के आचार से सम्बन्धित कुछ क्रियाओ को हो यहाँ तप के रूप म बतलाया गया है । आत्मसयम जो कि चारित्र की आधारशिला है तप उससे पृथक नही है ।
( २ ) ऊनोदरी
तप को बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से सवप्रथम दो भागो में विभाजित किया गया है और फिर बाह्य तप और आभ्यन्तर तप को पुन छ भागों में विभक्त किया गया है। इस तरह कुल मिलाकर १२ प्रकार के तपों का वजन प्रथम है । उन १२ प्रकार के तपो के क्रमश नाम है - ( १ ) अनशन (३) मिक्षाचर्या ( ४ ) रस-परित्याग (५) कायक्लेश ( ६ ) सलीनता या fafar शयनासन ( ७ ) प्रायश्चित ( ८ ) विनय (९) वैयावृत्य ( १ ) स्वाध्याय ( ११ ) ध्यान और ( १२ ) व्युसंग या कायोत्सग । उपयुक्त म प्रथम छ तप बाह्य शरीर की क्रिया से अधिक सम्बधित होन के कारण बाह्य तप कहलाते हैं तथा अन्तिम छ तप आत्मा से अधिक सम्बन्धित होने के कारण आभ्यन्तर तप कहलात हैं । बाह्य तपो का प्रयोजन आभ्यन्तर तपो को पुष्ट करना है । अत प्रधानता आभ्यन्तर तपो की है । बाह्य तप मात्र आभ्यन्तर तपों की ओर ले जाने में सहायक हैं ।
इस प्रकार सम्यग्दर्शन सम्यक ज्ञान सम्यक चारित्र तथा तप आत्मविकास की क्रमिक सीढ़ियाँ हैं मोक्षमाग के साधन हैं क्योकि इनके द्वारा क्रम क्रम से आत्म विकास होता जाता है कषाय एव कम क्षीण होते जात हैं स्वानुभूति की परिधि का विस्तार होता जाता है तथा अन्त म एक ऐसी अवस्था आती है जब साधक मोल
अकसाय अहक्वाय छउमत्यस्स जिणस्वा ।
एय चयस्तिकर पारित होइ महिय ।।
1
उत्तराध्ययन २८ ३२ ३३ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन पृ २३ १ वही ९/२ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन पू ३२९ ३ ।
२८ ३४ १९८९ तथा उत्तराध्ययन
२ उत्तराध्ययन ३ । ७८ २९३ सूत्र एक परिशीलन पृ ३३१ ।
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११५१
का अधिकारी बन जाता है। जिस प्रकार किसी कार्य की सफलता के लिए इ ज्ञान और प्रयत्न इन तीन बालों का सयोग आवश्यक होता है उसी प्रकार संसार के दुखों से मुक्ति पाने के लिए भी विश्वास ज्ञान और सदाचार के संयोग की बावश्यकता होती है जिसे ग्रन्थ में सम्यग्दशत सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र के नाम से कहा गया है । ये तीनों बौद्ध-दशन के शील समाधि और प्रज्ञा की तरह अलग-अलग मुकि के तीन मार्ग नहीं हैं बल्कि तीनो मिलकर एक ही माग हूँ । यद्यपि ग्रन्थ में कही कही ज्ञान के पहले चारित्र का तथा दशन के चारित्र का भी प्रयोग मिलता है परन्तु इनकी उत्पत्ति क्रमश होती है ।
रत्नत्रय का निर्माण करते
पहले ज्ञान व
उत्तराध्ययनसूत्र म तो प को मोक्ष का मार्ग बताया उप का अन्तर्भाव कर दिया है काही विधान किया गया है।
सम्यक ज्ञान सम्यक दर्शन सम्यक चारित्र और गया है। लेकिन जैन आचार्यों ने सम्यक चारित्र म जिसके कारण परवर्ती साहित्य में त्रिविध साधना मार्ग इस तरह विश्वास ज्ञान और सदाचार ही मुक्ति के साधन हैं । ये तीनों मिलकर एक ही माग का निर्माण करते हैं क्योंकि मुक्ति में साक्षात कारण चारित्र को पूर्णता मानी गयी है 'शन और ज्ञान के सम्भव नहीं है। ये तीनो कारण प्रसिद्ध हैं ।"
तथा चारित्र की पूर्णता बिना जैन-दर्शन में रत्नत्रय के नाम
और प्रज्ञा का श्रद्धा और प्रज्ञा
बौद्ध दर्शन में त्रिविध साधना भाग के रूप में शील समाषि वधान है। कही कही शील समाधि और प्रज्ञा के स्थान पर बीय का भी विधान है। वस्तुत वीय शील का और श्रद्धा समाधि का प्रतीक है | श्रद्धा और समापि दोनो इसलिए समान है क्योंकि दानों में चित्त विकल्प नहीं होते हैं। इस
१ नाण च दंसण चैव चरित च तबोतहा । एस मग्गुतिपन्नतो जिणेहि वरदसिहि ||
उत्तराध्ययन २८ २ ।
२ नाण च दसणं चैव चरित चैव निच्छए ।
वही २३ ३३ तथा जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनो का तुलनात्मक अध्ययन भाग २ १ २१ ।
३ भारतीय दर्शन राधाकृष्णन् एस पू ३२५
४ देख जैन बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग २ प २३ ।
५ सुत्तनिपात ९।२२ तुलनीय धम्मपद ५७ २२९२३ सपा जैन बौद्ध और गीता के चार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग १ १ २१-२३ ।
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बाधार पर समाधि या पद्धा की तुलना सम्यक दर्शन से और प्रज्ञा की तुलना सम्बक भान से की जा सकती है। ऊपर उल्लेख किया गया है कि अष्टांग मार्ग के सम्यकगाचा सम्बक-कति और सम्यक आजीव का अन्तर्भाव शील में सम्यक व्यायाम सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि का चित्त बवा या समाधि में और सम्यक सकल्प सपा सम्यक दृष्टि का प्रशा में होता है। यह भी लक्षित होता है कि यहाँ उत्तराध्ययन के सम्यक बशन और सम्यक ज्ञान बौखो के क्रमश समाधि और प्रज्ञा स्कन्ध में आते है वहीं बौद्धों का शील स्कघ उत्तराध्ययनसूत्र के सम्यक चारित्र में सरलता से अन्वभूत हो जाता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि बौख और जैन-परम्पराए न केवल अपने साधन मार्ग के प्रतिपादन म बल्कि सापनत्रय के विषय में भी एक समान दृष्टिकोण रखती है।
पचशील सदाचार बौद्धधम की आधारशिला है। बौद्धधम में सदाचार को शील कहा जाता है । शील का पालन प्रत्यक बौद्धो के लिए आवश्यक है। जो व्यक्ति शीलों का पालन नहीं करता वह अपने को बौद्ध कहन का अधिकारी नही समझा जाता। शील से मन वाणी और काया ठीक होते हैं । सद्गुणो के धारण या शीलन के कारण ही उसे शील कहा जाता है । सक्षेप म शील का अर्थ है सब पापो का न करना पुष्य का सचय तथा अपन चित्त को परिशुद्धि रखना। बौद्ध त्रिशरण के अटल विश्वासी का शील ही मूलधन तथा शील हो मूल सबल है। इसलिए बौद्ध-सदाचार म आडम्बर को बिल्कुल स्थान नही दिया गया है । भगवान् ने कहा है कि जिसम आकाक्षाएँ बनी हुई हैं वह चाहे नगा रह चाहे जटा बढाए चाहे कोचड लपेट चाहे उपवास करे चाहे जमीन पर सोय चाहे धल लपेटे और चाह उकई बठे पर उसकी शुद्धि नहीं आती। असली शुद्धि तो शील-पालन से होती ह । धम्मपद म शीलवान् व्यक्ति के गुणों को बसलाते हुए तथागत न कहा है- पुण्य चन्दन तगर या चमेली किसीकी भी सुगन्ध
१ सम्बपापस्स अकरणं कुसलस्स उपसम्पद । स-चित्त परियारपन एव बुदान सासन ॥
धम्मपद १८३। २ न नग्मचरिया न जटा न पडक ।
नानासकाण्डिलसायिका था। रजो वजल्ल उक्कुटिकप्पषान । सोधेन्ति मच्च अवितिष्पकका ॥
पम्मपद १४१ तुलनीय उत्तराध्यक्न ५२१ ।
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१५
उल्टी हवा नहीं जाती किन्तु सज्जनों की सुगन्ध उल्टी हवा भी जाती है सत्पुष्य
सभी दिशाओं में सुगन्ध होता है । चन्दन या तार कमल या जहाँ इन सभी सुगन्धी से झील की सुगन्ध उत्तम है । तगर और चन्दन की जो गन्ध फैलती है यह अल्पमात्र है । किन्तु जो शीलवानों की गन्ध है वह देवताओं तक में फैलती है। जो ये शीलवान् निरालस हो विहरनेवाले मथार्थ ज्ञान द्वारा मुक्त हो गये है उनके मार्ग को मार नहीं पाता । शील के भौतिक लाभ चाहे जो भी हों पर उनका मुख्य लाभ वाध्यात्मिक है । शीलवान् के मन में जो आत्मस्थिरता या आत्मशक्ति होती है वह दु-शील को सुलभ नहीं । शील सम्पूर्ण मानसिक ताप को शान्त कर देता है । बशान्त पुरुष सदा यही सोचा करते हैं कि उसने मुझे गाली दो मुझे मारा मुझे हराया मुझे लट लिया । इस तरह सोचतेसोचते लोग अपने हृदय में वैररूपी भाग जलाते रहते हैं । वैर का मूल कारण दुशीलता ही है । वराग्नि का शमन शील से ही हो सकता है । जो व्यक्ति शीलों का पालन नही करता दुराचारी हो अनेक प्रकार के पापकर्मों में ही लगा रहता है वह मानवता से च्युत समझा जाता है। उसकी दुर्गति होती है और वह जब तक सदाचारी नहीं बनता है तब तक निर्वाण-सुख को नहीं प्राप्त कर सकता । उसका जीवन निस्सार और हेय माना जाता है । भगवान् बुद्ध ने कहा है कि असयमी और दुराचारी हो राष्ट्र का अन्न खाने से आग की लपट के समान तप्त लोहे का गोला खा लेना उत्तम है । इस प्रकार सदाचार के महत्व को जानते हुए सदाचारी बनने का प्रयत्न करना चाहिए ।
१ न पुप्फगन्धो पटियातमेति न चन्दन तगरससम्य गन्धो पटियातमति माल्लकावा सन्धा दिसा सप्पुरिसो पवाति ॥ धम्मपद ६५४
चन्दन तगर वापि उप्पल
arraftest | एतेस गन्धजातान सोलगन्धो अनुत्तरो ||
अप्पमतो अय गन्धो या च यो व सोलवत गन्धो-तगरचन्दनी ।
वाति देवेषु उत्तमो ॥
तेस सम्पन्न सीकान अप्पमाद बिहारिन । सम्मदन्ना विमुतान मारो मन्य न विन्दति ॥
२ मक्कोछि म अवधि में अजिनिमं महासिमे येतं उपनयहम्ति बेर ते न सम्मति
H
३ सेम्यों योगुलो मुक्तो ततो अग्नितिखूपमो । बचे भुवेय्य दुस्सीको रट्ठपिण्डं असमजतो ||
वही ५५ ।
वही ५६ ।
वही ५७ ।
३।
नही १०८।
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1५४ बसपा
अब कोई व्यक्तिबोधर्म ग्रहण करता है तब उसे बद्ध धर्म और सब की शरण जाने के साथ ही पचशील के पालन की प्रतिज्ञा करनी पडली है। पचशील सदाचार के पांच सार्वभौम नियम हैं । ये इस प्रकार है -
१ प्राणातिपात अर्थात जीव हिंसा से विरति २ मुसाबाद या असत्य भाषण से विरति ३ अदिन्नादान या चारी से विरति ४ परदारन्धया परस्त्रीगमन से विरति और
५ सुरामेरयपानन्ध अर्थात मद्यपान से विरति । जो व्यक्ति इनका पालन करता है उसका आचरण पवित्र माना जाता है । पंचशील का आरम्भ होता ह पानाति पाता वेरमणि से जिसका तात्पय है हिंसा से विरत रहना और कम तपा वाणी को सयमित रखना।
चंकि पचशील आचार के नैतिक नियम निर्धारित करते हैं अत इन्ह शिक्षा पर भी कहत है । क्योंकि ये गृहस्पमात्र के लिए माचरणीय ठहराय गय है इसलिए इन्हें गृहस्थशील भी कहत है।
सामान्य जन के लिए नित्य आचरणीय होने के कारण इनको नित्यशील भी कहते हैं। और क्योकि पवित्र गुणसम्पन्न बाय जन इसका अनुपालन करते है इसे मायकण्ठ भी कहा गया ह । नीच किञ्चित विस्तार से पचशीलो म प्रत्येक का विवेचन किया गया है। १ प्राणातिपात विरमण
अर्थात् अन्य जीवो की हिंसा से विरत रहना । जो व्यक्ति अन्य जीवों की हिंसा से नितान्त बचा रहता है वह मरणोपरान्त देवलोक को प्रास होता है। प्राणातिपात में प्राण और अतिपात दो शब्द है । प्राण शब्द से जीव का बोध हाता है और अति पात का अर्य शीघ्रता से गिरना अर्थात सवों के प्राणो का अतिशीघ्रता से या पृथक
१ यो पाणमतिपातति मुसावावम्ब भासति ।
लोके अदिन्न मादियति परदारन्च गच्छति ।। सुरामरयपानन्ध यो नरो अनुयुम्जति । इधवमसा लोकस्मि मल खनतिअत्तनो ।
धम्मपद २४६ २४७
तथाअगुत्तरनिकाय ८५२५ बौद्धधर्म-शन प २४ ।
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होना है ।" इस प्रकार प्राणाविपाद का अर्थ आणियों की हिंसा से है। मनुष्य पशु पक्षी या अन्य उद्भिजनीव जो प्राण से उपेत है उनका बब ही प्राय यम है। हिंसा का विरोध सभी धर्मों में किया गया है। धम्मपद में कहा गया है कि जहाँ-जहाँ से मन हिंसा से मड़ता है वहां-वहां से दुख अवश्य ही शान्त हो जाता है ।
२ नवशादान विरमण
बर्थात् दूसरो की सम्पत्ति के अपहरण से दूर रहना । वह व्यक्ति जो पर-सम्पत्ति के अपहरण से नितान्त दूर रहता है मरणोपरान्त देवलोक को प्राप्त होता है। बौद्ध और जैन दोनों परम्पराएं इस मत से सहमत हैं कि भिक्षु को अपने स्वामी की अनुमति के बिना कोई भी वस्तु ग्रहण नही करनी चाहिए । विनयपिटक के अनुसार जो भिक्षु बिना दी हुई वस्तु प्रहण करता है वह अपने श्रमण जीवन से च्युत हो जाता है । सयुत्तनिकाय में कहा गया है कि यदि मिक्षु फल को संचता है तो भी बोरी करता है ।
३ कामेसु मिथ्याचार विरमण
अर्थात कामाचार से विरत रहना । जो व्यक्ति दृढ़तापूर्वक कामाचार से विरत रहता है वह मरणोपरान्त देवलोक को प्राप्त होता है। बौद्ध एव जैन दोनों परम्पराओं
श्रमण के लिए परस्त्रीगमन वर्जित है । विनयपिटक के अनुसार स्त्री का स्पर्श भी भिक्ष के लिए वर्जित माना गया है। बुद्ध ने भी इस सन्दर्भ में काफी सतर्कता बरतने का उपदेश दिया । यही कारण है कि बुद्ध ने स्त्रियों को सध में प्रवेश देने में अनुत्सुकता प्रकट की । अपने अन्तिम उपदेश मे भी बुद्ध ने भिक्षओं को स्त्री-सम्पक से सावधान किया है । भगवान् बुद्ध के परिनिर्वाण के पहले बानन्द न
भगवान् से प्रश्न किया
१ अटठसालिनी ३ | १४३ पु ८ तथा देख विभाग पृ ३८४ अर्थविनिश्चयसूत्र पू ३६ ।
२ यतो यतो हिंसमनो निवसति ततो सम्मति एव दुक्ख । धम्मपद ३९ ।
३ विनयपिटक पातिमोक्ख पराजिकथम्म २ तथा देख अटठशालिनी ३११४४
प ८१ विभग पू ८४ ।
बोद्ध तथा गीता के आचार दशनों कह
३४४ ।
४ सयुत्तनिकाय ११४ तथा जैन
तुलनात्मक अध्ययन भाग २ प्
५ fearfree पातिमोक्स संघाविसेस धम्म २ ।
६ बीम के विकास का इतिहास पु १५०-१५१ ।
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१६१
है क्योंकि प्रमाद से विवेकज्ञान को प्राप्ति नहीं हो सकती है और अब तक विवेक न नहीं होगा तब तक अहिंसा का पालन करना सम्भव नहीं है । उत्तराध्ययन में हंसा-व्रत के पालन करनेवाले को ब्राह्मण कहा गया है तथा इनके पालन न करने फल नरक की प्राप्ति बतलाया गया है। इस प्रकार इस व्रत का स्थान पचमहाव्रतों प्रथम और श्रेष्ठ है ।
११
सत्य महाव्रत
द्वितीय महाव्रत सर्व-भूषा वाद विरमण है । क्योकि असत्य लिए पतन का कारण और प्राणातिपात का पोषक है जिससे अनेक
म पापकम का बन्ध होता है इसलिए श्रमण को प्रमाद क्रोध लोभ हास्य एव य से झठ न बोलकर उपयोगपूर्वक हितकारी सत्य वचन बोलना चाहिए यही सत्य हाव्रत ह । असभ्य वचन जो दूसरे को कष्टकर हो ऐसा भी नही बोलना हिए | इसम भी अहिंसा महाव्रत की तरह कृतकारित अनुमोदना एव मन वचन काय से झूठ न बोलने का अथ सन्निविष्ट है । अच्छा भोजन बना है अच्छी तरह से काया गया है इत्यादि प्रकार के सावध वचन तथा आज में यह कार्य अवश्य कर लंगा अवश्य ही ऐसा होगा इस प्रकार की निश्चयात्मक वाणीबोलने का भी ग्रन्थ में निषेध | सत्य - महाव्रत के पालन करने को भी उत्तराध्ययन में कठिन बतलाया गया है ।
१ समय गोयम । मापमायए । ६।१३ ४२६-८ २ २२ २१।१४१५२६ । २२ आदि । खिप्प न सक्के विवगमेउ तम्हा समुटठाय पहायकाम । समिच्च लोय समया महेसी अप्पाणरक्खी चरमप्पमतो || २ तसपाण वियाणता सगहेण यथावरे |
जो न हिंसइ बिविहण त वय बम माहण ||
३ कोहा वाजइ बाहासा लोहा वाजइ वा भया ।
भाषण आत्मा
दोषो का जम्म
उत्तराध्ययम १ व अध्ययन तथा
मुस न वयइ जो उत वय बम माहण ॥ उत्तराध्ययन सूत्र एक परिशीलन पू २६४ तथा आगे
४ वयजोग सुच्चा न असबभमाहु । ५ मुस परिहरे भिक्खनय ओहारिण बए । भासा दोसं परिहरे मायं च वज्जए सया | वही ११२४ तथा उत्तराध्ययन सूत्र सुणिटिठए सुलटठेत्ति सावज्ज वज्जए मुणी ॥ ६ निकाल प्पमतण मुसावाय विवजण । भासिय हियं सच्च निच्छा उसेण दुक्कर ||
वही ४। १ ।
वही २५।२३ ।
वही २५|२४ तथा
उत्तराध्ययन २१।२४ ॥
एक परिशीलन पू २६५ । उत्तराध्ययन १।३६ ।
वही १९/२७ ।
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१९ परमावर्ष
उत्तराध्ययन में वचन बोलने की क्रमिक तीन अवस्थायें बतलायी गयी है। इन तीनो अबस्थाओं म सत्य बोलन के क्रमश नाम भाव स य करण सत्य और योग सत्य मिलते हैं। इस तरह झठ बोलनेवाला एक मठ को छिपाने के लिए अन्य अनेक झूठ बोलता है और हिंसा चोरी आदि क्रियाओ में प्रवृत्त होता हुआ सुखी नही होता है। सत्य बोलनेवाला जसा बोलता ह वसा ही करता है और प्रामाणिक पुरुष होकर सुखी होता है। ३ अचोर्य-महावत
तृतीय महावत की सजा सव अदत्तादान विरमण है जिसके अन्तर्गत श्रमण कोई भी बिना दी हुई वस्तु प्रहण नहीं करता। किसीकी गिरी हुई भूली हुई रखी हुई अथवा तुच्छ-से-तुच्छ वस्तु को बिना स्वामी का आज्ञा के ग्रहण न करना अचार्य महावत है । मन वचन शरीर एव कृतकारित अनुमोदना से इस व्रत का पालन करना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त जो वस्तु ग्रहण करे वह निरवद्य एव निर्दोष हो। अहिंसा-व्रत की रक्षा के लिए निरवद्य एव निर्दोष विशेषण दिया गया है क्योंकि १ सरम्भ-समारम्भे आरम्भे य तहेवय ।
वय पवत्त माण तु नियतज्जजय आई ॥ उत्तराध्ययन २४।२३ । २ भावसच्चेण भावविसोहिं जणयह । भावविसोहीए वट्टमाणे जीव अरहन्तपन्न-तस्स पम्नस्स बाराहणयाए अभुटठइ । अरहन्तपन्न-तस्स धम्मस्स बाराहणयाए अभुटिठता परलोग धम्मस्स राहएहवइ ।
वही २९।५१ । करणसच्चेण करण सत्ति जणयह । करणसच्चे बटटमाणे जीवे जहावाई तहा कारी यावि भव।
वही २९।५२ । जोगसच्चेण जोग विसोहे। वही २९।५३ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन १ २६५ ।। ३ मोसस्स पच्छा यपुरत्यओ य पोगकाले य दुही दुरन्ते । एव अदत्ताणि समाययन्तो रुवे अतित्तो दुहियो अणिस्सो ।।
उत्तराध्ययन ३२६३१ । ४ दन्त-सोहण माइस्स अदत्तस्स विवज्जण । अणबज्जे सणिज्जस्स गण्हणा मयदक्करं ।।
वही १९२८। चित्तमन्तमचित्त वा अप्प वाजइ वा बहु । म गण्हा अदत्त जे त वय बम माहणं ॥
वही २५।२५ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन १ २६७ ॥
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१६३
लगता है । सभी चित
सावध एव सदोष वस्तु के ग्रहण करने में हिंसा का दोष वस्तुओं को ग्रहण करना साधु के लिए निषेध माना गया है। इसलिए सचित वस्तु के किसीके द्वारा दिये जाने पर भी उसे ग्रहण करना चोरी है। बतलाये गये व्रतो का ठीक से पालन न करना भी चोरी है। अचीय व्रत से युक्त बहुत ही सुन्दर कथन उत्तराध्ययन में कहा गया है-धनधान्यादि का ग्रहण करना यह नरक का हेतु है । इसलिए बिना आज्ञा के साबु तृणमात्र पदार्थ को भी अगीकार न करे । यह शरीर बिना आहार के रह भी नहीं सकता। इसलिए गृहस्थ के द्वारा अपने पात्र में जो भोजन उसे प्राप्त हो उसीका आहार करना चाहिए ।
४ ब्रह्मचर्य - महाव्रत
कृत कारित अनुमोदनापूर्वक मनुष्य तियञ्च एव देव शरीर-सम्बन्धी सब प्रकार के मैथुन सेवन का मन वचन काय से त्याग करना ब्रह्मचर्य - महाव्रत है । इसके १८ भेदों का संकेत मिलता है ।
समाधिस्थान
विशेष बातों का स्थान नाम दिया गया है। इन छोड़कर शेष ९ को टीका
उत्तराध्ययनसूत्र भ ब्रह्मचय की रक्षा के लिए १ भावश्यक बतलाया गया है जिन्हें ग्रन्थ में समाधिस्थान का दस समाधिस्थानों में अन्तिम सग्रहात्मक समाधिस्थान को कारो ने ब्रह्मचय की गुप्तियाँ ( संरक्षिका ) कहा है। वित्त को एकाग्र करने के लिए इनका विशेष महत्व होने के कारण इन्हें समाधिस्थान कहा गया है। ये समाधिस्थान डॉ सुदर्शनलाल जैन के द्वारा निम्नलिखित रूप में विभाजित हैं
१ आयाण नरम बिल्स नायएज्ज तणामवि 1
मणसा
दो सुन्छो अप्पणो पाए दिन्न भुजेज्ज || २ दिव्य- माणुस भोयणं तेरिच्छ जो न सेबद्द मेहूण 1 फाय-बक्केण तं वय बम माह ॥ ३ बम्भम्मिनायज्ज्ञ यणेसु ठाणेसु यडसमाहिए । जे मिक्स जबई निवयं से न अच्छमण्डले । ४ कमरे बल ते बेरेहि भगवन्तेहि दस बम्मचेर सोच्या निसम्म सजम बहुले सवर बहुले गुत्तबमयारी सया अप्पसत्त विहरेज्जा । सूत्र एक परिशीलन पु २६८ ॥
५ उत्तराध्ययन ३१ १ तथा उत्तराध्ययनसूत्र आत्माराम टीका १३९१ । ६ उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन पू २६८-२७३ ।
उत्तराध्ययन ६८ ।
बही २५।२६ ।
वही ३१११४ । समाहिठाणा पन्नता जे भिक्खू समाहि बहुले गुत्ते पुत्तिन्दिए वही १६१२ तथा उत्तराध्ययन
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१४ मा गगन १ स्त्री आदि से सकीर्ण स्थान के सेवन का त्याग
जहां पर स्त्री पशु नपसक आदि का आवागमन सम्भव है ऐसे स्थानों में शून्य घरो में और जहां पर घरो की सन्धियां मिलती हो ऐसे स्थलों म तपा राजमार्ग में अकेला साधु अकेली स्त्री के परिचय म न आवे । क्योकि इन उपर्यक्त स्थानों में साधु का स्त्री के साथ परिचय म आना जनता म अवश्य सन्देह का कारण बन जाता है। इसलिए इन उक्त स्थानो म सयमी पुरुष कभी न आवे । क्योकि जैसे बिल्लियों के स्थान के पास चहो का रहना योग्य नहीं उसी प्रकार स्त्रियो के स्थान के समीप ब्रह्मचारी को निवास करना उचित नही । इसलिए मुनि को भी स्त्री पश आदि से रहित एकान्त स्थान म ही निवास करना उपयक्त ह। २ निर्ग्रन्थ साधु बार-बार स्त्रियों को कामननक कथा न कहे
साध का स्त्रियो की बार-बार कथा नहीं करनी चाहिए और ब्रह्मचय म रत भिक्ष को मन को आनद देनवाली कामराग को बढानवाली स्त्री-कथा को भी त्याग देना चाहिए। ३ स्त्री मावि से युक्त शय्या और आराम का त्याग
निग्रन्थ को ब्रह्मचय की रक्षा के लिए स्त्रियो के साथ एक आसन पर बैठकर कथा वार्तालाप परिचय आदि न करते हुए आकीर्णता और स्त्री-जन से रहित स्थान म रहना चाहिए। क्योकि तत्काल वहां पर बठने से स्मृति आदि दोष लगने की सम्भावना रहती है। ४ कामराग से स्त्रियों की मनोहर तथा मनोरम इन्द्रियों का त्याग
ब्रह्मचारी भिक्ष को स्त्रियो के अग-प्रत्यय और सस्थान आदि का निरीक्षण करना तथा उनके साथ सुचारु भाषण करना और कटाक्षपूवक देखना आदि बातों को एव चक्षग्राह्य विषयों को यागने के लिए कहा गया है। अत इस प्रकार के प्रसग
१ उत्तराध्ययन १६६१ पद्य भाग तथा १६१ गद्य तथा ३२॥१३ १६ ८।१९
२२१४५ १।२६ । २ वही ३२६१३। ३ वही ३६।१६। ४ वही १६३२ पद्य तथा गद्य । ५ तम्हा खल नो निगन्ये इत्थीहिंसद्धि सन्निसेजागए विहरेज्जा । वही १६०५ गद्य । ६ वही १६१५ गद्य।
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बौद्ध तथा नयाचार १६५
सौन्दर्य को स्त्रियों को
पिस्थित होने पर वीतरागतापूर्वक शभध्यान करना । स्त्रियो के रूप 'खकर पुरुष को उसमें आसक्ति नही होनी चाहिए । इसीलिए ग्रन्थ में डकमत ( दलदल ) तथा राक्षसी कहा गया है ।
। स्त्रियों के श्रोत्रग्राह्य शब्दों का निषेध
पंचम समाधिस्थान में स्त्रियों के कजित रुदित हसित स्वनित क्रन्दित rore आदि वचनो को जिनसे कामराग बढ़े न सुनना कारण कि इनसे मन की चलता में वृद्धि होती है और ब्रह्मचय में आघात पहुंचता है ।
स्त्रियों के साथ की हुई पूर्वरति और काम-क्रोडा का स्मरण न करें
स्त्रियो के पूवरति और क्रीडा की स्मृति करनेवाले निग्रन्थ ब्रह्मचारी के ह्मचय में शंका काक्षा और सन्देहादि दोष उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है। यम का नाश एव उमाद की प्राप्ति होती ह तथा दीर्घकालिक भयकर रोगों का आक्रमण भी होता है ।
9 सरस आहार -पानी तथा प्रणीत रस-प्रकाम का त्याग
ग्रन्थ में ब्रह्मचारी के लिए रसो का अत्यन्त सेवन वर्जित है। कहा गया है कि जैसे स्वादु फलवाले वृक्ष पर पक्षी आकर बैठते है और अनेक प्रकार से उसको कष्ट पहुँचाते हैं उसी प्रकार रससेबी (घी दूध आदि रसवान् द्रव्यों के सेवन से ) रुष को कामादि विषय भी अत्यन्त दुखी करते हैं ।
अत्यधिक भोजन का स्याम
जसे वायु के साथ मिलन से वन में लगी हुई अग्नि शीघ्र शान्त नही होती उसी प्रकार प्रमाण से अधिक भोजन करनेवाले ब्रह्मचारी की इन्द्रियाग्नि शान्त नही होती । अत खाने से यदि विकार की उत्पत्ति विशेष होती हो तो उसको त्यागकर चय की रक्षा करनी चाहिए ।
१ उत्तराध्ययन ३२।१५ ।
२ पङक भूयाओ इत्थिओ |
३ वही १६।५ गद्य तथा पद्य ।
४ बही १६।८ गद्य तथा पद्य और मागे ३२।१४ ।
५ नही ३२।१ ।
६ वही ३२।११ ।
७ वही २६।३५ ।
वही २११७ ८ १८
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१६५ र समान शरीर की विभूषा का त्याग
ब्रह्मचय म अनुराम रखनेवाले साध को शरीर की विभूषा का त्याग करना चाहिए । मत उसे उत्तम सस्कार करना शरीर का मण्डन करना केश आदि का संवारना छोड देना चाहिए। १ समावि पांचों प्रकार के कामगुणों का त्याग
ब्रह्मचय की रक्षा के लिए इस दसवें समाधिस्थान में ब्रह्मचारी को शब्द रूप गन्ध रस और स्पश इन पांच कामगुणो का सदा परित्याग करने के लिए कहा गया है क्योंकि वे सब ामगवेषी पुरुष के लिए तालपुट विष के समान है। इसलिए एकाग्र मनवाले साधु को समाधि की दढ़ता के लिए इन दुजय कामभोगों तथा शका के स्थानो को छोड देना चाहिए ।
इस प्रकार सम्यकतया काया से स्पश करने से सर्वथा मैथुन से निवृत्तिरूप चतुथ महावत का आराधन एव पालन होता है और देव दानव गन्धव यक्ष राक्षस एव किन्नर य सभी ब्रह्मचारी को नमस्कार करते हैं क्योकि वह दुष्कर ब्रह्मचय का पालन करता है। ५ अपरिग्रह महाव्रत
__धन धान्य भृत्य आदि जितन भी निर्जीव एव सजीव पदाथ है उन सबका मन वचन काय से निर्मोही होकर ममत्व का त्याग करना अपरिग्रह या अकिञ्चन महावत कहलाता है। अत साधु किसी खाद्य पदाथ का अशमात्र मी सग्रह न करे तथा चतुर्विध बाहार म से किसी आहार का भी स ग्रह करके रात्रि को न रख । वह सोने-चांदी आदि को ग्रहण करने की मन से भी इच्छा न करे। इस तरह सभी प्रकार के धन पा यादि का त्याग करके तृणमात्र का भी सग्रह न करना अपरिग्रह है । अपरि मह को ही वीतरागता कहा गया है क्योकि जब तक विषयों से विराग नहीं होगा तब
१ उत्तराध्ययन १६३९ पद्य तथा गद्य । २ वही १६३१ पद तथा गद्य । विसवालउडजहा।
वही १६३१३ गद्य । ३ सकटढाणाणि सव्वाणि वज्जेज्जा पणि हाणप। वही १६:१४ पद्य । ४ वही १६।१६ पद्य । ५ वही १९६३ तथा आगे उ २५१२७ ८४ १२।९ १४४४१ ४९
२१।२१ २५।२८ ३५।३ १९ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन
पृ २७८। ६ उत्तराध्ययन ६१६ तथा ३५।१३ ।
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बीड- १६७
तक जीव अपरिग्रही नहीं हो सकता है। विषयों के प्रति रान या लोभ-बुद्धि का होना ही परिग्रह है। उत्तराध्ययन में कहा गया है जैसे-जैसे लाभ होता है वैसे-वैसे लोभ होता है तथा लोभ के बढ़ने पर परिग्रह भी बढ़ता जाता है। यह वीतरागता अति विस्तृत सुस्पष्ट राजमाग है जिसके समक्ष अज्ञानमूलक जप-तप आदि सोलहवीं कला को भी पा नही सकता है।' जो इन विषयो के प्रति ममत्व नहीं रखता है वह इस लोक में दुखो से अलिस होकर आनन्दमय जीवन व्यतीत करता है तथा परलोक में देव मा मुक्ति-पद को प्राप्त करता है । परन्तु जो परिग्रह का त्याग नहीं करता है वह पाप कर्मों को करके ससार में भ्रमण करता हुआ नरक में जाता है।
इस तरह अपरिग्रह से तात्पर्य यद्यपि पूर्ण वीतरागता से है परन्तु ब्रह्मचर्य व्रत को इससे पृथक कर देने के कारण यह धन धान्यादि अचेतन द्रव्य और दास पशु आदि सचेतन द्रव्यों के त्यागरूप रह गया है । पंचमहाव्रत श्रमण - जीवन की रीढ़ तथा जैनधम के प्राण हैं । इन व्रतों का सम्यक पालन करनेवाला ही सच्चा श्रमण है । श्रमण धर्माचार मूलत अहिंसाप्रधान है इसलिए कहा जाता है कि पांचों महाव्रत अहिंसास्वरूप हैं और वे अहिंसा से भिन्न नही हैं। रात्रि भोजन विरमण व्रत भी अहिंसा - महाव्रत के अन्तगत ही आ जाता है फिर भी धर्माचार्यों ने इसे छठ व्रत के रूप में प्रतिपादित किया है। और स्वाद्य इन चार प्रकारों में किसी एक प्रकार का भी रात्रि में समझा गया है ।
अशन पान खाद्य ग्रहण करना गहिव
इस प्रकार घम्मपद और उत्तराध्ययन सूत्र के आधार पर उपयुक्त तथ्यों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर हम देखते हैं कि पचशील पचमहाव्रतो एव रात्रि भोजन frषण के अत्यन्त निकट हैं । दोनो परम्परायें उपर्युक्त कार्यों का मन वचन और काय तथा कृत कारित और अनुमोदित की कोटियो का विधान करती हैं। फिर भी दोनो ग्रन्थों में कुछ मौलिक अन्तर है जिसे जानना जरूरी है। उत्तराध्ययमसूत्र के अनुसार
१ उत्तराध्ययन १ । ३२ ।
२ वही १३२ ।
३ कल अग्बइ सोलसि ॥
४ वही २९|३ ३६ ३२।१९ २६ ३९ १४।४४
७।२६ २७ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन पू
५ आयाण नरय दिस्स ।
वही ९१४४ ।
४१२ ८०४ ६१५
२८ ।
उत्तराध्ययन ६।८।
६ मेहता मोहनलाल जैनधर्म-दर्शन पू ५१४ ।
७ जैन सागरमल जैन बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग २ १ २११ ।
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१५८ बोबसपा समयम भिक्षु न केवल कृत कारित और अनुमोदित हिंसा से बचते है वरन् वे औदेशिक हिंसा से भी बचते है। जैन भिक्ष के लिए मन वचन और काय से हिंसा करना-करवाना अथवा हिंसा का अनुमोदन करना तो निषिद्ध ह ही लेकिन साथ ही यदि कोई भिक्ष के निमित्त से भी हिंसा करता है और भिक्ष को यह ज्ञात हो जाता है कि उसके निमित्त से हिंसा की गई है तो एसे आहार आदि का ग्रहण भी भिक्ष के लिए निषिद्ध माना गया है। फिर भी बौद्ध और जैन-परम्परा म प्रमुख अन्तर यह है कि बुद्ध निमन्त्रित भिक्षा को स्वीकार करते थे जब कि जन श्रमण किसी भी प्रकार काम त्रण स्वीकार नही करत थे। बुद्ध औद्दशिक प्राणीवघ के द्वारा निमित्त मास आदि को तो निषिद्ध मानते थे लेकिन सामाय भोजन के सम्बन्ध म व औद्दशिकता का कोई विचार नहीं करत थ । वस्तुत इसका मूल कारण यह था कि बुद्ध अग्नि पानी आदि को जीवन यक्त नही मानते थे । अत सामा य भोजन के निर्माण म उ हैं औद्देशिक हिंसा का कोई दोष परिलक्षित नही हुआ और इसलिए निमत्रित भोजन का निषध नही किया गया । सय महावत के सदभ म दोनो परम्पराओ म मौलिक अन्तर यह ह कि बद अप्रिय सय वचन को हित बद्धि से बोलना वजित नही मानत है जब कि जन-परम्परा अप्रिय सत्य को भी हित बद्धि से बोलना वर्जित मानती है । अय शीलो के सम्बन्ध म सदान्तिक रूप से बौद्ध और जैन-परम्परा म कोई मलभत अन्तर नही है फिर भी जैन-परम्परा म अशीलो का पालन जितनी निष्ठा और कठोरतापूर्वक किया गया उतना बौद्ध परम्परा म नही ।
धम्मपद तथा उत्तराध्ययनसत्र के आधार पर पुण्य पाप की अवधारणा
पुण्य मनुष्य के चरित्र की श्रेष्ठता का सूचक है। इसके विपरीत पाप चरित्र के नतिक पतन का चिह्न है। इच्छापूवक कतव्य पालन अथवा स कम से मनुष्य के चरित्र के नतिक उ कष म वृद्धि ही पुण्य हैं। नतिक नियमो के उल्लघन अथवा असत्कम से व्यक्ति के चरित्र से सम्बद्ध नतिक मूय का भय ही पाप है। पुण्य कत य पालन करके अजित नतिक योग्यता ह । जब यक्ति कतव्य से मंह मोडता है तब उसकी नैतिक योग्यता का ह्रास होता है । नतिक यो यता के इस क्षय को पाप कहा जाता ह । धम्मपद में कहा गया है पाप काय का न करना श्रष्ठ है । पाप-काय पीछ दुख देता ह पुण्य-काय करना श्रेष्ठ है जिसे करके मनुष्य दुखी नही होता। पुण्य और पाप चरित्र से सम्बद्ध है । पुण्य भावात्मक नतिक योग्यता है जब कि पाप
१ नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक अध्ययन गुलाम मुहम्मद याह्या खां ५ ५८। २ अकत दुक्कत सेय्यो पछातपतिदुक्कत । कतन्थ सुकत सेय्यो य कस्वा नानुतप्पति ॥ धम्मपद ३१४।
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बौडरान-माचार १९
निषेधात्मक । पाप पुण्य का प्रभाव नहीं है। पुण्य के अभाव का अर्थ है कि व्यक्ति ने जो कम किया है वह न सत् है और न असत् । जब व्यक्ति का आररण नैतिक आदश के अनुकल होता है तब वह पुण्य होता है किन्तु जब नैतिक आदर्श के प्रतिकल होता है तब पाप होता है। धम्मपद का कथन है कि जिसका किया हया पापकर्म पुण्यकम से ढक जाता है वह इस लोक को वैसे ही प्रकाशित करता है जैसे कि मादकों से निकला हुआ चन्द्रमा । अत पुण्य चरित्र के उत्कष का तथा पाप से चरित्र के क्षय का सकेत मिलता है।
पुण्य और पाप को विभिन्न श्रेणियां होती है। व्यक्ति के नैतिक और अनैतिक कम के अनुपात में ही उसकी नैतिक योग्यता की वृद्धि अथवा उसका क्षय होता है। व्यक्ति की नैतिक योग्यता की वृद्धि जब अधिक होती है तब वह अधिक पुण्य अजित करता है। इसके विपरीत व्यक्ति की नैतिक योग्यता म ह्रास भी होता है जिससे पाप की मात्राओ का संकेत मिलता है। धम्मपद म कहा गया है कि पापकम करनेवाला इस लोक म दुखी होता है और परलोक म जाकर भी अर्थात् वह दोनों ही लोको म दुखी होता है । वह अपने कुत्सित कम को देखकर शोक करता है और दुखित होता है जब कि पुण्यकम करनेवाला इस लोक म प्रसन्न रहता है और परलोक में जाकर भी अर्थात वह दोनो लोको में आनन्दित होता है और प्रमोद करता है।
धम्मपद भी नैतिक साधना की अन्तिम अवस्था म पण्य और पाप दोनो से ऊपर की बात कहता है और इस प्रकार वह भी समान विचारो का प्रतिपादन करता है । धम्मपद में भगवान बुद्ध कहते हैं कि यदि मनव्य पाप करता है तो उसे बार-बार न करे उस पाप म स्वच्छन्दतापवक रत न होब क्योंकि पाप का सचय दुख कारी होता है । वह राख से ढंको हुई अग्नि के समान मूख को जलाता हुआ उसका पीछा करता है। इसलिए मनष्य कल्याणकारी काय करने के लिए शीघ्रता करे और पाप से चित्त को निवारण करे क्योंकि पाप का सचय दुखकारी लेकिन पुण्य का
१ धम्मपद गाथा-सख्या १७३ । २ वही १५ १७ तथा जैन बौद्ध तथा गोता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक
अध्ययन भाग १ ३३६ ।
४ वही ११७ ।
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में भी विस्तार से प्राह्मण की कर्मामुसारी परिभाषा है। और उस पन्य में जैन दृष्टिकोण से उत्तम यश की कल्पना की गयी है जिनमें जंगम और स्थावर जीवों की बलि दी जाती है उन्हें श्रीत द्रव्य यज्ञ कहते है। जैसे अश्वमेव बाजपेय ज्योतिष्टोम बादि । ये यज्ञ बहुत खर्चीले पडते थे अत साधारण जनता इन यशों को नहीं कर सकती थी। स्मृति से प्रतिपादित यशो को स्मार्त यज्ञ कहते है। दोनों का विधान अलग-अलग है। दोनो म मुस्य भेद बलि को प्रथा को लेकर है । स्मार्तपक्षों में बलिदान को जीव हिंसा समझकर निषिद्ध कम माना गया है। इनमें हिंसा नहीं होती है अपितु इनका सम्पादन घत धान्य आदि से होता है। इन यनों में याजक की भावना हिंसा करने की नही रहती है फिर भी जो स्थावर बीवो की हिंसा इस यज्ञ की व्यवस्था में होती है वह नगण्य है । अत इन यज्ञों का विरोध नहीं किया गया है। भावयज्ञ को उत्तराध्ययन में सर्वश्रेष्ठ यज्ञ कहा गया है । इस यज्ञ के सम्पादन में बाह्य किसी सामग्री की आवश्यकता नही पडती है। कोई भी इस यज्ञ को कर सकता है। उत्तराध्ययन में इस यज्ञ के विभिन्न नाम है जो अपनी साथकता लिए हुए हैं जैसे-यमयश अहिंसा यश सत्य अचौर्य ब्रह्मचय और आकिञ्चनभाव । अज्ञानमूलक पशु-हिंसा-प्रधान
१ देखिए धम्मपद का छब्बीसा बाह्मणवग्ग तथा उत्तराध्ययन का पचीसा
यज्ञीय प्रकरण । विस्तृत विवेचन इसी अध्याय में आगे किया गया है। २ वियरिज्जइ खज्जइ भुज्जईय अन्न पभय भवयाणमेय ॥
उत्तराध्ययन १२०१ तपा जैन बौद्ध तथा गोता के आचार-वशनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग २ पृ ४९५४९६॥ ३ अच्चमुते महाभाग।
न ते किंचि न अच्चिमो । भुवाहि सालिम कूर
नाणावजण-सजुयं ॥ उत्तराध्ययन १२॥३४ । ४ सुसवुडो पहिं संवरहि इह जीवियं अणवक खमाणो। बोसटठकायो सुइचत्तदेहो। महागय जयई बन्लसिटठ ।।
कही १२४२। ५ पायाई बम बन्नमि ।
वही २५।१। ६ वही १२वा एष २५वा अध्ययन । ७ उत्तराध्ययनसून आत्माराम टीका १ ११२१-११२५ तक ।
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१४२ र मानव
पीर तथा उसीको सच्चा ब्राह्मण कहा गया है। जैसे कमल कीचड से उत्पन्न होकर बस पर ठहरता है और जल के द्वारा वृद्धि को प्राप्त करता हुआ भी जल से उपसिल नहीं होता है ठीक इसी प्रकार जो काममोगों से उत्पन्न और वृद्धि को प्राप्त करके भी उनमें उपलिप्त नही होता उसीको सच्चा बाह्मण कहा गया है।
इस प्रकार मूल गुणो के द्वारा ब्राह्मणत्व का निरूपण किया गया । बब उत्तर गुणों से भी उसका वणन किया जा रहा है। लोलपता से रहित अर्थात् रसों में भूळ न रखनेवाला भिक्षावृत्ति से जोक्न-पात्रा चलानेवाला गृह और मठादि से रहित द्रव्यादि का परित्यागी और गृहस्यों से अधिक परिषय न रखनेवाला माचार सम्बन्धी इन आचरणीय गुणो से युक्त व्यक्ति को ही ब्राह्मण कहा गया है। केवल सिर मुडा लेने से कोई व्यक्ति श्रमण नहीं बन सकता बब तक उसमें श्रमणोचित गुण विद्यमान न हो और न ही कोई पुरुष मात्र कार अर्थात ३ भभूव स्व इत्यादि गायत्री मात्र के उच्चारण कर लेने मात्र से ब्राह्मण हो सकता है। अपितु ब्राह्मणोचित गुणों का धारण करना आवश्यक है । इसी प्रकार केबल बन में निवास कर लेने मात्र से मुनि और बल्कल आदि के पहन लेने से कोई तपस्वी भी नही हो सकता। तात्पर्य यह है कि ये सब बाहरी आडम्बर तो केवल पहचान के लिए ही है। इनसे काय सिद्धि का कोई सम्बन्ध नही। कार्य सिद्धि का सम्बन्ध तो अन्तरग साधनो से ही है। राग देष मादि से अलग होकर जिसके आत्मा म समभाव की परिणति हो रही हो वह श्रमण है। इसी प्रकार मन वचन और शरीर से ब्रह्मचय को धारण करनेवाला ब्राह्मण कहा जाता है। ठीक इसी प्रकार ज्ञान से मुनि होता है अर्थात जो तत्त्व विद्या में निष्णात हो वह मुनि है। इसी भांति तप का आचरण करनेवाला वापस है। इच्छा के निरोष को तप कहते हैं अर्थात् जिसने इच्छाओं का निरोध कर दिया है वह तपस्वी है। इस प्रकार देखा जाता है कि गुणों से हो पुरुष श्रमण ब्राह्मण मुनि और तपस्यो हो सकता है न कि बाहर के केवल वेषमात्र से। इस प्रकार इन धर्मों के आराधन से यह जीव स्नातक हो जाता है और कर्मों के बन्धन से सवथा मक्त हो जाता है।
१ धम्मपद ४१८ उत्तराध्ययन २५।२६ । २ धम्मपद ४ १ उत्तराध्ययन २५।२७ । ३ पम्मपद ४४ उत्तराध्ययन २५।२८ । ४ धम्मपद २६४२६६२६८२७ ३९३ उत्तराध्ययन २५/३१ । ५ धम्मपद २६५ २६९ उत्तराध्ययन २५।३२ ।
जैनमत म स्नातक नाम केवली का है और बौर-मत में बुद्ध को स्नातक माना गया है। उत्तराध्ययनसूत्र आत्माराम टीका पृ ११३३ ।
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प्रतिपाति मनोविकालतुत १८१
बौवषम में पित्त का संयम जो कुशल या अकुशल धमों का सचय करता है उसे पित्त कहते हैं। चित्तको भगवान बुद्ध ने सबसे अधिक सूक्ष्म तत्व माना है। उनका कथन है कि मन सभी प्रवृत्तियो का अगुआ है मन उसका प्रधान है वे मन से ही उत्पन्न होती है । यदि कोई दूषित मन से वचन बोलता है या काम करता है तो दुःख उसका अनुसरण उसी प्रकार करता है जिस प्रकार कि चक्का-गाडी खीचनेवाले बैलो के पैर का । जिस प्रकार मन के ऊपर सयम रखना चाहिए उसी प्रकार सभी इन्द्रियों को वश में रखना चाहिए। जो स्वच्छ मन से भाषण एव आचरण करता है सुख उसका उसी प्रकार अनुगमन करता है जिस प्रकार कभी साथ न छोडनेवाली छाया। धम्मपद में कहा गया ह कि वर से वर कभी शात नही होते अतएव द्रोह व वैर का सवषा परित्याग करके मत्री की भावना मन म रखकर शत्रु से भी अवर व्यवहार करना चाहिए । मन क सब प्रकार के दोष या मल को धो डालना चाहिए । ध्यान भावना का निरन्तर अभ्यास करना चाहिए क्योकि उसके अभाव म मन में राग घुस जाता है । प्रमाद को त्यागकर राग देष और मोह को छोडकर अनासक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए । जन-शन में मन का सयम
डॉ सागरमल जैन का कथन है कि जन-दशन में मन मुक्ति के माग का प्रवेशवार है । वहाँ केवल समनस्क प्राणी ही इस मार्ग पर आगे बढ़ सकते है। अमनस्क प्रापियो को तो इस राजमाग पर चलने का अधिकार ही प्रास नहीं है। सम्यग्दष्टि केवल समनस्क प्राणियो को ही प्राप्त हो सकती है और वे ही अपनी साधना के द्वारा मोक्षमाग की ओर बढ़ने के अधिकारी हैं । सम्यग्दशन को प्राप्त करने के लिए तीवतम क्रोषादि आवेगो का मयमन आवश्यक है क्योकि मन के द्वारा ही बावेगों का संयमन सम्भव है। इसीलिए कहा गया ह कि सम्यग्दशन की प्राप्ति के लिए की जानवाली अन्य भेद की प्रक्रिया में यथाप्रवृत्तिकरण तब हाता है जब मन का योग होता है।'
१ मनो पुब्बङगमाषम्मा मनोसेटा मनोमया।
ततो न सुखमन्वेति छाया व अनपायिनी ॥
धम्मपद १ २ तथा जैन बोट तथा गीता के आचार-वशनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग १ पृ ४८१।। २ न हि वेरेन वेरानि सम्मन्तीष कुवाचन । धम्मपद ५। ३ जैन बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग १ पृ ४८२।
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१९६ बोद्ध तथा जनधर्म
रहती है। फिर व्यक्ति प्रमादवाले नीचे के गुणस्थानो में आ जाता है । प्रमाद पाँच प्रकार का बतलाया गया है। कही ८ व १५ का भी । प्रमाद के पाँच प्रकार हैं। मद्य विषय कषाय निद्रा और विकथा |
--
१ मा
२ विषय
आसक्ति भी आमचतना को कुण्ठित करती है इसलिए प्रमाद कही जाती है ।
पाँचो इर्श द्रयो के विषयों का सेवन ।
३ कवाय
क्रोध मान माया और लोभ य चार प्रमख और मदता के आधार पर १६ प्रकार की होती हैं कषायों के जनक हास्यादि प्रकार के मनोभाव उपकषाय है । कषाय और उपकषाय के भेद मिलकर २५ होते ह ।
मनोदशाए जो अपनी तीव्रता कषाय कही जाती है । इन
४ निवा
अधिक निद्रा लेना निद्रा समय का अनुपयोग है ।
५ विकur
जीवन के साध्य और उसके साधना माग पर विचार न करत हुए अनावश्यक चर्चा करना। विकथाए चार प्रकार की - ( १ ) राज्य सम्बन्धी ( २ ) भोजन सम्ब बी ( ३ ) स्त्रियो के रूप सौन्दय सम्बन्धी और ( ४ ) देश सम्बधी | इस तरह प्रमाद के अ तगत विषय और कषाय को समिलित कर लेन से कमब व का वह मख्य कारण बन जाता है । इसलिए प्रमाद से बच रहन और अप्रमत्त साधना करने का विधान किया गया है । अप्रमत्त अर्थात जागरूकता आत्मजागरण और प्रमाद अर्थात् आम विस्मृति बेभान और आलस्य की अवस्था | आमोनति के लिए सबसे पहले जागरूकता की आवश्यकता होती है। महावीर का जीवन अप्रमत्त था । वे सतत आत्म जागरण मे लीन रहते थे ।
उत्तराध्ययनसूत्र म समय मात्र भी प्रमाद न करन का जा महान् सन्देश भगवान् महावीर ने दिया है वह साधको के लिए पुन पुन स्मरणीय है। इस ग्रन्थ के दसव
१ उत्तराध्ययन नियक्ति १८ ।
२ जैन बौद्ध तथा गीता के आचार दशनो का तुलनात्मक अध्ययन भाग १
प ३६१ ।
वही ।
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प्रतिपादित मनोविज्ञान से तुलना २३
वह कवाय है । सम्पूर्ण
अथवा जिससे जीव पुन - पुन जन्म-मरण के चक्र में पडता है संसार वासना से उत्पन्न कषाय की अग्नि म जल रहा है। इसलिए शान्ति मार्ग के कर्णधार साधक के लिए कषाय का त्याग आवश्यक है । जैन ग्रन्थों में साधक को कषायो से सवथा दूर रहने के लिए कहा गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि साधु को अपना मन क्रोध मान माया और लोभ में कभी नही लगाना चाहिए क्योकि शब्दादि गुणस्पर्शो के यही कारण हैं। अगर इन चारो पर विजय प्राप्त कर ली जाय तो शब्दादि मोहगुणों का आत्मा पर कोई प्रभाव नही पडता । ये शब्दादि गुण तो उन आत्माओ के लिए कष्टप्रद या आवश्यक होत हैं जिनके लिए उक्त चारो कषाय उदय में आये हुए हों । अत इन चारो कषायो पर विजय प्राप्त कर लेन से मोह के गुणों पर सहज में ही विजय-लाभ हो सकता है और इन पर विजय प्राप्त करने का सहज उपाय यह है कि इनके प्रति किसी प्रकार का राग-द्वेषमूलक क्षोभ नही करना चाहिए । राग और द्वेष य दो ही मुख्य कषाय है । क्रोधादि चारो कषाय इन्ही दो के अन्तगत हैं एव माया और लोभ का राग में अन्तर्भाव है अत इनको जीत लेने से मोह के सभी गुण और क्रोधादि सभी कषाय सुतरा ही पराजित हो जाते हैं । इसलिए ग्रन्थ म कहा गया है कि इन कषायों के परित्याग से इस जीवात्मा को वीतरागता की प्राप्ति होती है अर्थात कषायमुक्त जीब राग द्वेष से रहित हो होने के कारण उसको सख और दुख म भद भाव की की प्राप्ति होने पर उनको हष नही होता और का अनुभव नही करता किन्तु सुख और दुख करता है | तात्पय यह है कि उसके आत्मा म समभाव से भावित हो जाना ही कषाय-त्याग का
जाता है । राग-द्वष से मुक्त प्रतीति नही होती अर्थात सख
द ख
वह किसी प्रकार के उद्वग दोनों का वह समान बुद्धि से आदर समभाव की परिणति होने लगती है ।
फल है ।
म
कषाय कम का चौथा कारण ह । प्राणीमात्र के प्रति समभाव का अभाव या राग द्वेष को कषाय कहा जाता है । इसी समभाव के अभाव एव राग-द्वेष से उत्पन्न होने के कारण क्रोध मान माया और लोभ को भी कषाय कहा जाना है ।
१ अभिधान राजेद्र कोश खण्ड ३ प ३९५ उद्धत जैन के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग १ पृ ४९९ । २ रक्खज्जकोह विणएज्ज माण माय न सेवे पयहेज्जलोह ।
३ कसायपच्चक्खाणण वीय रागभाव
जणयइ ।
बीयरागभावपडिने ति यण जीवे समुसुहदुक्खे भवइ ।।
बौद्ध तथा गीता
उत्तराध्ययन ४।१२ ।
वही २९।३७ ॥
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२४ बोर तथा अनयम
कषाय चार प्रकार के होते है -अनन्तानुबधी अप्रत्यास्थानावरण प्रत्याख्याना बरण एव सज्वलन । जिस कषाय के प्रभाव से जीव को अनन्त काल तक भव भ्रमण करना पडता है उसे अनन्तानुबन्धी कषाय कहा जाता है। जिस कषाय के उदय से देशविरतिरूप प्रत्याख्यान प्राप्त नहीं होता उसे अप्रयाख्यानावरण कषाय कहा जाता है । जिस कषाय के उदय से सर्वविरतिरूप प्रत्याश्यान प्राप्त नहीं होता उसे प्रत्याख्यानावरण कषाय कहा जाता है । जिस कषाय के उत्पन्न होन पर साधक अल्प समय के लिए मात्र अभिमत होता है उसे सज्वलन कषाय कहत है। चार प्रकार के कषायों म हर एक के चार विभाग होने से कुल १६ विभाग होते है। इसके अतिरिक्त उपकषाय या कषायपरक भी माने गये हैं जिनकी संख्या ७ या ९ह-हास्य रति भरति शोक भय जुगुप्सा ( घणा) और वद (स्त्री पुरुष और नपसकलिङग)। वेद को स्त्री विषयक मानसिक विकार पुरुष विषयक मानसिक विकार तथा उभय विषयक मानसिक विकार के भेद से तीन भद कर देन पर नोक्षाय के ९ भद हो जाते हैं।
उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार उक्त १६ कषाय और ९ नो-कषाय का सम्बन्ध सीधा व्यक्ति के चरित्र से ह । नतिक जीवन के लिए इन वास ओ एव आवगो से ऊपर उठना आवश्यक है क्योंकि जब तक 'यक्ति इनसे ऊपर नही उठगा तब तक वह नतिक प्रगति नही कर सकता। जन प्रथो म इन चार प्रमुख कषायो को चडाल चौकडी कहा गया है । इसम अन तानुबधी आदि जा विभाग ह उनको सदव ध्यान म रखना चाहिए और हमशा यह प्रयत्न करना चाहिए कि कषायो म तीव्रता न आय क्योकि अन तानुबधी क्रोध मान माया और लोभ के होन पर साधक अनन्त काल १ कमग्रथ १।३५ तथा जन बौद्ध तथा गीता के आचार-दर्शनो का तुलनात्मक
अध्ययन भाग १ प ५१ । जनधम दर्शन प ४६५ । २ सोलसविहभएण कम्म तु कसायज । सत्तविह नवविह वा कम्म च नोकसायज ।।
उत्तराध्ययन ३३१११ । ३ वही ३३।११ टोका आ माराम ने प १५३४ पर इसके विषय म निम्न
गाथा उदधृत की हैकषायसहवतित्वात् कषायप्ररणादपि ।
हास्या दिनवक स्योला नोकषायकषायत ॥ ४ जन बौद्ध तथा गीता के आचार दशनो का तुलनात्मक अध्ययन भाग १
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२१
ड तथा जनधर्म
फंसाये रखती है जिस प्रकार मकडी अपने ही जाल बुनती है और अपने ही उसीमें बंधी रहती है । वे लोग तष्णा से नाना प्रकार के विषयो मे राग उत्पन्न करते है और एन्ही राग के बन्धन म जो उनके ही द्वारा उत्पन्न किये हुए है अपने को बांधकर दिन रात बन्धन का कष्ट उठाते हैं। इसलिए ज्ञानी पुरुष उस बन्धन को जो नीचे की तरफ ले जानेवाला है और खोलने म कठिन है मजबत कहते है। ऐसे बन्धन को काट देने के बाद मनुष्य चिन्ताओ से मुक्त हो इच्छाओ और भोगो को पीछे छोड ससार को याग देत ह । ससार के प्राणी तीन प्रकार की तृष्णामओ में फसे हुए है१ कामतृष्णा
जो तृष्णा नाना प्रकार के विषयो की कामना करती है।।
२ भवतष्णा
भव-ससार या जन्म । इस ससार की स्थिति बनाय रखनवाली यही तष्णा है । इस ससार की स्थिति के कारण हमी है । हमारी तृष्णा ही इस ससार को उत्पन्न किए हुए ह । ससार के रहन पर ही हमारी सुखवासना चरिताथ होती है । अत इस ससार की तृष्णा भी तृष्णा का ही एक प्रकार है । ३ विभवतष्णा
विभव का अथ है उच्छद ससार का नाश । ससार के नाश की इच्छा उसी प्रकार दु ख उत्पन करती है जिस प्रकार उसके शाश्वत होने की अभिलाषा।
यही तष्णा जगत के समस्त विद्रोह तथा विरोध की जननी है। इसीके कारण राजा राजा से लडता है क्षत्रिय क्षत्रिय से ब्राह्मण ब्राह्मण से माता पुत्र से और लडका भी माता से आदि । समस्त पापकर्मों का निदान यही तण्णा है। चोर इसीलिए चोरी करता है कामुक इसीके लिए परस्त्री-गमन करता है पनी इसीके लिए गरीबों को चसता है। यह ससार तृष्णामलक ह । तृष्णा ही दुख का कारण है । तृष्णा का समुच्छेद करना प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य है। भगवान बुद्ध कहते हैं कि तृष्णा के नष्ट हो जाने पर सभी बन्धन अपने-आप नष्ट हो जाते हैं। तृष्णा दुष्पूर्ण है। वे कहते है १ ये रागरन्तानुपतित्ति सोत सय कस मक्कट कोणाल । एतम्पि छेत्वान वजन्ति धीरा अनपेक्खिनो सब्ब दुक्ख पहाय ॥
पम्मपद ३४७ । २ वही ३४६ तथा जन बौद्ध तथा गीता के आचार-दर्शनो का तुलनात्मक
अध्ययन भाग २ पृ २३६ । ३ दीघनिकाय द्वितीय भाग पृ २३ -३३ ।
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प्रतिपादित मनोविज्ञान से तुलना : ११७
विषय है । सुगन्ध राग का कारण है। रस को रसनेन्द्रिय ग्रहण करती है और रस रसनेन्द्रिय का ग्राह्य विषय है । मनपसन्द रस राम का कारण और मन के प्रति फलस्स देष का कारण है। स्पशको शरीर ग्रहण करता है और स्पश स्पशनेन्द्रिय का ग्राह्य विषय है । सुखद स्पश राग का तथा दुखद स्पर्श देष का कारण है ।'
इस प्रकार उपयुक्त तथ्यों को देखने से पता चलता है कि स्पर्शनेन्द्रिय के वशी भूत होकर हाथी रसनेन्द्रिय के वशीभूत होकर मछली घ्राणन्द्रिय के वशीभूत होकर भ्रमर चन-इन्द्रिय के वशीभत होकर पतगा और श्रोत्रेन्दिय के वशीभत होकर हिरण मृत्यु का ग्रास बनता है। जब एक इन्द्रिय के विषयों में आसक्ति मृत्यु का कारण बनती है तो फिर पांचों इन्द्रियों के विषयों के सेवन में आसक्त मनुष्य की क्या गति होगी? वास्तव में इन्द्रिय-दमन का अर्थ विषयो से मंह मोडना नही बल्कि विषयों के मूल में सन्नड रागात्मक भावनाओ को समाप्त करना ह । इस सम्बध में मनोवैज्ञानिक दष्टिकोण से वर्णन दोनो ग्रन्थों में किया गया है।
१ उत्तराध्ययन ३२१४९ तथा ३२०५ ५३ ५४ ५८ । २ वही ३२१६२ तथा ३२।६३७१७२। ३ वही ३२१७२ तपा ३२१७६८ ८७९४ ॥ ४ जैन बोर तथा गीता के प्राचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग १
पृ ४७२।
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अध्याय ६
धम्मपद मे प्रतिपादित सामाजिक एव सास्कृतिक सामग्री तथा उसका उत्तराध्ययन मे प्रतिपादित सामाजिक एव सास्कृतिक सामग्री से समानता और विभिन्नता
धम्मपद में प्रतिपादित सामाजिक एवं सांस्कृतिक सामग्री
धम्मपद म यद्यपि वर्णव्यवस्था का सद्धान्तिक पक्ष प्रस्तुत नहीं किया गया है। तथापि उसकी गाथाओ से स्पष्ट है कि तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था चार वर्णों और उससे सम्बद्ध अनफानक जातियो के रूप में ही थी । ब्राह्मण के लक्षणो की विवचना के लिए ब्राह्मणवग का एक अध्याय ही धम्मपद म मिलता है । हिदू धर्मशास्त्रो के अनुसार ब्राह्मणो के काय थे- अध्ययन-अध्यापन यजन याजन दान और प्रतिग्रह feng इन्हें मलत एक आदर्श के रूप म ही मानना चाहिए। समचे ब्राह्मणवग की एक थोडी-सी सख्या ही इस आदर्श तक पहुच पाती थी और अनेक ब्राह्मण कृषि राजकाय आदि म लग थ । धम्मपद में हम पूरा एक अध्याय ही ब्राह्मण बनानवाले गुणो के वर्णन के रूप म देखत है । बुद्ध को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होन जमना जाति के सिद्धान्त पर कठोर आघात किया तथा चरित्र कम और गुण को महत्व प्रदान करते हुए ही किसी यक्ति की श्रष्ठता स्वीकार करने का उपदेश दिया । बुद्ध न उसीको सच्चा ब्राह्मण माना जो तप ब्रह्मचय सयम और इन्द्रिय दमन जैसे गुणो से युक्त हो । क्षत्रिय और वश्य शब्द का धम्मपद में दृष्टिगोचर नही होता । घमसूत्रो म जैसे वैश्य और शूद्रो के ब्राह्मण और भाँति अलग अलग वर्णों के रूप म उल्लेख मिलत हैं उस रूप में शूद्रो का धम्मपद में कोई उल्लेख नही है । किन्तु साधारणतया धम्मपद म एसी अनेक हीन जातियो का
सीधे उल्लेख
क्षत्रियों की
१ अगुत्तरनिकाय पचकनिपात वितीय पण्णासक प्रथभवग सातवां सूत्र ।
२ षम्मपद छब्बीसवा ब्राह्मणवग्ग तुलनीय - सुसनिपात वासेटठसुत प १६५-१७१ 1
३ उदक हि नयन्ति नेत्तिका उसुकारा नमयन्ति तेजन ।
दारु नमयन्ति तच्छका अस्तान दमयन्ति पण्डिता ॥
धम्मपद गाथा - सख्या ८ ।
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समानता मारा : ११
उल्लेख है जिन्हें कम्पकर अथवा बकस कहा गया है और जिन्हें शून-वर्ण का ही समझा जाता है। वस्तुत विभिन्न शिल्पगत कार्यों को करनेवाले भनेक लोग शूद्र के हो अन्तर्गत ग्रहण किये गये थे। हबीड कुल्हाणी तक्षणी आदि बनानेवाले लोहार और बढ़ई इसी वग के सदस्य थे। ऐसे ही तकनीकी काय करनेवालों का भिन्न-भिन्न समूह था जो अपने पारम्परिक पेशे को अपनाते थे। ऐसी अनेक शूद्र जातियां थी जो अपने पेशे के कारण विख्यात थी । बुनकर बढ़ई (उच्चक) लोहार ( कम्मार) दन्तकार कुम्मकार (कुम्हार ) आदि विभिन्न शूद्र-वर्ग थे।
वर्णव्यवस्था के समान ही बुद्धकालीन भारतीय समाज में पासप्रपा भी प्रचलित थी। बुद्ध ने भी दास मोक्ष पर जोर दिया और दास-दासी प्रतिग्रहण को अनुचित बतलाया । बौखसघ में सम्मिलित हो जाम पर दास-दासी मुक्त हो जाते थे। किन्तु इसके अतिरिक्त दास-दासियो को अपन घरो में नौकरों और सेवकों की तरह रखनेवाले धनी लोगो के मन पर भी बख के उपदेशों का प्रभाव अवश्य पडा होगा। अनेक दास-दासी संघ के सदस्य होकर और बुद्ध तथा बौद्ध भिक्षयों की सेवा करके दासभाव से मुक्त हो जान का प्रयत्न करते थे और कभी-कभी बुद्ध के उपदेशों को सुनकर अपन दुगणों से मुक्त हो जाते थे। वत्सराज उदयन की रानी सामावती की खज्जुबरा नामक दासी रानी के लिए फल खरीदते समय कुछ सिक्के चरा लिया करती थो किन्तु बुद्ध का उपदेश सुनकर उसन चोरी करना छोड दिया और अपनी स्वामिनी को भी बुद्ध के उपदेश सुनने के लिए उत्साहित किया। रानी भी उससे प्रसन्न होकर उसे अपनी शिक्षिका और माता समान मानने लगी। विवरणी नामक एक दूसरी दासी अपनी स्वामिनी की आज्ञा से भिक्षु सघ को रोज भोजन देने के कारण स्वर्ग में उत्पन्न हुई।
घम्मपद म पारिवारिक जीवन का क्रमबद्ध विवरण तो दृष्टिगोचर नहीं होता है फिर भी उस समय समाज वर्णाश्रम के अतिरिक्त अनेक परिवारो म विभक्त था। इस बात की जानकारी परोक्ष रूप से अवश्य दिखायी पडती है। ये परिवार छोटे-बडे सभी प्रकार के होते थे। सामान्य रूप से एक परिवार म माता पिता भाई-बन्धु रहा करते थे। नारी अपने कई रूपों म हमारे सामने आती है । जैसे-माता पनी बहन
. देखिए चाननारी भार स्लेवरी इन एश्येण्ट इण्डिया ४५। २ धम्मपद अटठकथा बुद्धघोष सम्पादित एच सी नामन और एल एस.
तैलग जिल्द १ पृ २२। ३ महावस सम्पादित डब्ल्य गायगर १ २१४।। ४ माता पिता कपिरा बन्नेवापि च नातका । धम्मपद गाथा-सख्या ४३ ।
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२२ बोरा
नपर्न
बा पुत्री पुत्रवधू वेश्या भिक्षणी उपासिका आदि । भिक्षुणी तथा उपासिका का उल्लेख पम्मपद में प्रत्यक्ष रूप से कहीं भी टिगोचर नही होता है। माताओं के लिए भगवान बुद्ध ने कहा है कि ससार में माता पिता की सेवा करना परम सुखदायक है।
एक निवृत्तिपरक धर्म होने के कारण क्या शान साधना और निर्बाण के मूल प्रश्नों तक ही प्राय सीमित होने के कारण बौद्धषम के अन्यों म तत्कालीन समाज में प्रचलित सस्कारों अथवा वैसी अन्य अनेक संस्थाओं के कहीं भी विस्तृत विवरण नही प्रास होते है यद्यपि बुद्ध जन्म मरण अथवा विवाह से सम्बन्धित अनेक सस्कारों अथवा प्रथाओं की व्यथता को मोर कुछ अस्पष्ट निर्देश अवश्य करते है। ऐसी स्थिति में धम्मपद के आधार पर समाज में प्रचलित संस्कारो धादि का कोई ब्योरवार विवरण नही प्रस्तुत किया जा सकता। धम्मपद म कुछ स्थल ऐसे अवश्य प्राप्त होते हैं जिनसे मृयु के उपरान्त शव क्रिया किस प्रकार की जाती थी इसकी थोडी-बहुत जानकारी उपलब्ध होती है । ग्रन्थ में कायानुपश्यना का उपदेश करते हुए भगवान बुद्ध ने भिक्षओं को श्मशान में पड हुए मृतक शरीरों को देखकर अपने शरीर की वास्तविक स्थिति का ज्ञान प्रास करने का उपाय बतलाया है। भिक्षुओ को वे उपदेश देते हुए कहते हैं कि वे अर्थात् भिक्षु श्मशान म जाफर एक दिन वो दिन अथवा तीन दिन के भूतको को देख जो फले हुए नीले पडे हुए पोब भरे हुए कौमों गिडो चोलो कुत्तो और अनेक प्रकार के बीवों द्वारा खाय जाते हुए कुछ मांससहित और कुछ मासरहित हड्डी कंकाल. वाले हैं। इस प्रकार मरे हुए शरीर को श्मशान मे फको हुई अपथ्य लौकी की भांति कुम्हलाए हुए मृत शरीर को देखकर भिक्षु को अपने शरीर की नश्वरता के सम्बन्ध में विचार करना चाहिए। १ सुखामेत्तेय्यता लोके अथोपेत्तेयता सुखा ।।
धम्मपद गाया-सख्या ३३२ । २ पस्स चित्तकट बिम्ब असकाय समुस्सित । मातुर बहुसकप्प यस्स नत्यि व ठिति ॥
था-सख्या १४७ । यानि मानि अपत्यानि बलाबनेव सारदे । कापोतकानि बहीनि तानि विस्वान का रति ॥ वही गाथा-सस्या १४९ । अटठीन नगर कत मस लोहित लेपन । यत्यारा मच्च व मानो मक्खो व ओहितो ।। वही गाथा-सख्या १५ । तुलनीय दीघनिकाय हिन्दी अनुवाद पृ १९ -१९२ सुत्तनिपात ११८ ९ १ ११।
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समानता र विमिता:२२१
बौद्ध-साहित्य में साब-सामग्री या भोजन को पाबनीय या भोजमीय कहा गया है। भोज्य पदार्थों में पूष और दूष से बने अनेक द्रवों का प्रयोग होता था। दूध दही मट्ठा मनसन और पी इनमें प्रमुख थे। दूध में चावल डालकर खीर बनाना बहुत प्रचलित था। धम्मपद में दूध से वही जमाने का उल्लेख प्रास होता है। उस समय दाल का प्रयोग किया जाता था मगर वह दाल किस चीज की है इस बात का स्पष्ट उलेख नही है। भोजन और पेय को मीठा करनेवाले तत्वों में ईख का रस अथवा उस रस से बनाये हुए शक्कर या गुड का उल्लेख भी मिलता है। बुद्ध ने अपने अनुयायी मिथुनो को गुड ग्रहण करने की बाज्ञा दी थी।
धम्मपद मटठकथा से तत्कालीन समाज में प्रचलित मादक पेयों की भी जान कारी प्रास होतो है । इनका उपयोग प्राय' भोजों त्योहारों और मेलों के अवसर पर किया जाता था जब मित्र और परिचित आमन्त्रित होते थे। अट्ठकथा के अनुसार वत्सराज उदयन को पकड लेने के बाद अवन्तिराज बण्ड प्रद्योत तीन दिनों तक लगातार मद्यपान करता रहा किन्तु साधारणतया मद्यपान में दोष माना जाता था। शराबों की दुकानदारी करना अनुचित माना गया है। भगवान बुद्ध ने भिक्षाओं को शराब पीन से मना किया था। किन्तु बीमारी के समय सुरा का उपयोग वजित नहीं था।
बौद्धषम वेश-धारण मात्र से ज्ञान की प्राप्ति नहीं मानता। वेश धारण की साथकता इसीम है कि चित्तमलो का परित्याग हो जाय। जटा गोत्र और जन्म से १ देखिए उपासक सी एस डिक्शनरी ऑफ अली बुद्धिस्टिक मोनास्टिक
टर्स प ७६ १७६ । २ सुत्तनिपात १।२।१८। ३ सज्जु खीरव मुच्चति । धम्मपद गाथा-संख्या ७१ । ४ वही गाथा-सख्या ६४ ६५ । ५ धम्मपद भटठकथा बुद्धघोष सम्पादित एष सी नामन और एल एस.
तैलंग भाग ४ ५ १९९। ६ फूड ऐण्ड ड्रिंक्स इन ऐंश्येष्ट इण्डिया ओमप्रकाश १ ६ -७१। ७ पम्मपद बटठकथा बुखपोष सम्पादित एच सी नार्मन और एल एस.
तैलग भाग १ ५ १९३ । ८ सुरामेरयपानन्ध यो नरो अनुयुम्नति ।
इवमेसो लोकस्मि मूल खनति अन्तनो ॥ धम्मपद गाया-संस्था २४७ । ९ वही गाथा-सख्या ९१ ।
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२२२पर नपर्म
कोई ब्राह्मण नहीं होता ब्राह्मण वही है जिसम सत्य और षम है। जिसम ये गुण है वही पवित्र है। यदि चित्तराग द्वेष और मोह के मल से अपवित्र है सो जटायें और भृगछाल क्या करेंगे? ऊपरी रूपरग मनुष्यो की पहचान नही ह । दुष्ट लोग तो बडे सयम की भडक दिखाकर विचरण किया करते हैं वे नकली मिट्टी के बन भडकदार कुण्डल के समान अथवा लोहे के बन सोन का पानी चढ़ाये हुए के समान वेश बनाकर विचरण करते हैं और भीतर से मले तथा बाहर से चमकदार होते हैं।
धम्मपद से अलकारो के विषय में कोई विशेष सूचना नही प्राप्त होती । हम केवल इतना ही अनुमान कर सकते हैं कि सम्भवत' उस समय समृद्ध-बग की स्त्रियों विशेषकर गणिकायो म स्वनिर्मित आभषणों का ज्यादा प्रचलन था। धम्मपद से मणिकुण्डल का उल्लेख प्राप्त होता है जो बड ही कलात्मक ढग से बने होत थ ।
धम्मपद से तत्कालीन समाज म प्रचलित कुछ महत्त्वपूर्ण प्रसाधनो की भी जानकारी प्राप्त होती है। पुरुष और नारी दोनो ही विभिन्न प्रकार के प्रसाधनो का उपयोग करते थे यद्यपि प्रमखत यह नारी के जीवन का ही अग माना जाता था। प्रसाधन म फलों और उनसे बनी मालाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान था जो स्त्रियों द्वारा केश विन्यास में प्रयुक्त होती थी। केशो को स्निग्य करने के लिए तेलों का प्रचलन था जो सम्भवत फलो से ही निर्मित होत थ । फलो से अक प्रकार के इत्र भी निकाले जाते थे। धम्मपद म माला बनानवाले कुशल व्यक्तियों की चर्चा है । स्वय कोसल राज प्रमेनजित की रानी मलिका एक मालाकार की पुत्री थी। चन्दन तगर कमल और जही आदि सुधित चीजो का वणन धम्मपद म प्राप्त होता है । पेडो के
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१ धम्मपद गाथा सख्या ३९३ । २ वही माथा-सख्या ३९४ । ३ प्राचीन भारतीय वेश-भषा मोतीचन्द्र पृ ४५ । ४ धम्मपद गाथा-सख्या ३४५ तुलनीय मेरी गाथा क्रमश १३१४।३२९ १३॥
१२२५९ १३।१।२६४ १३३११२६८ १३॥४॥३२९ तथा गाथा-सख्या ११६८। ५ पुप्फशसिम्हा कयिरा मालागुणे बहू ।
धम्मपद गाथा-सख्या ५३ । ६ चन्दन तगर वापि उप्पल अथ वस्सिकी।
वही गापा-सख्या ५५ तथा देखिए गाथा-सख्या ४४ ४५ ५४ ५६ ।।
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समानता और विनिमता: २२३
भल फलों फलों और पत्तों के रस को निकालकर उनकी गन्ध से शरीर को सुगन्धित किया जाता था।
लकडी का काम करनेवाले बढई कहलाते थे। इनका काय भवन निर्माण और कलात्मक वस्तुए बनाने से लेकर कृषि वस्त्र उद्योग से सम्बन्धित औजार खिलोना आदि का निर्माण सभी कुछ था । इसके अतिरिक्त वे रथ बलगाडी आदि के अग-प्रत्यग का निर्माण करते थे। लकडी का काय करनेवालो को धम्मपद में तच्छक या तच्छका कहा गया ह । श्रीमती टी डब्ल्यू रोज डेविडस के मत में ये रथकार अथवा यानकार ऐसी आदिवासी जातियां थीं जो वशानुगत रूप में रथ निर्माण या लकडी का काम किया करती थी । कृषि कार्यों में प्रयुक्त होनेवाले सभी औजार लोहे से ही बनते थे जिन्हें बनानेवालो को लोहार या कुम्भकार कहते थे। बाण बनानवाले लोगो को चापकार या उसुकार कहा जाता था। ये विभिन्न क्रियामों को सम्पन्न करने के बाद बाण बनाते थे। मालाकार फलों की माला आदि बनाते थे और उनकी कला भी शिल्प रूप में उल्लिखित है।
पातु उद्योग में अनकानेक लोग लगे हुए थ जिन्ह लोहार स्वणकार और कसेरा कहा जाता था। इन सबमें प्रमख लोहार होते थे जो लोहे से सम्बन्धित कार्य करत थ । लोहा और उसके तकनीकी ज्ञान तथा उसे पिघलाकर उससे विविध
औजारो के बनाने की एक विकसित प्रणाली का आभास मिलता है। लोहे को साफ कर उसे कडा और मजबत बनाकर उससे विविष औजारो के बनाने की एक विकसित प्रणाली का आभास मिलता है। लोहे को साफ कर उसे कडा और मजबत बनाकर उससे विविध औजारो का निर्माण किया जाता था। इन औजारो में युद्ध में प्रयुक्त होनेवाले हथियार और सनिको के पहनने के कवच भी बनते थे। लोहे के बाण भी बनाये जाते थे। बाण बनानेवालो को इषुकार या उसुकार कहा जाता था। ये इषुकार १ प्राचीन पालि-साहित्य से ज्ञात सस्कृति का एक अध्ययन विवेदी कृष्ण
कान्त २२ अप्रकाशित शोषप्रवन्ध । २ दारु नमयन्ति तच्चका ।
पम्मपद गाथा-सख्या १४५ । ३ ६ गयलान्स ऑफ दि बुद्ध जिल्द १ पृ १ । ४ उसुकारा मयन्ति सेनन । पम्मपद गाथा-सल्या १४५ । ५ बढकालीन भारतीय भूगोल उपाध्याय भरतसिंह पृ ५३ । ६ सुत्तनिपात कासिमारताणसुत्त १४ कैम्बिन हिस्ट्री ऑफ इण्डिया रैप्सन
ई जे पृ १८३ प्री-बुद्धिस्ट इण्डिया मेहता एन रतिवाल १ २४५ ।
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२२४ । बौद्ध तथा अनधर्म
बडी दक्षता से बाण बनाते थे । धम्मपद' म की प्रशंसा की गयी है । इस ग्रन्थ म जग प्राप्त होता है ।
उसुकार द्वारा बिल्कुल सीधा तीर बनाने लगकर लोहे के नष्ट होने का उल्लेख भी
सुवण सुवण्ण चाँदी = रुपिय मणि = मणि विल्लोर = बेलर फलिक स्फटिक आदि धातुए एव रत्न मूल्यवान समझ जाते थे । इनका प्रयोग अलकार और बहुमूल्य पात्रों के निर्माण में होता था । दक्ष सुवर्णकार और उसका अन्तवासी शुद्ध मोर मच्छी तरह से साफ किये गये सोने से ही किसी वस्तु का निर्माण कर अपनी योग्यता प्रदर्शित करते थे । धम्मपद की एक उपमा से ज्ञात होता है कि कम्मार = सुवर्णकार बारी बारी से चांदी के मल को साफ करता है । यह सफाई सम्भवत किसी अम्ल की सहायता से होती थी । वस्तु विनिमय के साथ साथ उस समय सिक्कों का लेन-देन भी चलता था । उस समय के प्रमुख सिक्के कार्षापण ( रुपैया ) या कहापण का उल्लेख धम्मपद में प्राप्त होता है। किन्तु उसका मूल्यमान क्या था यह निश्चित नही हो पाता । धम्मपद का जो उद्धरण ऊपर दिया जा चुका है उसको अट्ठकथा के एक कहापण बीस मासे का होता था । किन्तु बुद्धघोष की यह टीका बुद्ध के लगभग एक हजार वर्षों बाद गुप्तकाल में लिखी गयी थी । बुद्धघोष का यह कि कहापण चांदी का सिक्का होता था ।
अनुसार
समय से
कथन है
बौद्धम में गुरुकुलों के समान ही गुरु शिष्य परम्परा के निर्वाह की पूण चेष्टा की गयी है । भगवान् बुद्ध ने भिक्षुओ को उपदेश दिया कि वे अपने गुरुओं तथा गुरुतुल्य
१ उज करोति मेघावी उसुकारो व तेजन ।
धम्मपद गाथा सख्या ३३ ।
२ अयसा व मल समुष्ठित तदुठाय तमेव खादति ।
वही गाया-सख्या २४ ।
३ अनुपुब्बेन मेघावी थाक थोक खणे खण । कम्मारो रजतस्सेव नियमे मल मसनो |
वही गाया-सख्या २३९ ।
४ वही गाथा - सख्या १८६ ।
५ धम्मपद अटठकथा बुद्धघोष सम्पादित एच सी नामन और एल एस तैलग जिल्द २ पृ २७ ।
६ वही पू २७ साथ में देखिए बुद्धकालीन भारतीय भगोल उपाध्याय भरतसिंह ५५१ |
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१५
समानता और विभिता २२५
व्यक्तियों के प्रति व्यवहार में समुचित बादर अनुराग एव सस्कार दिखलायें । उपासकों को भी उपदेश दिये गये कि वे अपने माता-पिता अग्रज तथा गुरु का सम्मान करें । इस प्रकार का वन्दन मन वचन और काया का वह प्रशस्त व्यापार है जिससे पथ प्रदर्शक गुरु एव विशिष्ट साधनारत साधकों के प्रति श्रद्धा और बादर प्रकट किया जाता है । इसमें उन व्यक्तियो को प्रणाम किया जाता है जो साधना पथ पर अपेक्षाकृत आगे बढ़े हुए हैं । वन्दन के सम्बन्ध में बुद्ध वचन है कि पुण्य की अभिलाषा करता हुआ व्यक्ति वषभर जो कुछ यज्ञ वह बनलोक में करता है उसका फल पुण्यात्माओं के अभिवादन के फल का चौथा भाग भी नही होता । अत सरलवृत्ति महात्माओं को अभिवादन करना ही अधिक श्रेयस्कर है । सदा वृद्धों की सेवा करनवाले और अभिवादनशील पुरुष की चार वस्तुए वृद्धि को प्राप्त होती है-आयु सौन्दर्य सुख तथा बल । erate का यह श्लोक किचित् परिवर्तन के साथ मनुस्मृति में भी पाया जाता है । उसमे कहा गया है कि अभिवादनशील और वृद्धो की सेवा करनेवाले व्यक्ति की आयु विद्या कीर्ति और बल ये चारों बातें सदैव बढ़ती रहती हैं ।
बुद्धकालीन समाज म पशु भी सम्पत्ति के रूप में माने जाते थे । उनमें कुछ पशु यथा - हाथी घोड युद्ध में भी उपयोगी थे । धम्मपद म हाथियों में महानाग तथा धनपालक नामक हाथी का उल्लेख मिलता है । जब कभी मदोन्मत्त हाथी बन्धन तोडकर भाग जाता था तो महावत उसे अकुश के द्वारा वश में किया करता था । हाथी और घोड पशुओ में श्रेष्ठ माने जात थ । इसके अतिरिक्त खच्चर और सूअर का उल्लेख भी धम्मपद म मिलता है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि सूअर शिकार के काम आते थे ।
१ य किन्चियिटठ चहुत च लोके सवच्छर यजेय पुन्नपेक्खो । सब्बम्पित न चतुभागमेति अभिवादना उज्जुगतेसु सेय्यो ||
धम्मपद गाथा- सख्या १ ८ ।
२ अभिवादनसीलिस्स निच्च
बचावचायिनो ।
चारो धम्मा बढढन्ति आयु वष्णो सुख बलं ॥
३ मनुस्मृति २।१२१ |
४ धम्मपद माया- सख्या ३२५ ।
वही गाथा - सख्या १९ ।
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२० मानव
समाज में देवी-देवताओं की पूजा प्रचलित थी। पालि-निकाय से भाव होता है कि देवराज इन्द्र सर्वाधिक लोकप्रिय देवता थे। इनकी पूजा करनेवालों को सख्या समाज में सबसे अधिक थी और ब्राह्मणधर्मावलम्बियों के समान बोर भी इनको देवराज ही मानते थे। वे इनका उल्लेख विभिन्न नामों से करते है जैसे शक वासव मषमा मादि । मषवा शब्द का उलेख धम्मपद म भी प्राप्त होता है लेकिन उनके काय और निवास स्थान का वणन उपलब्ध नहीं है । धम्मपद से यह भी ज्ञात होता है कि तत्कालीन समाज में वृक्ष देवता बनदेवी चैत्य पवत कप यम गन्धव नाग आदि की पूजा होती थी। वृक्षों को देवता अप्सरा नाग प्रेतात्मा आदि का निवास स्थान मानकर लोग सन्तान यश धन इत्यादि की अपनी अभिलाषाओ की पूति के लिए वृक्षोपासना करते थे। कतिपय लोग वृक्षवासी प्रेतास्माओं तथा नागो के भय निवारणाय वृक्ष-पूजा करते थे। वस्तुत वृक्ष-पूजन नही होता था पूजा तो की जाती थी पूजित वृक्ष में निवास करनवाले देवता अथवा प्रतात्मा की। भारतीय ग्रामीण जनता म आज भी यह विश्वास प्रबल ह। इसी आधार पर कई वक्षो को देव-स्वरूप माना जाता है जसे - पिप्पल । जब इसको दार्शनिक आधार प्रदान किया गया तो समस्त प्रकृति परमेश्वर की अभिव्यक्ति मानी गयी पर जनता के विश्वास का आधार तो अपने मूलरूप म ही बना रहा।
धम्मपद में सावजनिक काय-सम्बधी उलेख तो नही है लेकिन इस अन्य पर लिखी गयी टीकाओं से ज्ञात होता है कि जनता सावजनिक काय म अग्रसर रहती थी और बाग लगाना उपवन का निर्माण पुल बषवाना प्याऊ बठाना कप खोदवाना और पथिकों के विश्राम के लिए धर्मशाला बनवाना उत्तम सावजनिक काय माने जाते थे। इसी प्रकार माग को साफ करना गांवो की सफाई करना तथा सबके उपयोग के योग्य स्थलों को शुद्ध रखना महत्वपूण सार्वजनिक कार्य माने जाते थे।
१ अप्पमादेन मघवा देवान सेटठत गतो। पम्मपद माथा-सख्या ३ । २ बहु वे सरण यन्ति पम्बतानि वनानि च ।
आरामरुक्खचेत्यानि मनुस्सा भय तज्जिता॥ नत खो सरणं खेम नेतं सरणमुत्तम । नेत सरण मागम्म सब्ब दुक्खा पमुच्चति ।।
वही गाथा-सख्या १८८ १८९। ३ उत्तर प्रदेश में बौद्धधम का विकाम डों नलिनामदत्त तथा श्रीकृष्णदत्त
बाजपेयी पृ १६ । ४ धम्मपदकथा मघमाणवक की कथा भिक्षु अमरक्षित (अप्रकाशित )।
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समानता मीर विभिन्नता : २२७
स्वर्ग-नरक का उल्लेल भी धम्मपद में देखने को मिलता है । भगवान् बुद्ध के अनुसार पाप-कम करनेवाले नरक में तथा सन्मार्ग पर चलनेवाले स्वर्ग को जाते है ।" दुहकम करनेवाला इस लोक तथा परलोक दोनों में दुखी होता है । अपने कर्मों की बुराई देखकर वह शोक करता है और नष्ट हो जाता है। लेकिन पुष्य-कर्म करनेवाला इस लोक तथा परलोक दोनों में प्रसन्न रहता है तथा अपने कर्मों की पवित्रता को देखकर वह सुखी रहता है ।
इस काल में शिल्पियों की अवस्था चलत थे । समाज की आर्थिक स्थिति भी पर था । कुटीरबन्धो में लगे हुए लोग भी अथवा नगर वणिक-पयों और जल-मार्गों के Treat मथुरा कौशाम्बी वैशाली आदि ऐसे ही नगर थे । सबको अपन स्थिति के अनुसार भी एक मापदण्ड था महाशाल श्रेष्ठि महाश्रेष्ठि अनुश्रेष्ठ और थे । राजा इनका बडा सम्मान करते थे
करत थ ।
अच्छी थी । उद्योग-धन्धे सुचारु रूप से अच्छी थी । वस्त्र उद्योग पर्याप्त उन्नति सुखी एव प्रसन्न थे । व्यावसायिक केन्द्र किनारे अवस्थित थे वाराणसी साकेत राजगृह चम्पा तक्षशिला कान्यकुब्ज कुसीनारा व्यवसाय की स्वतन्त्रता थी। समाज म आर्थिक जिसके अनुसार क्षत्रिय महाशाल ब्राह्मण उत्तर श्रेष्ठि-पदों से धनवान लोग विभषित और अनेक कार्यों में इनसे परामर्श लिया
इस प्रकार उपरोक्त विवेचन के आधार पर धम्मपद से सामाजिक रचना का जो चित्र प्राप्त होता है उसम वैदिक हिन्दू वणव्यवस्था के सैद्धान्तिक समथन नही है किन्तु व्यवहार में प्रचलित समाज के चार वर्णों भीतर की अनकानेक जातियों को स्वीकृति दी गयी है । वण भी किन्तु उनमें धीरे-धीर जन्मजात श्रेष्ठता एवं हीनता की जिसका कि पीछे तथागत को विशेष करना पड़ा और ही नीच ऊँच होता है जन्म से नहीं। एक अलग वर्ण के कोई उल्लेख तो नहीं है किन्तु अनेक पेशेवर और हीन जातियों के रूप में इनका उल्लेख मिलता है जिन्हें कम्मकर अथवा तच्छक कहा गया है । चाण्डाल पुक्कुस मोर निषाद जैसी अन्य हीन जातियां भी थी। इसके अतिरिक्त कुटुम्ब परिवार विवाह खान-पान
रूप में धम्मपद में शूद्रो का
पक्ष का तो कोई
और उन वर्णों के
कमप्रधान ही थे
भावना पर करती जा रही थी कहना पड़ा कि व्यक्ति कम से
१ धम्मपद गाथा सख्या १२६ ।
२ वही १५ ।
३ वही १६ ।
४ बुद्धिस्ट इण्डिया टी डब्ल्य रीज डेविडस पू ५७ ।
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२२८ बौद्ध तथा जैनधर्म
वस्त्राभूषण और सामान्य प्रयोग की वस्तुओं और समाज में स्थापित बिभिन्न साधनों का भी विचरण प्राप्त होता है । धम्मपद में ब्राह्मणो की यज्ञ परम्परा के सम्बन्ध में भी सूचनाए मिलती है। साथ हो सामान्य लोगो के धार्मिक आचार विचार देवी देवताओं आदि की भी चर्चाए हैं ।
उत्तराध्ययन में प्रतिपादित सामाजिक एवं सांस्कृतिक सामग्री
धम्मपद की भाँति उत्तराध्ययन भी विशद्ध धार्मिक ग्रन्थ है पर कलेवर में किचित बडा होने और यत्र-तत्र विवरणात्मक तथा सवाद आख्यानादि सामग्री की उपस्थिति के कारण यह सांस्कृतिक सामग्री की दृष्टि से धम्मपद की तुलना म अपेक्षाकृत अधिक समृद्ध प्रतीत होता है । नीचे इस ग्रन्थ में तत्कालीन वर्णाश्रम व्यवस्था पारि वारिक जीवन व्यापार शासन व्यवस्था आदि विषयों पर प्राप्त सामग्री का विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है । उत्तराध्ययनसूत्र के सामाजिक एव सास्कृतिक सामग्री के कुछ उल्लेख जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज नामक पुस्तक में डा जगदीश चन्द्र जैन ने किया है । यद्यपि उसमें उत्तराध्ययनसूत्र के सन्दर्भों का भी उलेख हुआ हकिन्तु वह एक व्यापक दृष्टि से लिखा गया ग्रन्थ है। उत्तराध्ययनसूत्र एक परि शीलन नामक ग्रन्थ म डॉ सुदशनलाल जैन ने उत्तराध्ययन में उपलब्ध सामाजिक एव सास्कृतिक सामग्री की विस्तार से चर्चा की है। उनका यह विवेचन सुव्यवस्थित एव व्यापक । उत्तरा ययन की प्रस्तुत सामाजिक एव सास्कृतिक चर्चा में हम उन्हीके इस विवेचन को आधारभत मानकर चर्चा कर रह है । अन्यत्र से भी जो सामग्री उपलब हुई है उसका भी हमने उपयोग किया ह ।
यद्यपि अनक सन्दर्भों म हमें
वर्णाश्रम व्यवस्था
वर्णव्यवस्था प्राचीन भारतीय समाज का मरुदण्ड था । उत्तराध्ययन
मुख्य रूप से दो प्रकार की जातियाँ थी एक आर्य क्षत्रिय वैश्य तथा शूद्र ये चार वर्ण थे । प्रथम और सस्कारहीन तथा सदाचरण से दूर रहनवाले को
१ जन आगम साहित्य म भारतीय समाज जैन २ कम्मुणा बम्मणो होइ कम्मुना होइ खत्तिओ । वहस्से कम्मुणा होइ सुद्दो हवइ कम्मुणा ||
३ उवहसन्ति अणारिया
रमए अज्जवयणं मित वय बममाहण । चरिता बम्म मारिय ।
युग में दूसरी अनार्य और ब्राह्मण सदाचरण करनेवाले को आर्य अनाय कहा गया है । आर्यों के
जगदीशचन्द्र पू २२१ ।
उत्तराध्ययन २५/३३ ।
वही १२।४ ।
वही २५।२ ।
वही १८/२५ ।
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पांच भेद -क्षेत्रमा वाति मा कुल बार्य कर्म मार्य भाषा बार्य । उस समय पाश्रम व्यवस्था भी थी। गृहस्वाधम को उत्तराध्ययन में घोराम कहा गया है। बाकी तीन मात्रमों का उल्लेख सीधे कप में दृष्टिगोचर नहीं होता है। प्रत्येक वर्ष और आश्रमवालों के कार्य भिन्न थे।
उत्तराध्ययनसूत्र में और सामान्यरूप से प्राचीन जैन-साहित्य में विभिन्न वर्गों जातियों आदि के विषय में निम्न प्रकार की सामग्री प्राप्त होती है१ ब्राह्मण
चारों वर्षों में ब्राह्मणों की प्रमुखता थी। अधिकांश ब्राह्मण जैनषम के विरोधी ये अत जैनधर्म में ब्राह्मणों की अपेक्षा क्षत्रियों को श्रष्ठता प्रदान की गयी । तीयंकर भत्रिय-कुल में ही उत्पन्न होते है। इसी कारण महावीर को देवानन्दा साह्मणी के गम से त्रिशला क्षत्रियाणी के गर्भ में परिवर्तित किया गया। लेकिन उत्तराध्ययनसूत्र में कही भी ब्राह्मणों को भत्रियो से निम्नकोटि का नही बताया गया है। अपितु उसे वेदवित यज्ञार्थी ज्योतिषांग विद्या के ज्ञाता और धमशास्त्रों के पारगामी स्वात्मा और पर के आत्मा का उद्धार करने का अपने म सामथ्य रखनेवाला सबकामनाओ को पूर्ण करनेवाला तथा पुण्यक्षेत्र आदि विशेषणो से अलकृत किया गया है। आगम साहित्य म अनेक स्थानों पर श्रमण और ब्राह्मण शब्द का प्रयोग एक साथ किया गा है जिससे यह भी प्रतीत होता ह कि दोनों का समान रूप से आदरणीय स्थान था।
१ जैन आगम-साहित्य मे भारतीय समाज पृ २२१ । २ घोरासम चइत्ताणं ।
उत्तराध्ययन ९।४२ ॥ ३ निशीषणि ४८७ की चूणि आवश्यकचूणि १ ४९६ जन भागम-साहित्य म
भारतीय समाज पृ २२४ ।। ४ कल्पसूत्र २।२२ मावश्यकचणि प २३९ तुलनीय डॉ जी एस धुय कास्ट एण्ड क्लास इन इण्डिया १ ६३ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परि
शीलन ३९३ । ५ जेय वेयविक विप्पाजनटठा यजे दिया।
जोइ समविक जेय जेय पम्माण पारमा ।। जे समस्या समुत्तु पर अपाणमब य । तेसि अन्नमिणं देय मो मिक्स सम्बकामिय ।।
___ उत्तराध्ययन २५१७-८ तमा १२।१३ । ६ मावश्यकचणि १ ७३ तुलनीय संयुत्तनिकाय समगबाह्मणसूच २ १ १२९ ।
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२१ सिवान
उत्तराध्ययनसूत्र में ब्राह्मण के लिए माहम शम का उल्लेख है जिसका वर्ष ग. सुदर्शनलाल जैन ने 'मतमारो किया है। उस युग म ब्राह्मणो म यम-माग का प्रचलन था । वे अपने विद्याथियों के साथ इधर-उधर परिभ्रमण भी करते थे। उत्तरा ध्ययनसूत्र में भी विजयघोष ब्राह्मण के यज्ञ का उल्लेख है । जयघोष बार विजयघोष नाम के दो भाई थे। जयघोष मुनि बन गय । विजयघोष ने यज्ञ का आयोजन किया। मुनि जयघोष यज्ञवाट में भिक्षा लेने गये। यज्ञ-स्वामी ने भिक्षा देने से इन्कार कर दिया और कहा कि यह भोजन केवल ब्राह्मणों को ही दिया जायगा। तब मुनि जयघोष ने समभाव रखते हुए उसे ब्राह्मण के लक्षण बताये । भत्रिय
क्षत्रिय युद्ध-कला म निष्णात होते थे। प्रजा की रक्षा करना इनका परम कर्तव्य माना जाता था। उत्तराध्ययनसूत्र म एसे अनकश क्षत्रिय राजामो का उलेख
१ उत्तराध्ययन २५।१९ २ २१ २२ २३ २४ २५ २६ २७ २८ २९ ३४। २ उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन प ३९३ ।। ३ के एत्य खत्ता उवजोइया वा अज्झावया वा सह खण्डिएहिं ।
एय खु दण्डण फलेण हन्ता कण्ठम्मिधेतण खलेज्ज जोन ? ॥ अमावयाण वयणं सुणत्ता उद्धाइया तत्थ बहूकुमारा। दण्डेहि वित्तेहि कसेहि चेव समागया त इसि तालयन्ति ॥
उत्तराध्ययन १२।१८ १९ । ४ वही २५वा अध्ययन । ५ इषकार राजा-उत्तराध्ययन १४॥३ ४८ उदायन राजा-वही १८१४८ करकण्ड-वही १८१४६ ४७ काशीराज-वही १८०४९ केशव-वही २२। ६ ८ १ २७ ११।२१ कौशल राजा-वही १२॥२ २२ जय-वही १८॥४३ पणिभद्र-वही १८।४४ विमुख-वही १८०४६ ४७ नग्गतिवही १८४६ ४७ ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती वही १३वां अध्ययन भरत-वही १८३३४ भोगराज-वही २२३८ ४४ मधवा-वही १८३३६ मृगापुत्र-वही १९वां अध्ययन महापप-वही १८०४१ महावल राजा वही १८०५१ रचनेमी-वही २२॥३४-४ राम-वही २२।२ २७ बलभद्र-वही १९६१ २ वासुदेव-बही २२१-३ ७ विजय-नही १८५ श्रेणिक राजा-वही २।२ १ १४ १५ ५४ सगर-वही १८३५ सनत्कुमार-वही १८॥ ३७ सजय रामा-बही १८वा अध्ययन समुद्रविषय-ही २२१३ ३६ ४४ हरिषेण रामा-पही १८४२।
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समानता और विनिता:
मिलता है जोबन भवबादि का परित्याग कर दीक्षा लेकर मुक्ति को प्राप्त हो गये । राजा अपने भुषवल से देश पर शासन करता था। वह सर्वसम्पन्न व्यक्ति होता था। छत्र चामर सिंहासन बादि राज बिल थे। राजा का उत्तराधिकारी उसका ज्यष्ठ पुत्र होता था। यदि वह विरक हो जाता तो लघु पुत्र को भी राज्य-सिंहासन है दिया जाता था। राजकुमार यदि दुयसनो में फैस पाता तो उसे देश से निकाल दिया जाता था।
गृहपतियों को इन्भ श्रेष्ठी और कीटम्बिक नाम से भी पुकारा गया है। कितने ही गृहपति भगवान् महावीर के परमभक्त थे। उनके पास अपार धन-सम्पत्ति थी। वे खेती और व्यापार करते थे । व्यापार करने के कारण इन्हें वणिक भी कहा जाता था। उस समय व्यापार जहाजो के द्वारा भी चलता था। उत्तराध्ययन म कुछ ऐसे प्रसग मिलते हैं जिनसे यह पता चलता है कि ये लोग व्यापार करते हुए विदेश में शादी भी कर लेते थे तथा व्यापार-सम्बन्धी काम समाप्त हो जाने पर उस विवाहिता स्त्री को साथ लेकर अपने देश लौट आते थे। ये लोग ७२ कलामो का अध्ययन करते थे तथा नीतिशास्त्र में भी निपुण थे। ये लोग दोगुन्दक नामक देव के समान विघ्नरहित होकर सुखों का उपभोग करते थे। कौशाम्बी नाम की नगरी में निवास करनेवाले अनाथी मुनि के पिता अधिक धन का सवय करने से प्रभूतधनसत्रय माम से जाने जाने लगे। इससे पता चलता है कि ये लोग प्राय चतुर धनाड्य और विवेकशील
१ उत्तराध्ययन बृहवृत्तिपत्र ४८९ तथा २२।११ । २ वही सुखबोषावृत्तिपत्र ८४ तथा उत्तराध्ययनसूत्र
एक परिशीलन
उत्तराध्ययन २०१। वही २१०१ ३५।१४ ।
३ महावीरस्स भगवो सीसे सोउमहप्पणी ।। ४ चपाएं पालिएनाम सावए बासि वागिए। पिहुडे अवहरतस्स वाणियोदेह धूयर ।
त ससत्त पइगिज्म सदेसमहत्यिो ॥ ५ बावतरीकलामोय सिक्सिए नीइकोविए ।
तस्स रूपवइ भज्ज पिया आणइ रुविणीं । पासाए कीलए रम्मे देवो दोगुदगोजहा ।। ६ कोसम्बो नाम मपरी पुराणपुर भेयसी । प्रत्यगासी पिया मनापमयषण संचयो ।
वही २१॥३॥ बही २१॥६॥
यही २११७।
वही २१८.
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मम
और विभिन्नता २५
विभिन्न मासिक एक गोवावि
उत्तराध्ययनसूत्र में प्राप्त अनेक सन्दमों से यह ज्ञात होता है कि वर्गों के प्रति रिक्त बहुत सारी छोटी-छोटी उपजातियां भी थीं । जैसे-सवार 'भारवाहक कर्षक सारपि बढ़ई लोहकार ' गोपाल भण्डपाल चिकित्साधाय नाषिक और विविध प्रकार के शिल्पी मादि। इनके अतिरिक कुछ वर्गसकर बातियों का भी उल्लेख मिलता है जैसे बुक्कुस और श्वपाक ।
उत्तराध्ययनसूत्र म उपर्युक्त जातियों के अतिरिक्त गोत्रों कुलो और वशां मादि का भी उल्लेख मिलता है । गोत्रों में काश्यप गोतम गर्ग और वशिष्ठ कुलों में
१ हयमदद व वाहए।
उत्तराध्ययन ११३७ । २ अबले जह भारवाहए।
वही १ ॥३३॥ ३ पले सु बीयाइ ववन्ति कासगा। वही १२॥१२॥ ४ अह सारही विचिन्तेइ ।
वही २७७१५ तथा देखिए-वही २२।१५ १७ आदि । ५ वडढईहि दुमो विव।
वही १९६६ । ६ षवेडमुटिठमाईहिं कुमारेहिं अय पिव ।
ताडिओ कुटिटओ भिन्नो चुण्णिओ य अणन्तसो ॥ वही १९६६७ । ७ गोवालो भण्डवालो बाणहातब्बडणिस्सरो। वही २२१४६ । ८ वही। ९ उवट्टिया मे मायरिया विज्जा-मन्तति गगा। वही २ ।२२ । १ जोवो बुच्चा नाविमो।
वही २३१७३। ११ माहण भोइय विविहा य सिप्पिणो ।
वही १५।९। १२ महावीरेण कासवेण पवहए ।
वही २९ का प्रारम्भिक गद्य तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन १ ३९८ ३९९ ॥ १३ तहा मोत्तेण गोयमो। उत्तराध्ययन १८।२२ तथा २२।५ । १४ परे गणहरे मग्गे। वही २७१। १५ वासिटिठ ! भिक्खायरियाइ कालो। वही १४१२९ ।
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समानता और विभिन्नता २३५
ग्रहण करने लगता था तो उसके माता-पिता असह्य वेदना का अनुभव करते थे । कुछ माता-पिता ऐसे भी थे जो पुत्र के साथ ही साथ दीक्षा ग्रहण कर लेते थे । उत्तराध्य बमसूत्र के १४वें अध्ययन में प्राप्त भृगु पुरोहित की कथा से यह स्पष्ट होता है । मृगु पुरोहित के दोनों पुत्रो को जब साधुओं ने प्रतिबोध दिया वो उन्होने संयम लेने का निर्णय किया और माता-पिता को अपने इस निर्णय की सूचना दी। पहले तो माता पिता ने बहुत कुछ समझाया किन्तु जब देखा कि वे नहीं मान रहे हैं तो भृगु पुरोहित ने अपनी पत्नी यशा से इस प्रकार कहा --- जिस प्रकार वृक्ष अपनी शाखाओं से ही शोभा को प्राप्त होता है और शाखाओं के कट जान से उसकी सारी रमणीयता समाप्त हो जाती है उसी प्रकार पुत्रों के बिना मेरा इस घर में रहना अब ठीक नहीं है | जसे इस लोक म परों से रहित पक्षी सेना के बिना राजा एव जहाज के डबने से धनरहित वणिक अत्यन्त दुखी उसी प्रकार पुत्रो के अनेक प्रकार के कष्टों का अनुभव करना यह पता चलता है कि पुत्र और पति के रहना उचित नहीं समझती थी तथा इन लेती थी ।
रण म
होता है
बिना मुझे भी प्रस्तुत अन्य में प्राप्त सकेतों से
लेने पर पत्नी भी घर म सयम व्रत ग्रहण कर
पडगा । दीक्षा ग्रहण कर
दोनो के साथ ही
भाई भाई में अन् प्रेम होता था । पुरिमतालनगर के विशाल श्रेष्ठि-कुल में उत्पन्न चित्तमुनि पाँच पूवजन्मो में अपने भाई ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के साथ साथ उत्पन्न होता है परन्तु छठे जन्म में पथक पथक हो जाता है । पुन काम्पिल्यनगर म एक बार भेंट होने पर दोनो अपने सुख-दुख का हाल कहते हैं । ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती अपना वैभव चित्तमुनि को देना चाहता है लेकिन वह उसमें प्रलोभित नही होता है । वह ब्रह्मदत्त को उपदेश देता है लेकिन जब वह धर्मोपदेश का पालन नहीं करता तब वह अपना उपदेश व्यथ समझकर वहाँ से चला जाता है और कठिन तपस्या के द्वारा मुक्ति
१ पहीणपुतस्स हुनत्थि वासो वासिट्ठि | मिक्लायरियाइकालो । साहाहि रुक्लो लहए समाहि छिन्नाहि साहाहि तमेव खाण || पखबिहूणोवजह पक्खी भिच्चा बिहूणो वरणे नरिन्दो | विवन्नसारो वणिजन्य पोए पहीणपुत्तो मि तहा महपि ॥ उत्तराध्ययन १४/२९ ३ तथा उत्तराध्ययनसूत्र पृ ४ १४२ ।
२ पत्नेन्ति पुत्ताय पईय मज्झ तेह कह माजुगमिस्समेक्का ।
एक परिशीलन
उत्तराध्ययन १४१३६ ।
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समानता और विभिन्नता २३७
शरीर पर विलेपन करना एव पुष्पमाला आदि का पहनना इन सब वस्तुओं का परित्याग कर दिया था। परन्तु इतनो समवेदना प्रकट करने पर भी वह अपने पति को दुख से छुडाने म सफल न हो सकी। इस प्रकार ध्वनिरूप से कुलीन स्त्री के गुणों का भी वर्णन किया गया है । मादर्श नारी के रूप म परिवार म पतिव्रता नारी का प्रथम स्थान था। राजीमती इसी प्रकार स्त्रीजनोचित सवलपणों से युक्त थो। अर्थात् कुलीन
और सुशील स्त्रियो में जो गुण और लक्षण होने चाहिए वे सब उसमें विद्यमान थे। जिस समय राजीमती को पशुओ की दीनदशा को देखकर विवाह का सकल्प छोडकर अरिष्टनेमि के वापस लौटने और दीक्षा ग्रहण करने का समाचार मिला उस समय उसका सारा ही हष विलीन हो गया और शोक के मारे वह मच्छित हो गयी । लेकिन अरिष्टनेमि के महान् वैराय को बात सुनकर वह भी अनेक राजकयाओं के साथ दीक्षित हुई तथा ससार से विरक्त हो गयी। अत भारत का मुख उज्ज्वल करनेवालो रमणियो में राजोमती का स्थान विशेष प्रतिष्ठा को लिय हुए है । इस प्रकार बहुत सी सहचरियो को दीक्षा देकर और उनको साथ लेकर भगवान् अरिष्टनेमि को बन्दन करन के लिए वह रैवतक पवत पर जा रही थी। अचानक जोर को वर्षा न सभी को सुरक्षित स्थान खोजने के लिए विवश कर दिया । सब इधर उधर तितर बितर हो गयी। राजीमती एक गुफा में पहची जहाँ रणनेमि ध्यान में लीन खड थे। रघनमि ने राजी मती को देखा और सासारिक विषय भोगो का आनन्दपूर्वक सेवन करने की अभ्यथना की । तब राजीमती ने स्पष्ट कहा- रथनमि । मैं तुम्हारे ही भाई की परियक्ता है और तुम मुझसे विवाह करना चाहते हो ? क्या यह वमन किये को फिर चाटन के समान घणास्पद नही है ? तुम अपने और मेरे कुल के गौरव को स्मरण करो । इस प्रकार के अघटित प्रस्ताव को रखते हुए तुम्ह लज्जा आनी चाहिए। राजीमती की १ भारिया मे महाराय ! अणस्ता अणुव्वया ।
असुपुण्णहिं नयणहि उर मे परि सिंचई । अन्नपाण चव्हाण च गन्ध-मल्ल विलेवण । मएनायमणाय वा सा बाला नोवभगई ॥
उत्तराध्ययन २ ।२८ २९ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन पृ ४ ४ । २ पक्खदेवलिय जोइ धूमकेउं दुरासय ।
नेच्छन्ति वतय मोत्तु कुले जाया अगषणे ॥ घिरत्युतेजसो कामी ! जोत जीवियकारणा। वन्त इन्छसि बावेळ सेय ते मरण भवे ।।
उत्तराध्ययन २२४२४३ ।
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२४२ : बौद्ध तथा जैनधर्म
अनेकश
पक्षियो का उल्लेख मिलता
समुद्र -पक्षी ( जिनके पख
का भी प्रयोग किया जाता था। लेकिन ग्रन्थ में है जो पाले नही जाते थे यथा --- चमगादड हस चकवा सदा अविकसित रहते है और डबे के आकार सदश सदा ढके रहते है ) वितत पक्षी ( जिनके पंख सदा खले रहत है ) बकरे का प्रयोग मेहमान के भोजन के लिए किया जाता था । पशओ को कण ओदन और यवस ( मग उडद आदि धान्य ) दिये जाते थे । चावलों की भसी अथवा चावल मिश्रित भसी पुष्टिकारक तथा सअर का प्रिय भोजन था ।
भारतीय व्यापारी अ तर्देशीय व्यापार में दक्ष थे। व किराना लेकर बहुत दूर दूर तक जाते थे । चम्पा नगरी का वणिक पालित चम्पा से नौकाओं में माल भरकर रास्ते के नगरो म व्यापार करता हुआ पिहुण्ड नगर में पहचा। वस्तु को खरीदन और बेचनेवाले को वणिक वहा जाता था। व्यापार म कभी कभी मूलधन ही शेष बचता था । व्यापार करना मख्य रूप से वणिक का ही काय माना जाता था । यापारी अपना माल भरकर नौकाओ व जहाजो से दूर दूर देशो म जाते थे। कभी कभी तफान
१ नाहरम पक्खिणिपजरे वा ।
उत्तराध्ययन १४।४१ तथा १९/६३ आदि तथा उत्तराध्ययन सूत्र एक परिशीलन प ४१४ ।
२ चम्म उलोमपक्खीय तहया समुग्गपक्खिया । fareपक्खीयबोधव्वा पविखणो य चउविहा ॥
३ अयकक्करमोईय तदि ले चियलोहिए । आउय नरए कखे जहाएस व एलए |
४ ओयण जवस दे जापोसेज्जा विसयगण |
उत्तराध्ययन ३६।१८७ ।
वही ७७ ।
वही ७।१ ।
५ वही १।५ ।
६ वही २१।२ ।
७ विक्किणन्तोय वाणिओ ।
सूत्र एक परिशीलन प ४१८ ।
८ गोत्थ लहई लाभ एगो मूलेणआगओ ।
उत्तराध्ययन ७।१४ ।
९ एगोमलपि हारिता आगओ तत्य वाणिओ । वही ७।१५ २३।७ -७३ ॥
वही ३५।१४ तथा उत्तराध्ययन
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समानता और शिसिमता २४५
उत्सूलक
कन्याओ का अपहरण करनेवाले। लोमहार अत्यन्त क्रूर होते थे। वे अपने आपको बचाने के लिए मानवों की हत्या कर देते थे। प्रन्थि भेदक के पास विशेष प्रकार की कचियां होती थी जो गांठों को काटकर धन का अपहरण करते थे। नगर की सुरक्षा के लिए जो साधन काम में लिये जाते थे उनमें से कुछ के नाम प्रस्तुत सूत्र म मिलत है - प्राकार
घलि अथवा इटो का कोट । गोपुर
प्रतोलीद्वार या नगरद्वार । अट्टालिका प्राकार कोष्ठक के ऊपर आयोधन स्थान अर्थात् बुज ।
खाइयाँ या ऊपर से ढके गर्त । उस युग म प्राय साम्राज्य को विस्तृत करने की भावना से युद्ध हुआ करते थे। युद्ध म विजय-वैजयन्ती फहराने के लिए रथ अश्व हाथी और पदाति ये अत्यन्त उपयोगी होते थे। युद्ध म घोडो का भी अत्यन्त महत्त्व था। वे तेज तर्रार होत थे। शत्रु सेना म घुसकर उसे छिन्न भिन्न कर देत थे। घोड अनक किस्म के होते थे। कम्बोज देश के आकीण और कम्यक घोड प्रसिद्ध थे। माकीण की नस्ल ऊंची होती थी और कथक पत्थर आदि के श द से भी भयभीत नही होते थे। युद्ध मे हाथी की अनिवाय आवश्यकता रहती थी। हाथी भी अनक जातियो के होत थे। गन्धहस्ती सर्वोत्तम हस्ती था। उसके मल-मूत्र म इतनी गध होती थी कि उससे दूसरे सभी हाथी मदोन्मत्त हो जाते थे। वह जिपर जाता सारी दिशाए गप से महक उठती थी।
उस समय यन में अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग होता था जिनका नामोल्लेख प्रस्तुत सूत्र में हुआ है-असि शत्पनी करपत्र ककच कुठार कल्पनी
उत्तराध्ययन ७५
१ अन्नदत्तहरे तेणेमाई कण्हहरेसढे। २ पागार कारइत्ताण गोपुरट्टालगाणिय उस्सूलग ।
१८ तथा ९२-२२।
३ हयाणीए गयाणीए रहाणीए तहेव य । पायन्ताणीए महया सव्वोपरिवारिए ।
वही १८।२। ४ वही ११॥१६॥ ५ मत पगन्धहत्यि वासुदेवस्स ।
नही २२१ ।
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२४६ । बौद्ध तथा जनवर्ग
गदा त्रिशूल क्षुरिका भल्ली पट्टिस मुसण्डी मुद्गर मूशल शूल अंकुश वावित्र लोहर आदि ।
उतराध्ययन में दास को भी एक काम-स्कन्ध माना गया है । उसका अर्थ है कामना पूर्ति का हेतु । चार काम स्कम्प ये हैं
१ क्षेत्र-वास्तु
२ हिरण्य
३ पशु और ४ दास पौरुष ।
भमि और गृह । सोना चाँदी रत्न आदि ।
जिस प्रकार क्षत्र-वास्तु हिरण्य और पशु क्रीत होते थे । इनका क्रोत सामग्री के रूप में उपयोग स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त नही था ।
होते थे उसी प्रकार दास भी क्रीत किया जा सकता था । दासो को
1
।
वह युग धार्मिक मतवादो का युग था । बाह्य वशों और आचारों के आधार पर भी अनेक मतवाद प्रचलित थे । आदिकाल के मानव ऋजु - जड थे । अर्थात भगवान ऋषभ के समय के मानव सरल प्रकृति के तो थे किन्तु उन्हें अथ-बोध बहुत कठिनाई से होता था । विनीत होने पर भी विवक की कमी थी प्राज्ञ थे । सरल होने के साथ बद्धिमान भी थे। उनके दोनों का सामजस्य था । किन्तु महावीर-युग के मानव वक्र जड थे । अर्थात् कुतक करनेवाले तथा विवेक से हीन थे । जन जन के मन में धम के प्रति निष्ठा प्रतिदिन कम होती जा रही थी । हिंसा झठ लट-पाट चोरी मायाचारी शठता कामासक्ति नादि-ग्रह में आसक्ति मद्य मास भक्षण पर दमन अहकार लोलपता आदि दुगण
मध्यकाल के मानव ऋजुजीवन में विनय और विवेक
बही १९५६ ।
१ असीहि अयसिवण्णाहि भल्ली हिपट्टि सेहि य । उत्तराध्ययन १९।५५ ३८ । अवसोलोहरह जुत्तो जलन्ते समिलाजुए । मुग्गरेहि मुसदीहि सुलेहि मुसलेहिय । तवनारायजुतेण भेत्तूण कम्मक चुय ।
वही १९।६१ ।
वही ९।२२ ।
वही १९।६२ ।
खुरेहि तिक्खधारेहि छरियाहि कप्पणीहिय ।
तथा इसके लिए देखिए - वही ३४।१८ १९/५७ २११५७२२/१२ २ ।४७ २७।४-७ आदि ।
२ खेत्त वत्थ हिरण्णं च पसवो दास-पोरस |
चत्तारि काम खन्धाणि तत्य से उववज्जई ॥
वही ३।१७ । ३ पावदिट्ठी उ अप्पाण सासं दासव मन्नई । वही १।३९ ।
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२४८ पौड समानधर्म
इस प्रकार हम देखते हैं कि उस समय जाति और वर्ण के माधार पर सामाजिक समठन था। जात-पात की बीमारी बहुत बढ़ी-चढी हुई थी। शूद्रो की स्थिति अत्यन्त बयनीय थी। सर्वत्र उनका निरादर होता था । ब्राह्मणो का प्रभुत्व था। वषम के नाम पर हिंसा को प्रोत्साहन दे रहे थे । वे वेदो के वास्तविक रहस्य को नही जानते थे। क्षत्रिय और वश्यो के पास बहुत धन था। क्षत्रिय प्रजा का पालन करते और भोग विलासो म भी निमग्न रहते थे तथापि कुछ क्षत्रिय राजा जैन-दीक्षा भी लेते थे। वैश्य भारत म ही नही अपितु विदेशो में भी व्यापार हेतु जाते थे।
परिवार म माता पिता का स्थान सर्वोपरि था । परिवार के पालन-पोषण का दायित्व पिता पर था । पुत्र के प्रति सभी का स्वाभाविक स्नेह था। उसके बिना घर सूना-सूना था। पिता की मृत्यु के पश्चात वही परिवार का ध्यान रखता था। उसके दीक्षा लेने पर माता पिता को कष्ट होना स्वाभाविक था । नारियो की स्थिति भी ग भीर थी। वह भोग विलास की साधन मानी जाती थी । पुरुष जसा पाहता वसा कठपुतली की तरह उसको नचा सकता था परन्तु कितनी ही नारियां नर से भी आग थी वे पुरुषो का भी प्रतिबोष देती थीं। विवाह की प्रथा भी उस समय प्रचरित थी। पुत्र
और पुत्रियो के अधिकांश सम्बन्ध पिता ही निश्चित किया करता था। स्वयवर और गधव विवाह की प्रथा भी उस समय प्रचलित थी। बह विवाह भी होते थे। कभी व्यापार के लिए विदेश म जानवाले वही पर विवाह कर लेते थे। कुछ दिन घरजमाई भी रह जाते थे। विवाह का कोई निश्चित नियम नही था किन्तु सुविधा के अनुसार विवाह कर लेते थे। किसीके मर जाने पर उसका दाह-सस्कार करने का प्रचलन था । दाह सस्कार प्राय पिता या पुत्र किया करता था।
आजीविका के लिए या युद्ध आदि के लिए पशु और पक्षियों का पालन किया जाता था । हाथी घोडा गाय बल आदि प्रमुख थे । भोजन मे धी दूध दही मिष्टान्न फल अन्न मुख्य था। कुछ लोग मास और मदिरा का भी उपयोग करते थे। क्षत्रिय लोग युद्ध म निपुण होते थे। वे चतुरगिणी सेना के साथ युद्ध करते थे। विविध प्रकार के अस्त्र और शस्त्र का भी उपयोग होता था । वैश्यो के साथ कभी-कभी उनकी पलियाँ भी समुद्र-यात्रा करती थी।
समाज में सुख और शाति का संचार करने के लिए शासन-व्यवस्था थी। शासन का अधिकार क्षत्रियो के हाथों में था। शासन करनेवाला व्यक्ति राजा के नाम से अभिहित किया जाता । वह देश की उन्नति का ध्यान रखता था। कभी-कभी अधिकार के नशे में पागल बनकर अपन कतव्य को भी वह विस्मृत हो जाता था। शत्रुयो का सदा भय बना रहता था।
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समानता और बिमिलता : २४९
चोर और डाकुमों का भी उपद्रव था उन्हें पकड़कर दण्ड देने के लिए न्याय व्यवस्था थी। अपराध के अनुसार दण्ड दिया जाता था। कभी-कभी अपराधी को मृत्युदण्ड भी दिया जाता था । वध-स्थान पर ले जाते समय अपराधी को एक निश्चित वेश भूषा धारण करवाकर नगर म घुमाया जाता जिससे अन्य लोग इस प्रकार का अपराध न करें।
मानव की प्रवृत्ति त्याग-वैराग्य से हटकर भोग विलास को पोर अधिक थी। सन्तगण उन्हें सदा उद्बोषित करते रहते । अनेक धार्मिक दाशनिक सम्प्रदाय थे। इन सबम श्रमण और ब्राह्मणों का आधिपत्य था। श्रमगो के त्याग-वैराग्य और उग्र तप का सवत्र स्वागत होता था। राजा भी उनके कोप से डरते थे। चारों वणवाले जैन श्रमण होते थे किन्तु क्षत्रिय और ब्राह्मण अषिक थे।
इस तरह उत्तराध्ययन में समाज और संस्कृति का जो सामान्य चित्रण मिलता है वह तत्कालीन अय ग्रन्यो का अवलोकन किए बिना पूर्ण नही कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त उत्तराध्ययन के मख्यत धार्मिक अथ होने से तथा किसी एक काल विशेष की रचना न होने से इसम चित्रित समाज व संस्कृति से यद्यपि किसी एक काल विशेष का पूर्ण चित्र उपस्थित नही होता है फिर भी तत्कालीन समाज एव सस्कृति की एक झलक अवश्य मिलती है।
इस तरह दोनों ग्रन्थों का सूक्ष्म अवलोकन करने पर पता चलता है कि तत्कालीन समाज-व्यवस्था की एक झलक इनमें अवश्य मिलती है। यह निश्चित है कि उस समय समाज चार वर्णो म विभक्त था जाति-प्रथा का जोर था ब्राह्मणो का आधिपत्य था प्रजा पनसम्पन्न पी शद्रों की स्थिति चिन्तनोय यो नारी विकास की ओर कदम उठा रही थी तथा धार्मिक एव दानिक मतान्तर काफी थे। गौतम बुद्ध एव महावीर स्वामी के कारण इनम महत्त्वपूर्ण सुधार हुए और इन्हें नवीन प्रेरणा भी मिली।
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ग्रन्थ सूची
अंगुतरनिकाय सम्पा आर मोरिस ई हार्डी एवं मेवेल हष्ट पालि
टेक्स्ट सोसायटी लन्दन १८८५-१९१ सम्पा मिक्ष जगदीश काश्यप नालन्दा १९६ हिन्दी अनुवाद अनु वादक भदन्त मानन्द कौसल्यायन कलकत्ता ई स
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५ दलसुख मालवणिया बनारस १९५३ ।
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२५२ । बौद्ध तथा जनधर्म
उदान
उत्तर वदिक समाज एव
संस्कृति
ए हिस्ट्री ऑफ दि कैनो निकल लिटरेचर
उत्तर प्रदेश में बौद्धधर्म का डॉ नलिनाक्ष दत्त तथा श्रीकृष्णदत्त बाजपेयी लखनऊ
विकास
१९५६ ।
ए कम्प्रीहेंसिव हिस्ट्री ऑफ जनिज्म
ऐन आउटलाइन आफ अर्ली
बुद्धिज्म
ऐक्सपेक्टस आफ अर्ली
जैनिज्म
ऋग्वेद
कल्पसूत्र
कथावत्थ
कमग्रन्थ
कास्ट एण्ड क्लास इन इण्डिया
कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया खुद्दकनिकाय भाग १
खुद्दक पाठ
गौतमबुद्ध
सम्पा
सम्पा
चुल्लवग्ग चूलनिद्देश
जातक
सैन्याल पालि टेक्स्ट सोसायटी लन्दन १८८५
मिक्ष जगदीश काश्यप नालन्दा १९५९ ।
विजय बहादुर राव वाराणसी १९६६ ।
एच आर कापडिया सूरत १९४१ ।
ए के चटर्जी कलकत्ता १९७८ ।
डॉ अजयमित्र शास्त्री वाराणसी १९७५ ।
डा जयप्रकाश सिंह वाराणसी १९७२ । प्रका श्रीपाद सातवलेकर भारत मुद्रणालय ओन्व
नगर १९४ ।
बम्बई १९३८ ई सिवान १९६८ ई ।
भिक्ष जगदीश काश्यप देवनागरी सस्करण १९६१ ।
( कम विपाक ) देव द्र सूरि श्री आत्मानन्द जन पुस्तक
प्रचारक मण्डल २४४४ ।
श्री जी एस घुय न्ययाक १९५ । रॅप्सन दिल्ली १९५५ ।
ई जे
सम्पा भिक्षु जगदीश काश्यप नालन्दा १९५९ ।
भिक्षु धमरत्न सारनाथ १९५५ ।
आनन्द के कुमार स्वामी एव आई बी व्हानर, सूचना प्रकाशन विभाग देहली ।
सम्पा
भिक्ष जगदीश काश्यप नालन्दा १९५६ ।
सम्पा भिक्षु जगदीश काश्यप नालन्दा १९५९ । भदन्त आनन्द कौसल्यायन हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग बुद्धाब्द २४८५ ।
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जातककालीन भारतीय
संस्कृति
जातिभेद और बुद्ध
जैन-आचार
जन-दशन
जैन- दशन
जन दशन
जन दशन मनन और
मीमासा
जनधम
जनधर्म का प्राण
जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज
जन-दर्शन म आत्मविचार
जैनवम की एतिहासिक रूपरेखा जन-साहित्य का इतिहास ( पव पीठिका )
जैन साहित्य का बृहद्
इतिहास भाग २ जैन साइकोलाजी
वियोगी मोहनलाल महतो पटना विक्रमाब्द २ १५ /
भिक्षु धर्मरक्षित सारनाथ १९४९ ।
मोहनलाल मेहता वाराणसी १९६६ ।
न्याय forest taeद्राचाय जन सभा पाटन सन् १९५६ ।
महेन्द्रकुमार न्यायाचाय गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला
वाराणसी सन् १९५५ ।
मोहनलाल मेहता सम्मति ज्ञानपीठ आगरा १९५९ ।
मुनि नथमल राजस्थान १९६२ ।
प कैलाशचन्द्र शास्त्री भा दि
जैनसघ मथुरा
सुखलाल सघवी सस्ता साहित्य मण्डल दिल्ली
१९६५ ।
वी नि स २४७४ ।
प
-सूची २५३
जगदीशचन्द्र जैन वाराणसी १९६५ । लालचन्द्र जैन वाराणसी १९८४ ।
डॉ झिनक यादव वाराणसी १९८१ । कैलाशचन्द्र शास्त्री गणशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला वी मिस २४८६ |
डॉ जगदीशचंद्र जन वाराणसी १९६६ । मोहनलाल मेहता जैनधम प्रचारक समिति अमृतसर १९५५ ।
जैन बोस और गीता के
आचार-दर्शनो का तुलनात्मक अध्ययन भाग १ एव २ जैन स्वकलिका जैनधर्म का मौलिक इतिहास
भाग १
डॉ सागरमल जैन राजस्थान १९८२ । सम्पा अमरमुनि पजाब १९८२ । हस्तीमल जैन
जयपुर १९७१ ई
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पपरी २५५ हिन्दी अनुवाद अनुवादक राहुल सांकृत्यायन सारमाष
१९३६ । वीपवंश
सम्पा मोल्डेनवर्ग लन्दन १८७९ । दीपवश एण्ड महावश विल्हेल्म गायगर कोलम्बो १९ ८। दशवकालिक
आत्मारामकुत हिन्दी टीकासहित महेन्द्रगढ़ वि सं.
१९८९ । धम्मपद
सम्पा एस एस घेर पालि टेक्स्ट सोसायटी लन्दन १९१४ नारद महायेर कलकत्ता १९७ नालन्दा देकनागरी सस्करण अग्रेजी अनुवाद अमवादक एफ मक्सम्यूलर सेक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट जिल्द १ (भारतीय संस्करण ) दिली १९६५ एस राषा कृष्णन मद्रास १९६१ हिन्दी अनबाद भिक्ष घमरक्षित मोतीलाल बनारसीदास ततीय सस्करण १९८३ सम्पा भवन्त आनन्द कौसल्यायन सारनाथ बुखान्द २४८४ अवधकिशोर नारायण महाबोधि अन्यमाला वि स
१९९५ । बम्मपद अटठकथा बुद्धघोष सम्पादित एच सौ नामन और एल एस
तैलग ५ जिल्दो म सम्पन्न पालि टेक्स्ट सोसायटी लन्दन १९ ६-१५ अग्रेजी अनुवाद बुद्धिस्ट लीजेण्ड ई डब्ल्य बलिनगेम फैम्बिज १९२१ मिक्ष धमरक्षित ( अप्रकाशित ) धर्मानन्द नामक स्थविर तथा ज्ञानेश्वर स्थविर दारा सिंहली लिपि में सम्पादित कोलम्बो
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देवेन्द्रमुनि शास्त्री आगरा १९६७ । धर्म और समाज प सुखलाल सपबी बम्बई १९५१ । नन्दिसूत्र
मुनि हस्तीमलजी द्वारा सम्पादित जैन बागम ग्रन्थमाला। नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक अध्ययन
पुलाम मुहम्मद याहया को वाराणसी १९८३ । निशीपचूमि विणवास गणी सन्मति मानपीठ बागरा सन् १९५७ ।
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________________ 17 प्रम-बी 257 बोरथम-दशन आचार्य नरेद्रदेव पटना 1956 / पौवषम के मूल सिसात भिक्षु धमरक्षित वाराणसी 1958 / बौखषम-दर्शन तथा साहित्य भिक्षु धर्मरक्षित वाराणसी 1956 / बोडचा विधि भिक्ष अमरमित सारनाथ 1956 / बौखयोगी के पत्र भिक्ष अमरक्षित सारनाथ 1956 / बौख-दर्शन तथा अन्य भार तीय वर्शन भाग 1 तथा 2 भरतसिंह उपाध्याय कलकत्ता वि स 211 / बौद्ध दशन मीमासा आचाय बलदेव उपाध्याय वाराणसी तृतीय सस्करण 1978 / बौद्ध साहित्य की सांस्कृतिक झलक परशुराम चतुवदी इलाहाबाद 1958 / बोड-सस्कृति का इतिहास डॉ भागच द्र जन भास्कर नागपुर 1972 / भगवतीसूत्र आगमोदय समिति बम्बई 1921 ई / भगवान गौतमबुद्ध डॉ विद्यावती मालविका वाराणसी 1966 / भगवान बद्ध आचाय धर्मान द कौशाम्बी बम्बई 1956 / भगवान महावीर शोभनाथ पाठक भोपाल 1984 / भारतीय दशन उमेश मिश्र लखनऊ 1964 / भारतीय दशन भाग 1 एव 2 डॉ एस राधाकृष्णन् दिली 1973 / भारतीय दशन बलदेव उपाध्याय वाराणसी 1945 / भारतीय दशन वाचस्पति गैरोला लोक भारतीय प्रकाशन द्वितीय सस्करण 1966 / भारतीय दशन नन्दकिशोर देवराज इलाहाबाद 1941 / भारतीय दशन सतीशचन्द्र चट्टोपाध्याय एव धीरेन्द्रमोहन दत्त पन्ना 1961 / भारतीय दशन में मोक्ष डॉ अशोककुमार लाड भोपाल 1973 / भारतीय दर्शन की रूपरेखा एम हिरियन्ना दिली 1973 / भारतीय संस्कृति म जैनधम का योगदान डॉ हीरालाल जैन भोपाल 1962 / भारतीय संस्कृति और साधना भाग 2 गोपीनाप कविराज पटना 1963 /